रात 2:55 बजे –
राजघराना महल के ठीक सामने बना पुश्तैनी मंदिर, जिसे गजराज के परदादा नें बनवाया था। आज वहीं मंदिर गजराज के बेटे और पोते की जिंदगी की सबसे खौफनाक कहानी लिख रहा था।
रिया और प्रभा ताई को रोज की तरह आज एक बार फिर दीवार पर खून से लिखा खत मिला, जिसे पढ़ दोनों की सांसे उनके गले में अटक गई थी —
“मुक्तेश्वर सिंह...!”
ये नाम पढ़ते ही प्रभा ताई की कंपकंपाती चीख रिया के कानों में जोरदार हथौड़े के वार की तरह गूंज रही थी। रिया काँपती उंगलियों से अपने फोन पर मुक्तेश्वर का नंबर डायल करती है और दूसरी ओर मुक्तेस्वर के फोन उठाते ही डरी-सहमी आवाज में कहती है, “सर, आप कहां हैं? अभी के अभी महल लौट आइये… तुरंत! इस बार उस खूनी खत में आपका नाम लिखा है। मंदिर के सामने लाश की धमकी… और... और…”
इतना कहते-कहते अचानक से रिया की चीख सुनाई देती है और फोन अपने आप कट जाता है। रिया की चीख सुन मुक्तेश्वर परेशान हो जाता है और तुरंत पुलिस वालों से कहता है कि उसे अपने घर राजघराना वापस जाना है अभी के अभी...।
दूसरी तरफ मुक्तेश्वर सिंह की जेल के बाहर खड़ी जली हुई कार की पुलिस जांच पड़ताल कर रही होती है। पुलिस को शक होता है, कि शायद कोई मुक्तेश्वर को मार डालना चाहता है। क्योंकि कार के जलने के बाद से ड्राइवर भी गायब था…उस पर कार की बोनट पर खून से लिखा था —
"अब बाप मरेगा… फिर बेटा… फिर हवेली बचेगी अकेली।"
जहां एक तरफ मुक्तेश्वर पुलिस से बार-बार उसे जाने देने की गुहार लगाता है, तो वहीं दूसरी ओर उसके फोन पर एक अनजान नंबर से मैसेज आता है, जिस पर लिखा होता है—
“मैं लौट रहा हूं।”
उस मैसेज को पढ़ मुक्तेश्वर को कुछ समझ नहीं आता, ऐसे में वो उस पर ज्यादा ध्यान नहीं देता और अपनी आधी जली कार को पुलिस स्टेशन में छोड़ कैब से राजघराना लौट आता है। मुक्तेश्वर को राजघराना की दहलीज पर सही-सलामत जिंदा खड़ा देख प्रभा ताई की सांसों में सास आती है और रिया के चेहरे पर भी सुकून आ जाता है और एक-एक कर सभी अपने-अपने कमरे में सोने चले जाते हैं।
रोज की तरह अगले दिन सुबह 8:30 बजे राजघराना महल की लाइब्रेरी में बैठी रिया अखबार पढ़ रही थी, कि तभी उसका फोन बजा। दूसरी ओर फोन कॉल पर विराज था—
रिया मैंने कल राजघराना महल में जो कुछ हुआ वो सब सुना। देखों भूत, प्रेत, आत्मा ऐसा कुछ नहीं होता। उस महल में रहकर इतने दिनों में तुम ये तो जान गई हो कि वहां के लोगों की जिंदगी के कई राज़ ऐसे है, जो किसी आम इंसान की रूंह को कांपने पर मजबूर कर दे।
विराज की गोल-मोल बातें सुन रिया ने साफ सीधे शब्दों में कहा— "तुम कहना क्या चाहते हो विराज, साफ-साफ बोलो।"
“मैं कहना नहीं समझाना चाहता हूं तुम्हें रिया। भूलों मत तुम इस देश के चंद सबसे बोल्ड पत्रकारों में से एक हो। कभी तुम करोंड़ों लोगों के लिए इंसाफ की आवाज थी और आज जब खुद के लिये खड़े होने की बारी आई तो तुम इस तरह डर-डर कर जी रही हो।”
