मैं चक्रधर हूं, इस जेल का जल्लाद।
बीते सालों में मैंने न जाने कितने लोगों को फांसी दी होगी, पर अब तक मैंने खुद से ये सवाल कभी नहीं पूछा कि मैं सही कर रहा हूं या नहीं। जल्लाद का काम है बस कानून का पालन करना। पर अब, जब मैं आपको ये कहानी सुना रहा हूं, तो मेरे अंदर एक अजीब सी हलचल है। ये हलचल शायद इसलिए है क्योंकि जिस आदमी को मैंने फांसी दी, वो कोई साधारण हत्यारा नहीं था। वो एक परिवार वाला, एक बाप, एक पति, और उससे भी ज्यादा एक सीरियल किलर था।
वो नाम था राकेश सिंह।
राकेश सिंह की कहानी सुनने के बाद मुझे ये सोचने पर मजबूर होना पड़ा कि आखिर ये इंसान बना कैसे? क्या ये उसकी अंदरूनी मानसिक हालत थी जिसने उसे ये रास्ता चुना? क्या इसके पीछे उसका बचपन था? या फिर ये हमारे समाज का एक ऐसा चेहरा है, जिसे हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं? ये कहानी मेरी आंखों के सामने बार-बार घूमती है, और मैं सोचता हूं कि हम, एक समाज के तौर पर, ऐसे अपराधियों को बनने से कैसे रोक सकते हैं।
राकेश सिंह एक साधारण सा आदमी था। उसके तीन बच्चे थे। उसकी पत्नी हाउस्वाइफ थी, और उनकी जिंदगी ऊपर से देखने पर एक आदर्श मिडल क्लास फॅमिली जैसी थी। पर हर चीज वैसी नहीं होती जैसी दिखती है।
राकेश के बचपन में ही उसके अंदर कुछ टूट चुका था। उसकी मां, जो एक सीधी-सादी औरत थी, अक्सर उसके पिता के हाथों मार खाती थी। घर में रोज लड़ाई-झगड़े होते थे। राकेश इन सबको चुपचाप देखता था। जब वह छोटा था, तो एक दिन उसके पिता ने उसकी मां की बेरहमी से पिटाई कर दी, और राकेश ने उसी दिन ठान लिया कि वो औरतों से कभी प्यार नहीं करेगा। उसके अंदर एक नफरत का बीज बो दिया गया था, जो धीरे-धीरे बढ़ता गया।
स्कूल में भी राकेश का स्वभाव अजीब था। वो लड़कियों से कभी बात नहीं करता था। अपने दोस्तों से भी दूरी बनाए रखता था। जैसे-जैसे वो बड़ा होता गया, उसकी ये दिमाग़ी हालत और बिगड़ती गई। उसे लड़कियों की नजदीकियां पसंद नहीं आती थीं। जब वह नौकरी पर आया और उसकी शादी हुई, तब भी उसने अपनी पत्नी से कोई खास प्यार नहीं था। हां, बाहर से वह एक जिम्मेदार पति और पिता जरूर था, पर अंदर से बिल्कुल अलग था।
राकेश के अंदर की नफरत धीरे-धीरे उसे औरतों से नफरत करने पर मजबूर करने लगी। उसे लगता था कि शादीशुदा औरतें उसके जैसी बेचारी होती हैं, और उन्हें किसी तरह से "मुक्त" करना जरूरी है। यही वह घटिया सोच थी, जिसने उसे एक सीरियल किलर बना दिया।
पहली हत्या उसने बहुत ही सधे हुए तरीके से की थी। वो उस औरत से पहले अच्छे से मिला था, उसके रूटीन को समझा था। उसने ये तय कर लिया था कि उसे ऐसी जगह पर मारना है, जहां किसी को शक न हो। एक बार जब उसे यकीन हो गया कि वो महिला अकेली है, उसने उसे बुलाया और गला घोंटकर उसकी हत्या कर दी। फिर उसके शव को एक सुनसान इलाके में छोड़ दिया। उसने इतनी सफाई से काम किया कि पुलिस के पास कोई सुराग नहीं था।
पहले मर्डर के बाद राकेश ने महसूस किया कि उसे अब औरतों से डर नहीं लगता। बल्कि उसे ऐसा लगता था कि वो "न्याय" कर रहा है। उसके अंदर की नफरत उसे एक मानसिक घटियापन की ओर ले जा रही थी, जिसका उसे खुद भी अहसास नहीं था।
