कमज़ोर को देख कर सबकी ताकत बढ़ जाती है, ताकतवर का हर हुकुम मानने वाले कमज़ोर को देखते ही न्याय के देवता बन खड़े होते हैं. आज रेश्मा अकेली असहाय खड़ी है और पूरा गाँव अपना अन्याय से भरा फैसला उसपर थोपने को तैयार है. उसका घर जहाँ वो पैदा हुई, जहाँ चलना सीखा, जहाँ उसका बचपन बीता, वो उसके सामने पूरी तरह से जल कर खाक होने की कगार पर था. उसी में दो अधजले शरीर पड़े थे जिन्हें आग की लपटें चील गिद्धों की तरह नोच रही थीं. उस घर के साथ उसकी और उसके परिवार की अनगिनत यादें भी जल गयी थीं.
पूरे गाँव में ऐसा कोई नहीं जो मदद तो दूर रेशमा के लिए हमदर्दी के दो आंसू भी बहा पाता. हर कोई बस तमाशा देखने के लिए खड़ा था. सबको ये देखना था कि आखिर में रेश्मा के साथ क्या होगा. सबके देखते देखते रेश्मा का घर जल कर ख़ाक हो गया था. अब बारी थी रेश्मा की सजा की. आज पूरा रतौली यही देखने को बेताब था कि जिस रेश्मा की जवानी और दिमाग के दूर दूर तक चर्चे थे उसका अंजाम क्या होता है.
रेश्मा के बाद कोई सबसे दुखी था तो वो थी इरावती, उसके एक लाख रुपये बर्बाद हो गए थे. वो अपने इस बड़े घाटे का जिम्मेदार रेश्मा को ही मान रही थी. न घर से रेश्मा भागती, न शादी टूटती और ना उसे एक लाख का नुक्सान होता. उसका मन कर रहा था वो रेशमा को भी इसी आग में धकेल दे. छुन्नू के साथ बाकी पंचों ने रेशमा का मुंह काला करने का फरमान सुनाया. इसके लिए इरावती सबसे आगे आई. उसने कहा कि ये मौका उसे दिया जाए क्योंकि रेश्मा ने उसकी इज्जत खराब की है. वो अब अपने रिश्तेदारों में मुंह दिखाने लायक नहीं रही. सब कहेंगे कि इरावती ने अपने भाई के लिए कैसी लड़की देखी जो अपने माँ बाप को ही खा गयी. उसकी दलील सुन कर पंचों ने रेश्मा का मुंह काला करने की जिम्मेदारी उसी को दी.
गाँव वालों ने अपनी बेशर्मी और बुज़दिली की कालिख रेशमा के मुँह पर लगाई थी, जिसके बाद उसे गाँव से भागते हुए जाने को कहा गया. रेशमा वहीं खड़ी रही, उसे अंतिम बार अपने माँ बाबूजी को देखना था, जिनकी अधजली लाश वहां पड़ी हुई थी. उसे बार बार भागने को कहा गया जब वो नहीं भागी तो भीड़ में से उड़ता हुआ एक पत्थर उसके शरीर पर लगा और फिर पत्थरों की बरसात होने लगी. एक ने तो आगे आकर उस पर डंडे बरसाने शुरू कर दिए. दर्द से कराहती हुई रेश्मा को मजबूरन भागना पडा. वो अपना दुपट्टा सम्भालते हुए, बेतहाशा रोते हुए भागी जा रही थी और गाँव की भीड़ उस पर पत्थर बरसाती हुई उसके पीछे भाग रही थी.
यही वो गाँव था, यही वो लोग थे जो रेश्मा के घर से निकलने पर अपनी नज़रें बिछाए रहते थे. उनका बस चलता तो रेश्मा के लिए रास्ते भर फूल बिछा देते. आज उसी रेश्मा पर यही लोग पत्थरों की बारिश कर रहे थे. छुन्नू अपनी बुलेट पर अभिराज को बिठाए भीड़ के साथ साथ चल रहा था. उसे आज बहुत सुकून महसूस हो रहा था. उसे लग रहा था रेश्मा जिस हुस्न के गुरूर में उसे कभी घास नहीं डालती थी आज उसने उसी जवानी पर कालिख पोत दी है. आज एक लड़की को अनाथ बना कर उसे डायन बता कर उस पर पत्थर चलवा कर छुन्नू खुद को बहुत ताकतवर समझ रहा था. उसने एक कमज़ोर सी लड़की को अपना सबसे बड़ा दुश्मन माना और आज उसका सब कुछ बर्बाद कर के वो खुद की मर्दानगी पर घमंड कर रहा था.