विराज के साथ आधे घंटे तक फोन पर चली बातचीत के बाद रिया ने मन बना लिया, कि वो अब अपनी दुनिया में वापसी करेगी। भले ही वो आज नहीं जानती कि आखिर उसका और उसका मां की मौत का उस महल से क्या नाता है, लेकिन वो अपने सारे सवालों के जवाब जानकर ही रहेगी।
"तुमने ठीक कहा विराज, अब गजेन्द्र जेल में है तो मैं अपनी जिंदगी की रक्षा के लिये ऐसे किसी पर भी निर्भर नहीं रह सकती। मुझे अपना हथियार खुद बनना होगा और खुद ही इस केस की बारिकी से जांच भी करनी होगी।"
रिया शर्मा का दिल अब पत्रकार नहीं, एक खोजी की तरह धड़क रहा था। वो जान चुकी थी उसका खोया हुआ आत्मविश्वास विराज की वजह से फिर लौट आया था। थोड़ी बहुत खोजबीन और जांच के बाद वो ये तो समझ गई थी, कि राजघराना महल के राज़ कहीं न कहीं उस महल के ही किसी कमरे में दफ़्न है।
राजघराना की उस पुश्तैनी लाइब्रेरी में रखी वो सैकड़ों पुरानी फाइलें पलटती है, कि तभी उनके बीच उसे एक धूल जमी किताब मिलती है। जिसके अंदर एक भूरे रंग का तह किया हुआ कागज पड़ा होता है। उस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था…
“गोपनीय वसीयत – महाराज गजराज सिंह”
रिया के होंठ थरथराते हैं, पर हाथ नहीं रुकते और वो एक-एक तह के साथ उसे आराम से खोलती है…
“यदि मेरे पुत्रों में कोई भी सत्ता के लिए रक्त बहाए या राजघराना के कुटुम्ब की मर्यादा को रौंदे, तो वह उत्तराधिकारी नहीं कहलाएगा। मेरा असली वारिस वही होगा, जो निष्ठा, न्याय और बलिदान के साथ सिंहासन को थामे।”
इतना ही नहीं उसमें आगे तो कुछ ऐसा लिखा था, जिसे पढ़ रिया के आंखें दो गुना चौड़ी हो गई थी….
“यह वसीयत कभी सार्वजनिक न की जाए जब तक... मौत खुद दरवाज़ा खटखटा न दे।”
रिया की आंखें फटी रह जाती हैं। उसे समझ आ गया था कि यही वो वसीयत थी जो पूरे राजघराने की नींव हिला सकती है। क्योंकि चाहे-अनचाहे राजघराना के हर वारिस ने उसमें लिखी शर्त को तोड़ा था।
रिया अभी हाथ में उस वसीयत के पेपर को लिये ये सब सोच ही रही थी कि तभी किसी के लाइब्रेरी में दस्तक देने की आवाज उसके कानों में पड़ी। वो भागकर एक अलमारी के पीछे जाकर छिप गई। लेकिन तभी उसने देखा कि वो जिस अलमारी के पीछे छिपी है, वो पैरों की आवाज उसकी तरफ ही बढ़ती जा रही थी। उस शख्स के बेहद करीब आ जाने के बाद वो उसे बिल्कुल पास से देखती है, तो उसका चेहरा देख डर से कांपने लगती है।
दरअसल ये कोई और नहीं बल्कि रिया की जान का सबसे बड़ा दुश्मन राज राजेश्वर होता है। लाइब्रेरी के अंदर राज राजेश्वर अकेला नहीं घुसता बल्कि उसके दो मोटे-मोटे सांड जैसे बॉडीगार्ड भी उसके दाई ओर बाई तरफ खड़े होते है।