वो हमेशा अपने शिकार को चुनने में बहुत चालाकी से काम लेता था। वह उन औरतों को चुनता था जो शादीशुदा होतीं, लेकिन किसी न किसी कारण से अपने परिवार से थोड़ी दूर रहतीं। इसके बाद वो उनकी जिंदगी में घुसता, उनसे दोस्ती करता और धीरे-धीरे उनके रोजमर्रा की आदतों को देखता। हर हत्या में उसकी योजना एक जैसी होती। वो उन्हें पहले गला दबाकर मारता, फिर उनकी बॉडी को ऐसी जगह छोड़ आता जहाँ कोई जल्दी से उसे खोज न सके। उसकी हत्या करने का तरीका इतना साफ-सुथरा था कि पुलिस को कोई कड़ी नहीं मिल रही थी। वह अपनी हरकतों को इतनी चालाकी और सावधानी से छिपा लेता था कि किसी को भी उस पर शक नहीं होता।
राकेश का मानसिक संतुलन धीरे-धीरे टूट रहा था। उसे कई बार सपने आते थे, जिनमें वह खुद को एक जेल में बंद देखता था, जहां उसे कोई बचाने नहीं आता। उन सपनों में उसकी मां भी होती थी, जो उसे माफ करने की भीख मांग रही होती। पर राकेश उसे माफ नहीं कर पाता। उसकी मां के प्रति उसकी नफरत इतनी गहरी थी कि उसे हमेशा लगता था कि उसकी मां ने उसे भी एक कमजोर इंसान बना दिया है।
हत्याओं के बाद भी वो अपनी सामान्य जिंदगी जीता रहा। वह रोज़ ऑफिस जाता, अपने बच्चों के साथ समय बिताता, और अपनी पत्नी से ऐसे बात करता जैसे कुछ हुआ ही न हो। राकेश का यह दोहरा जीवन बहुत ही खतरनाक था, क्योंकि बाहर से वह एक सिम्पल इंसान लगता था, पर अंदर से वह एक हत्यारा था।
पुलिस के लिए राकेश का पकड़ में आना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं था। उसके द्वारा की गई हत्याओं में कोई सामान्य पैटर्न नहीं था, इसलिए पुलिस को उसे ढूंढने में वक्त लगा। पर छठी हत्या में उसने एक छोटी सी गलती की—उसने अपनी गाड़ी को उस इलाके में पार्क कर दिया था, जहां सीसीटीवी कैमरे लगे थे।
पुलिस ने जब सीसीटीवी फुटेज खंगाली, तो उसमें राकेश की गाड़ी का नंबर प्लेट साफ नजर आया। यहीं से पुलिस को पहली कड़ी मिली। पुलिस ने गाड़ी का पता लगाया और राकेश पर निगरानी शुरू कर दी। उसके बाद पुलिस ने राकेश के फोन रिकॉर्ड्स, उसके मेल-जोल, और जिन जिन रास्तों से वो जाता था, उन सभी रास्तों को खंगालना शुरू किया। जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ी, पुलिस को उसके खिलाफ पुख्ता सबूत मिलने लगे।
आखिरकार, पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया। गिरफ्तारी के बाद, उसने अपनी हत्याओं को कबूल कर लिया। उसे इस बात का कोई पछतावा नहीं था, और उसने हर हत्या की पूरी कहानी पुलिस के सामने बयान की।
गिरफ्तारी के बाद, जब पुलिस ने उससे पूछताछ की, तो उसने हत्याओं का पूरा ब्यौरा दिया। उसने बताया कि कैसे उसने उन महिलाओं को मारा, और क्यों मारा। उसके अनुसार, वो उन महिलाओं को उनके जीवन के दुखों से "मुक्त" कर रहा था। उसने बिना किसी पछतावे के अपनी हत्याओं को स्वीकार किया।
अदालत में राकेश का मुकदमा बहुत ही संजीदगी से चला। अदालत में उसके खिलाफ सभी सबूत पेश किए गए—सीसीटीवी फुटेज, फोन रिकॉर्ड्स, और हत्याओं का तरीका। जब राकेश ने अपने अपराधों को स्वीकार किया, तो अदालत को इस बात में कोई शक नहीं रहा कि उसे सख्त सजा मिलनी चाहिए। जज ने कहा कि राकेश ने अपने अपराधों को ठंडे दिमाग से अंजाम दिया है, और यह समाज के लिए एक गंभीर खतरा है। अदालत ने उसे मौत की सज़ा सुनाई। राकेश ने अदालत में भी कोई खेद नहीं दिखाया। उसे बस यही लगता था कि जो उसने किया, वो सही था। उसे अपने पागलपन का कोई एहसास नहीं था। अदालत में मौजूद लोगों ने उसकी इस बेरुखी को देखकर हैरानी जताई, पर उसके लिए सब कुछ बहुत सामान्य था। अदालत ने उसे मौत की सज़ा दी और उसे जेल भेज दिया गया।उसकी आँखों में सिर्फ वही ठंडापन था, जो मैंने बाद में जेल में देखा।
