अंधेरे में ग़ायब हुआ वो रहस्मयी संदूक, महल की दीवारों की चुप्पियों के बीच एक और सवाल खड़ा कर गया, जिसका जवाब राजघराना महल की नींव हिला सकता था। वहीं दूसरी ओर रिया और रेनू दोनों अपनी-अपनी आंखों में शक और अविश्वास लिए हुए खड़ी थीं, कि आखिर चंद सेकेंड के अंदर संदूक को वहां से उठा कर कौन ले गया?
किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि वह संदूक आखिर किसके पास था? महल के सभी लोग, जो पहले चुप थे, अब एकजुट होकर उस संदूक के गायब होने का कारण जानने के लिए बेताब हो गए थे। तभी गजराज सिंह की धीमी आवाज गूंज उठी, जो ये बता रही थी कि अब कुछ भयानक होने वाला है— “ये क्या खेल खेला है तुम दोनो ने… वो संदूक मुझे हर हाल में वापस चाहिये।”
ये देख राज राजेश्वर ने गुस्से में आकर चीखते हुए अपने पिता गजराज सिंह से कहा— “ये खेल इन दोनों ने नहीं, आपने ही खेला है पिता जी...आप हमेशा से अपने पापों को छिपाने के लिए कोई ऐसी ही घिनौनी चाल चलते हैं।”
अपने खिलाफ अपने बेटे को खड़ा देख गजराज सिंह ने आँखें बंद कर लीं, जैसे वह किसी गहरे विचार में डूबा हो। फिर वह धीरे-धीरे बोला, "राजेश्वर बेटा, इस महल में हर दीवार में एक सच दबा हुआ है, और वह सच सामने आने के बाद सिर्फ दर्द और दंगा ही करायेंगे।"
गजराज की ये बात सुन रेनू और रिया एक दूसरे को देखने लगीं। गजराज सिंह जैसे व्यक्ति के मुंह से ऐसी बातें निकलना, किसी डरावने सपने से कम नहीं था। तभी रिया ने कुछ ऐसा कहा, जिसने सबके होश उड़ा दिये— "देखा, आपका बेटा भी जानता है कि वो संदूक आपके अलावा कोई गायब नही कर सकता दादा साहेब, क्योंकि वो आपकी रंग-रलियों भरी रातों का सबूत था।"
सर झुकाये खड़े गजराज ने रिया की बात का कोई जवाब नहीं दिया। उसकी आँखों में एक भय और अजीब सी उदासी थी। उस कमरे में कुछ देर तक मौन पसर गया, लेकिन तभी अचानक से महल के भीतर एक भयानक चीख सुनाई दी। यह आवाज़ महल के ही किसी कमरे से आ रही थी। तुरंत सभी लोग उस दिशा में दौड़े। लेकिन जब उन्होंने कमरे के दरवाजे को खोला, तो अंदर की स्थिति देखकर सब चौंक गए।
दरअसल कमरे की दर दीवार खून से सनी हुई थी और अंदर का माहौल मानो किसी गहरे अंधेरे से लिपटा हुआ था। उस अंधेरे कमरे के बीच में एक पुराना बड़ा सा शीशा रखा था, जिसके सामने एक कटा हुआ सिर पड़ा था।
इस नजारे को देख रेनू और रिया के चेहरे पर एक अजीब सा डर छा गया। उन्होंने एक-दूसरे को देखा और ऐसे चीखी मानो जैसे वो उस सरकटे इंसान को पहचानती हो। उनकी चीख सुन सब दौड़कर उसी कमरे में आ गए..
गजराज सिंह कमरे में कदम रखते हुए बोला— “तुम दोनों ने उस संदूक को बाहर निकाल कर ठीक नहीं किया। अब रोज इसी तरह इस राजघराना महल के वो राज़ खुलेंगे, जो ना जाने कितनी पीढ़ियों से दफ्न थे।”
तभी राज राजेश्वर ने पूछा— "कौन से राज़? और ये सिर किसका है? क्या यह सब आपके पापों का हिस्सा है पिता जी?"
