जेल की कोठरी में बैठा गजेन्द्र अपनी मां की मौत के गहराते सच में डूबता जा रहा था। ऐसे में वो अब बिल्कुल शांत था। उसकी आंखों में अपने फैसले को लेकर कोई पछतावा नहीं था लेकिन एक बेचैनी जरूर थी, कि आखिर जेल में उसे ये सब किसने भेजा होगा। जेल की अंधेरी कोठरी में गजेन्द्र के चेहरे पर अधजली डायरी की राख जैसे गुस्से का लावा बनकर उबल रही थी।
"अब जो भी हुआ था उस रात... चाहे कोई भी था मां के कमरे में... मैं उसे ज़िंदा नहीं छोड़ूंगा। और ये तीसरी डायरी... मैं इसे ढूंढ़ कर रहूंगा। ये ही डायरी अब महल की नींव हिलायेगी।"
ये कसम खाते हुए उसने अपने होंठ भींच लिये और एक जोरदार घूसा जेल की दीवार पर मारा, जिससे उसके हाथों से खून बहने लगा...। उसी वक्त जेल के बाहर किसी के जूतों की आहट होती है। गजेन्द्र जैसे ही पलट कर देखता है, वो सामने खड़े शख्स को देख चौंक जाता हैं।
दूसरी ओर राजघराना महल के गलियारों में पिछली रात की गूंजें अभी भी बची थीं। साज-सज्जा अब उतार दी गई थी, मगर साजिशों का शोर अब भी दीवारों से चीख-चीख कर बातें कर रहा था। हर कोई रिया की बदजुबानी और करतूत से तंग था। कि तभी, महल के बड़े से दरवाज़े पर टंगी लोहे की घंटी बजी।
राज राजेश्वर ने चिल्लाकर नौकर को आवाज दी - महेश काका, सुनाई नहीं देता… दरवाजा खोलिए….
महेश काका के कांपते हाथों ने जैसे ही राजघराना महल के उस भारी काठ के दरवाज़े की कुंडी खोली, एक अजीब सी हवा पूरे हॉल में दौड़ गई। मानो जैसे बाहर से कोई तूफ़ान महल में कदम रख रहा हो। दरवाज़े पर खड़ी उस अंजान-अजनबी लेकिन बेहद खूबसूरत लड़की की मौजूदगी ने मानो सैकड़ों सालों से जमी हुई चुप्पियों को चीखने पर मजबूर कर दिया।
वो कोई आम लड़की नहीं थी। जैसे ही उसने महल की दहलीज के अंदर कदम रखा, ऐसा लगा मानों उसकी काया में इस महल का सबसे बड़ा रहस्य छिपा था… चाल में बगावत थी… और आंखों में ऐसा सूनापन, जिसे कोई दर्द ही जन्म दे सकता था।
वो अपने बारें में बिना कुछ बोलें बस जबरदस्ती महल के अंदर ही घुसी चली आ रही थी। तभी राज राजेश्वर की नजर उस पर पड़ी और वो बोला - "कौन हो तुम लड़की और कहां महल के अंदर घुसी चली आ रही हो?"