फैसला सुनाए जाने के बाद, राकेश को जेल भेज दिया गया। वहां उसे फांसी की तारीख का इंतजार करना था।
एक साधारण सा दिखने वाला सीरियल किलर मेरी जेल में था। उसके जेल में आते ही बाकी सारे क़ैदियों की जैसे सिट्टी पिट्टी गुम थी। सब डर रहे थे उससे। कोई राकेश से फ़ालतू बात क्या, बात ही नहीं कर रहा था। सबको डर था कि कहीं यह बुरा मान गया तो पता लगा हम रात को सोए और सुबह उठे ही नहीं। पढ़ा-लिखा होने की वजह से जेल में भी राकेश को लिखा-पढ़ी वाला काम मिला। जेल में आने वाले सारे चिट्ठी पत्र वही देखता था।
मेरा भी दुआ-सलाम राकेश से शुरू हो चुका था। लेकिन बस दुआ-सलाम। कोई बातचीत नहीं। उसको जब भी देखता तो मेरे मन में एक ही सवाल बार-बार उठता—राकेश एक अपराधी था या मानसिक रोगी? उसने जो किया, वह अपराध था, पर क्या उसकी दिमागी हालत को ध्यान में रखते हुए हमें उसकी सजा पर पुनर्विचार करना चाहिए था? राकेश के मामले में, अदालत ने उसे एक खतरनाक अपराधी मानते हुए सजा सुनाई। पर कई मनोवैज्ञानिकों का मानना था कि राकेश की दिमागी हालत गंभीर थी। उसे सजा देने से पहले मानसिक इलाज की जरूरत थी।
बाहर मीडिया में रोज़ बहस होती थी कि क्या मौत की सजा सही थी या नहीं। कुछ लोगों का मानना था कि राकेश जैसे लोगों को इलाज की ज़रूरत है और बाकी लोग चिल्ला-चिल्ला कर कहते थे औरतों के खूनी को, जल्दी से टांग दो साले को।
मैंने सोचा क्यों ना मैं राकेश से दोस्ती करूं और उसके दिल का हाल-चाल जानूं। पूछूं कि क्या हुआ था। क्योंकि ना पुलिस को उसकी मानसिक हालत से कुछ लेना-देना था और ना ही इस जेल को। पुलिस का काम था खूनी को पकड़ना, वो उन्होंने पकड़ लिया। केस खत्म और अगला कोई नया केस शुरू। जेल का काम था उसको फांसी तक रखना। फांसी दो, आगे बढ़ो। सब बस अपना-अपना काम कर रहे थे। एक बार तो मुझे भी लगा कि यार चक्रधर, छोड़ न... अपना काम कर और जा। पर फांसी का लीवर मैं खींचता हूं। दुख-दर्द मुझे सहना पड़ता है। मरने वाले से आखिरी बार मैं मिलता हूं। उससे आखिरी बात मैं कहता हूं, उसकी आखिरी बात मैं सुनता हूं। मेरी परिस्थिति इन सभी से अलग है। मैंने सोच लिया कि मैं राकेश को कुरेदूंगा, उसे बिना दर्द दिए उसको जानने-समझने की कोशिश करूंगा। वो जो है, अपनी ही वजह से है या उसके पीछे कोई और बात है। किसी और का हाथ है।
फिर एक दिन मौका देख कर मैंने बात शुरू करने की कोशिश की, पर राकेश ने कोई जवाब नहीं दिया। मेरे मन में आया कि चलो छोड़ो, नहीं कर रहा तो ना करे। फिर एक दिन पता नहीं सूरज किस दिशा से निकला था। राकेश खुद मेरे पास आया, पीछे से कंधे पर हाथ रखते हुए बोला- क्या बात यमदूत जी, आप तो उस दिन के बाद आए ही नहीं। मैंने झट से जवाब दिया- यमदूत नहीं हूं मैं, जल्लाद हूं।
एक ही बात है- राकेश बोला।
