डिस्क्लेमर: “यह केस वास्तविक घटनाओं से प्रेरित है, लेकिन इसमें प्रस्तुत सभी पात्र और घटनाएँ पूरी तरह से काल्पनिक हैं। किसी भी वास्तविक व्यक्ति, स्थान, या घटना से कोई समानता मात्र एक संयोग है।”

बनारस की गलियों में खौफ का साया मंडराने लगा था। इंस्पेक्टर हर्षवर्धन को मिठाई की उसी दुकान के सामने एक इकलौता गवाह मिला। जिसने मौत वाले दिन किसी अजीब से आदमी को देखने की बात कही थी।

हर्षवर्धन तुरंत उसे गाड़ी में बैठाकर पूछताछ के लिए थाने ले आया। पुलिस के पास अभी तक कोई भी ठोस सुराग नहीं था। ना ही रामू की दुकान से कुछ संदिग्ध मिला था।

हर्षवर्धन के लिए उस अनजान आदमी की गवाही एक अच्छी लीड बन सकती थी। हालांकि उसके चाल-ढाल से यह नहीं लग रहा था कि वह सच बोलेगा। लेकिन पुलिस कोई भी सुराग ऐसे ही छोड़ नहीं सकती थी।

यह केस भले ही दिखने में बहुत साधारण लग रहा था, लेकिन इसके अंदर कई रहस्य की गांठें छिपी हुई थीं, जिन्हें खोलना ज़रूरी था। अब बस उस गवाह के बयान का भरोसा था।

नेरेशन:

टीम उसे थाने ले आई थी। हवलदार ने उसे बैठने के लिए कुर्सी दी। पान खाता हुआ वह आदमी बिल्कुल उलझन में लग रहा था। हर्षवर्धन उसके सामने बैठता है और उससे सवाल पूछना शुरू करता है। वह बड़े आराम से उससे उसका नाम पूछता है।

इन्स्पेक्टर: “शुरू करते हैं...पहले तो ये बताओ कि तुम्हारा नाम क्या है?”

सामने बैठे आदमी ने बिना किसी झिझक के सिर हिलाते हुए अपना नाम बताया।

देव: “देव आनंद नाम है मेरा। प्यार से लोग देव बुलाते हैं।”

हर्षवर्धन को यह सुनकर थोड़ा अजीब सा लगा। उसने सोचा, इस 45 साल के आदमी को कौन "प्यार से" बुलाता होगा। उसने दूसरा सवाल किया।

इन्स्पेक्टर: “तो देव, आप क्या करते हैं? और उस दिन आप वहाँ क्या कर रहे थे?”

देव ने बड़े गर्व से जवाब दिया।

देव: “मैं खेल दिखाता हूँ, सांप का खेल। दशाश्वमेध घाट के बाहर, दुकान के बगल में मैं रोज़ बैठता हूँ।”

हर्षवर्धन ने उससे फिर से पूछा।

इन्स्पेक्टर: "उस दिन वहाँ क्या देखा था?"

देव: “वो अजीब आदमी, जो दशाश्वमेध घाट के पास था।”

हर्षवर्धन ने सवाल को फिर से दोहराते हुए पूछा।

इन्स्पेक्टर: “हाँ...क्या देखा था? किसे देखा?”

देव ने अपने सिर को ऊपर किया और कुछ सोचने लगा। थोड़ी देर बाद उसने कहा...

देव: “मैंने उसे देखा था...हाँ, वह वहीं था। लेकिन...उसका चेहरा याद नहीं आ रहा।”

हर्षवर्धन ने थोड़ी ऊँची आवाज़ में कहा।

इन्स्पेक्टर:  “कैसा था वो? उसके कपड़े कैसे थे?”

देव याद करने की कोशिश कर रहा था। हर्षवर्धन को हल्का-सा गुस्सा आ रहा था।

देव: “वो भी याद नहीं है। मगर मैंने उसे देखा था।”


इस बार हर्षवर्धन ने ऊँची आवाज़ में पूछा...

इन्स्पेक्टर: "देव, तुम ये पहले भी कह चुके हो। तुम्हें कुछ और याद करना होगा। हम किसी भी सुराग को छोड़ नहीं सकते।"


हर्षवर्धन को लग रहा था कि वह झूठ बोल रहा है। उसने किसी को नहीं देखा है। शायद गोले के नशे में पुलिस के पास आ गया। लेकिन देव ने एक गहरी साँस ली और याद करते हुए कहा...

