इंस्पेक्टर राजवीर की टीम, होम-स्टे में तलाशी लेकर खाली हाथ जैसे ही बाहर आने लगी, एक सिपाही ज़ोर से चीख़ पड़ा। शायद उसको झाड़ियों के बीच कुछ मिला था।  

राजवीर और बाकी सभी सिपाही उस सिपाही की तरफ़ भागे। वहां पहुंचने पर उस सिपाही के हाथ में एक कागज़ देखा जो बिलकुल ख़ाली था. राजवीर ने हैरानी और ग़ुस्से में उससे पूछा,

 

“ये खाली कागज़ हाथ में पकड़-कर क्यों चीख़ रहे हो? क्या है इसमें?”

 

सिपाही ने एक कैमरा राजवीर को दिया और उससे कागज़ देखने का इशारा किया। राजवीर ने जैसे ही कैमरे पर अपनी आंख लगाकर देखा, तो उसमें लिखा हुआ पढ़कर उसकी आँखें चमक गयी. राजवीर के चेहरे पर मुस्कान आ गयी थी. उसने कागज़ फ़ोल्ड किया और अपनी जेब में रखते हुए बोला, “हमने केस सॉल्व कर लिया, चलो अब यहाँ से”. सिपाही हैरानी से राजवीर की तरफ़ देखते रहे लेकिन उसने कागज़ का राज़ किसी सिपाही को नहीं बताया।  

 

राजवीर और उनकी टीम उस रहस्यमयी होम-स्टे से वापस आ चुकी थी और उधर अंकित और श्रुति, उस विला की ओर बढ़ रहे थे जहां कुछ दिनों पहले आर्यन और अन्नू आये थे और फिर यहां से ज़िंदा वापस नहीं जा पाए थे, लेकिन अंकित और श्रुति इस जगह की ख़ौफ़नाक सच्चाई से अनजान थे।  

जैसे ही अंकित और श्रुति गाड़ी से उतरे, उनके सामने खड़ा था बिल्कुल शांत और बेहद  खूबसूरत होम स्टे। बाहर फिर से वही दिल मोह लेने वाला सुकून और अजीब सी ख़ामोशी। 4 दिनों में ही उस होम स्टे में कुछ बदलाव आ गए थे। दीवारों पर चढ़ी बेलें और चारों तरफ फैली गुलाब की महक ने उन्हें और भी मोह लिया था।  

श्रुति : "अंकित, देखो ये जगह कितनी प्यारी है! बिल्कुल एक पुरानी रोमांटिक फिल्म के सेट जैसी।"

अंकित: "हाँ, वाकई। मुझे तो लगता है जैसे हम किसी सपने में हैं।"

अंकित और श्रुति ने एक-दूसरे की ओर देखा, और उनकी मुस्कान से यह साफ था कि यह जगह उन्हें बहुत पसंद आ गई थी। ऐसा लग रहा था मानो यह जगह उनके लिए ही बनी हो। जैसे ही वे विला के दरवाजे पर पहुंचे, अजय, जो विला का केयरटेकर था, उनका स्वागत करने के लिए बाहर आया।

अजय : "हैलो सर, हैलो मैडम! स्वागत है हमारे होम-स्टे में। उम्मीद है कि आप यहां का आनंद लेंगे।"

वे लोग जैसे ही अंदर गए, विला के सामने एक बड़ा बगीचा था, जिसमें दूर तक फैले गुलाब के फूल अपनी महक फैला रहे थे। श्रुति की नजर उन पर गई, वो उन गुलाबों के फूलों को देखकर हैरान रह गयी थी। गुलाब पहले से और भी ज़्यादा बड़े, खूबसूरत और सुर्ख़ हो गए थे। उसने अंकित को इशारों में ग़ुलाब की बगिया में चलने को कहा,  

श्रुति : "अंकित, देखो ये गुलाब कितने खूबसूरत हैं! मुझे तो बगीचे में टहलने का मन हो रहा है। चलो न!"

