काली स्क्रीन पर नकाबपोश की कंप्यूटर-डिस्टॉर्टेड आवाज़ रिया के कानों में लगातार बार-बार घूम रही थी— “तुमने आग से खेलना चुना है रिया शर्मा… अब जो बचेगा, वो सिर्फ राख होगी। अगला वार सीधे दिल पर होगा… तो तैयार रहना।”
इस वीडियो ने रिया के भीतर जैसे कोई ज्वालामुखी फोड़ दिया था। उसकी आंखों में आंसू नहीं, सिर्फ आग ही नजर आ रही थी। ऐसे में उसने अपने होठों को भींचते हुए खुद से और विराज से वादा किया कि, “अब नहीं रुकूंगी। अब ना राजघराना बचेगा, ना उसका झूठ। अब सिर्फ इंसाफ होगा… और उसकी आवाज़ मैं बनूंगी। तुम देखना विराज… राजघराना की बर्बादी की कहानी मैं ही लिखूंगी।”
विराज ने उसकी आंखों में झांका। उसने पहले भी रिया के जिद्दीपन का सामना किया था, लेकिन आज उसमें कुछ और था… एक ऐसा जुनून, जो अब सिर्फ सच के लिए लड़ना नहीं, बल्कि सच बन जाना चाहता था। रिया शौक के लिए या टीवी स्क्रीन पर आने के लिए जर्नलिस्ट नहीं बनी थी, बल्कि उसे नाइंसाफी करने वालों से नफरत थी और वो बेचारे-बेसहारा लोगों की मदद के लिए ही पत्रकार बनीं थी।
दूसरी ओर…राजघराना महल के पुराने हिस्से में, जहां बीते बीस सालों वर्षों से कोई नहीं गया था… वहां अकेला खड़ा था मुक्तेश्वर सिंह अपने अतीत के जख्मों को कुरेद रहा था।
ये वहीं हिस्सा है, जहां मैंने जानकी की चिता की राख दफनाई थी। महल का ये कोना मेरे अंदर एक अजीब सी आग लगा देता है, जब भी मैं इस राजघराना के लोगों को माफ करने के बारें में सोचता हूं, ये कोना मेरे अंदर वापस बदले की भावना को जगा देता है।
वहीं रिया और विराज राज राजेश्वर के स्टडी रूम में आग लगने के कारणों की जांच-पड़ताल कर रहे थे। दरअसल उन्हें भीखू ने सिर्फ इतना ही बताया था कि आग राज राजेश्वर के स्टडी में लगी है, क्या, क्यों, कैसे… ये अभी भी सवाल बना हुआ था।
तभी रिया ने विराज को इस मामले में किसी सीक्रेट ऐजेंट की मदद लेना का इशारा किया, जिसे विराज ने मान लिया।
दूसरी तरफ मुक्तेश्वर दीवारों को देखते हुए जैसे ही अपने अतीत से वापस अपने वर्तमान में लौटने के लिए उस बंद कमरे से बाहर निकल रहा था। तभी उसकी नज़र एक पुराने फर्श के नीचे हल्की सी दरार पर पड़ी। उसने टॉर्च निकाली, मिट्टी हटाई, तो देखा वहां एक अजीब सा दरवाजा था। उसने वहां अच्छे से साफ-सफाई की और जैसे ही उसे उस दरवाजे का एक लोहे का हैंडल दिखा, उसने उसे पकड़ कर खींचा।
दरवाजा खुलते ही मुक्तेश्वर ने जो नजारा सामने देखा, उसे देख उसकी आंखें चौंधिया गई। वो एक पुराना फर्शी-दरवाज़ा था, जिसके ठीक सामने लोहे की सीढ़ियाँ थीं, जो नीचे की तरफ जा रही थी। धूल भरी, जर्जर, लेकिन किसी रहस्य की ओर जाती उन सीढ़ियों ने मुक्तेश्वर के दिल में हजारों सवाल खड़े कर दिये। एकाएक मुक्तेश्वर की नजरों के सामने उसका बचपन घूमने लगा और उसने खुद से बुदबुदाते हुए कहा— "य...य.. ये जगह तो… माँ की थी!" —