एक ही बात नहीं है- मैंने जवाब दिया। यमदूत ऊपर वाला भेजता है, वो जो सबसे बड़ा जज है और मुझे इस दुनिया ने ही बनाया है और इस दुनिया के जज ने ही भेजा है।
राकेश मेरी बात सुनकर चुप हो गया। उसने कहा कि मैं बहुत समझदार हूं और पढ़े-लिखे इंसानों जैसी बातें करता हूं। मैंने भी जवाब दिया कि समझदारी का पढ़ाई-लिखाई से कोई लेना-देना नहीं है। पढ़ा-लिखा आदमी महा बेवकूफ हो सकता है और अनपढ़ महा समझदार।
मेरी यह बात राकेश के दिल में उतर गई थी। उसने पूछा अगले संडे क्या कर रहे हो चक्रधर बाबू? मैंने भी मज़ाक में कह दिया अगले संडे तो रूस का सदर आ रहा है न इंडिया, उससे मिलने जाना है।
राकेश हंस पड़ा और बोला- रूसी से मिलकर टाइम बचे तो इस इंडियन के साथ भी बैठना… अपने मारने वाले के साथ मरने से पहले एक चाय तो पी लूं।
बस, अगले संडे पहुंच गया मैं राकेश के पास 2 कप चाय लेकर और सुनी उसकी दास्तान जिसने मेरे रोंगटे खड़े कर दिए। सब बताया उसने। अपना बचपन, अपनी मां, अपना बाप… अपनी खूनी आदत।
कैसे उसने अपने बचपन में सिर्फ मार-पीट देखी। पिता मारता था और मां मार खाती थी। उसकी बातें सुनकर मुझे लगा कि हम बच्चा पैदा करना जानते हैं, बड़ा करना नहीं। और फिर आ गया वो मनहूस दिन-
जब राकेश को फांसी के लिए लाया गया। जेल का वो कमरा जहां मैंने कई अपराधियों को फांसी दी थी, उस दिन कुछ अलग था। राकेश को वहां लाया गया, और मैं उसके चेहरे को देख रहा था। उसमें कोई डर नहीं था, कोई पछतावा नहीं था। उसकी आंखों में एक अजीब सा सन्नाटा था, जैसे उसने अपनी जिंदगी के साथ समझौता कर लिया हो। मैंने उसके गले में रस्सी कसी, और लीवर खींच दिया। कुछ ही पलों में, राकेश सिंह, जो कभी खुद को सही समझता था, अब कानून के हिसाब से मर चुका था। कोई आखिरी इच्छा नहीं थी उसकी।
मरने वाले का नाम- राकेश सिंह
उम्र - 50 साल
मरने का समय - सुबह 4 बज कर 40 मिनट
राकेश की गिरफ्तारी और बाद में उसकी मौत ने उसके परिवार पर गहरा असर डाला। उसकी पत्नी सीमा, जो अब विधवा हो चुकी थी, अपने पति के अपराधों से पूरी तरह अंजान थी। उसे कभी समझ नहीं आया कि राकेश के अंदर इतनी नफरत और क्रूरता क्यों थी। जब पुलिस ने उसे बताया कि उसका पति एक सीरियल किलर था, तो वो यकीन नहीं कर पाई। उसे लगा जैसे उसका पूरा जीवन एक झूठ था।
सीमा ने बाद में मीडिया से बातचीत में कहा था, "मैंने कभी नहीं सोचा था कि राकेश ऐसा कर सकता है। वह एक शांत और नॉर्मल सा आदमी था। हमारी जिंदगी सिंपल थी। फिर भी उसने ये सब क्यों किया?"
अब जब राकेश को फांसी दिए कुछ समय बीत चुका है, मैं एक बार फिर से अपने भीतर झांकने की कोशिश करता हूं। मैंने अपने जीवन में कई अपराधियों को फांसी दी है, पर राकेश का मामला मेरे लिए कुछ अलग था। मैं, एक जल्लाद होने के नाते, हमेशा कानून का पालन करता हूं। पर राकेश की मौत के बाद, मेरे मन में यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि क्या सिर्फ कानून का पालन करना ही काफी है? क्या हमें अपराधियों की मानसिक स्थिति को समझने की कोशिश नहीं करनी चाहिए?
राकेश सिंह की कहानी खत्म हो चुकी है, पर सवाल अब भी बाकी हैं। वह सवाल जिनसे हम सब को जूझना होगा, वे कभी खत्म नहीं होंगे।
अभी आज्ञा दीजिए। अगले एपिसोड में एक और अपराधी की कहानी लेकर आऊँगा।
No reviews available for this chapter.