अजय : "मैडम, उस बगीचे में मत जाइए। मैं आपको चेतावनी दे रहा हूँ, वहाँ जाना सेफ नहीं है।"

श्रुति : "क्यों, क्या हुआ? ये सिर्फ एक बगीचा ही तो है।"

अजय : "यहां पहले कई लोग आ चुके हैं, मैडम। जिनमें से कुछ वापस नहीं लौटे। उस बगीचे में मत जाइए... ये मेरी सलाह है।"

अजय ने ये बात बहुत सीरियस होकर कही थी, और एक मिनट के लिए अंकित और श्रुति को डरा दिया। उन दोनों ने उसकी बात पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया और आगे बड़ गए।  

उस होम-स्टे  के अंदर जाते ही वे दोनों चौंक गए थे, क्योंकि  विला देखने में जितना खूबसूरत लग रहा था उतना ही रहस्यमय भी था। बड़े-बड़े कमरे, लकड़ी के पुराने फर्नीचर और दीवारों पर लटके पुराने फ़ोटो। विला के हर हिस्से में एक पुरानी शान बसी हुई थी। अंकित और श्रुति ने अपने बैग रखे और विला का जायज़ा लेना शुरू किया।  

उनका रूम दूसरे फ्लोर पर था। वहां तक जाने के लिए खूबसूरत सीढ़ियां लगी  हुई थी। अजय ने उनको रूम दिखाया और निचे आ गया। जैसे ही अंकित ने दरवाज़ा  खोला, मन-मोह लेने वाली एक अजीब सी खुशबू से उन दोनों के चेहरे खिल उठे । दोनों ने रूम के अंदर इधर-उधर देखा, उनके पूरे रूम  में रहस्यमयी पेंटिंग्स लगी हुई थी। एक रूम में इतनी सारी पेंटिंग्स देखकर अंकित को थोड़ी हैरानी हुई, और उसने श्रुति से कहा,

अंकित - एक रूम के अंदर इतनी पेंटिंग्स कौन लगाता है? श्रुति तुम्हें कुछ अजीब नहीं लगा रहा?

श्रुति - लग तो मुझे भी रहा है और ये पेंटिंग्स थोड़ी अजीब भी है। कितनी उदासी है इनमें यार, इनको देखकर अच्छा ख़ासा इंसान डिप्रेशन में चला जाए, लेकिन फ़िलहाल मुझे बहुत नींद आ रही है अंकित, मुझे थोड़ी देर आराम करना है प्लीज़.  

वे लोग दिन में जो सोये तो सीधे शाम को उठे। शाम ढलते-ढलते कब अँधेरा हो गया समझ ही नहीं आया। माहौल में एक अजीब सी ठंडक फैल गई थी और विला के चारों ओर एक रहस्यमई सन्नाटा पसरने लगा, मगर अंकित और श्रुति ने इसे सामान्य समझकर नजरअंदाज़ कर दिया।

अंधेरे में, विला का शांत माहौल अचानक से बदलने लगा और दरवाजे के नीचे से हल्की-हल्की सरसराहट की आवाज़ आने लगी। यह आवाज़ इतनी धीमी थी कि पहले तो उन्होंने इस पर ध्यान नहीं दिया। जैसे-जैसे समय बीतता गया, यह आवाज़ तेज़ होती गई।

अचानक, एक तेज़ चरर की आवाज़ के साथ अचानक लॉक दरवाज़ा खुला और दीवार से टकराया। अंकित और श्रुति घबराकर उठ कर बैठे और श्रुति ने डरते हुए पूछा,

श्रुति : "अंकित... ये क्या हो रहा है? ये गेट तो लॉक था न? फिर कैसे खुल गया? और वो भी इतनी तेज़?