देव: “मैं कोशिश कर रहा हूँ, साहब। रोज़ इतने नए लोगों को देखता हूँ। पर उस दिन... ज़्यादा भीड़ थी। सबकुछ भीड़ से लिपटा हुआ था।”


हर्ष कुछ बोलने ही वाला था कि देव ने फिर कहा...

देव: "वो रोज़ मेरे सपने में भी आता है... साहब। एक पर्ची की तरह।"


हर्षवर्धन को समझ नहीं आ रहा था कि उसे क्या कहना चाहिए। देव के अनुसार, वह आदमी उसकी यादों में एक डरावनी परछाई बन चुका था। सपनों में वह बार-बार उसी चेहरे को देखता, लेकिन जैसे ही वह यादों को पकड़ने की कोशिश करता, वह धुंधला हो जाता।

हर्षवर्धन के माथे की शिकन गहरी होती जा रही थी। उसके सामने सिर्फ़ वह पान खाता संपेरा और उसकी बेतुकी धुंधली गवाही थी। हर्षवर्धन ने एक और बात नोटिस की—देव पसीने से भीग गया था। इसका मतलब था कि उसने सच में किसी को देखा है। उसके चेहरे पर मौत का ख़ौफ़ साफ झलक रहा था। फिलहाल उसने देव को जाने दिया और इस मंथन में लग गया कि क्या उसकी बातों को मानना चाहिए या यह सब पुलिस का समय खराब करेगा।

बनारस की यह चहल-पहल अब हर्षवर्धन को बंद गलियों का एक जाल लगने लगी थी, जहाँ हर मोड़ पर एक नया सवाल खड़ा था। वह और उसकी टीम गोदौलिया चौक से लेकर अस्सी घाट की संकरी गलियों में संदिग्धों की खोज में भटक रहे थे, लेकिन हर बार सुराग उनके हाथों से फिसल जाता। हर्षवर्धन गाड़ी में बैठे-बैठे लोगों के चेहरे देख रहा था। तभी उसके पास एक कॉल आया। उसने गला साफ़ करते हुए कॉल उठाया और कहा...

इन्स्पेक्टर: "जय हिंद, सर... अभी तक कोई अपडेट नहीं है, मगर केस के पीछे ही लगा हूँ, सर।"


सामने से किसी बड़े अधिकारी का फ़ोन था। हर्षवर्धन बस फ़ोन की उस पार की बातें सुनता रहा। उसके पास कोई ठोस जवाब नहीं था। मीडिया, राजनेता, और बड़े अधिकारी—सबको जवाब चाहिए था।

उसने फ़ोन रखा, एक लंबी साँस ली और गाड़ी में बैठी अपनी टीम पर गुस्सा निकालते हुए कहा...

इन्स्पेक्टर: "हमारे पास अब वक़्त नहीं है। मीडिया और पब्लिक दोनों सवाल पूछ रहे हैं। अगर जल्द ही कोई ठोस सुराग नहीं मिला, तो हमारे लिए मुश्किल खड़ी हो जाएगी।"


बनारस की गलियाँ, जो कभी मिठाई की ख़ुशबू और गंगा आरती की धुनों से गूँजती थीं, अब सवालों में डूबी हुई थीं। लोग अपने परिवारों के साथ घरों में ज़्यादा सुरक्षित महसूस कर रहे थे। गली के नुक्कड़ पर बैठे चायवाले अब अपनी दुकानों के ख़ाली टेबल को चुपचाप देख रहे थे। जहाँ कभी खाने के स्टॉल्स पर भीड़ रहती थी, वहाँ अब सन्नाटा था। कुछ दिन पहले तक जहाँ ज़िंदगी चल रही थी, अब वहाँ रहस्यमयी मौतों का डर मंडरा रहा था।


हर्षवर्धन का गुस्सा और निराशा दोनों बढ़ते जा रहे थे। हर बार की तरह, उन्हें किसी अजनबी से कोई ठोस सुराग नहीं मिल रहा था। कुछ तो था जो पुलिस की पकड़ के बाहर था। देव के सपनों का वह आदमी अभी तक बस एक धुंधली याद ही था।

इसी दौरान, बनारस की सड़कों पर एक और मौत की खबर फैल गई। एक और पर्यटक मृत पाया गया था और इस बार भी मौत के हालात वैसे ही थे। खाना खाने के बाद आदमी का मर जाना। हर्षवर्धन को पहले ही इतने फोन के सवालों के जवाब देने थे। अब वह पहले से भी ज्यादा दबाव में आ गया था। बनारस की गुस्साई भीड़, मीडिया और राजनीतिक हस्तियां सब जवाब मांग रही थीं।