रिया अलमारी के पीछे छिपी बड़े गौर से राज राजेश्वर को देखती है, तब उसे एहसास होता है कि उसके चेहरे पर आज भी वही घमंडी मुस्कान और आंखों में लालच झलक रहा था। तभी राज राजेश्वर जोर से चिल्लाता है और कुछ ऐसा कहता है, जिसे सुन रिया दंग रह जाती है—
“बहुत दूर तक पहुंच गई हो, रिया शर्मा… लेकिन बस अब इससे आगे नहीं जा पाओगी… क्योंकि, अब वक्त आ गया है तुम्हें समझाने का।”
इतना कह राज राजेश्वर हवा में एक कागज फेंकता है।
राजेश्वर का ये अंदाज़ देख रिया का चेहरा एकदम सफेद पड़ जाता है और उसे समझ नहीं आता कि छिपे होने के बावजूद भी आखिर उसने रिया को कैसे देख लिया। रिया तुंरत उस अलामारी के पीछे से बाहर आती है और दौड़कर उस कागज को उठाकर पढ़ना शुरु कर देती है।
जिसके बाद उसे समझ आता है कि वो कागज़ उसके परिवार के इतिहास की एक पुरानी पुलिस रिपोर्ट थी, जिसमें उसके दादा पर संगीन देशद्रोह का आरोप था, जो कभी साबित नहीं हो सका।
ये देख जहां रिया का तन-बदन कांपने लगता है, तो वहीं राज राजेश्वर झुककर उसके बेहद करीब आकर उसके कानों में फुसफुसाता है— “अगर एक और बार सिंह परिवार की हड्डियां कुरेदीं… तो मैं तुम्हारे परिवार की कब्र खुदवा दूंगा।”
ये सुनते ही रिया का गला सूख जाता है और वो धीमी आवाज में पलट कर जवाब देते हुए कहती है— “तुम्हें डर लग रहा है, इसलिए तुम धमकियां दे रहे हो। तुम्हें पता है कि अब मैं और गजेन्द्र दोनों ही तुम्हारे सच से ज़्यादा दूर नहीं है।”
रिया के इतना कहते ही राज राजेश्वर उसके गर्दन को अपने हाथों से दबोचना शुरु कर देता है, लेकिन तभी रेनू का फोन बजने लगता है। रेनू हड़बड़ाते हुए जैसे ही फोन उठाती है राज राजेश्वर और उसके आदमी तुरंत वहां से भाग जाते हैं।
मौत को बिल्कुल अपनी आंखों के सामने खड़ा देखकर भी रिया के हौसले कम नहीं होते। वो ठान लेते हैं कि राजघराना का घिनौना सच और गजेन्द्र की बेगुनाही दोनों के सबूत ढूंढकर रहेगी। ऐसे में वो उसी रात महल के उस पुराने तहखाने में जाती है, जिसका जिक्र कुछ दिन पहले प्रभा ताई नें किया था।
दरअसल रिया तहखाने में एक रहस्यमयी चिट्ठी को ढूंढने के लिये जाती है। इधर-उधर हर जगह तलाशने के बाद जैसे ही रिया एक दीवार के सहारे खड़े हो प्रभा ताई की बातों के दुबारा याद करती है, तभी उसे उस दीवार की दरारों के पीछे से कुछ सुनाई देता है। किसी औरत की आवाज, बहुत धीमी, मगर काफी जानी-पहचाना आवाज।
वो दीवार की दरारों से अंदर की तरफ झांकती है — और वहां, एक पतले झीने पर्दे के पार, एक औरत की परछाई दिखती है। उस औरत का चेहरा दरारों से रिया को साफ नजर नहीं आता, लेकिन उसकी फुसफुसाती आवाज उसे जरूर सुनाई देती है— “तेरा खून… किसी राजमाता का नहीं… एक चुपचाप मारी गई नौकरानी का है… तू शारदा की बेटी है…तेरा जन्म मेरे ही हाथों हुआ था… तू भाग जा यहां से वरना तेरी मां की तरह तूझे भी राजघराने से बगावत के जुर्म में ये लोग दफन कर देंगे मेरी लाड़ो… भाग जा”