उसने राज राजेश्वर की बात का कोई जवाब नहीं दिया, और बस यहां वहां चारों तरफ ऐसे देख रही थी मानों जैसे किसी अपने को ढूंढ रही हो।
बात उसके पहनावे की करें, तो ऊपर चोली और नीचे 56 गज का घाघरा उसके हर क़दम के साथ यूं लहराता था, जैसे किसी पुरानी रियासत का परचम हवा में तैर रहा हो। माथे पर जमी चांदी की बिंदी ना किसी साज का हिस्सा थी, ना श्रृंगार का। वो ऐसी लग रही थी जैसे उसके किसी प्रण की मुहर थी, किसी अधूरे इतिहास की निशानी… जिसे पूरा करने की कसम लिये वो राजघराना महल में आई थी।
ऐसे में उसने अचानक से चिल्लाकर कहा— “मैं लौट आई हूं, और अब तुम्हारे खामोश राज़ ज़िंदा होंगे बापू सा।”
उसके हर कदम के साथ उसका अतीत राजघराने की दीवारों के भीतर घुसता जा रहा था, लेकिन जैसे ही उसने ये लाइन बोलीं- सब लोग चौक उठे। महल के लोगों से लेकर नौकर तक सभी उस अजीब सी लड़की को घूर-घूर कर देखने लगे।
लेकिन वो नाक की सीध में चलते हुए बस आगे बढ़े जा रही थी, कि तभी उसकी आंखे बीच हॉल में खड़े गजराज सिंह से टकराई। हद तो तब हो गई जब वो गजराज सिंह के सामने आ अपनी छाती तान कर खड़ी हो गई और बोली - "इतने सालों से जिन दीवारों पर आपका नाम खुदा था, आज उन्हीं दीवारों पर मेरे सवाल टगेंगे गजराज सिंह…"
उस अंजान लड़की की ये लाइन पूरे महल में बगावत की बू की तरह गूंज उठी। वहीं गजराज सिंह, जिसके आगे देश का रईस से रईस आदमी भी जुबान नहीं खोलता था वो एक मामूली लड़की को इस तरह उसी के महल में चिल्लाते देख आग बबूला हो गया और बोला-
“तुम… कौन हो?”
“रेनू… कहों तो पूरा नाम बता दूं… पैरों तले जमीन खिसक जायेगी ताहरी।”
उसकी आवाज़ अब लोहे की तरह ठंडी थी। ऐसे में गजराज ने पलटकर पूछा- “क्यों ऐसा क्या है तुम्हारे नाम में...?”
"आपकी वो भूल, जिसे आपने अपने इतिहास से मिटा दिया था। और मुक्तेश्वर और राजेश्वर की सौतेली बहन — आपके खून की परछाई।"
अब उस अंजान लड़की का एक नाम था, जिसकी गूंज से महल में सन्नाटा पसर गया। और तभी राज राजेश्वर सिंह हँसा। एक बेशर्म और साजिश से भरी अजीब हँसी- “वाह… कुर्सी के खेल में अब 'बेटी' का पत्ता भी फेंका जा रहा है? क्या किसी ने 'महरूम' होने का अभिनय सीखने की फीस भी ली है?”
राजेश्वर के इस सवाल पर रेनू ने ठहर कर उसकी तरफ देखा और फिर उसकी आंखों में आंखे डालते हुए बोली - “मैं अभिनय नहीं करती, मैं वो अधूरी विरासत हूं जिसे तुम लोगों ने ज़मीन में गाड़ दिया था। और अब मैं सिर्फ वो जमीन खोदकर बाहर ही नहीं निकलूंगी, बल्कि इस राजमहल की नींव भी हिला दूंगी।”
रेनू की बातें जहां सबके होश उड़ा रही थी, तो वहीं रिया के लिये वो किसी ब्रेकिंग न्यूज जैसी थी, जिसके बारे में और ज्यादा जानने की जिज्ञासा में उसने अपना एक पहलू भी साथ में जोड़ दिया और बोली, "अब इस कहानी में वो किरदार आ चुके हैं, जिन्हें दादा साहेब उर्फ गजराज सिंह तुमने आखरी पंक्तियों में बैठा रखा था। और जब अंत आता है, तो मंच उन्हीं के लिये खाली किया जाता है।"
रिया आगे कुछ कहती उससे पहले रेनू ने अपने झोले से एक कागज निकाला। ये कोई सरकारी या मेडिकल सबूत नहीं था। लेकिन एक माँ-बेटी की तस्वीर, उसके नाम के साथ पुरानी हवेली के स्कूल की रजिस्ट्री और एक पुराना खत था, जिसे गजराज सिंह के हस्ताक्षर के साथ एक ट्रस्ट को भेजा गया था।
