अपनी बड़ी बहन की हालत जानकर, दिव्या और नंदिनी दुःखी हुईं, फिर उन्होंने दसवीं की परीक्षा पास करने की ठान ली। संस्कृति ने परीक्षा से जुड़े जो भी सुझाव दिए थे, उन्हें दोनों बहनों ने एक-एक करके समझ लिया। परीक्षा में उन्होंने वही किया, जैसा उसने बताया था। हर दिन परीक्षा से लौटकर संस्कृति दोनों बहनों के दिए जवाबों की जाँच करती थी।
तीनों बहनों का आपसी प्रेम देखकर दशरथ मन ही मन ख़ुश होता था। अपनी दोनों छोटी बहनों के प्रति संस्कृति का प्यार देखकर उसे यह भरोसा हो गया था कि दोनों बहनें परीक्षा बहुत अच्छे से पास करेंगी। आख़िरकार, दसवीं की परीक्षा समाप्त हो गई। आख़िरी दिन, जब संस्कृति ने दोनों बहनों के उत्तरों की तुलना की, तो वह बेहद ख़ुश हो गई।
संस्कृति (ख़ुशी से) - अगर पाँच-दस नंबर इधर-उधर भी हो जाएँ, फिर भी तुम दोनों दसवीं की परीक्षा में फर्स्ट आओगी।
यह सुनकर दोनों बहनें ख़ुश हो गईं। उन्हें पता था कि उनका रिजल्ट उनके भविष्य को तय करने वाला है। संस्कृति को अपने दसवीं के रिजल्ट की बात याद आ गई। बिराना मोहल्ले में पहली बार कोई लड़की दसवीं में फर्स्ट क्लास मार्क्स लाई थी। सभी ने दशरथ को बहुत बधाई दी थी, दशरथ ने भी संस्कृति के लिए कई बड़े सपने संजोए थे। घर की हालत ऐसी थी कि आगे की पढ़ाई के लिए पैसे कम पड़ रहे थे।
दोनों बहनों की परीक्षा खत्म हो गई थी और संस्कृति ने मन ही मन ठान लिया कि वह किसी भी हाल में अपनी बहनों की पढ़ाई नहीं रुकने देगी। उसके पिता भी अब उसे नौकरी करने की बात के लिए राज़ी हो गए थे। मानों इस बात से उसे नए पंख मिल गए हों। वो अपने सपनों के आसमान को ज़रूर छुएगी। परीक्षा के दिनों में दशरथ जब भी अपने काम से लौटता, तो अपनी दोनों बेटियों से परीक्षा के बारे में ज़रूर पूछता। जिस दिन परीक्षा होती, दशरथ उस दिन थोड़ा अधिक समय भगवान की प्रार्थना में लगाता।
जब दिव्या और नंदिनी ससुराल से आई थीं, तो ससुराल वालों ने उन्हें विदा करते समय कुछ पैसे दिए थे। दोनों बहनों ने उन पैसों को संभालकर रखा था। परीक्षा खत्म होने के दिन, दोनों ने संस्कृति के हाथ में वे पैसे थमा दिए।
ये पैसे कहाँ से आए? और तुम्हारे पास कैसे पहुँचे?
दोनों ने संस्कृति को पैसे रखने के लिए मना लिया। वे जानती थीं कि उनकी बड़ी बहन बिना ज़रूरत के पैसे ख़र्च नहीं करेगी, फिर भी उन्होंने उससे कुछ अच्छी चीज़ ख़रीदने की ज़िद की।
संस्कृति ने अपनी छोटी बहनों से पैसे लेने से लाख कोशिशों के बावजूद इनकार किया।
संस्कृति (मना करते हुए) - ये पैसे ससुराल से तुम्हें मिले हैं, मुझ पर ख़र्च करने के लिए नहीं। तुम दोनों समझती क्यों नहीं हो? यहाँ कोई दिक्कत नहीं है, ये पैसे अपने पास ही रखो।
मगर दोनों बहनों ने उसकी एक न सुनी। आख़िरकार, बहुत मना करने के बाद भी संस्कृति को वे पैसे लेने पड़े।
संस्कृति (रौब दिखाते हुए) - अगर तुम दोनों नहीं मान रही हो, तो मैं ये पैसे रख रही हूँ, लेकिन इसके बाद, मैं तुम दोनों से एक भी पैसा नहीं लूंगी और आगे से मुझे इस तरह मनाने की कोशिश मत करना।