रेश्मा के पैर थक गए थे, पत्थरों की चोट से वो लहूलुहान हो गयी थी. कोई ऐसा नहीं था जो उसे इन जालिमों के जुल्म से बचा पाता. उसका दोस्त मृदुल भी न जाने ऐसे वक़्त पर कहाँ गायब था. अभी उसने आधा रास्ता भी नहीं पार किया था. वो इतनी निराश हो चुकी थी कि भगवान से गुहार भी नहीं लगा पा रही थी. उसे लगा अब उसे कोई नहीं बचा पायेगा लेकिन कहते हैं ना ‘जाको राखे साइयां मार सके ना कोए’. रात का अँधेरा उसकी ढाल बना. उसी समय पूरे गाँव की बिजली चली गयी और तेज आंधी आ गई. मानों कुदरत खुद उसे बचाने आ गयी हो. आंधी की वजह से उड़ रही मिट्टी और अँधेरे में रेशमा कहीं गायब हो गयी. कोई उसे देख नहीं पाया कि वो कहाँ गयी है.
रेश्मा भागती रही बिना सोचे कि वो कहाँ जा रही है.उसमें एक अलग सी ताकत आ गयी थी. इस आंधी में भी वो भागे जा रही थी. बहुत देर तक भागने के बाद उसने पीछे मुड़ कर देखा, उसके पीछे कोई नहीं था. वो उसी सड़क पर आ गयी थी जहाँ से उसकी बर्बादी की कहानी शुरू हुई थी. उसने खुद को इस सड़क किनारे झाड़ियों में छुपा लिया. उसे पता था छुन्नू के गुंडे उसे कुत्तों की तरह खोज रहे होंगे. वो सुबह भी यहाँ आयेंगे क्योंकि उन्हें पता है रेश्मा यही से बस पकड़ेगी.
रेश्मा के ऊपर से खतरा टला नहीं था लेकिन उसे किसी बात की परवाह नहीं थी क्यूंकि अब माँ बाबूजी के जाने के बाद तो उसका सब कुछ ख़तम हो चूका था. उसने फैसला किया कि वो यहाँ नहीं रुकेगी, चलती रहेगी. उसने मेन सड़क के बदले झाड़ियों से होते हुए आगे बढ़ने का फैसला किया. नंगे पैर भागती रेशमा के पैरों में अनगिनत कांटे चुभ चुके थे लेकिन वो भागे जा रही थी. जब भी वो किसी गाडी या बाइक की लाईट पड़ते देखती तो वहीं छुप जाती. भागते भागते वो अपने गाँव के बस स्टॉप से बहुत दूर आ गयी थी. उसने हरिया से सुन रखा था कि गाँव से पहली बस सुबह 5 बजे गुजरती है. उसे घंटा भर और इंतज़ार करना था.
छुन्नू की हवेली पर बोतलें खुल चुकी थीं, जीत का जश्न मनाया जा रहा था. उसने रेश्मा को खोज कर लाने वाले को 20 हजार का इनाम देने का ऐलान किया था. ये उसके प्लान में पहले से था कि अगर रेश्मा बच निकली तो वो गाँव वालों की नज़रों में भाग चुकी होगी लेकिन वो उसे पकड़ का अपने पास लाएगा और उसे अपनी रखैल बना कर रखेगा. रेशमा का सब कुछ छीन लेने के बाद भी उसे चैन नहीं पड़ रहा था. उसके जश्न में एक बूढी मगर बुलंद आवाज़ ने खलल डाली..
टेकराम- छुन्नू ये तूने ठीक नहीं किया. हम भी कभी जवान थे, हम में भी जूनून था, हमने भी गलतियां की हैं लेकिन तूने जो किया है वो पाप है और ये समझ ले कि पाप की सजा इंसान को किसी भी हाल में भुगतनी पड़ती है. वक्त की लाठी बे आवाज़ होती है छुन्नू, जब पड़ेगी तो तू चिल्लाने के काबिल भी नहीं रहेगा.”
टेकराम पहला ऐसा शख्स था जिसने छुन्नू के सामने बोलने की हिम्मत की थी. उसकी बातें सुन कर छुन्नू का सारा मज़ा किरकिरा हो गया. वो उस पर चिल्लाया..
छुन्नू सेठ- “चुप कर बुड्ढे, वो ज़माने लद गए जब तू ज्ञान दिया करता था और हम चुप चाप सुन लिया करते थे. अब अगर दोबारा मनहूसियत फैलाई या हमको ज्ञान दिया तो तेरी बेटी को उसी तरह घर से निकालूँगा जैसे उस कुतिया को निकाला है. तू जानता नहीं कितने बड़े हैवान हैं हम. हमको एक मिनट देर नहीं लगेगी तुम्हें और तुम्हारी बेटी को यहाँ से निकालने में. इसलिए हमारा दिमाग मत ख़राब कर, मुंह बंद कर और यहाँ से निकल जा.”
एक समय था जब छुन्नू टेकराम के इर्दगिर्द उसके पालतू कुत्ते की तरह घूमा करता था. उसका विश्वास जीत कर उसने उसकी बेटी से शादी की और धीरे धीरे सारी पावर अपने हाथ में ले ली. उसे सरपंच बनाने वाला भी टेकराम ही था. लेकिन आज वो उसकी ज़रा भी कद्र नहीं करता. टेकराम भी अपनी बेटी की वजह से कुछ नहीं बोल पाता. टेकराम छुन्नू के मुंह से अपनी बेज्जती सुन कर उलटे पाँव लौट गया. वो इतना बेबस हो चुका था कि अब अपनी बेटी से मिलने की भी हिम्मत नहीं कर पाता था. उपरी मंजिल के कमरे की खिड़की से दो आंखें हमेशा की तरह ऐसे झाँक रही थीं जैसे छुन्नू के कर्मो का हिसाब जोड़ रही हों.