अंकित : "शायद मैं बंद करना भूल गया था... और हवा की वजह से खुल गया होगा"

अंकित जैसे ही दरवाज़ा बंद करने उठा. वो दरवाज़ा अपने आप ही बंद हो गया। अंकित इस बार चौंक गया था क्योंकि वहां कोई हवा नहीं चल रही थी। उसने दरवाज़ा लॉक किया और  

पलटा ही था कि दरवाज़े का हैंडल खुलने की आवाज़, पूरे कमरे में गूंज गयी। अंकित जल्दी से पलटा तो देखा, उस दरवाज़े का पुराने स्टाइल का हैंडल धीरे-धीरे-धीरे अपने आप ही खुलने लगा था।  

अंकित कांप गया था। वो चीख़ने ही वाला था कि हैंडल फिर से लग गया। सब कुछ शांत हो गया, लेकिन अंकित की साँसे अब तेज़ी से चलने लगी थी। उसने डरते-डरते थोड़ा सा दरवाज़ा खोला और बाहर झांककर देखा, वहां कोई नहीं था.  

श्रुति  - “अंकित इतना मत सोचो, कई बार डोर पर हवा के प्रेशर से भी लॉक खुलने लगता है”  

ये आवाज़ श्रुति की थी। अंकित को भी ऐसा ही लगा. उसने सारे खिड़की-दरवाज़े अच्छे से बंद किये, और जाकर सोने की कोशिश करने लगा, लेकिन अब नींद उन दोनों की आँखों से कोसों दूर थी.  

वे दोनों कमरे की लाइट ऑन रख के सोने की कोशिश में इधर-उधर करवट बदलते रहे। वे लोग जैसे ही करवट बदलते, उनकी नज़र कमरे में लगी उदास पेंटिंग पर पड़ती और वे फिर से अपना चेहरा घुमा लेते। रात और गहरी होती जा रही थी. विला को अजीब  सी ख़ामोशी ने जकड़ लिया था. और इसी तरह करवटें बदलते-बदलते दोनों नींद के आगोश में समा गए।  

धीरे-धीरे रात और गहरी होती जा रही थी. अचानक उनके कमरे की बत्ती बुझ गयी और विला में एक अजीब सी हलचल होने लगी। घबराहट के मारे श्रुति की नींद खुली और उसे अचानक ऐसा लगा जैसे उनके कमरे के कोने में कोई परछाई हिल रही हो।  

श्रुति डर से कांप गयी थी. उसने झट से रजाई ओढ़ी और अंकित को उठाने की कोशिश करने लगी। अंकित ऐसे सोया था जैसे कई रातों से सोया नहीं हो. श्रुति  की सांसे रजाई के अंदर ऊपर- नीचे हो रही थी, वो काफ़ी देर तक अपनी साँस रोके रजाई के अंदर छुपी रही, लेकिन अब उसे घबराहट होने लगी और उसने डरते-डरते, धीरे-धीरे रजाई से एक आंख निकालकर देखा, दीवार पर लगी पेंटिंस से अज़ीब-अज़ीब आकार के साये बाहर निकलकर नाच रहे थे।  

उनको देखते ही श्रुति, अचानक ज़ोर से चीख़ी। उसकी आवाज़ सुनकर अंकित हड़बड़ाकर उठा तो कमरे में एकदम अँधेरे में उसे कुछ दिखाई नहीं दिया। उसने अपने साइड में रखे मोबाइल की टॉर्च चलाकर देखा तो श्रुति  कांप रही थी। अंकित उसको देखकर घबरा गया, और जल्दी से उठकर श्रुति  की रजाई हटाई, श्रुति  कड़ाके की ठंड में भी पसीने से भीगी हुई थी और धड़कने बड़ी हुई थी। अंकित ने घबराकर श्रुति  से पूछा,  

अंकित  - श्रुति? क्या हुआ तुम्हें? तुम....... तुम इतनी घबराई हुई क्यों हो?  

श्रुति इतनी डरी हुई थी कि उसके मुँह से आवाज़ नहीं निकल पा रही थी। उसने एक हाथ से पेंटिंग्स की तरफ़ इशारा किया। अंकित ने तुरंत मोबाइल की टॉर्च उधर कि, लेकिन वहां कोई नहीं था।

​​आख़िर क्या था उन नाचते काले सायों का राज़? क्या अंकित और श्रेया पर मौत का पहरा मंडरा रहा था? या फिर था कुछ और? जानने के लिए पढ़ते रहिए। ​

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