दोनों बहनों ने हँसते हुए हामी भर दी, उन्होंने संस्कृति को दो हज़ार रुपए दिए जिसे संस्कृति ने संभालकर अपने पास रख लिया।
संस्कृति (मन ही मन) - ऐसा करती हूँ, ये पैसा पापा को दे देती हूँ। इससे कुछ कर्ज़ उतर जायेगा।
उन दो हज़ार रुपयों को किस तरह ख़र्च करना है, इस बारे में संस्कृति के मन में बहुत-सी बातें आने लगीं। कभी वह सोचती कि उन पैसों से कर्ज़ चुकाए, तो कभी नई किताबें ख़रीदे।
बातों-बातों में दिव्या ने यमुना से संस्कृति के प्लेटफ़ॉर्म वाले हादसे के बारे में बता दिया। यह सुनकर यमुना भी बहुत दुःखी हुई, लेकिन यह जानकर उसे राहत मिली कि अब संस्कृति ठीक है और ख़ुश है। यमुना ने अपने घर पर सब कुछ ठीक होने की बात कही, लेकिन संस्कृति के मन में कहीं न कहीं बहुत से सवाल घर कर रहे थे। एक तो यमुना बहुत अच्छे तरीके से बात नहीं कर पा रही थी। ज़्यादातर समय जब फ़ोन करती, तो उससे बात नहीं हो पाती थी। अगर होती भी, तो इधर-उधर की बातें ही।
एक रोज, संस्कृति ने खाना खाते समय अपनी दोनों बहनों से पूछा -
संस्कृति (सोचते हुए) - मुझे लगता है कि यमुना ठीक नहीं है या सकी कोई परेशानी चल रही है। वह जैसे पहले खुलकर बात करती थी, वैसे अब नहीं करती। कुछ तो बात है।
दिव्या और नंदिनी ने इस बारे में ज़्यादा नहीं सोचा था, लेकिन संस्कृति की बात सुनकर वे सहमति में सिर हिलाने लगीं। उन्हें भी लगने लगा कि शायद यमुना कुछ बातें छुपा रही है।
फिर संस्कृति ने तुरंत बात बदल दी।
संस्कृति (आह भरते हुए) - अब तो तुम दोनों की छुट्टियां खत्म हो गईं। अब ससुराल जाकर अपनी ड्यूटी निभानी है। परीक्षा का रिजल्ट आने में भी लगभग तीन महीने लगेंगे। दो दिन बाद तो तुम दोनों चली जाओगी और फिर से यह घर सूना-सूना हो जाएगा। कुछ दिन और रुक जातीं, तो अच्छा लगता।
यह सुनकर दोनों बहनें मायूस हो गईं, लेकिन उनके हाथ में कुछ नहीं था। वे चाहती थीं कि अपनी बड़ी बहन के साथ कुछ और दिन रुकें, लेकिन उन्हें परीक्षा देने के लिए इसी शर्त पर भेजा गया था कि परीक्षा खत्म होते ही वापस लौट आएंगी। सो अगले दिन से ही दोनों ने अपने सामान बांधने शुरू कर दिए।
घर लौटते समय दोनों के मन में अपनी बहन के लिए फिक्र थी। दिव्या ने अपने ससुराल में बात करके कुछ दिन और रुकने की परमिशन भी माँगी थी, लेकिन उसके ससुर ने कहा था कि उनकी तबियत ठीक नहीं है, इसलिए वह घर लौट आए।
आख़िरी दिन तीनों बहनें एक साथ ही सोईं। देर रात तक तीनों आपस में बातें करती रहीं। इसी बीच नंदिनी ने संस्कृति से शादी करने की बात छेड़ी। जवाब में -
संस्कृति (हँसते हुए) - अच्छा जी, अभी तो नहीं। जिंदगी ने जो सबक दिए हैं, पहले उन्हें तो सीख लूं और तुम चाहती हो कि मैं शादी कर लूं? अच्छा, मान भी लो कि मैंने शादी कर ली, फिर पापा का क्या होगा? इस घर में वे कैसे रहेंगे अकेले?
