रात की काली चादर में लिपटी राजघराना हवेली की छत पर इस वक्त गजेन्द्र की गूंजती चीख सन्नाटे को चीर देती है— “रिया!! रिया आंखें खोलों… मैं तुम्हें कुछ नहीं होने दूंगा।”

गजेन्द्र, रिया के खून से लथ-पथ शरीर को थामे वहीं बैठ गया। उसके दोनों हाथ, कपड़ें सब खून से सन चुके हैं, चेहरे पर डर और गुस्सें की लकीरें एक साथ घूम रही थी। ऐसे में वो अपनी पूरी जीन-जान लगाकर चिल्लाया….

“कोई है! डॉक्टर को बुलाओ! किसी को बुलाओ… रिया… रिया, मेरी तरफ देखो। रिया प्लीज आंखे मत बंद करना रिया...!”

गजेन्द्र की आवाज सुन रिया की पलके कभी ऊपर, तो कभी नीचे की ओर झपकती है और उसके होंठ बुदबुदाते हैं, “ग…गद्दी… नहीं… खून… सच्चाई…”

और फिर उसकी आंखें धीरे-धीरे बंद होने लगती हैं। उसी पल महल के अंदर दौड़ते कदमों की आवाजें तेज हो जाती हैं। गजेन्द्र सर उठा के देखता है, तो विराज, मुक्तेश्वर और राज राजेश्वर एक साथ उसकी तरफ भागते हुए आ रहे थे। रिया को खून से लथपथ बेहोश जमीन पर पड़ा देख तीनों की सांसे उनके मुंह को आ जाती है और तभी मुक्तेश्वर कांपती हुई आवाज में घबराहट लिए पूछता है। 

"गजेन्द्र! क्या हुआ? ये खून… रिया को क्या हुआ? बोल बेटा..."

गजेन्द्र गुस्से में चिल्लाते हुए जवाब में कहता है— “किसी ने उसे गोली मार दी, और मैं तब से चिल्ला रहा हूं, कोई डॉक्टर नहीं आया अभी तक!”

तभी राज राजेश्वर रिया के करीब आता है और धीरे से उसकी नब्ज़ जांचता है और बोलता है— "जिंदा है… कमजोर है, लेकिन सांस चल रही है। गाड़ी निकालो, अभी इसी वक्त अस्पताल जाना होगा!"

गजेन्द्र रिया को गोद में उठा सीधे कार में बैठ जाता हैं। इसके बाद विराज कार स्टार्ट कर उसे सिटी अस्पताल की तरफ दौड़ा देता है, जहां पहुंचते ही डॉक्टर्स रिया को हालत देख उसे इमरजेंसी वार्ड में ले जाते हैं। 

डॉक्टर की पूरी टीम ऑपरेशन थियेटर में रिया को बचाने की जुगत में लगी होती हैं। वार्ड के बाहर गजेन्द्र खामोश बैठा, उसकी आंखें एकटक दरवाजे पर है, तभी विराज आता है और उसके कंधे पर हाथ रखते हुए धीरे से कहता है, “हम सब तुम्हारे साथ हैं गजेन्द्र….रिया को कुछ नहीं होगा।”

जवाब में गजेन्द्र सिर्फ इतना कह पाता है— “वो बस मुझे देखकर मुस्कराई… और फिर… फिर मेरी गोद में लहूलुहान हो गई... और मैं कुछ नहीं कर सका विराज, कुछ नहीं।”

दूसरी ओर महल में मुक्तेश्वर और राज राजेश्वर, रिया पर हमला करने वाले की तालाश शुरु कर देते है और तभी राजेश्वर कहता है, "ये कोई सामान्य हमला नहीं था। किसी को डर है कि रिया सच के करीब पहुंच चुकी थी।"

तुम सहीं कह रहे हों, लेकिन ये हो कौन सकता है…? खैर ये जो भी है, ये जानता है कि हमारे घर की अंदरुनी नींव कमजोर है… और हम इस हमले को लेकर अपनों पर ही शक करने में अटक जायेंगे, जिसका फायदा उठाकर वो फरार हो जायेगा।

जहां एक तरफ रिया अस्पताल में जिंदगी और मौत की जंग लड़ रही थी, तो वहीं महल में मुक्तेश्वर और राज राजेश्वर रिया पर हमला करने वाले की तालाश कर रहे थें। दूसरी ओर महल में होने के बाद भी इन सब बातों से अंजान-बेखबर गजराज सिंह लाइब्रेरी के अंधेरे कमरे में अकेला बैठा था। उसकी आंखों में भारीपन और वो गहरी सोच में डूबा था, कि तभी उसके कमरे का दरवाजा खुलता है और एक चीखती हुई आवाज उसके कानों में पड़ती है।

“आखिर आप चाहते क्या है, क्यों एक-एक कर पहले मुझसे और अब मेरे बेटे से उसकी खुशियां छीन रहे हैं आप…? आखिर क्यों?” 