मुक्तेशर जैसी ही सीढ़ियों को पार कर उस कमरे के अंदर उतरा, वैसे ही अचानक उस कमरे का दरवाजा ऊपर से अपने आप बंद हो गया। फिलहाल मुक्तेश्वर ने इस बात पर गौर नहीं किया और अंदर उस कमरे में यहां-वहां चीजें देखने लगा। तभी उसे उसके आधे कमरे के पार एक और दरवाजा दिखा, जिस पर एक बड़ा सा ताला पड़ा है। ताले की चाबी यहां-वहां कहीं नहीं मिली, तो उसके वर्षों के जंग खाए दरवाज़े को जोर से धक्का दिया और वो खुल गया। खुलते ही उसमें ठंडी हवा का झोका आया। मुक्तेश्वर ने गौर से उसके सामने वाली दीवार को देखा और चौकते हुए बोला— "नक़्शे वाला कमरा"
यही नाम उसने वर्षों पहले अपनी मां को इस कमरे के लिए कहते सुना था। वो कमरा छोटा नहीं था, लेकिन हर दीवार पर नक्शे, दस्तावेज़, पुरानी तस्वीरें और हाथों से लिखी डायरी चिपकी थीं। चारों तरफ अलमारियों में फाइलें थीं, जो शायद दशकों से किसी ने छुई भी नहीं थीं।
साथ ही वहां एक कोने में एक पुराना ट्रंक भी पड़ा था। मुक्तेश्वर ने ट्रंक खोला, जिसमें उसे एक पुरानी डायरी मिलीं। उस डायरी पर लिखा था— “महारानी पद्मिनी की निजी बातें”
साथ ही उस डायरी के पहले पेज पर कई ब्लैक एंड व्हाइट फोटो भी लगी हुई थी, जिनमें सबसे ऊपर एक धुंधली सी तस्वीर थी। उस तस्वीर में मुक्तेश्वर के जवान पिता गजराज सिंह एक औरत के साथ खड़े थे। इस औरत का चेहरा मुक्तेश्वर ने आज से पहले कभी नहीं देखा था। वो उसके लिए बिल्कुल अनजान थी। ऐसे में उस तस्वीर को देख उसके होंठ बुदबुदाए— "ये कौन है? और पिता जी इसके साथ इतनी आत्मीयता से क्यों खड़े है? आखिर क्या रिश्ता है पिताजी का इसके साथ?"
दरअसल वो तस्वीर दूसरी आम तस्वीरों जैसी बिल्कुल नहीं थी। उसमें गजराज सिंह ने उस औरत की कमर पर हाथ रखा हुआ था और उस औरत की आंखें डर से भरी थीं, जबकि गजराज सिंह के चेहरे पर साजिश भरी मुस्कान थी। उस तस्वीर ने मुक्तेश्वर के दिल में उथल-पुथल मचा दी थी, क्योकि उसकी पत्नी की तरह ही उसकी मां की मौत भी रहस्यमयी तरीके से हुई थी, जिसके बारें में सोच उसका माथा फटा जा रहा था।
वहीं दूसरी ओर ठीक इसी वक्त… रिया, विराज और भीखू राजघराना में लगी आग की जांच पड़ताल कर रहे थे। तभी रिया ने कहा— “विराज… तुम्हें क्या लगता है, हमारे पास जो एक कॉपी थी फोन में… क्या उसका बैकअप कहीं और होगा?”
रिया का ये सवाल सुन विराज ने उसे तुरंत उसके साथ कहीं चलने को कहा। इसके बाद तीनों कार में बैठ गए।
विराज ने गाड़ी ड्राइव करते हुए आंखें सिकोड़ ली और रिया से कहा— “मुझे याद है रिया, जब तुमने पहली बार बहीखाते की तस्वीरें ली थीं, तब मैंने तुम्हें कहा था कि उसे एक क्लाउड ड्राइव में अपलोड कर दो। क्या तुमने किया था?”
रिया ने तुरंत अपना मेल चेक किया। कुछ सेकंड्स बाद उसकी आंखें चमकीं और वो बोलीं— “हाँ! मेरे पास बैकअप है… हमारे पास अब भी एक मौका है!”
