दिल वालों के शहर दिल्ली में, अश्विन की ज़िंदगी की पहली सुबह उतनी सुहानी नहीं थी, जितनी उसने उम्मीद की थी। कुछ देर पहले ही, वह हड़बड़ाते हुए अपने नए अपार्टमेंट की बिल्डिंग से सटे किराने की दुकान पर पहुँचा था, ताकि जल्दी से कुछ खाने-पीने का सामान ले आए और नाश्ता करके ऑफिस के लिए निकल सके। अश्विन ने जल्दबाज़ी में, दुकानदार की ओर देखते हुए कहा..
अश्विन: “आधा-आधा किलो काँदा-बटाटा देना, भाऊ।”
उसकी बात सुनकर, दुकानदार उसे ऐसे घूरने लगा जैसे मानो अश्विन किसी दूसरे ग्रह से आया हो। दुकानदार को घूरते देख, अश्विन ने अपने कानों से हेडफोन निकालते हुए फिर कहा।
अश्विन: "जल्दी दे ना भाऊ, ऑफिस के लिए देरी हो रही है।"
दुकानदार ने कंधे उचकाते हुए जवाब दिया, "सामान तो तब मिलेगा, जब पता चले कि चाहिए क्या!" इस पर अश्विन ने मुँह सड़ा लिया और ऊँगली से आलू और प्याज़ की ओर इशारा किया। दुकानदार भी कम नहीं था। उसने मजाकिया लहजे में कहा, "अब से इशारों में ही बातें किया करो।"
यह सुनकर अश्विन को एक बात तो साफ हो गई कि शहर बदलने पर ज़िंदगी बदले न बदले, भाषा जरूर बदलने वाली है। उसने दुकानदार को पैसे दिए, सामान लिया, और वहाँ से निकल गया।
जैसे ही अश्विन अपने ऑफिस पहुँचा, वह सबसे पहले एच.आर. डिपार्टमेंट में गया। वहाँ उसकी नज़र एक बेहद खूबसूरत लड़की पर पड़ी, जो पच्चीस - छब्बीस साल की लग रही थी। उसने काफी स्मार्टली ड्रेस-अप किया हुआ था। उसके भूरे, लंबे बाल जूड़े में बँधे हुए थे, और उसकी काली-काली आँखों की चमक देख, अश्विन का दिल जैसे लावणी डांस करने लगा हो! शीना ने अश्विन की तरफ मुस्कुराते हुए, प्रोफेशनल अंदाज़ में हाथ बढ़ाकर कहा।
शीना:"हैलो! मैं हूँ शीना। तुम अश्विन हो, राइट? वेलकम टू द एजेंसी। उम्मीद करती हूँ कि आपको यहाँ काम करके बहुत अच्छा लगेगा। गुड लक!"
अश्विन: "थैंक्स, शीना।"
शीना ने चपरासी को आवाज़ लगाई।
शीना: "हरी जी!" "इन्हें वरुण सर के पास ले जाइए।"
वहीं, जाते-जाते, अश्विन के दिमाग में ख्याल आया कि अगर शीना से थोड़ी और जान-पहचान कर ली जाए, तो कैसा रहेगा? फिर तुरंत ही उसने खुद को याद दिलाया कि वह एच.आर. डिपार्टमेंट में खड़ा है। इस तरह से उड़ते हुए तीर को न्योता देना मूर्खता कहलाती है।
सुबह से दोपहर हो चुकी थी, और अश्विन पागलों की तरह काम में उलझा हुआ था। उसने सोचा था कि जैसे ही वह नई कंपनी जॉइन करेगा, अपने तेज-तर्रार दिमाग, आइडियाज और क्रिएटिविटी से सबको इतना इंप्रेस कर देगा कि उसके कलीग, बॉस, और पूरी कंपनी उसे ऐडवर्टाइजिंग का बादशाह मान लेंगे।
जब उसकी मुलाक़ात अपने टीम लीडर वरुण से हुई, तो पहले ही दिन उसकी हालत पतली हो गई और हवा टाइट!