गजराज सिंह की आँखों में अब कोई आशा नहीं थी, केवल गहरी बेचैनी थी। अपने बेटे के सवालों के जवाब में वो कुछ कहने के लिए अपना मुंह खोलता ही है, कि तभी रेनू का फोन बज जाता है। रेनू ने फोन उठाया और सामने वाले शख्स से कुछ दस सेकेंड बात की और फिर आनन-फानन में राजघराने के तमाशे को बीच में छोड़ अपना झोला उठा कर बाहर चली गई।
दूसरी ओर जेल की अंधेरी कोठरी में बंद गजेन्द्र गहरी सोच में डूबा अपनी उलझी जिंदगी के पन्नों को सुलझाने की तरकीबे ढ़ूंढ रहा था। जहां एक तरफ बाहर उसके अपने उसकी मौत की साजिश रच रहे थे, तो वहीं जेल के अंदर से भी उसे लगातार धमकियाँ मिल रही थीं। हैरान करने वाली बात ये थी कि गजेन्द्र के साथ हो रहे इस तमाशे को पुलिस भी तमाशबीन बन खुली आंखों से देख रही थी।
"मेरी सच्चाई से किसी को कोई मतलब नहीं है, मैं जानता हूं ये सब मेरे दुश्मनों से मिले हुए है।"
गजेन्द्र के चेहरे से साफ था कि वो अब किसी से नहीं डरता और अब उसकी जिंदगी का एक ही लक्ष्य है मां की मौत का सच बाहर लाना। ऐसे में उसने जेल के कोने में रखे मटके के अंदर से एक छोटा सा फोन निकाला और उसे अपने पजामे में छिपा सीधा बाथरुम में चला गया।
बाथरुम का दरवाजा बंद कर पहले गजेन्द्र ने चारों तरफ देखा और फिर पजामे से फोन निकाल एक नंबर डायल किया और बोला- “जल्द से जल्द मुझे यहां से निकालों, वरना ये लोग मुझसे जबरदस्ती झूठी गवाही के पेपर पर साइन करा लेंगे।”
गजेन्द्र फोन पर किसी से फुसफुसा ही रहा था कि तभी उसकी नज़र दाईं ओर के बाथरूम के दरवाज़े पर पड़ी — दरवाज़ा अचानक चरमराता हुआ खुला। अंदर से एक सब-इंस्पेक्टर निकला, जिसकी आँखों में क्रोध उबाल खा रहा था। उसने बिना कुछ कहे गजेन्द्र के हाथ से फोन झपट लिया और एक ज़ोरदार थप्पड़ उसके गाल पर जड़ दिया।
गजेन्द्र लड़खड़ाया, पर संभलने से पहले ही उसे कॉलर से घसीटकर लॉकअप से बाहर लाया गया। सब-इंस्पेक्टर ने चीखते हुए कहा, “साहब, इसके पास मोबाइल था! जेल के अंदर से किसी को कॉल करके बता रहा था कि यहाँ इसके साथ क्या हो रहा है।”
सीनियर ऑफिसर, जो टेबल पर बैठा चाय की चुस्कियाँ ले रहा था, उसने सिर उठाया और एक हल्की मुस्कान के साथ कहा — “अच्छा… तो ये खेल खेल रहा था? चलो, इसका केस आज ही यहीं खत्म करते हैं।”
इतना कहकर उसने इशारे में ऑर्डर दिया — “ले जाओ इसे इंटरोगेशन रूम में।”
इसके बाद गजेन्द्र को जिस कमरे में ले जाया गया...वो छोटा था, लेकिन उसमें सन्नाटे की एक भारी परत चिपकी हुई थी। छत से लटकती एक पीली बल्ब की लाइट लगातार हवा में झूल रही थी। उस कमरे की चारों दीवारें सीलन से भरी थीं, और कोनों में जमी धूल इस बात का सबूत थी, कि एक लंबे समय से वहां कोई झांकने भी नहीं आया है। ।
गजेन्द्र को एक लोहे की कुर्सी पर जबरदस्ती बैठाया गया। उसके हाथ पीछे से बाँध दिए गए थे। साँस तेज़ थी, पर आवाज़ धीमी। कमरे में बैठे दो सिपाही चुपचाप उसके चेहरे को ताक रहे थे — मानो गजेन्द्र की हालत पर दया दिखा रहे थे। तभी सीनियर ऑफिसर अंदर दाख़िल हुआ। उसके जूतों की आवाज़, कमरे के मौन को चीरती हुई आई — "ठक... ठक... ठक..."