ठीक उसी वक्त वापस राजघराना महल के उस कमरे में मुक्तेश्वर ने उस डायरी को पढ़ना शुरू किया, जो उसकी मां की लिखावट में थी, क्योंकि वो तस्वीर और उसमें नजर आ रही औरत उसके लिए बड़ा रहस्य बन गई थी।
“24 मार्च, 1982 — फ्लैशबैक
गजराज अब बदल गया है। उसकी आँखों में अब वो राजा नहीं, एक शिकारी दिखता है। मुझे डर है, वो उस लड़की के साथ कुछ गलत कर बैठेगा या फिर शायद गलत कर चुका हो, तभी वो इतनी डरी-सहमी रहती है। मैंने राज राजेश्वर को मना किया था उसे महल में बुलाने से, लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है…”
अतीत के पन्नों की इस डायरी ने मुक्तेश्वर को अंदर तक हिला दिया। उसके हाथ कांप गए। उसने डायरी पलटी और फिर कई बार उसमें उस अनजान औरत का जिक्र था, जिसका नाम शायद "सरिता"… या "सारिका" था। दरअसल उसकी मां की लिखावट अब धुंधली पड़ चुकी थी, ऐसे में अक्षरों को सही से पढ़ पाना जरा मुश्किल हो रहा था।
तभी मुक्तेश्वर को उस डायरी के बीचो-बीच एक और फोटो मिली, जिसमें दुबारा वही औरत थी। लेकिन इस बार उसके साथ कोई बच्चा भी था। उस फोटो को देख मुक्तेश्वर की आंखें फटी की फटी रह गईं।
“क्या ये बच्चा… नहीं ये सच नहीं हो सकता… क्या भीखू इनकी औलाद है? प...प..पर वो तो हमारे महल में हमेशा से नौकर बनकर रहा है।”
मुक्तेश्वर उस डायरी के पन्नों को लगातार जल्दी-जल्दी पलट रहा था, क्योंकि वो इस कहानी का ये राज जानना चाहता था, लेकिन वो इसे पूरा पढ़ पाता उससे पहले वहां दरवाज़े पर किसी की ज़ोरदार दस्तक हुई। बाहर से आवाज आई— “मुक्तेश्वर बाबू! अंदर हो क्या? ये दरवाजा बाहर से बंद हो गया है… अगर अंदर हो तो खोलूं… मुक्तेश्वर बाबू...”
ये आवाज़ किसी और की नहीं भीखू की थी। मुक्तेश्वर ने हां में आवाज लगाई तो भीखू ने बाहर से दरवाजा खोल दिया और पूछा— आप यहां किस लिए गए थे। जानते है ना गजराज मालिक नहीं चाहते कि इस दरवाजे के उस पार कोई भी जाये।
मुक्तेश्वर इस बात का कोई जवाब देता या भीखू से उस डायरी और उसकी मां के बारें मे पूछता… उससे पहले भीखू का पीछा करते-करते वहीं रिया भी आ गई। दरवाजा खुलते ही रिया सीढ़ियों से नीचे उतरी और उसने इधर-उधर देखा, उसकी नज़र जैसे ही नक़्शों और फोटोज़ पर पड़ी, वो चौक गई और उसने मुक्तेश्वर से पूछा— “ये सब क्या है मुक्तेश्वर अंकल...?”
रिया के मुंह से आज फिर अपने लिए अंकल सुन मुक्तेश्वर चौक गया, क्योंकि कुछ दिन पहले ही रिया ने कसम खाई थी कि वो उसे पापा ही कहकर ही बुलायेगी, फिर आज अचानक अंकल कहना मुक्तेशवर को हैरान कर गया, लेकिन फिर भी उसने रिया के सवाल का जवाब दिया और बोला, “ये राजघराना की कहानी का वो हिस्सा… जो कभी लिखा ही नहीं गया था।”
फिर उसने वो तस्वीर और डायरी रिया को दिखाई। रिया तस्वीर देखकर सन्न रह गई और बोलीं— “ये… ये औरत कौन है? और… क्या आप कह रहे हैं कि…”
मुक्तेश्वर उसकी बात बीच में काटते हुए उसके कानों के पास जाकर बोला— “रिया… मुझे शक है कि भीखू की असली मां यही थी। और मेरे पिता गजराज सिंह ने इसके साथ भी वहीं किया था, जो वो और औरतों के साथ करते थे। लेकिन मुझे ये समझ नहीं आ रहा कि उन्होंने बाकी औरतों की तरह इसके बच्चे को अनाथ आश्रम क्यों नहीं भेजा? इस इस तरह नौकर बनाकर हम सबके साथ राजघराना महल के अंदर क्यों रखा?”
