डिस्क्लेमर: "यह केस वास्तविक घटनाओं से प्रेरित है, लेकिन इसमें प्रस्तुत सभी पात्र और घटनाएँ पूरी तरह से काल्पनिक हैं। किसी भी वास्तविक व्यक्ति, स्थान, या घटना से कोई समानता मात्र एक संयोग है।"
बनारस की गलियाँ रात के अंधेरे में लगभग मरी हुई-सी लग रही थीं। गंगा के तट पर फैली ठंडी हवा में हल्की-सी खनक थी। घाट पर अभी भी कुछ लोग बैठे भजन गा रहे थे। गलियों के बीच खड़े बैल, हर्षवर्धन की गाड़ी को ऐसे देख रहे थे जैसे कोई राज़ बताना चाहते हों।
महाकवि तुलसीदास ने वाराणसी के तुलसी घाट पर श्रीकृष्ण की लीला का आयोजन करवाया था। कहीं दूर से लीला के संवाद कानों तक आ रहे थे। इसके अलावा दूर-दूर तक कोई आवाज़ सुनाई नहीं दे रही थी। रात के लगभग 12:30 बज रहे थे। हर्षवर्धन गाड़ी से उतरते ही चारों तरफ नज़रें घुमाने लगा। कुछ औघड़ घाट के किनारे आग जलाकर सुबह होने का इंतज़ार कर रहे थे। तीन-चार कुत्ते उनके आसपास मंडरा रहे थे।
थोड़ी दूरी पर, घाट के किनारे किसी पुरानी बिल्डिंग की छाया में आकृति खड़ी थी। अपने जुनून को पेशे में बदलने वाली, तेज़-तर्रार पत्रकार आकृति बनारस के अपराध जगत की गहरी जानकार थी। बनारस में अपराध की ऐसी कोई जड़ नहीं थी, जिसकी ख़बर उसे न हो। हर्षवर्धन की आकृति से आज दूसरी मुलाकात थी। यह मुलाकात बहुत अहम थी। आकृति की आंखों में डर तो था, लेकिन वह उसे कभी हावी नहीं होने देती थी।
हर्षवर्धन ने उसे देखते ही इशारा किया। आकृति वहीं खड़ी रही। हर्षवर्धन उसके बगल में जाकर खड़ा हो गया। आकृति ने ही उसे आज मिलने बुलाया था। उसे पता था कि जो जानकारी वह आज रात हर्षवर्धन को देने वाली थी, वह हालात को और खतरनाक बना सकती थी। हर्षवर्धन ने गंभीरता से कहा...
इन्स्पेक्टर : “आकृति, क्या कोई नई जानकारी मिली है? इस मामले का सिरा मिलना बहुत ज़रूरी है।”
आकृति की नजरें घाट के कुत्तों पर टिकी हुई थीं। उसने चौकन्नी निगाहों से माहौल का जायज़ा लेते हुए धीरे से कहा...
आकृति: "हां... मामला जितना तुम सोच रहे थे, उससे कहीं ज़्यादा पेचीदा और ख़तरनाक है। ये सिर्फ ज़हर मिलाकर लोगों को मारने का केस नहीं है। बनारस के माफिया इसमें पूरी तरह शामिल हैं। उनको इन दो-चार मौतों से कोई फर्क नहीं पड़ता। और नहीं... रामू दुकानदार ने किसी को खाने में ज़हर नहीं दिया है।"
हर्षवर्धन गौर से आकृति की हर बात सुन रहा था। बोलते हुए आकृति की आंखें घाट की हलचल पर भी टिकी हुई थीं। उसने बात जारी रखी...
आकृति: "अब जो मैं कहने वाली हूं, वो बहुत अहम है। माफिया अपने व्यापारिक प्रतिद्वंद्वियों को डराने-धमकाने के लिए ज़हर का इस्तेमाल कर रहे हैं।"
हर्षवर्धन ने उसकी बात का तुरंत कोई जवाब नहीं दिया। अब उसे समझ में आ रहा था कि यह मामला सिर्फ ज़हरीला खाना देने का नहीं था, बल्कि पूरे शहर में एक संगठित अवैध गिरोह अपनी जड़ें जमा चुका है। इस बात का अंदाज़ा हर्षवर्धन को बिल्कुल नहीं था। आकृति के पास और भी जानकारी थी। उसने बातों को धीरे-धीरे समझाते हुए कहा...