वरुण शर्मा, लगभग सत्ताईस-अट्ठाईस साल का, स्मार्ट, हैंडसम और आत्मविश्वास से भरा हुआ लड़का। वरुण न सिर्फ दिखने में शानदार था, बल्कि काम के मामले में भी कोई उसकी बराबरी नहीं कर सकता था। वरुण उस कंपनी का चमकता हुआ सितारा था। उम्र में भले ही वह अश्विन से छोटा था, लेकिन पद और क्रिएटिविटी के मामले में वह उससे कहीं आगे था।
और क्यों न हो? उसके पिच किए गए आइडियाज़ इतने शानदार होते थे कि क्लाइंट्स हर बार उसी के साथ काम करना चाहते थे। फिर चाहे वह साबुन का ऐड हो या किसी सोशल कॉज़ का कैंपेन। यह कहना गलत नहीं होगा कि वरुण उस एजेंसी का प्रिंस था।
वरुण के साथ हुई पहली छोटी-सी मुलाक़ात ने अश्विन को अंग्रेज़ी की मशहूर कहावत याद दिला दी: अगर आप किसी कमरे में सबसे बुद्धिमान व्यक्ति हैं, तो फिर आप ग़लत कमरे में हैं।
अश्विन को यह समझ में आ गया था कि इस कंपनी में असली शेर वरुण है। यहाँ अपनी धाक जमाने के लिए उसे न केवल बहुत मेहनत करनी पड़ेगी, बल्कि कई पापड़ बेलने होंगे। शाम को, थका-हारा अश्विन जब अपने अपार्टमेंट जाने के लिए ऑफिस से बाहर निकला, तो उसने अपनी थकान मिटाने का सस्ता, सुंदर, टिकाऊ उपाय ढूँढ लिया—ऑफिस बिल्डिंग के पास की चाय की टपरी। अश्विन ने दबी, थकी, गहरी आवाज़ और उदास लहजे में कहा
अश्विन:"एक कटिंग, और वो 20 का पैक देना, भाई।"
उसके चेहरे से साफ झलक रहा था कि वह दिनभर के काम से खुश नहीं था। "तो ऑफिस का पहला दिन कैसा रहा?" अचानक, उसके पीछे से एक आवाज़ आई। अश्विन ने सिगरेट को सुलगाया था कि वह चौंककर पलट। न जाने क्यों, उस आवाज़ ने उसके उदास मूड को थोड़ा बेहतर कर दिया। अश्विन ने मुस्कुराते हुए कहा
अश्विन: - “बढ़िया था सर!”
वरुण ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया कि अश्विन को इतना फॉर्मल होने की जरूरत नहीं थी और वह उसे उसके नाम से ही बुला सकता था। इसके बाद, अश्विन और वरुण चाय-सिगरेट की जुगलबंदी करते हुए इधर-उधर की बातें करने लगे।
बातों ही बातों में, बहुत ही कम समय में दोनों को यह एहसास हुआ कि उनकी ज़िंदगियाँ कई मायनों में एक-दूसरे से मिलती-जुलती थीं। दोनों ही अपने माँ-बाप के इकलौते बेटे थे, दोनों का मिडल-क्लास बैकग्राउंड था, और दोनों का पेशा ही उनका पैशन था।
इतना ही नहीं, दोनों ही अपने-अपने फैमिली बिजनेस को छोड़कर, अपनी पहचान अपने दम पर बनाने की कोशिश कर रहे थे। यह सब चीज़े उनके बीच एक बॉन्ड बनाते जा रहीं थी।
वैसे तो मुंबई की बारिशें अश्विन के लिए सुकून लाती थीं, लेकिन उनके साथ शहर में पानी भरने की टेंशन भी जुड़ी रहती थी। मगर आज, दिल्ली में अपने अपार्टमेंट के बरामदे में खड़ा, वह सिगरेट के धुएँ और पहली बारिश में उठती गीली मिट्टी की सौंधी खुशबू का लुत्फ उठा रहा था।