उस लड़की यानि रेनू के हाथ में उस सबूत को देख जहां गजराज का चेहरा पीला पड़ गया। तो वहीं उसके मुंह से चौकते हुए निकला - "ये नहीं हो सकता… उसे तो मैंने"
ये बात गजराज सिंह ने खुद से बड़े धीमे स्वर में कहीं थी, लेकिन फिर भी रेनू ने पलट कर जवाब देते हुए कहा
"पर ये तो हो चुका है बापू सा, अब के करोगे थाम…? और हां एक बात और अब मैं यहां न्याय मांगने नहीं आई हूं। मैं लेने आई हूं — वो सब जो आप लोगों ने मुझसे छीन लिया था।"
महल का माहौल पल-पल गर्माता जा रहा था। रेनू के आने से भले ही राजघराना महल के लोग दुखी थे, लेकिन रिया की आंखों में एक अजीब सी चमक थी। दो औरतें, दो रास्ते, लेकिन दोनों का एक ही लक्ष्य था गजराज की जिंदगी के जवानी के दिनों की उन कहानियों से पर्दा उठाने, जिनसे उनका और उनके अपनों का अतीत जुड़ा था।
रेनू अपनी बात कहने के बाद बिना किसी से इजाज़त लिये रिया के साथ उसके कमरे में रहने चली गई और ये देख प्रभा ताई तिलमिला उठी और बोलीं - "ये राजघराना महल है या कोई धर्मशाला, जहां कोई भी मुंह उठा कर रहने आ जा रहा है। पहले से गजेन्द्र की ये रखैल लड़की रिया हमारे सर पर क्या कम तांडव कर रही थी, जो अब ये रेनू नाम की नई आफत पिता जी की नाजायज़ औलाद बनकर आ गई है।"
किसी के पास प्रभा ताई के इन सवालों का जवाब नहीं था। बस थे तो सबूत, जो ये साबित कर रहे थे कि रेनू गजराज सिंह की ही नाजायज औलाद है, लेकिन उसकी मां कौन थी… ये सवाल अभी भी बेजवाब था।
दूसरी ओर रिया और रेनू ने कुछ देर बैठ बात की, लेकिन थोड़ी ही देर में जैसे ही रात के अंधेर में हवेली शांत हो गई वैसे ही वो दोनों उस गुप्त कमरे तक पहुंचीं जहां दीवार में हल्का सा निशान था — रिया ने चाकू से उसे खुरचा, तो वहां एक छिपा हुआ बटन नजर आया, जिसे दबाते ही एक दरवाजा खुला।
रिया और रेनू दोनों उस दरवाजे के उस पार एक साथ गई, जहां उन्हे एक लोहे का संदूक मिला। खोलकर देखा तो दोनों की आंखे फटी की फटी रह गई… तभी रिया नें धीरे से कहा - "लगता है ये ही है तीसरी डायरी। इसमें राज नहीं... ज़िंदा ज़मीर कैद है उस राजघराने के लोगों के.. चलों जल्दी।"
वहीं दूसरी ओर गजराज सिंह के कमरे में आज पूरा राजघराना महल सिमटा हुआ था। हर किसी के पास एक ही सवाल था कि आखिर उस लड़की की मां कौन है? लेकिन गजराज सिंह ने किसी के सवालों का कोई जवाब नहीं दिया। उसके कमरे में मौजूद हर सवाल, हर चुप्पी, अब उसकी ही तरफ़ इशारा कर रही थी।
तभी राज राजेश्वर एक लंबी सांस लेकर गुस्से में चिल्लाया— "कम से कम अब तो बता दीजिए पिता जी, वो औरत कौन थी जिससे आपने ये कलंक पैदा किया?"
गुस्सें में गजराज सिंह पलटा और राज राजेश्वर की तरफ देखा जैसे उसे गुस्सा नहीं, बस शर्म और थकान महसूस हो रही हो। उसने गहरी सांस ली, और कुछ बोलने के लिये मुंह खोला, कि तभी उसकी नजर सामने आती हुई रिया और रेनू पर पड़ी — जिनके हाथों में लोहे का संदूक था।
रिया ने संदूक को बीच हॉल में रखते हुए धीरे से कहा— “इसमें जो है… वो ना सिर्फ़ इस महल को, बल्कि आपकी आत्मा को भी हिला देगा दादा साहब गजराज सिंह जी।”
तभी रेनू ने आगे बढ़कर ताले पर हाथ रखा… और ये देख गजराज सिंह ने एक झटके से अपनी छड़ी ज़मीन पर मारी और गरजते हुए कहा— "नहीं! वो संदूक अभी नहीं खुलेगा!"