इस बार हर्षवर्धन ने ऊँची आवाज़ में पूछा...
इन्स्पेक्टर : "देव, तुम ये पहले भी कह चुके हो। तुम्हें कुछ और याद करना होगा। हम किसी भी सुराग को छोड़ नहीं सकते।"
हर्षवर्धन को लग रहा था कि वह झूठ बोल रहा है। उसे शक था कि देव ने किसी को नहीं देखा और शायद गोले के नशे में पुलिस के पास आ गया। लेकिन देव ने एक गहरी साँस ली और याद करते हुए कहा...
देव: "मैं कोशिश कर रहा हूँ, साहब। रोज़ इतने नए लोगों को देखता हूँ। पर उस दिन... ज़्यादा भीड़ थी। सबकुछ भीड़ से लिपटा हुआ था।"
हर्ष कुछ बोलने ही वाला था कि देव ने फिर कहा...
देव: "वो रोज़ मेरे सपनों में भी आता है... साहब। एक पर्ची की तरह।"
हर्षवर्धन को समझ नहीं आ रहा था कि वह देव की बातों पर यकीन करे या नहीं। देव के अनुसार, वह आदमी उसकी यादों में एक डरावनी परछाई बन चुका था। वह सपनों में बार-बार उसी चेहरे को देखता, लेकिन जैसे ही उसे पकड़ने की कोशिश करता, वह धुंधला हो जाता।
हर्षवर्धन के माथे की शिकन गहरी होती जा रही थी। उसके सामने बस एक पान खाता संपेरा और उसकी बेतुकी धुंधली गवाही थी। लेकिन एक बात और थी जिसने उसे सोचने पर मजबूर कर दिया। देव पसीने से भीग गया था। उसका चेहरा देखकर साफ़ था कि उसने कुछ ऐसा देखा है, जिसने उसे अंदर तक हिला दिया है। फिलहाल, हर्षवर्धन ने देव को जाने दिया। लेकिन उसके मन में सवाल थे—क्या वह समय बर्बाद कर रहा है, या फिर देव की बातें सच्चाई के करीब हैं?
बनारस की ये चहल-पहल अब हर्षवर्धन को एक बंद गलियों का जाल लगने लगी थी। जहाँ हर मोड़ पर एक नया सवाल खड़ा था। वह और उसकी टीम गोदोव्लिया चौक से लेकर अस्सी घाट के बीच की संकरी गलियों में संदिग्धों की खोज में भटकते रहते, पर हर बार उनके हाथों से सुराग फिसल जाता।
हर्षवर्धन गाड़ी में बैठे-बैठे बस लोगों के चेहरे देख रहा था। तभी उसके पास एक कॉल आया। उसने कॉल उठाया और गला साफ़ करते हुए कहा...
इन्स्पेक्टर : "जय हिंद सर... अभी तक कोई अपडेट नहीं है, मगर केस के पीछे ही लगा हूँ सर।"
फोन दूसरी ओर से एक वरिष्ठ अधिकारी का था। हर्षवर्धन अब तक बस सुन ही रहा था। उसके पास कोई जवाब नहीं था। मीडिया, राजनेता, और वरिष्ठ अधिकारी—सभी को जवाब चाहिए था। लेकिन हर्षवर्धन के पास सिर्फ़ एक धुंधला चेहरा और बिखरे हुए सुराग थे। फोन रखते ही उसने गाड़ी में बैठे अपनी टीम पर नाराज़गी जताई...