उसने गजेन्द्र की ओर देखा, मुस्कुराया और बोला, "बहुत हो गया ड्रामा। अब सीधे-सीधे एक बार में बोल….आखिर किससे बाते कर रहा था? और तूने उसे क्या-क्या बताया है? ध्यान रखना अगर तुमने एक शब्द भी झूठ बोला, तो तुम्हारा जीवन बर्बाद हो जाएगा।"
उस अधिकारी की आवाज गहरी और धमकी भरी थी, लेकिन गजेन्द्र की चुप्पी भी अब एक हथियार बन चुकी थी। वह शांत था, हालांकि उसके अंदर ही अंदर बहुत कुछ चल रहा था। तभी उस अधिकारी ने डंडा उठा लिया और उसने उस डंडे से गजेन्द्र की पीठ पर मारा और चिल्लाकर बोला- "ठीक है तुझे नहीं बताना तो मुझे जानने में कोई दिलचस्पी भी नही है।"
इस पर गजेन्द्र ने दर्द से कराहते हुए पूछा - "फिर आपकी दिलचस्पी किस बात में है, आखिर आप लोग मुझे इस कमरे में लाये है”
“इन पेपर पर साइन कराने के लिये, देख तू इन पर साइन कर फिर तू कहें तो मैं तूझे आजाद भी कर सकता हूं।”
उस अधिकारी के इतना कहते ही गजेन्द्र ने बड़े ध्यान से उन पेपर को देखा और पढ़ा। कुछ दस मिनट की शांति के बाद गजेन्द्र ने मुंह खोला और चिल्लाकर बोला- "मैं इन पेपर पर कभी साइन नहीं करूंगा, मैं दोषी नहीं हूं। तो मैं ये सारे जुर्म का कुबुलनामा क्यों दूं।"
गजेन्द्र के चिल्लाने से बौखलाए उस अधिकारी ने अपने साथ खड़े दोनों कॉन्स्टेबल को गजेन्द्र की जमकर डंडे से पिटाई करने का ऑर्डर दे दिया। साथ ही उसने कहा- "ध्यान रखना इसके चेहरे पर एक भी निशान नहीं आने चाहिये, दो दिन बाद इसकी कोर्ट में पेशी है। इसे तब तक मारों जब तक ये इस पर साइन करने के लिये हां नहीं कर देता।"
जहां एक तरफ गजेन्द्र के साथ पुलिस इतना बुरा बर्ताव कर रही थी, तो वहीं दूसरी ओर गजेन्द्र ने जिस आदमी को फोन कर अपनी हालत के बारे में बताया था, वो कोई और नहीं गजेन्द्र के पिता मुक्तेश्वर सिंह थे।
मुक्तेश्वर ने गजेन्द्र का फोन आने के बाद तुरंत ही मीडिया से मदद मांगनी शुरु कर दी, लेकिन ये क्या मीडिया से मदद मांगने का मुक्तेश्वर का खेल उल्टा उसी पर भारी पड़ गया।
दरअसल मीडिया पहले से जयपुर पुलिस स्टेशन के बाहर, मीडिया के कैमरे लगातार चापलूसी और आधी-अधूरी खबरें पेश कर रहे थे। हर चैनल पर गजेन्द्र की तस्वीर छाई हुई थी। ऐसे में अब मुक्तेश्वर के पास अपने पिता से मदद मांगना ही आखरी सहारा था। उसने तुरंत अपना फोन निकाला और अपने पिता गजराज को फोन लगा बोला- “मेरा बेटा अपराधी नहीं है, वो लोग उसे मार डालेंगे पिताजी…”
मुक्तेश्वर की आवाज भर्राई हुई थी। इस वक्त वह सिर्फ एक पीड़ित बच्चे का पिता था। वह अपने पिता से अपनी नफरत और बेटे को राजघराना से दूर रखने की लड़ाई सब भूल… अपने पिता के आगे आज रो दिया और बोला- “मेरा बेटा राजघराने के दुश्मनों की दुश्मनी का शिकार हो रहा है, उसे बचा लीजिये...। आप भी जानते है उसमें मेरा खून है, वो कभी एक रेस जीतने के लिये रिश्वत नहीं दे सकता।”
