प्रिया के भरोसे का विश्वासघात होता है। लज्जो अम्मा के कारण, अमर और वो भागने में नाकामयाब होते है। पहले महाराजा वर्मा के सैनिक प्रिया को पकड़ते है और फिर अमर की तलाश में सारा का सारा काशी लग जाता है मगर अमर मिलता है प्रिया के कमरे से, सारे सैनिक मिलकर अमर को महाराजा वर्मा के सामने पेश करते है और उसके बाद जो हुआ , वो होता देख प्रिया के होश उड़ जाते है, निहत्थे अमर पर महाराजा वर्मा के सैनिक हमला करने लगते है।  

अमर की चीखें प्रिया के दिल को भेद कर रख देती है वो दूर से चिल्लाते हुए बोलती है, “ अमर का कोई कसूर नहीं नहीं है उसके प्राण बख्श दीजिये, उसने मेरे लिए ये जोख़िम उठाया और इस वारदात की कसूरवार मैं हूँ अमर नहीं . मेरी आप से विनती है पिता जी अमर को जाने दीजिये, प्रिया की पुकार में इतनी तड़प थी की उसे देख महल की दासियों की आँखों से आंसू छलक आया, प्रेम की वेदना को इस तरह का धुत कार मिल रहा था, जबकि प्रेम तो पूजने योग्य है.  

प्रिया इतनी जोर से चींख रही थी सैनिकों की गिरफ्त से खुद को छुड़ाने की कोशिश कर रही थी। इसी कोशिश में उसके हाथ से खून निकल आया, रो-रो कर प्रिया की आँखें सूझ गई थी , पर प्रिया को इन सब दर्द का आभास ही नहीं हो रहा था उसके मन की पीड़ा ने उसकी शारीरिक पीड़ा को जगह ही नहीं दी, अमर... अमर .... अमर ...... चीखती रही।  

जब चीख चीखकर थक गई, तब कमज़ोर होकर ज़मीन पर गिर गई, प्रिया को ज़मीन पर लटका देख सैनिकों ने महाराजा वर्मा को प्रिया की हालत के बारे में सूचित किया, बदले में जो जवाब महाराजा वर्मा ने दिया उसे सुनकर महल के सारे लोग हैरान थे वो सोचने लगे की एक बाप अपनी बेटी के लिए मौत की इच्छा कैसे कर सकता है, जिस पल महाराजा वर्मा ने सैनिकों से कहां की प्रिया मरती है तो मर जाए, उस पल प्रिया महज़ जिंदा लाश बन गई थी . वो अपने अमर को दूर से बस  लड़ता देख रही थी.  

खुद में दर्द से बुदबुदा रही थी मेरा प्यार अमर है, और मेरी  हर सांस में तुम्हारा हक है अमर ऐसा कहते हुए वो बेहोश हो गई, अमर भी ठीक बाद बदहवास होकर ज़मीन पर गिर पड़ा, जब जिस्म से पहले रूह एक हो जाती है तो एक की तकलीफ से दूसरे को तकलीफ होती है और एक ख़ुशी से दूसरे की ख़ुशी, प्यार दो अनजाने लोगो को एक साथ जोड़ देता है. ये वो सौदा है जिसमें दोनों ही लोग नफ़ा नुकसान नहीं देखते है, देखते है तो सिर्फ एक दूसरे के प्रति प्यार एक दूसरे का समर्पण. अमर और प्रिया ने भी यही किया पर अंजाम उनकी सोच से परे रहा, दोनों को एक दूसरे पर बहुत  यकीन था इतना की उन्होंने इस दर्द भरी परिस्थिति में एक दूसरे को संभाल लिया.  

प्रिया और अमर ने आज ये बात तो साबित कर दी थी की उनके प्यार के आड़े ज़माना कभी  आ ही नहीं सकता, लोग अक्सर गैरों से जीत जाते है मगर घुटने टेक देते है हमेशा अपनों के आगे, देखा जाए तो ये एक तरह से अमर और प्रिया की परिवार से हार ही थी . एक तरफ प्रिया जिसके भीतर सिर्फ नाम की सांसे चल रही थी उसने जब सैनिको की बात सुनी तो उसे अपनी हालत पर तरस आने लगा. वो चाहती तो उस पल ही मर जाती पर इतनी लाचार थी उससे भी नहीं हुआ वो जैसे तैसे ज़मीन में घिसटते हुए दरवाज़े तक पहुंची और दरवाज़े से कान लगाकर सुनने लगी .