इधर रेशमा चलते चलते बहुत दूर निकल आई थी. अभी बस आने में कुछ वक्त बाकी था. उसे चलते हुए ठेस लगी और वो गिर पड़ी. गिरते ही उसे ऐसा लगा जैसे किसी ने नींद से जगा दिया हो. वो अपने माँ बाबू को याद कर फूट फूट कर रोने लगी. उसके मन में आ रहा था कि ये सब उसी की वजह से हुआ है. अगर वो मृदुल से मिलने ना जाती तो उसके माँ बाबा जिंदा होते. वो खुद को स्वार्थी मान रही थी क्योंकि उसने खुद की आज़ादी के लिए उन्हें मरने दिया. वहीं छुन्नू का चेहरा याद आने पर वो गुस्से से भर गयी. उसने सोच लिया था कि अगर वो जिंदा बच गयी तो छुन्नू को जिंदा नहीं छोड़ेगी.
सुबह के पांच बज चुके थे, रौशनी अँधेरे को काटने लगी थी. उसे दूर से बस का हॉर्न सुनाई दिया. वो समझ गयी कि ये यहाँ से निकलने वाली सबसे पहली बस है. उसने एक नजर सड़क पर मारी. सड़क एक दम खाली थी. उसने अपने दुप्पट्टे से अपने मुंह को पूरी तरह ढक लिया और बस को रुकने का इशारा करने लगी. अभी उजाला इतना भी तेज नहीं था कि बस से रेश्मा की हालत दिख पाती. अगर दिखती तो शायद ये बस बिलकुल ना रूकती. उसके माथे हाथ सब जगह चोट के निशान थे, कपड़े मिट्टी से सने हुए थे. उसे देख कर कंडक्टर ने ऐसे मुंह बनाया जैसे सोच रहा हो कि बेकार में बस रोक दी. बस अभी सही से रुकी भी नहीं थी इतने में रेश्मा चढ़ गयी. उसे डर लग रहा था कि कहीं छुन्नू के गुंडे उसे ना देख लें.
बस में चढ़ते ही उसने सबसे पहले सभी सवारियों पर एक नजर दौडाई. जब उसे ये तसल्ली हो गयी कि इनमें उसके गाँव का कोई नहीं तभी वो सीट की तरफ बढ़ी. बस में बहुत ज्यादा भीड़ नहीं थी. उधर रतौली के बस स्टैंड पर छुन्नू के चमचों की भीड़ जमा थी. सबको 20 हजार का लालच था. सब उसे इधर उधर खोज रहे थे मगर किसी ने ये नहीं सोचा था कि रेश्मा इस जख्मी हालत में गाँव से 5 किमी दूर तक पैदल ही चली जाएगी.
इधर रेशमा को बस में चढ़ते ही वो सब याद आने लगा जो उसके साथ पिछले दिनों बीता था. उसका मन कर रहा था ज़ोर से चिल्ला दे. इस समय हर कोई उसे ही घूर रहा था. वो खुद को सबकी नज़रों से बचाने की कोशिश कर रही थी मगर उसके कपडे और उसकी हालत उसे बचने नहीं दे रहे थे. तभी कंडक्टर उसके पास आया और टिकट के लिए पूछने लगा. “कहाँ जाना है?”
रेशमा- ये बस कहाँ जाती है?
कन्डक्टर ने जवाब दिया, “लखनऊ.” रेशमा ने कुछ देर सोचा और बोली
रेश्मा- लखनऊ की ही दे दीजिये.
रेश्मा ने टिकट तो मांगी मगर पैसे नहीं दिए. कंडक्टर ने कुछ सैकेंड तक इंतज़ार किया, फिर बोला.. “बस बोल देने से नहीं होता पैसे देने पड़ते हैं. 270 रुपये निकालो.”
रेश्मा को झटका लगा. उसके पास तो एक चवन्नी तक नहीं थी. वो टिकट के पैसे कहाँ से देगी. उसने कंडक्टर से बहुत गुहार लगायी कि उसके पास पैसे नहीं है, वो उसे ऐसे ही लखनऊ ले जाए मगर कंडक्टर ने उसकी एक नहीं सुनी. गालियाँ देते हुए उसने उसकी बांह पकड़ी और बस से उतारने लगा. बस रुकी, कंडक्टर ने रेश्मा को बस से बाहर धक्का देने की कोशिश की, इतने में किसी ने पीछे से कंडक्टर का कॉलर पकड़ लिया और एक कड़कती आवाज़ आई…
क्या रेश्मा छुन्नू के गुंडों से बच कर निकल पायेगी?
रेश्मा की मदद के लिए क्या कोई मसीहा आएगा?
जानेंगे अगले चैप्टर में!
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