विराज जो रिया के दाई तरफ खड़ा था, उसके कानों में भी मुक्तेश्वर की कहीं हर बात सुनाई दी और वो चौंक कर बोला— “अगर ये सच है… तो गजेन्द्र को जो राजघराना का उत्तराधिकारी बनाना आसान नहीं होगा, क्योंकि अब आपके पापा गजराज सिंह की नाजायज औलादों में रेनू के साथ-साथ भीखू का नाम भी जुड़ गया है। अगर वो असल में उसी औरत का बेटा है, जिसे महल में लाकर… बंदी बनाया गया था, तो पक्का वो बदला लेने के इरादें से ही यहीं होगा।”
रिया की आंखों से आंसू छल्क पड़े। उसके अंदर एक औरत के लिए सम्मान और इंसाफ की आग दहक रही थी। वो गजराज सिंह की अय्याशी के किस्से सुन-सुन कर तंग आ चुकी थी। ऐसे में उसने सवाल किया— “मुक्तेश्वर अंकल, अब हमें इन सबका सच अदालत में रखना होगा। आपके पिता ने इस बड़े से राजघराना की जमींन पर ना जाने कितनी औरतों को बेआबरू कर गाड़ दिया है, लेकिन अब मैं हर उस एक औरत की तरफ से इंसाफ की लड़ाई लड़ूंगी। मैं गजराज सिंह को नहीं छोडूंगी।”
रिया की ये बात और अपने 70 साल के पिता के लिए ऐसी शर्मनाक बाते सुनना मुक्तेश्वर को अंदर तक झकझोर रहा था, लेकिन वो जानता था कि रिया सब सच कह रही है। ऐसे में मुक्तेश्वर थोड़ी देर चुप रहा और फिर बोला— “रिया… अगर मैं ये सब बताता हूँ… तो मुझे डर है, मैं भी कटघरे में खड़ा हो जाऊँगा। क्योंकि मैंने उस समय कुछ नहीं किया था। मैं चुप था… और वो मेरी सबसे बड़ी गलती थी। लेकिन सच कहूं मुझे मेरे पिता गजराज सिंह के सिर्फ एक ही नाजायज संबध के बारें में पता था, जिसे महल में मेरे पिता की रखैल कहा जाता था और वो है, शारदा… रेनू की मां।”
जवाब सुन रिया ने मुक्तेश्वर का कंधा पकड़ते हुए कहा— “तो आइए अंकल… इस बार चुप मत रहिए। ये कहानी अब सिर्फ आपके बेटे की हॉर्स रेस मेच फिक्सिंग में उसकी बेगुनाही की नहीं रही, बल्कि कई बेगुनाह औरत की रूह की चीख बन गई है… जिन्हें अब इंसाफ मिलना ही चाहिए।”
ये सुनते ही मुक्तेश्वर की आंखों से आंसू गिरने लगे, क्योंकि उनमें से एक औरत उसकी अपनी पत्नी, उसके एकलौते बेटे गजेन्द्र की मां की भी थी, जो शायद बीस साल पहले उसके पिता या उसके भाई की हैवानियत का शिकार हुई थी। यहीं वजह थी कि उसकी मौत रहस्यमयी थी।
रिया, मुक्तेश्वर और विराज के बीच अभी ये सब बातें चल ही रही थी, कि तभी कमरे के बाहर कोई हलचल हुई, देखा तो वहां भीखू खड़ा था। एक पल के लिए तो तीनों चौक्कने हो गए, लेकिन तभी भीखू ने कहा— “मेमसाहब… पुलिस आ गई है। और साथ में कोई और भी है… जो नकाब में है।”
रिया की आंखें सिकुड़ गईं। उसने बाहर झांका… दरवाज़े के बाहर खड़ा था एक नकाबपोश इंसान, जिसकी चाल बहुत जानी-पहचानी थी।
वो आगे बढ़ा, नकाब उतारा… तो उसका चेहरा देख रिया, विराज और मुक्तेश्वर के साथ-साथ भीखू के भी होश उड़ गए… और वो कांपती-लड़खड़ाती आवाज में बोला— “राघव भौंसले।”
उसकी आंखों में कोई पछतावा नहीं था, बस एक चालाक मुस्कान। उसे देख रिया आगे बढ़ती है और उसे जोरदार चाटा मारते हुए कहती है, “तो वो तुम थे… फाइनली...।”
रिया आगे कुछ कहती या बाकी लोगों को राघव की गिरफ्तारी का कारण बताती उससे पहले ही राघव भौंसले बोल पड़ता है— “रिया शर्मा… तुम एक बार फिर हक़ीकत से ज़्यादा दूर खड़ी हो।”
आखिर क्यों और किस जुर्म में हुई राघव भौंसले की गिरफ्तारी?
क्या सुलझ गई है गजेन्द्र के रेस फिक्सिंग केस की गुत्थी?
क्या गजेन्द्र जेल से छूटकर अब लौट आयेगा अपने प्यार रिया के पास?
आखिर क्या है नक्शे वाले कमरे और राजघराना की सच्चाई की चाभी का असली राज?
क्या मुक्तेश्वर सच में खेल रहा है अपने ही बेटे गजेन्द्र के साथ कोई खेल?
जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग।
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