एक थकान भरे दिन के बाद, दिल्ली की पहली बारिश उसे राहत दे रही थी। बारिश और अश्विन का रिश्ता वैसा ही था, जैसा मछली का पानी से, प्यासे का कुएँ से, और शराबी का मधुशाला से होता है।
अचानक, बड़ी ज़ोर से बिजली कड़की और ऐसा लगा जैसे उसका सुकून भरा सपना टूटकर बिखर गया हो। उसके चेहरे पर छाई हल्की मुस्कान गायब हो गई और उसकी जगह उदासी ने ले ली। नम आँखों के साथ, वह अपने खयालों और सवालों में खोने लगा।
अश्विन को वह दिन याद आने लगा जब वह एक बड़े से कैफ़े के कोने में बैठा हुआ, दो घंटे से रिया का इंतज़ार कर रहा था। वह बार-बार उसे कॉल कर रहा था, लेकिन रिया कोई जवाब नहीं दे रही थी।
कुछ देर और इंतज़ार करने के बाद, अचानक उसके फ़ोन पर एक मैसेज आया। मैसेज पढ़ते ही, उसका मायूस और उदास चेहरा ख़ुशी से गुलाबी हो गया।
उसी वक्त, रिया भी कैफ़े में पहुँची, लेकिन उसके चेहरे पर अश्विन से मिलने की कोई ख़ुशी नहीं थी। उसका चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था। अश्विन ने कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि रिया ने टेबल पर अपना बैग ज़ोर से पटका, सामने वाली कुर्सी पर बैठी, और उस पर हल्ला बोल दिया।
रिया: "मैंने कहा था न कि मुझे आने में देरी हो जाएगी, तो फिर तुम इतनी जल्दी क्यों मचा रहे हो? और सत्ताईस मिस्ट कॉल्स कौन करता है? हद होती है किसी भी चीज़ की, यार! अगर मैं बिज़ी हूँ, तो मेरे फोन करने का इंतज़ार कर सकते थे, राइट?।
और सुनो, बार-बार मुझसे मिलने के लिए मेरे घर के आस-पास ऐसे मंडराया मत करो। अगर मेरे पापा या भाई को पता चल गया न, तो जानते हो क्या होगा!
तुमने तो जॉब छोड़ दी है, लेकिन मैं अभी भी उसी कंपनी में हूँ। इतना तो याद है न कि मैं कितने बजे तक ऑफिस से निकलती हूँ?"
रिया की बातों से ज़्यादा, उसका लहजा अश्विन को चुभने लगा था, लेकिन उसने पलटकर जवाब नहीं दिया। अश्विन ने बड़े ही प्यार से रिया की तरफ देखकर, मुस्कुराते हुए सवाल किया।
अश्विन: "अच्छा-अच्छा, सौरी बाबा! क्या ऑर्डर करूँ तुम्हारे लिए? इतने दिनों बाद मिले हैं हम यार… लगभग तीन महीने! बहुत ज़्यादा मिस कर रहा था तुम्हें। वैसे, तुम्हारे फेवरेट हीरो की फिल्म लगी है, अगर कहो तो कल की टिकट्स बुक करूँ? या शॉपिंग पर चलोगी?"
रिया ने ताना मरते हुए कहा
रिया:"मेरी छोड़ो, अपने लिए ठंडा दिमाग ऑर्डर करो, तुम्हें ज़रूरत है। तुम्हारे साथ कहीं नहीं जा सकती मैं, मुझे ऑफिस का काम है।"
अश्विन घर से सोचकर निकला था कि चाहे कुछ भी हो जाए, वह रिया से झगड़ा नहीं करेगा लेकिन रिया की बातों ने उसके गुस्से को उकसाना शुरू कर दिया था। फिर भी, उसने अपने गुस्से पर काबू रखा। रिया ने गहरी साँस ली, और फिर से अश्विन पर बरस पड़ी। ठीक वैसे ही, जैसे कैफ़े के बाहर तेज़ बारिश हो रही थी।
रिया: "कहो, क्या बातें करनी हैं तुम्हें? तुमने बात करने के लिए बुलाया है, तो अब गूंगे बनकर क्यों बैठे हो?"
