“महल की दीवारें जब चुप होती हैं, तो अतीत की आवाजें बोलने लगती हैं, जिसका असर खून के रिश्तों में कड़वाहट भर देता है।”
राजघराना महल की अगली सुबह बाकी दिनों से अलग थी। हवा में सन्नाटा घुला हुआ था, और हर कोना जैसे बीते राज़ों की राख ओढ़े बैठा था। गजेन्द्र की रिहाई ने जहां कुछ चेहरों पर चैन की छांव और खुशी की लहर बिखेरी थी, तो वहीं कई चेहरों पर बेचैनी के बादल और भी गहरे हो गए थे।
रिया के हाथ से गजेन्द्र उस ब्लैक ड्राइव को लेकर सीधे महल के हॉल की ओर बढ़ रहा था। उसकी पीछे-पीछे रिया थी, गजेन्द्र जितनी तेजी से अपनी मर्दाना चाल चल रहा था, रिया उतनी ही तेजी से उसके पीछे भाग रही थी। राज राजेश्वर की बोई चाल की कड़वाट का असर साफ नजर आ रहा था। दोनों किसी भी एंगल से प्रेमी नहीं बल्कि दो योद्धा लग रहे थे, जो एक दूसरे से बदला लेना चाहते हो। दोनों के बीच की चुप्पी झकझोर देने वाली थी।
दूसरी ओर, गजराज सिंह अपने कमरे में अकेला बैठा अपने बिस्तर के सिरहाने पड़ी एक पुरानी तस्वीर को एकटक बस निहारे जा रहा था। उस तस्वीर में था छोटा मुक्तेश्वर घोड़े पर बैठा, और पास ही खड़ा था गजराज सिंह — जिसके चेहरे पर एक पिता होने का गर्व और अपने बच्चें के साथ बिताये खुशहाली के पल उस तस्वीर में कैद थे। तभी अचानक से किसी की दस्तक हुई और धीरे से गजराज के कमरे का दरवाजा खुला।
प्रभा ताई, यानि गजराज की बेटी अंदर आईं। पिता के हाथ में उस तस्वीर को देख प्रभा ताई के चेहरे पर ना तो गुस्सा था, ना ही लालच… मानों जैसे उनमें भी अपने छोटे भाई मुक्तेश्वर के लिये प्रेम की भावना आज उफान पर थी। ऐसे में उसके चेहरे पर सिर्फ एक अजीब-सी थकान थी, जो किसी रिश्ते के ढह जाने से आती है। वो अपनी भावना को संभालती है और पिता के हाथ से उस तस्वीर को धीरे से अपने हाथों में लेकर कहती है- “पिताजी, आपको वो दिन याद है, जब मैं बारह की थी, और मुक्तेश्वर भैया आठ साल का? उस दिन उसने आपकी तलवार छू ली थी और आप क्रोधित होने के बजाय उसकी पीठ थपथपा कर बोले थे — 'ये बच्चा नहीं, मेरा वारिस है वारिस...।'”
गजराज ने नज़रें नहीं उठाईं, लेकिन उनके होंठ थरथराने लगे, और वो कांपती हुई आवाज में बोला- “उस दिन को कैसे भूल सकता हूं प्रभा, वो पहली बार था, जब मैंने मेरे बेटे मुक्ति को अपना वारिस कहा था।”
“अच्छा वो छोड़िये… ये बताइये, आपको वो दिन याद है… जब मुक्ति भैया ने रात को खाना नहीं खाया, सिर्फ इसलिए कि आप दिल्ली से लौटते वक्त उसके लिये मिठाई लाना भूल गये थे? और आपने उसी रात, आधी रात को घोड़ा मंगवाया और दस कोस दूर जाकर उसकी पसंदीदा बर्फी लेकर आये...? उस रात आप इतना थक गए थे, कि दो हफ्ते तक आपके पैर सूजे रहे थे।”
ये सुन गजराज के हाथ काँपने लगे। आँखें अब भी तस्वीर पर टिकी थीं, लेकिन अब वो तस्वीर नहीं, बीते सालों की धुंध में कहीं गुम था, जब उसका और उसके बेटे मुक्ति का रिश्ता बहुत मजबूत था। और तभी प्रभा ताई ने अपने पिता गजराज को वो दिन याद दिलाया, जिस दिन सब बिखर गया और मुक्तेश्वर और गजराज के बीच एक लंबी कड़वाहट की दीवार खड़ी हो गई।
“फिर एक दिन आपने ही अपने सगे बेटे, अपने सबसे लाड़ले मुक्ति को दो राहों पर खड़ा कर दिया — और उसके आगे शर्त रख दी कि या तो वो अपने प्यार को भूल जाये या फिर आपके नाम और सिंह खानदान की सत्ता का अभिमान छोड़ दे और आपने कहा, चुनो…। आप अच्छे से जानते थे मुक्तेश्वर कभी पैसों और सत्ता का भूखा नहीं था, फिर भी...”