जहां एक सैनिक ने गहरी सांस लेते हुए कहा, "मेरी आँखों के सामने ही ऐलान हुआ।"

सैनिकों के बीच इस बात और जिज्ञासा बढ़ी, उन्होंने पूछा “तो क्या सच में...?” "हाँ, सच में। महाराजा वर्मा ने कुमार अमर को मृत्यु दंड देने का फैसला सुनाया है।" दूसरे सैनिक ने जवाब दिया। अपनी बात को आगे बढ़ते हुए कहा कि मैं वहीं खड़ा था। महाराजा ने "केवल फैसला नहीं सुनाया है। उन्होंने तो चेतावनी भी दी है कि यदि किसी ने भी औपचारिक या अनौपचारिक तरीके से इन्द्रप्रस्थ राज्य से संबंध बनाने की कोशिश की, तो इससे भी ज्यादा दर्दनाक दृश्य देखने को मिलेगा।"

इस बातचीत के साथ ही माहौल में एक गहरा सन्नाटा छा गया, जो केवल इस बात का संकेत दे रहा था कि इन्द्रप्रस्थ राज्य में अब कुछ भी सामान्य नहीं रह जाएगा।

सैनिकों की बातें  सुनकर प्रिया का टुटा मन उसी तरह चूर हो गया , जैसे शीशा चूर किया जाता है उसपर हथोड़ा मार-मार कर, सैनिकों द्वारा निकले गए शब्द उसके मन में हथोड़े जैसा ही वार कर रहे थे। अपने पिता महाराजा वर्मा के फैसले पर उसे गुस्सा तो बहुत आ रहा था . इतना की उसके अन्दर की तड़प, बगावत की तलवार बनने के लिए तड़प रही थी... हम जब गुस्से में होते है तो उसमें मिलाने लगते है आंसू, जज्बातों का बोझ बिना आंसू गिराए कैसे संभाला जाए,  

लाचार हो चुकी प्रिया कब रोते-रोते ही सो गई , उसे खुद भी पता नहीं चला, प्रिया नींद में भी अमर को पुकार रही थी...

प्रिया - अमर मैं आ रही हूँ तुम्हारे पास, तुम मेरा इंतज़ार करना।  

यही बातें बुदबुदाते हुए उसकी आँख लग गई| दो घंटे बाद जब उसकी आँखें खुली तो उसकी आँखों में कोई भाव नहीं दिख रहा था, आँखें लाल थी आंसू के कतरे आँखों के किनारों से दिख रहे थे . उतने बड़े महल में उसे कोई एक भी कोना ऐसा याद नहीं आ रहा था, जहाँ जाकर वो खुद को संभाल सके.... पर फिर जब खुद ही को याद आया कि वो जहाँ है वही कमरा उसे सुकून पहुंचा सकता तब वो खिड़की पर बैठ गई। प्रिया के कमरे में अब अभी अमर के मोगरे की इतर की खुशबू मौजूद थी, जिसे महसूस कर उसने अमर को अपने भीतर और बसा लिया, खिड़की में बैठकर प्रिया खुद से कहने लगी। 

प्रिया:  मैं यूँ इस तरह हार मानकर बैठ नहीं सकती, मुझे अमर के पास जाना ही होगा, पूरे दरबार में अमर ने अपने प्रेम की पराकाष्ठा दिखा दी अब मेरी बारी है, पर मुझे तो ये भी नहीं पता की वो जिंदा है भी की ..... नहीं नहीं ये मैं क्या सोच रही हूँ.  