रिया के तेवर और उसकी आवाज़ से अश्विन का पारा चढ़ रहा था, लेकिन फिर भी उसने अपने गुस्से को काबू में रखा। मुस्कुराते हुए, उसने अपने फोन पर एक मेल रिया को दिखाने की कोशिश की।
रिया: "तो तुम जा रहे हो? हमारा क्या, अश्विन? और अगर तुम्हें मुझे यही दिखाना था, तो स्क्रीनशॉट लेकर भेज देते। तुम्हें पता है न, तुम्हारे इस फैसले से हमारे रिलेशनशिप पर कितना असर पड़ेगा? लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशनशिप नहीं चल पाता! हमारे लिए बहुत मुश्किल हो जाएगी। क्या तुम मेरे साथ अपना फ्यूचर देखते भी हो? मुझे लगा कि कोई ज़रूरी बात होगी, इसलिए इतनी बारिश में भीगते-भीगते मिलने आई लेकिन तुम तो पहले ही यहाँ से भागने का इरादा बना चुके हो। ये भी एहसान क्यों किया, मुझे बताने का? जाने के बाद बता देते! अच्छा है, जाओ-जाओ, मेरा भी तुमसे पीछा छूटेगा!"
मेल देखकर, रिया और भी ज़्यादा फ्रस्ट्रेटेड होकर बोल रही थी। यह वही मेल था, जिसमें अश्विन को दिल्ली की नौकरी का ऑफर मिला था। रिया की बातें सुनकर अश्विन का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। वह कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।
रिया: "बस, यही तो करते हो तुम हमेशा। जब भी मैं कुछ कहती हूँ, तुम सुनने के बजाय उठकर चले जाते हो, जैसे मैं तुम्हारी दुश्मन हूँ। पता है तुम्हारी सबसे बड़ी दिक्कत क्या है, अश्विन? तुम्हें अपनी प्रॉब्लम्स फेस करना नहीं आता, बस उनसे भागना आता है। काश, तुम थोड़े इमोशनली इंटेलिजेंट होते और मुझे समझने की कोशिश करते।"
अश्विन के फ़ोन की घंटी ने, उसे उसके ख़यालों की दुनिया से बाहर निकाला। उसे रजत का कौल आ रहा था। उसने तुरंत ही फ़ोन उठाया, और फिर दोनों दोस्त बातें करने लगे, और बातों ही बातों में, उसने अपने पहले दिन की झुँझलाहट, अपने दिमाग़ से बाहर निकालकर फेंक दी।
रजत से बात करने के बाद, बारिश के मौसम के मज़े को दुगना करने के लिये, वह बरामदे के गीले फ़र्श पर बैठा, और बोतल से प्लास्टिक के कप में, शराब के छोटे-छोटे पेग बनाकर, गटकने लगा।
उसके ज़ेहन में मुंबई से दिल्ली आने के फैसले को लेकर डाउट्स पनपने लगे थे। उसने खुद से सवाल किया, "क्या चीज़ें ठीक हो जाएँगी? क्या सच में मुझे प्रॉब्लम्स फेस करना नहीं आता? क्या रिया सही थी? क्या मैं दिल्ली में सर्वाइव कर पाऊँगा? क्या मैं कुछ बन पाऊँगा?"
इन सवालों का बोझ उसके दिमाग पर भारी पड़ने लगा था। हर जवाब, एक और उलझन पैदा कर रहा था। तो क्या अब अश्विन वापस मुंबई चला जाएगा? जानने के लिए पढ़ते रहिए।
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