ये सुनते ही 70 साल का गजराज फूट-फूट कर रोने लगा- “हाँ! मैंने गलती की… मैंने मुक्तेश्वर को खो दिया, और बदले में क्या पाया? ये सूनी दीवारें? ये चिल्लाती हुईं साजिशें?”
पिता को इस तरह फूट-फूट कर रोते देख प्रभा ताई ने उनके कांपते कंधे पर हाथ रखा और बोलीं— “अब भी देर नहीं हुई, पिताजी। अपने बेटे को गले लगाकर उस गलती को मिटा दीजिए, जो अंजाने में हुई। और साथ ही उस दिन के लिये माफी मांग लीजिये जब आपने रेस फिक्सिंग केस में उन पर यकीन नहीं किया।”
जहां एक तरफ प्रभा ताई अपने पिता और भाई के बीच की दूरी को कम कर रही थी, तो वहीं दूसरी ओर…
गजेन्द्र ने रामू काका को कह पूरे राजघराना परिवार को हॉल में इकट्ठा होने को कहा, राज राजेश्वर भी वहीं था — उसकी आंखों में घबराहट साफ नजर आ रही थी, लेकिन रिया भी काफी घबराई हुई गजेन्द्र के पीछे ही खड़ी थी।
तभी गजेन्द्र ने ब्लैक ड्राइव लगाई। टीवी स्क्रीन पर वो वीडियो सामने आ गया, जिसमें साफ दिख रहा था कि राज राजेश्वर उस लड़की को पैसों से भरा एक बैग देकर कह रहा था- “बस कोर्ट में कहना कि गजेन्द्र ने तुम्हें धोखा दिया, तुम प्रेगनेंट हो… और रो देना, बाकी सब मैं संभाल लूंगा।”
उस वीडियो के साथ ही सन्नाटा टूट गया, दूसरी ओर गजराज सिंह प्रभा ताई का हाथ पकड़ खुद खड़े हो गए और बोले — “मुझे मुक्तेश्वर के पास ले चलों बेटी प्रभा… मैं आज उसके और अपने बीच की दूरी खत्म करना चाहता हूं।”
गजराज के बूढ़े पैर थरथरा रहे थे, लेकिन इस बार उनकी चाल में झिझक नहीं थी। इसके बाद जैसे ही वो मुक्तेश्वर के पास पहुंचे, धीरे से बोले — “मुक्तेश्वर…” उनकी आवाज़ रुंधी हुई थी, “मैंने तुझसे बेटे का नहीं, वारिस का बर्ताव किया, मैं बस तुझे अपने वारिस की ही नजर से देखता रहा। कभी तेरे नजरिये को नहीं समझा। बीस साल पहले जो शर्त मैंने रखी थी, वो एक पिता की नहीं, एक राजा की ज़िद थी… लेकिन अब मैं सिर्फ बाप हूं। अपने बूढ़े बाप को माफ कर दे मुक्ति…”
अपने बूढ़े पिता को पैरों में गिरा देख मुक्तेश्वर की आंखें भर आईं और उसने उनके दोनों कंधे पकड़े और उठाते हुए बोला— “आपने मेरा बेटा मुझसे छीनने की कोशिश की थी, पिताजी। लेकिन शायद आप भी किसी मजबूरी के बंदी थे।”
दोनों बाप-बेटे गले मिल गये। महल में वर्षों से छिपी कड़वाहट और गर्मी, दोनों ठंडक और आंसुओं की धार से जैसे पिघलने लगी थी। तभी दोनों को राजघराने के हॉल से चीखने-चिल्लाने की आवाज सुनाई दी, दोनों भागकर वहां पहुचें तो देखा….राज राजेश्वर के चेहरे पर अब कोई रंग नहीं था। वो बौखलाया हुआ गजेन्द्र और रिया पर चीख रहा था— “ये नाटक है! ये सब ड्रामा है! मैं ही हूं इस महल का असली वारिस।”
गजेन्द्र ने आगे बढ़कर कहा— “वारिस वो होता है जो विरासत को बचाए, मिटाए नहीं। और तुमने तो सिर्फ धोखा दिया है — परिवार को, पिता को, और इस खानदान के इतिहास को। और अब तुम उस लड़की के साथ मेरे नाजायज रिश्तों की डोर बांध मुझे बदनाम करना चाहते थे। इतनी गंदी चाल? भतीजा हूं मैं आपका, कोई दुश्मन नहीं...।”
ये सुनते ही राज राजेश्वर कुछ बोलने ही वाला था कि मुक्तेश्वर ने एक सख्त आवाज़ में कहा— “राज राजेश्वर, अगर अब भी तुम्हारे अंदर बची-कुची शर्म बाकी है, तो इस महल से बाहर निकल जाओं। तूने सिर्फ मुझे नहीं, मेरे बेटे की इज्ज़त को भी दांव पर लगाया है। बेशर्मी की हर हद पार कर चुके हो तुम...”