मुक्तेश्वर के आरोप सुन गजराज भड़क जाता है और काफी सख्त लहजे में पलटकर कहता है— "मैंने रिया पर हमला नहीं करवाया, मुक्तेश्वर। लेकिन अगर वो गोली असल में उसके लिए नहीं, किसी और के लिए थी, तो...?"

अपने पिता का बिना कुछ कहे उसके बेटे को मारने का ये कुबूलनामा सुन मुक्तेश्वर आग बबूला हो गया, "क्या मतलब? जो कहना है साफ-साफ कहिये..."

जवाब में इस बार गजराज साफ और सीधे शब्दों में कहता है— "कभी-कभी शिकार वही बनता है जो असली शिकार के सबसे पास खड़ा हो, और तब शिकारी का निशाना चूक जाता है। वैसे सच कहता हूं रिया पर मैंने हमला नहीं करवाया।"

मुक्तेश्वर अपने पिता की बात का मतलब समझ जाता है, लेकिन वो बिना सबूत चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता। वहीं दूसरी तरफ रिया के तीन घंटे चले ऑपरेशन के बाद डॉक्टर ऑपरेशन थिएटर से बाहर आते हैं। उन्हें देखते ही विराज और गजेन्द्र दोनों भागकर डॉक्टर के पास जाते है और उम्मीद भरी नजरों से उन्हें देखते है। 

"वो होश में है, लेकिन बहुत कमजोर है। फिलहाल किसी एक को ही मिलवाया जा सकता है।"

ये सुनते ही गजेन्द्र रिया के पास पहुंच जाता है। कदमों की आहट मिलते ही रिया की आंखें धीरे-धीरे खुलती हैं और वो काफी दर्द भरी आवाज में कहती है— "मैं… ज़िंदा हूं?"

ये सुनते ही गजेन्द्र की हंसी छूट जाती है और वो रिया को छेड़ते हुए कहता है, "तुम लड़ाकू हो रिया, तुम्हें कुछ नहीं होगा। बस अब ये बताओं…क्या तुमने देखा था किसने गोली चलाई?"

रिया तुरंत जवाब देती है, “नहीं… लेकिन एक परछाई दिखी थी... और हां उसके हाथ में एक चिट्ठी भी थी, क्योकिं जब तुम मदद के लिए सबको बुलाने गए तब वो मेरे पास आया था। उसके चेहरे पर नकाब था लेकिन हाथ में एक चिट्ठी भी थी, जो कुछ ऐसी थी… जैसे किसी ने अपने खून से लिखी हो!”

गजेन्द्र रिया की ये बात सुनते ही चौंक जाता है— “क्या?? खून की चिट्ठी? पर किसकी? और वो शख्स था कौन? उसने तुम्हें क्यों गोली मारी?”

एक तरफ गजेन्द्र अपने ही सवालों के घेरे में उलझा हुआ था, तो वहीं दूसरी ओर रिया ने बिलकुल धीमे से कहा, “तुम अपनी मां जानकी की उस आखरी चिट्ठी को भूल रहे हो...। याद है ना, उन्होंने मरने से पहले कुछ लिखा था… गद्दी, साजिश, नाम…वो अभी भी मेरे पास मेरी अलमारी में है। बता दूं कि वो चिट्ठी मुझे जानकी आंटी के ट्रंक में मिली थी…”

अपनी मां के अतीत के पन्नों का जिक्र सुन गजेन्द्र का चेहरा सख्त हो जाता है और वो काफी गुस्से भरे लहजे में कहता है, "तो इस हमले का निशाना तुम नहीं...मैं था, और उनका मकसद मुझे डराना था… ताकि मैं उस चिट्ठी तक ना पहुंचूं!"

इसके बाद रिया जानकी के संदूक से मिली एक-एक चीज के बारे में उसे डिटेल में बताती है। दरअसल गजेन्द्र को उस संदूक के बारे में इसलिए नहीं पता था, क्योंकि जब रिया और गजराज की नाजायज बेटी रेनू सबूतों की तालाश में महल के कोने-कोने की जांच कर रहे थे, उस वक्त उन्हें एक तहखाने में दीवार के पीछे गाड़ा गया गजेन्द्र की मां जानकी का वो संदूक मिला था।
 