प्रिया अपने कमरे के बाहर खड़े सैनिकों की फुसफुसाने की आवाज़ सुनती है , और दबे पाँव फिर दरवाज़े के पास आकर बैठ जाती है,  

जहां एक सैनिक ने धीमी आवाज में फुसफुसाते हुए पूछा, "तुमने तो कहा था कि महाराजा वर्मा ने राजा अमर को मृत्यु दंड दिया है, पर वे तो अभी जीवित हैं।"  

उसकी बात का जवाब दूसरे सैनिक ने गंभीर स्वर में दिया "हाँ, उन्हें मृत्यु दंड ही दिया गया है, लेकिन तिथि आने वाली पूर्णिमा के दिन, पाँच दिन बाद तय की गई है।"  

"उन्होंने राजा अमर को कहाँ बंदी बनाकर रखा है?" इस पर सैनिक 2 ने थोड़ा रुककर बताया, "महल से कुछ दूर जो शिव मंदिर है, उसके पीछे महाराजा ने गद्दारों की खातिरदारी के लिए काशीवास कोठरी बनाई है। राजा अमर को वहीं बंधक बनाकर रखा गया है।" जो भी पहले सैनिक ने सुन था उसने सब बता दिया था।  

दोनों के बीच की यह धीमी बातचीत खतरे को और भी स्पष्ट कर रही थी।

वो कहावत सुनी है आपने... डूबता को तिनके का सहारा चाहिए.... बस इस वक़्त सैनिकों की बातें प्रिया के लिए एक उम्मीद ही तो थी, जो इतने भयंकर तूफ़ान के बाद उसके लिए सूरज की किरणों सी थी, जिसके सहारे वो अमर तक पहुँच सकती थी |

बिना एक पल गवाएं प्रिया ने मन बना लिया की  वो अमर से मिलकर रहेगी। कब? कहाँ? कैसे? ये सोचने में उसे वक़्त लग रहा था कि तभी उसका ध्यान खिड़की पर गया और उसने भी वहीं किया जो अमर को करते हुए देखती थी.  

प्यार में हम खुद कब बदलने लगते है सामने वाले की आदत कब हमें लग जाती है. कब उसकी तरह बातें करने लग जाते है, कब सोचने लग जाते पता नहीं चलता....

प्रिया को तरकीब तो मिल गई, उसे पूरा करने का जुनून भी भरपूर था, बस इस बार आड़े कुछ आया तो  बड़ा सा महल और इस महल की महल की बड़ी बड़ी दीवारें... जिसे प्रिया को पार पड़नी थी, सिर्फ पार ही नहीं करनी थी उसे महल से निकल कर पास वाले शिव मंदिर के पीछे काशीवास में अमर को देखना था.

प्रिया का फौरन ध्यान उसके दुपट्टे पर गया उसने अपने 20 दुपट्टों को निकाला उसकी एक लम्बी रस्सी बनाई, जिसका एक सिरा पलंग से बाँधा और दूसरे सिरे के सहारे उतरकर वो बाहर जाने लगी.

महलों में पली बढ़ी प्रिया आज अपने प्रेमी अमर से मिलने के लिए नंगे पाँव तक दौड़ रही थी. सच कहते है. इश्क को जब मुक़म्मल करना हो तो सबसे पहले छोड़ना पड़ती है शोहरत भरी ज़िन्दगी और होना पड़ता है शुन्य .

छुपते छुपाते प्रिया आखिरकार काशीवास  पहुँच ही गई अमर से मिलने। अमर की हालत देख प्रिया का दिल कचोट गया...बावजूद इसके उसने अपने चेहरे पर मुस्कान रखी और कहां....  

प्रिया: आप नहीं आये तो मैं ही आ गई तुमसे मिलने.  

जिसकी आँखें पिछले दो दिनों से नीचे झुकी हुई थी, जिसकी थाली में खाना ज्यों का त्यों ही रखा हुआ , उसने प्रिया की आवाज़ सुनकर फ़ौरन सर उठाया -

अमर : प्रिया .... आप ?  

प्रिया : हमारे पास ज्यादा वक़्त नहीं बस आप से एक वादा करने आये है, की आपकी सजा से पहले आपको बा इज्ज़त काशीवास से निकालेंगे  

अमर : हमें यकीन था आप रास्ता निकाल लेंगी .