अपनी पोल खुलने के बाद राज राजेश्वर चुपचाप पीछे हटा, और दरवाजे की ओर बढ़ गया। उसका सिर झुका हुआ था, लेकिन जाते-जाते वो पलटा और गजेन्द्र को घूरता हुआ बोला— “ये कहानी अभी खत्म नहीं हुई… मैं फिर लौटूंगा...जल्द”
जैसे ही राज राजेश्वर गया, गजेन्द्र ने रिया की ओर देखा, उसकी आंखों में पश्चाताप था, आंखे शर्म से झुकाकर वो रिया के पास गया और उसके हाथों को अपने हाथ में लेकर बोला- “रिया... मुझे माफ कर दो। एक पल को मैंने भी शक किया...वो भी उस इंसान पर, जिसने हर मुश्किल में मेरा साथ दिया। मैं इतना कमजोर कैसे पड़ गया? प्लीज मुझे माफ कर दों।”
रिया मुस्कराई, मगर उसकी आंखें नम थीं। वो कुछ कहती या गजेन्द्र को माफ करती… उससे पहले ही गजराज सिंह ने अपने पुराने वसीयतनामा के कागज़ों को सबके सामने फाड़ दिया और ये ऐलान कर दिया कि- “अब मेरे राजघराने की राजगद्दी का वारिस सिर्फ और सिर्फ मुक्तेश्वर ही होगा। और इसके बाद ये सत्ता गजेन्द्र के हाथों में जायेगी।”
भीड़ में खड़े सारे नौकर-चाकर सभी जोर से तालियां बजाते है। सबकी आंखों से आंसू बह रहे थे, क्योंकि उन सबकी पसंद हमेशा से न्याय पंसद मुक्तेश्वर ही था।
महल की दीवारों में आज पहली बार साजिशों की नहीं, रिश्तों की आवाज़ गूंज रही थी। तभी गजेन्द्र ने दुबारा रिया की तरफ देखा और बोला- “बोलो रिया… तुमने मुझे माफ किया या नहीं? सच कहता हूं मैं भविष्य में ये गलती फिर कभी नहीं दोहराउंगा? प्लीज बस इस बार माफ कर दो...।”
रिया मुस्कराई, मगर उसकी आंखें नम थीं और बोलीं- “तुम्हारा शक तुम्हारा डर था, गजेन्द्र। लेकिन अब जब सच सामने है, तो हम दोनों फिर एक हैं… हमेशा की तरह। और मुझे लगता है इस हादसे ने हमारे रिश्तें को और मजबूत कर दिया है।”
ये सुनते ही जहां गजेन्द्र हंसकर उसे गले लगा लेता है, तो वहीं मुक्तेश्वर और गजराज दोनों शर्म से नजरे झुकाये वहां से चले जाते है। जिसके बाद रिया और गजेन्द्र... दोनों के बीच एक सुकून भरा सन्नाटा पसरा, मगर अगले ही पल दरवाजे पर एक साया नजर आया है— ये कोई और नहीं वही गजराज की नाजायज बेटी — रेनू थी, वो चुपचाप महल के अंदर आती है। उसके हाथ में एक पुराना लिफ़ाफा था।
“माफ कीजिए,” उसने धीरे से कहा— “मैं इस घर में सिर्फ अपने हक के लिए नहीं आई थी। मैं एक राज़ लेकर आई हूं, बता दूं ये राज़ आप लोग की सोच से भी बड़ा है।”
रेनू के चिल्लाने की आवाज सुन मुक्तेश्वर वापस वहां आता है और चौंकते हुए पूछता है— “कौन-सा राज़?”