रिया से संदूक के बारे में सुनने के बाद गजेन्द्र विराज को अस्पताल में रिया के पास छोड़कर सीधे राजघराना महल लौट आया, जहां वह अपने पिता मुक्तेश्वर के कमरे में पहुंचते के साथ अपनी मां का वो संदूक दिखाने की जिद्द करता हैं। गजेन्द्र के गुस्से को देख मुक्तेश्वर भी उसे चुपचाप उसकी मां का सामान रखे उस गुप्त तहखाने में ले जाता है, लेकिन जैसे ही वो वहां पहुंचता है, वो कमरे और संदूक की हालत देख चौक जाता है…

दरअसल ट्रंक का ताला टूटा हुआ था और उसके अंदर कुछ नहीं था… लेकिन ट्रंक को चारों तरफ से देखने पर उन लोगों को उसके तह के नीचे एक कागज़ का टुकड़ा चिपका मिला है, जिस पर लिखा था— “जिस दिन मैं नहीं रहूंगी, उस दिन इस चिट्ठी को देखना मुक्तेश्वर। मेरी ये चिट्ठी इस महल की बर्बादी है।”

ये पढ़ते ही गजेन्द्र कांपते हाथों से उस चिट्ठी के दूसरे हिस्से को खोलता है और उसे आगे पढ़ना शुरु करता है।

"प्रिय मुक्तेश्वर… अगर तुम ये चिट्ठी पढ़ रहे हों, तो समझ जाना कि मेरी मौत एक हादसा नहीं, एक साजिश थी। मैं जानती थी कि मेरी जांच-पड़ताल और सवाल किसी को रास नहीं आ रहें। मैंने उन कागज़ात की तस्वीरें ले ली थी, जिनमें रेस फिक्सिंग से लेकर राजघराने की गद्दी के असली उत्तराधिकारी का नाम दर्ज था।

वो कोई और नहीं… हमारा बेटा है। हाँ, बेटा गजेन्द्र है...जिसे मैंने चंद दिनों पहले जन्म दिया है। दरअसल तुम्हारे परदादा हंसराज सिंह ने अपनी मौत से पहले तुम्हारी औलाद के नाम ये राजघराना की गद्दी की थी...और ऐसा उन्होंने अपने पुश्तैनी पंडित की भविष्यवाणी के बाद किया था। इसलिए मैं तुम्हें और अपने बेटे को इन लोगों से सुरक्षित रखने के लिए अपनी जान की बाजी लगा रही हूं...अब मेरा बस एक ही सपना है- अपने बेटे और उसके बचपन को इस घर के लोगों से सुरक्षित रखना।

ये पढ़ते-पढ़ते गजेन्द्र की आंखों से आसुओं की धारा बहने लगी, लेकिन फिर भी वो खुद को संभालता है और चिट्ठी को आगे पढना जारी रखता है…

मुक्तेश्वर मेरे बेटे को इस राजघराना महल के लोगों की परछाई से भी दूर रखना, वरना ये लोग उसे मार डालेंगे। और तुम भी इस महल की गद्दी से दूर रहना...क्योंकि वो ये खेल समझ चुके थे कि तुम दोनों को मारेंगे तभी गद्दी उनकी होगी। और हां तुम्हारे पिता गजराज सिंह… वो बस कठपुतली बने रहे, खुद को राजा बनाने के लालच में अपने बेटे और पोते दोनों को मार देना चाहते है। मेरी सौगंध है तुम्हें मुक्तेश्वर… गद्दी से पहले सच्चाई और अपनी औलाद को चुनना।"

मां की वो चिट्ठी पढ़ जहां गजेन्द्र टूट गया, तो वहीं मुक्तेश्वर भी सदमें में आ गया। इसके बाद दोनों तिलमिलाते हुए सीधे गजराज सिंह के कमरे में पहुंचे, जहां जाते ही लात मारकर गजेन्द्र ने दरवाजा तोड़ दिया।

"अब कोई परदा नहीं बचेगा दादाजी। ये देखिए… जानकी मां की चिट्ठी! आपकी सारी चाले खुल चुकी है..."

गजेन्द्र अपनी बात पूरी करती उसे पहले ही मुक्तेश्वर चिल्लाया— “जिसे तुमने मारकर दबाने की कोशिश की, आज वही तुम्हें जेल भेजेगी। बहुत नफरत थी ना मेरे गरीब बीवी से पिताजी, इसलिए उसे इतनी दर्दनाक मौत दी आपने…”

आज मुक्तेश्वर को अपनी बीवी की मौत का असली सच पता चल गया था, ये जानकर गजराज सिंह डर से कांपने लगा और बोला— “सच कहता हूं मुक्तेश्वर... मैंने जानकी को नहीं मारा था। मैं उससे डरता था, नफरत नहीं करता था। हाँ, मैं जानता था कि वो कुछ जान गई है, लेकिन…”

गजराज अपनी सफाई में आगे कुछ कहता उससे पहले गजेन्द्र आंखे दिखाता हुआ अपने दादा के ठीक सामने आकर खड़ा हो गया, “लेकिन क्या? क्या किसी और ने मारा उन्हें...? बताइये!”