प्रिया : आप हमारी मंजिल है अमर, आप से मिलने के लिए हम ऐसे कई रास्ते निकाल लेंगे, चाहे इन रास्तों में चलकर हमें हमारी जान को ही क्यों न दांव पर लगाना पड़े, अच्छा अभी हम चलते है...  

अमर बस प्रिया की बातें सुन रहा था और सोच रहा था कि ये वही प्रिया है जिसके हाथ काँप जाते मेरी युद्ध की बातें सुनकर.. और आज मेरे लिए ये बाग़ी भी हो गई... अमर ने प्रिया को तुरंत रोकते हुए कहां-  

अमर : ज़रा ठहरिये.. कुछ कहना है आपसे।  

प्रिया : क्या ?

अमर : हम नहीं जी पाएं अपनी कहानी, कहानी जो रहती बाकी प्रेमियों की तरह, जिसमें पत्र और तोहफे दिये जाते, हमारे हिस्से तो जंग आ गई. जिसमें एक तरफ जज़्बात है और दूसरी तरफ तकरार पर इस जंग को कभी भी तलवार से जीता नहीं जाएगा, इसके इसमें सबसे ताक़तवर हथियार प्यार ही होगा... उन्हें तलवार उठाने देते है, हम प्यार रखते है  

इतना कहकर अमर ने प्रिया को जाने का इशारा किया, प्रिया जैसे ही पलटी उसने अपने पिता महाराजा वर्मा को चार सैनिकों के साथ, दूरी इतनी कम थी की वो भाग भी नहीं सकती थी.... वो मूर्ति बनकर कड़ी रही अमर उसकी तरफ बेबस आँखों से देखता रहा, उसकी आँखों में प्रिया को न बचा पाने का पछतावा साफ़-साफ़ नज़र आ रहा था.  

वहीं प्रिया को भी फिर से महल वापस ले जाया गया.. प्रिया चींखती  रही चिल्लाती रही पर महाराजा वर्मा ने अपनी ही बेटी की बातों को अनसुना करते हुए सैनिकों को आदेश दिया और कहां... प्रिया के कमरे के दरवाज़े के साथ खिड़की भी बंद कर दी जाए, महाराजा वर्मा के आदेश का पालन करते हुए सैनिकों ने प्रिया के कमरे की खिड़की भी बंद कर दी और प्रिया को अपने ही कमरे में बंदी बना दिया गया....  

प्रिया समझ चुकी थी की अब अमर और उसके रिश्ता आखिरी सांस ले रहा है, पर वो कर रही थी उन आखिरी साँसों तक अमर की रिहाई की कोशिश पर किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था.... प्रिया को इस बात पर तब और यकीन हुआ जब उसने सैनिकों को बातें करते हुए सुना  

"अब तो राजा अमर का बच पाना मुश्किल है। महाराजा वर्मा ने अपनी ही बेटी को सजा सुना दी, इससे बड़ी बात और क्या होगी। ये बात तो सोच कर ही आत्मा काँप उठती है.. लेकिन क्या करें, दुश्मनी चीज ही ऐसी है।"  अब कुछ हो भी नहीं सकता। महाराजा का फैसला... यानी पत्थर की लकीर।  

एक और सैनिक ने कहा “मैंने तो यह भी सुना है कि राजा अमर को मृत्यु दंड अब केवल दो ही दिनों में मिलने वाला है।"  

उनके शब्दों के साथ ही हवा में अजीब सा सन्नाटा और भय फैल गया, मानो नियति ने अपने क्रूर निर्णय पर अंतिम मुहर लगा दी हो।

प्रिया, सैनिकों की बातें सुनकर उदास मन से ज़मीन पर बैठ गई और चींख-चींख कर रोने लगी।  

प्रिया की सारी उम्मीद उसके पिता महाराजा वर्मा की नफरत के आगे धरी की धरी रह गई, कैसे होगा प्रिया और अमर का मिलना या उनका प्यार रह जाएगा अधूरा? आगे क्या होगा, यह जानने के लिए सुनिए जन्म पुनर्जन्म का अगला एपिसोड।  

 

 

 

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