रेनू ने वह लिफाफा खोलकर एक पुराना अस्पताल रिकॉर्ड और एक फोटो निकाली — उस फोटो में थी एक औरत… मुक्तेश्वर की पत्नी ‘जानकी’, लेकिन उसके साथ कोई और भी खड़ा था।
गजेन्द्र ने आगे बढ़कर फोटो को गौर से देखता है। धुंधली तस्वीर में भी वो उस शख्स को पहचान जाता है। उसकी सांसें रुक सी जाती है— वो कांपती आवाज में कहता है— “ये तो... ये... राज राजेश्वर है?”
ये सुन मुक्तेश्वर बुरी तरह कांप उठता है, रेनू की आंखों में आंसू थे, लेकिन शब्द बहुत साफ़ थे— “गजेन्द्र… तुम्हारी मां की मौत एक एक्सीडेंट नहीं थी। वो... एक साज़िश थी। और उस साजिश में तुम्हारे चाचा राज राजेश्वर अकेले नहीं थे।”
ये सुन जहां मुक्तेश्वर हिल गया, तो वहीं रिया सन्न रह गई और गजेन्द्र की आंखों में खून उतर आया। रेनू ने आगे जो कहा, वो सुन सभी दंग रह गए— “देखो इस अस्पताल रिकॉर्ड में है वो इलाज जो तुम्हारी मां करवा रही थी — और साथ ही दर्ज है एक जबरन दिए गए इंजेक्शन की डिटेल…वहीं डॉक्टरों का कहना है कि तुम्हारी मां को इसी इंजेक्शन की वजह से हार्ट अटैक आया था।”
रेनू के बताये एक-एक सच के साथ मुक्तेश्वर की आंखों के सामने अब पूरी तस्वीर सामने साफ होने लगी थी। ऐसे में वो अपना आपा खो बैठा और गुस्से में चिल्लाकर बोला— इसका मतलब राज राजेश्वर ने सिर्फ जायदाद की लड़ाई नहीं लड़ी थी। उसने एक मां को मारा, एक बेगुनाह बेटे को जेल भेजा, और एक पिता को बरसों तक अपराधबोध में जलाया।
अपने पिता की बात सुन गजेन्द्र कांपती आवाज़ में बोला— “अब मैं खून का बदला लूंगा… कानून से, सच से… और सबसे पहले उस कुर्सी से जो इस सारे खेल की वजह बनी थी।”
पोते और बेटे दोनों में बदले की भावना देख गजराज टूट गया और उसी वक्त बेहोश होकर औंधे मुंह जमीन पर गिर गया, जिसके बाद गजेन्द्र ने तुरंत अपने दादा को उठाया और कार में बैठा सीधे सीटी अस्पताल पहुंच गया। लेकिन जैसे ही वो अपने दादा गजराज सिंह को डॉक्टर के पास वार्ड के अंदर ले जाने लगा। गजराज ने उसे वहीं पर रोक लिया और कुछ ऐसा कहा, जिसे सुन गजेन्द्र का गुस्सा सांतवें आसमान पर पहुंच गया और वो ना चाहकर भी गजराज को अस्पताल में अधमरी हालत में अकेला लावारिस छोड़कर वहां से चला गया।
मत कर, बेटा गजेन्द्र ऐसा मत कर। मैं तेरा दादा साहेब हूं… मुझे ऐसे मौत के मुंह में धकेल कर मत जा मेरे पोते… रुक जा…।
आखिर ऐसा क्या कहा गजराज ने जिसे सुन गजेन्द्र अपने दादा को मौत के मुंह में अकेला छोड़कर राजघराना वापस लौट आया?
क्या रेनू के दिखाये सारे सबूत सच थे और सच में राज राजेश्वर ही गजेन्द्र की मां जानकी का असली कातिल था?
या फिर गजराज की नाजायज बेटी खेल रही थी कोई घिनौना खेल?
जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग।
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