गजेन्द्र का सवाल सुन गजराज घबरा गया। आवाज उसके गले के अंदर ही दब गई और वो धीरे से बोला— "उस रात राजघराना महल में परिवार के लोगों के अलावा सिर्फ एक आदमी था, जिसे जानकी के सच को बाहर लाने की आदत से नफरत थी…वो था राघव भौंसले। वही था जिसने जानकी को आखिरी बार देखा था…"

राघव भौंसले का नाम सुन मुक्तेश्वर का खून खौल उठता है और वो चिल्लाकर कहता है— “वो कमीना राघव भौंसले… पहले उसने मेरी बीवी को मारा और अब मेरे बेटे को भी मेरी तरह रेस फिक्सिंग के केस में फंसाकर जिंदगी भर जेल में सड़ाने के सपने देख रहा था। उसकी तो मैं जान ले लूंगा।”

एक तरफ मुक्तेश्वर और गजेन्द्र… राघव भौंसले से जानकी की मौत का बदला लेना था, तो वहीं दूसरी ओर गजेन्द्र के रेस फिक्सिंग केस में हुए रिकॉर्डिंग के खुलासा में वो पहले से जेल की सलाखों के पीछें बंद था, लेकिन चौका देने वाली बात ये थी… कि वो वहां दुखी होने के बजाये खुश था… और नई चाल चलने की तैयारी कर रहा था और खुद से ही बातें कर रहा था।

“जानकी? हाँ, उसे मारा मैंने… क्योंकि वो बहुत कुछ जान चुकी थी। और अब तुम सब भी जानते हो… लेकिन फर्क क्या पड़ता है? तुम लोग राजघराना हो, लेकिन मैं सत्ता हूं… और सत्ता कभी सच्चाई से डरती नहीं!”

राघव भौंसले आगे क्या करने वाला था, ये सबके लिए किसी शैतानी चाल से कम नहीं था। ऐसे में गजेन्द्र राघव भौंसले को जेल में ही सबक सिखाने की प्लानिंग करता है और मुक्तेश्वर अपने बेटे का साथ देनें की ठान लेता है। इसी बीच गजेन्द्र का फोन बजता है…

“हैलों गजेन्द्र, जल्दी अस्पताल आओं… रिया तुमसे बात करना चाहती है।”

विराज की ये बात सुनते ही गजेन्द्र फोन कांटता है और तुरंत रिया से मिलने सीटी अस्पताल पहुंचता है, जहां वो देखता है कि विराट, रिया के साथ खड़ा है। रिया की हालत बेहतर है और वो उसका हाथ पकड़ उसे चलने में मदद कर रहा है। रिया और विराज के बीच की नजदिकियां देख गजेन्द्र को एक बार फिर जलन का एहसास होता है। क्योंकि गजेन्द्र चाहकर भी अपने दिमाग से ये बात निकाल नहीं पा रहा कि रिया और विराज कभी एक-दूसरे से सगाई कर चूके थे… भले ही शादी ना हुई हो, लेकिन दोनों कुछ वक्त के लिए एक रिश्तें में बंधे थे।

तभी गजेन्द्र दोनों के पास आता है और विराट के हाथों से रिया के हाथों को पकड़ लेते हैं।

“रिया, मैंने मेरी मां की वो चिट्ठी पढ़ ली… और अब मेरी लड़ाई इस गद्दी से नहीं… उस सत्ता से है जिसने मेरी मां को मारा, और हमें एक-दूसरे से अलग किया। लोकिन हां, मुझे वो खून की चिट्ठी वहां नहीं मिली… तुम पर हमला करने वाला उसे लेकर भाग गया।”

ये सुन रिया ने गजेन्द्र को समझाया और उसका साथ देने का वादा किया— “तो चलो गजेन्द्र… अब वो लड़ाई शुरू करें, जो खत्म नहीं होगी किसी मुकुट या सिंहासन पर… बल्कि इंसाफ ही उसकी आखरी छोर होगा...।”

राजघराना अब सिर्फ एक खानदानी कहानी नहीं… साज़िश, सच्चाई और सत्ता की जंग बन चुका है। 

 

ऐसे में अब गजेन्द्र और राजघराना की ये जंग आगे कौन सा मोड़ लेती है? 

गजेन्द्र अपनी मां का बदला लेकर इस लड़ाई में जीतता है या झूठ और फरेब के हाथों उसकी मौत होती है...?

जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग। 

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