यह बात सुनकर दोनों बहनों ने कहा कि अगर ऐसा है तो इसका मतलब संस्कृति कभी शादी नहीं करेगी। यह क्या बात हुई कि पापा के साथ रहना है, तो शादी नहीं करेगी। सभी बहनों का मन था यहाँ रहने का, पर तब तो संस्कृति ने उनकी शादी नहीं रोका और अब पापा के साथ रहने के बहाने ढूंढ रही है।
बहुत सी बातों पर तीनों बहनें एक साथ हँसती रहीं, परेशान होती रहीं, पुराने दिनों को याद करती रहीं। यमुना को याद करती रहीं, अपनी माँ को याद करती रहीं। जब तीनों साथ में थी तो दिन इतनी तेज़ी से बीत रहे थे कि पता भी नहीं चला, कल दोनों बहनों की विदाई भी है।
संस्कृति (मन ही मन) - कल से यह घर फिर से सूना हो जाएगा। जब दोनों चली जाएंगी, तो मैं अकेली क्या करूँगी? इन दोनों को ख़ुश देखकर जीने का दिल करता है। इन दोनों को ख़ुश देखकर पापा भी तो ख़ुश होते हैं। कल से यह ख़ुशी पापा से भी छिन जाएगी और इस घर से भी। कितना अच्छा होता कि बेटियां विदा नहीं की जातीं। उम्र भर अपने पापा के पास ही रहतीं, तो कितना अच्छा होता। आख़िर यह शादी की परंपरा किसने बनाई? एक दिन में पूरी दुनिया बदल जाती है। अनजान लोगों को अपना बनाना होता है और अपने लोग दूर हो जाते हैं।
इन सब बातों को सोचते-सोचते संस्कृति को थोड़ा सुकून मिला, लेकिन अपनी बहनों से दूर होने की पीड़ा उसे अंदर ही अंदर दुःखी कर रही थी। संस्कृति के न चाहते हुए भी अगले दिन उसकी दोनों छोटी बहनों को फिर से विदा होना था।
अगली सुबह दशरथ लेट से रेलवे स्टेशन पहुँचा। उससे पहले ही दिव्या और नंदिनी के घर वालों ने एक ऑटो भेज दिया था। दशरथ दोनों बेटियों को विदा करके सीधे स्टेशन चला गया। उसकी आँखें थोड़ी-सी नम थीं, मगर एक सुकून भी था। विदा करने के समय मन में एक डर था कि उसकी बेटियों को किस तरह का घर मिलेगा। ससुराल में लोग उन्हें प्यार करेंगे या नहीं, मगर दोनों बेटियों के चेहरे की चमक देखकर उन्हें भी तसल्ली हो गई।
इसी हौसले के साथ दशरथ ने काम करना शुरू कर दिया। उस दिन उसने बाकी दिनों से ज़्यादा मेहनत की। उन्हें यह बात समझ में आई कि जब वे ख़ुश होते हैं, तो ज़्यादा काम कर पाते हैं। यूं तो कोई भी इंसान जानबूझकर थोड़ी ना दुःखी होता है, परिवार के हालात ख़ुश होने का मौका भी नहीं देते। उसे अब सबसे ज़्यादा संस्कृति की चिंता सताने लगी थी।
दूसरी तरफ़, संस्कृति ने नौकरी ढूंढना शुरू कर दिया था। उसके लिए अख़बार ही सबसे आसान और सस्ता ज़रिया था। उसे अपनी ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी न होने का बहुत अफ़सोस था। पर अब उसके पास वक़्त नहीं था। उसे तो हर हाल में एक नौकरी ढूंढनी थी, ताकि अपने पिता और अपनी बहनों के सपनों को पूरा कर सके। उसने एक नई कॉपी ख़रीदी। उसके पहले पन्ने पर कुछ लिखा और फिर उसे हौसले के साथ पढ़ने लगी।
संस्कृति (उत्साह के साथ) - पहला- नौकरी ढूंढनी है, दूसरा- क़र्ज़ चुकाने हैं, तीसरा- पापा की मदद करनी है, चौथा- ख़ुश रहना है, पांचवां- बहनों की मदद करनी है और छठा- घर की हालत पूरी तरह बदलनी है।
मैं संस्कृति…करूँगी ऐसा काम, मेरे पापा का जग में होगा नाम, जब तक हालत बदल न दूं, नहीं करूँगी ज़रा भी आराम।
यह सब लिखने के बाद उसे अपने बक्से में रख दिया और एक गहरी साँस ली।
उसने सब कुछ बदलने के लिए दृढ़ संकल्प कर लिया। उसका यह संकल्प उसके चेहरे पर साफ़ दिखाई दे रहा था। आने वाले कई दिनों तक वह अपने पड़ोसी के पास जाकर अख़बार में सारी वैकेंसी देखती रही। उसे भरोसा था कि किसी रोज उसे कोई न कोई काम ज़रूर मिलेगा।
सालों पहले ही संस्कृति की पढ़ाई छुट चुकी थी। वो ग्रेजुएशन भी पूरा नहीं कर पायी थी। क्या इतनी पढ़ाई के साथ उसे कहीं नौकरी मिल पायेगी?
जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।
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