गजराज सिंह मुक्तेश्वर से जान से भी ज्यादा प्यार करता था। वो कहते है ना कि पिता अक्सर अपनी बड़ी औलाद से सबसे ज्यादा प्यार करता है, लेकिन वो कभी उसे ये बात जता नहीं पाता। कुछ ऐसा ही रिश्ता था गजराज और मुक्तेश्वर का। और आज जब उसने पहली बार अपने बेटे को इस तरह अपने सामने रोते देखा, तो उसकी अंतर आत्मा कांप गई।
“तुम कुछ मत सोचों, वो मेरा पोता मेरा वारिस है… उसे जयपुर में तो क्या इस दुनिया में भी जिसने हाथ लगाया होगा उसके हाथों को उसके शरीर से अलग कर दूंगा।”
अपने पिता की बात पर मुक्तेश्वर को पूरा भरोसा था, क्योंकि उसने बचपन से अपने पिता की दबंगई और उनका रौब पूरे राजगढ़ में देखा था। लेकिन फिर भी उसने घबराती हुई आवाज में कहा- “मेरा बेटा सच्चा है… बेगुनाह है, लेकिन मीडिया की हलचल और रिपोर्टर के सवालों की बौछार ने उसकी आवाज को दबा दिया।”
गजराज सिंह ने जैसे ही मुक्तेश्वर से गजेन्द्र को सही-सलामत जेल से बाहर लाने का वादा किया, उसी पल उनके महल के पास अचानक कई काली SUVs आकर रुकीं। बाहर पुलिस और मीडिया दोनों का शोर सुनाई देने लगा।
महल के गेट के अंदर आते ही एक वर्दीधारी अफसर ने एलान किया — “जयपुर कोर्ट के ऑर्डर पर गजेन्द्र सिंह की कस्टडी को लेकर SIT की टीम उसके कमरे की तालाशी लेने आई है। ध्यान रहे कोई हमारे काम में बाधा ना डालें।”
ये सुनते ही गजराज सिंह की आंखें लाल हो गईं। वह समझ गया, अब यह कोई आम जांच-पड़ताल नहीं, बल्कि राजघराने की जड़ें हिलाने का पहला कदम था।
महल के बाहर भीड़ में से एक लड़की चुपचाप मीडिया की भीड़ चीरती हुई आगे बढ़ी…उसने अपना चेहरा मास्क से छुपा रखा था। जैसे ही वो गेट के पास पहुंची, उसने मुंह से मास्क हटाया और जोर से चिल्लाई — “मुझे गजेन्द्र से मिलना है! मैं गर्भवती हूं — और मेरे बच्चे का पिता गजेन्द्र है!”
यह सुनते ही वहां मौजूद हर कैमरा उसकी ओर घूम गया। गजराज सिंह के पैर लड़खड़ा गए और पूरे महल के अंदर सन्नाटा छा गया। मुक्तेश्वर एक कदम पीछे हट गया… रिया की आंखें उस लड़की पर टिकी थीं — ऐसा लग रहा था कि वो उसे पहचानती थीं।
गजराज सिंह की घबराई आंखों में जैसे ही उस लड़की की तस्वीर साफ़ हुई, उसके होंठ थरथराने लगे — “ये… ये तो… ये तो सपना होना चाहिए...”
लड़की की आंखें गजराज सिंह से टकराईं और वो और भी बुलंद आवाज में बोली — "आप मुझे नहीं पहचानेंगे... लेकिन मेरी मां ने कहा था, जब ये दिन आएगा, तब आप अपनी पहचान खुद भूल जाओगे!"
गर्जन करता हुआ आकाश बिजली से चीर गया, और गजराज सिंह उस लड़की का चेहरा देखते ही समझ गए कि कोई गजेन्द्र के कंधे पर बंदूक रख उसे और उसके राजघराना महल को निशाना बना रहा है। ऐसे में गजराज खुद को संभालते हुए आगे कुछ बोलने के लिये मुंह खोलता ही है, कि तभी महल के पुराने हिस्से से उस समय का एक गुप्त द्वार खुद-ब-खुद खुलने की आवाज चर-चराती हुई लकड़ी की तरह सुनाई देती है।
आखिर किसने खोला है राजघराने का ये सालों से बंद पड़ा गुप्त दरवाजा?
अब कौन सा राज बाहर आने वाला है गजराज सिंह का?
और पुलिस आज रात क्या करेगी गजेंन्द्र के साथ?
जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग।
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