इन्स्पेक्टर : "हमारे पास अब वक़्त नहीं है। मीडिया और पब्लिक दोनों ही सवाल पूछ रहे हैं। अगर हमें जल्द ही कोई ठोस सुराग नहीं मिला, तो हम सबके लिए मुश्किल खड़ी हो जाएगी।"
बनारस की गलियाँ जो कभी मिठाई की ख़ुशबू और गंगा आरती की धुनों से गूँजती थीं, अब सवालों में डूबी हुई थीं। लोग अपने परिवारों के साथ घरों में ज़्यादा सुरक्षित महसूस कर रहे थे। नुक्कड़ पर बैठे चायवाले अब अपनी ख़ाली दुकानों को देख रहे थे। जहाँ कभी खाने के स्टॉल्स पर भीड़ होती थी, अब लोग डर के साए में जी रहे थे।
उसी दौरान, बनारस की सड़कों पर एक और मौत की ख़बर फैल गई। एक और पर्यटक मृत पाया गया और इस बार भी मौत के हालात वैसे ही थे। खाना खाने के बाद आदमी का मर जाना हर्षवर्धन अब पहले से भी ज़्यादा दबाव में आ गया था। बनारस की गुस्साई भीड़, मीडिया, और राजनेताओं के सवाल अब और तीखे हो गए थे।
इसी बनारस में एक और शख़्स था जो इस केस की छानबीन कर रहा था। वह थीं आकृति—एक समझदार और बहादुर पत्रकार। आकृति को ऐसे केस पसंद थे, जिन्हें सुलझाना मुश्किल हो। उसने अपनी सूझ-बूझ और अंदरूनी सूत्रों की मदद से मामले की एक नई दिशा में जांच शुरू कर दी थी।
आकृति ने हर्षवर्धन को फोन किया और मिलने के लिए विश्वनाथ गली की प्रसिद्ध चाय की दुकान पर बुलाया। हर्षवर्धन पहले ही वहाँ पहुँच चुका था। आकृति आते ही बोली...
आकृति: “भैया, दो चाय देना।”
हर्षवर्धन की आँखों में तनाव झलक रहा था। आकृति ने यह भांप लिया और मुस्कुराते हुए कहा...
आकृति: "मैं जानती हूँ कि आप यहाँ सिर्फ़ चाय पीने नहीं आए हैं। मुझे कुछ ऐसी जानकारी मिली है जिसे सुनने के बाद आपको भी यकीन होगा कि ये हत्याएँ सिर्फ़ सामान्य नहीं हैं। मुझे शक है कि इसके पीछे एक बड़ा संगठित गैंग काम कर रहा है।"
नेरेशन:
आकृति की बात सुनकर हर्षवर्धन के दिमाग़ में एक नई चिंता ने जन्म लिया। क्या वाकई ये हत्याएँ किसी साज़िश का हिस्सा थीं? क्या इसके पीछे कोई बड़ा खेल छुपा था?
इन्स्पेक्टर : "क्या तुम्हें इस बात का पूरा यकीन है, आकृति? अगर ये सच है, तो हमें मामले को नए दृष्टिकोण से देखना होगा।"
आकृति: “मैंने इसे गहराई से देखा है। मेरा यकीन है कि ये महज़ हत्याएँ नहीं, बल्कि एक बड़ी साज़िश का हिस्सा है।”
आकृति की जानकारी ने हर्षवर्धन की सोच को नई दिशा दी। लेकिन सवाल ये था कि क्या उनके पास इतना समय था कि वह साज़िश को बेनकाब कर सकें?
आकृति: "ये लोग रामनगर के पास पीली कोठी में मिलते हैं। वहाँ कुछ बड़ा चल रहा है, हर्षवर्धन। हमें जल्दी से वहाँ छापा मारना होगा।"
इन्स्पेक्टर : "ठीक है। मैं अपनी टीम से बात करता हूँ। लेकिन हमें बहुत सतर्क रहना होगा। ये लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं।"
क्या आकृति की जानकारी सही थी? क्या ये हत्याएँ वाकई एक संगठित साज़िश का हिस्सा थीं? इन सभी सवालों के जवाब जानने के लिए पढ़ते रहिए।
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