रिया उस औरत की बात सुन उसे जवाब में बताती है, कि वो रेनू नहीं रिया है।
रिया का नाम सुनते ही वो औरत पर्दो से दरारों के सारे कौनों को ढ़क देती है। रिया उसे बार-बार आवाज लगाती है, लेकिन वो दुबारा कुछ नहीं बोलती। रिया कांपते हुए हाथों से उस दीवार को बार-बार… यहां-वहां हर जगह से छूती है, कि शायद कोई सुराख, कोई रास्ता मिल जाये। लेकिन वहां सिर्फ चुप्पी और पत्थरों के बीच की दरारे ही नजर आती है।
आखिरकार रिया थक कर वहीं ज़मीन पर बैठ जाती है। उसकी सांसें तेज़ और आंखें गीली होती है, वो चाहकर भी उस औरत को उस तहखाने से बाहर निकालने का रास्ता नहीं ढूंढ पाती। एकाएक तभी उसके मोबाइल की टॉर्च झपकने लगती है। वो घबराकर स्क्रीन की तरफ देखती है तो एक अनजान नंबर से वीडियो कॉल आ रहा था, वो जरूरी समझ कर उसे उठा लेती है, लेकिन जैसे ही वो स्क्रीन की तरफ देखती है, चौक जाती है। उसके शरीर में सिहरन दौड़ जाती है।
दरअसल स्क्रीन पर जेल की सलाखों के पीछे बंद उसका प्यार और राजघराने का एकलौता वारिस गजेन्द्र सिंह होता है। उसके शरीर के हर हिस्सें पर जख्म के निशान होते है, जिससे बुरी तरह खून की धार बह रही होती है। उसकी शर्ट खून से बुरी तरह लथ-पथ होती है। आंखों के नीचे मार के नील के निशान पड़े होते है।
गजेन्द्र की हालत देख रिया टूट जाती है और फूट-फूट कर रोते हुए बार-बार उसका नाम चिल्लाती है, लेकिन वो कुछ नहीं बोलता, बेसुध हालत में बस लेटा रहता है और तभी उसके पीछे से आवाज आती है—
"अब ये सिर्फ एक वारिस की लड़ाई नहीं है, रिया शर्मा... अब ये उस खून की कीमत है। हाहाहा और ये कीमत अब इसे ही चुकानी होगी।..."
गजेन्द्र बेहद कमजोर आवाज में रिया से कहता है, “रिया... अगर मैं बचा नहीं... तो उस तहखाने में जो आवाज़ है... बस वही तुम्हें पूरा सच बताएगी, मैं जानता हूं प्रभा ताई ने तुम्हें सब बता दिया है।”
स्क्रीन पर अचानक कोई परछाई गजेन्द्र के पीछे आ जाती है। रिया चिल्लाती है — "गजेन्द्र!! पीछे देखो!"
लेकिन उससे पहले ही स्क्रीन काली हो जाती है। और फोन कॉल कट जाता है, पलटकर रिया बार-बार उस नंबर पर फोन लगाती है, लेकिन कोई जवाब नहीं मिलता।
फूट-फूटकर रोती हुई रिया फोन को सीने से लगाकर धीरे से बुदबुदाती है — "अब कोई नहीं रुकेगा… न मैं, न तुम... और न ये कहानी…"
आखिर किसकी थी वो अनजान परछाई? क्या वो आज गजेन्द्र को मार डालेगा?
तहखाने की दरारों के पार आखिर कौन थी वो औरत? और वो रिया का नाम सुनते ही भागी क्यों?
क्या गजेन्द्र की और रिया की कहानी किसी खून के रिश्ते से जुड़ी है?
जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग।
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