गजराज सिंह की आवाज के साथ उसके कमरे में सन्नाटा पसर गया और सभी सन्न रह गए।
"क्यों नहीं खुलेगा?"
तभी रिया ने तीखे स्वर में सवाल करते हुए गजराज सिंह से पूछा… तो गजराज सिंह ने उसकी ओर देखा। उसकी आंखों में आंसू थे और आवाज कांप रही थीं, जैसे 40 सालों से उसके दिल में बसा कोई दर्द बाहर आ रहा हो। ऐसे में उसने गजराज सिंह ने वो कहा जो सच था- “क्योंकि उस संदूक में जो है… वो सिर्फ़ मेरे पाप नहीं, इस पूरे राजघराने की बर्बादी है!”
कुछ पल के मौन के बाद, उसने धीमी आवाज में कहा— "और उस औरत का नाम लेने से पहले… मुझे कुछ और तैयारियां करनी होंगी।"
तभी रेनू ने तल्खी भरे अंदाज में सवाल किया— “कैसी तैयारियां? कब तक भागेंगे गजराज सिंह?”
रेनू की तल्खभरी आवाज सुन गजराज ने पहले अपनी आंखें बंद कर लीं और फिर बोला— “भाग नहीं रहा… अपनी मौत का इंतज़ार कर रहा हूं। क्योंकि सिर्फ वही सज़ा है जो मुझे माफ़ कर सकती है।”
इतना कहते ही वो संदूक की ओर देखने लगा — लेकिन रिया और रेनू के करीब जा उसे छूने की हिम्मत नहीं कर पाया। और तभी आसमान में भी बिजली ऐसी कौंधी मानो जैसे वो भी आज राजघराना महल की उन काली रातों पर अपनी गवाही देना चाहती हो। बिजली की इस गर्जन के साथ ही पूरी हवेली की लाइट चली गई। और तभी हवा का एक तेज़ झोंका कमरे की हर दीवार से टकराया और संदूक का ताला… अपने आप खुल गया।
सबकी नज़रें अब उस खुलते रहस्य पर टिक गई, लेकिन कोई उसे देख पाता उससे पहले काले अंधेरे का फायदा उठा कोई रिया और रेनू के पास रखे उस संदूक को चुपके से उठा ले गया। तभी किसी के जोर से दरवाज़ा बंद करने की आवाज आई, जिसके साथ ही महल के हर कौने की लाइट भी जल गई।
और तभी रिया और रेनू ने देखा कि उन्होंने जिस रहस्मयी संदूक को अपने पैरों के पास रखा था, वो अब वहां नही था। लेकिन कमरें में मौजूद सभी लोग अपनी-अपनी जगह जस के तस खड़े थे। वहीं संदूक के गायब होने की हैरानी भी सबकी आंखों में साफ नजर आ रही थी, कि तभी राज राजेश्वर चिल्ला कर बोला- ये क्या तमाशा लगा रखा हैं.. पहले खुद एक संदूक सबूत के तौर पर लाती हो और फिर बत्ती बंद करने का तमाशा कर उसे गायब कर देती हो।
राजेश्वर की बात का रेनू और रिया के पास कोई जवाब नहीं होता। और तभी रेनू रिया को शक भरी नजरों से देख कहती है- छोरी सच-सच बता… म्हारी सगी बनने की आड़ में कहीं तू इन दरिंदो से तो ना मिली हुई, जो मेरा सच कभी दुनिया के सामने नहीं आने देना चाहते…
क्या रेनू का शक सही था?
क्या रिया ने ही अंधेरे का फायदा उठा गायब किया था उस संदूक को?
या फिर राजघराना महल के अंदर ही छिपा था गजराज को कोई और नया दुश्मन?
जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग।
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