इसी बनारस में एक और व्यक्ति था जो इस केस की छानबीन कर रहा था। इस तनावपूर्ण माहौल में, एक पत्रकार थी, जो इन सवालों के जवाब ढूंढ़ रही थी। आकृति, जो एक समझदार और तेज-तर्रार पत्रकार थी, ऐसे केस पसंद करती थी, जिनके सुलझने की संभावना बहुत कम होती है।

आकृति ने अपनी सूझ-बूझ और अपने गोपनीय सूत्रों की मदद से केस की जांच को एक नई दिशा में मोड़ दिया था। उसे समझ आ गया था कि पुलिस से कुछ चूक हो रही है। उसने हर्षवर्धन को फोन किया और मिलने के लिए विश्वनाथ गली की प्रसिद्ध चायवाले की दुकान पर अकेले बुलाया।

हर्षवर्धन उस चाय की दुकान पर आकृति से पहले ही पहुंच चुका था। वह अब कोई भी मौका जाने नहीं देना चाहता था। आकृति वहां आई। पत्रकारिता आकृति का जुनून था, इसलिए वह अपने काम को बेहद लगन और प्यार से करती थी। आते ही उसने हर्षवर्धन से हाथ मिलाया और चाय वाले भैया से कहा...

आकृति: "भैया... दो चाय देना।"


हर्षवर्धन की आंखों में हड़बड़ी साफ झलक रही थी। आकृति ने इस बात को नोटिस किया और कहा...

आकृति: “मैं जानती हूं आप यहां सिर्फ चाय पीने नहीं आए हैं... हर्षवर्धन, मुझे एक अज्ञात स्रोत से कुछ ऐसा मिला है, जिसे सुनने के बाद आपको भी यकीन होगा कि यह सिर्फ एक सीरियल किलिंग नहीं है। मुझे शक है कि इसके पीछे एक संगठित गिरोह का हाथ हो सकता है, जो यह सब किसी बड़े उद्देश्य के लिए कर रहा है।” 


आकृति की बात सुनकर हर्षवर्धन के दिमाग में एक नई चिंता घूमने लगी। क्या वाकई ये हत्याएं सिर्फ ज़हर देकर की जा रही थीं, या इसके पीछे कोई गहरी साजिश छुपी थी? आकृति की जानकारी ने हर्षवर्धन को एक नई दिशा में सोचने पर मजबूर कर दिया। उसने अपनी बात रखी...

इन्स्पेक्टर: “तुम्हें इस बात का पूरा यकीन है, आकृति? अगर यह सच है, तो हमें इस मामले की तह तक पहुंचने के लिए अलग दिशा में देखना होगा।”


आकृति ने चाय की घूंट भरते हुए आत्मविश्वास के साथ कहा...

आकृति: "मैंने इसे काफी गहराई से देखा है और मेरा यकीन है कि ये सब महज़ हत्याएं नहीं हैं। ये किसी बड़ी साजिश का हिस्सा हो सकती है।"


हर्षवर्धन को उस पर यकीन था। मगर अपने सवाल को रोक नहीं पाया और पूछा...

इन्स्पेक्टर: “आकृति, तुम्हें यह खबर कहां से मिली?”


आकृति को उसके सवाल का बुरा नहीं लगा। वह जानती थी कि पुलिस का दिमाग कैसे चलता है। उसने हल्की सी मुस्कान के साथ जवाब दिया...

आकृति: “आपको मुझ पर विश्वास करना होगा। यह एक गोपनीय स्रोत है। मुझे लगता है कि आप समझ गए होंगे।”


आकृति की यह बात सुनकर हर्षवर्धन ने फैसला कर लिया था कि अब इस मामले की जांच और तेज करनी होगी। लेकिन सवाल यह था कि क्या उनके पास अब भी वक्त था? क्योंकि बनारस में डर का साया और गहरा होता जा रहा था।

अगली चाय की घूंट के साथ, आकृति ने हर्षवर्धन को बताया कि उसकी रिपोर्ट के अनुसार, शहर में एक संगठित गिरोह अभी भी सक्रिय है, जो इस सबके पीछे हो सकता है। क्या ज़हर सिर्फ एक बहाना था, या असली साजिश कुछ और थी? इस मौत के पीछे क्या कारण हो सकता है? कौन है यह संगठित गिरोह, जो आज भी सक्रिय है? इन सभी सवालों के जवाब जानने के लिए पढ़ते रहिए। 

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