बैंगलोर के इलेक्ट्रॉनिक सिटी के बीच स्थित एक बड़ी सी बिल्डिंग के पन्द्रहवें फ्लोर से लगातार कीबोर्ड की खटा-खट आवाज़ें आ रहीं थीं। बीच-बीच में फ़ोन की घंटियाँ बज रही थीं। सुनकर तो यही लगता है कि यह एक कॉर्पोरेट ऑफिस है… और है भी। यहाँ काम करने वाले कर्मचारी, इंसान कम और मधुमक्खी ज़्यादा लगते हैं - हमेशा बिज़ी, एक डाल से दूसरी डाल… मतलब, एक टेबल से दूसरी टेबल तक दिनभर भिनभिनाते रहना, मानो जैसे उन सबकी आदत बन गई हो। ​

​​इसी बड़े ऑफिस के एक कोने में है अनीशा  राठौर का केबिन, जो अजीब सी खामोशी में डूबा हुआ है। यूँ तो ऐसा कभी नहीं होता था। अनीशा  के ऑफिस से फ़ोन कॉल्, मीटिंग्स, अनगिनत बहसबाज़ियाँ - इन सबकी आवाज़ें आती थीं; पर आज नहीं। उल्टा, खिड़की से बेंगलुरु शहर का हल्का सा शोर सुनाई दे रहा है।​

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तो यह अनीशा  राठौर कौन हैं? काफ़ी बड़ी हस्ती हैं, ये तो उसके स्पेशल केबिन के बाहर चिपकी हुई नेमप्लेट, जिसके नीचे लिखा है -  चीफ़ फ़ाईनैनशियल ऑफिसर, भी साबित करता है। एक ऐसी शख़्सियत, जिसकी आवाज़ हर मीटिंग में गूंजती है और जिसका फ़ैसला आखिरी होता है। उसकी पहचान, उसकी शक्ति, उसकी सफलता, सब कुछ उसी की मेहनत का नतीजा है। अनीशा अपनी पेशेवर ज़िंदगी में सब कुछ हासिल कर चुकी है। ​

​​अनीशा अपनी पहियों वाली चेयर पर बैठी हुई है। सामने टेबल पर कई फाइलें और डॉक्युमेंट्स बिखरे पड़े हैं, जिन्हें वह एक-एक करके पढ़ रही है और कुछ पर साइन भी कर रही है। उसकी नजरें लगातार काम पर टिकी हुई हैं, लेकिन दिमाग कहीं और खोया हुआ है।​

​​इस कमरे की बंद दीवारों के पीछे, जहाँ अनीशा अकेली होती है, वहाँ एक और कहानी चलती है। बाहर से भले ही उसकी ज़िंदगी कामयाबी लगती हो, लेकिन अंदर? अंदर एक ऐसा फ़ैसला छुपा है जिसने उसकी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा उससे छीन लिया था।​

​​उस दिन, जब उसने अपने करियर के खातिर एक बड़ा फ़ैसला किया था, आगे चलकर वही उसकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी गलती साबित हुई। उस फ़ैसले की वजह से, अनीशा को अपनी बेटी आर्या से दूर होना पड़ा था। वो बच्ची, जो उसकी ज़िंदगी का हिस्सा हो सकती थी, अब बस एक याद बनकर रह गई थी। अनीशा  ने अपने परिवार, अपनी बच्ची को छोड़ा, ताकि वह उस आज़ादी को पा सके, जो वो हमेशा से चाहती थी। क्यों एक औरत को हमेशा मर्दों का मोहताज होकर जीना पड़ता है? क्यों एक औरत अपने फ़ैसले खुद नहीं सकती है? अनीशा के मन में चल रहे विद्रोह की लड़ाई का यही कारण है। वह अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती थी। अपने पिता या पति पर निर्भर नहीं होना चाहती थी। औरतों को अबला कहने वालों के खिलाफ ये उसकी एक कोशिश थी! उसको चाहिए थी आज़ादी, इन सब से.. लेकिन हर आज़ादी की लड़ाई में कुछ तो क़ुरबानी देनी पड़ती है। अनीशा को भी देनी पड़ी। ​

अनीशा एक पल के लिए रुकती है। वह खिड़की से बाहर देखती है, जहाँ सूरज ढल रहा है। एक छोटी सी चिड़िया खिड़की के पार बैठी है और उसे देख रही है। उसकी आँखों में एक पुरानी याद तैरने लगती है।​

​​अनीशा​: ​“आर्या को चिड़ियों से कितना लगाव था। खासकर गौरैयों से। बस उन्हें देखकर ही वो खुश हो जाती थी।”​

उसकी आवाज़ में एक दर्द छिपा है, जिसे उसने सालों से किसी से नहीं कहा। वह चिड़िया अब भी खिड़की पर बैठी है, और अनीशा की आँखों में और भी कई पुरानी यादें तैरने लगती हैं। अनीशा  बचपन से ही एक बड़े ऑफिस में एक बड़ी पोज़िशन पर खुद को देखती थी। घर-घर खेलने की उम्र में वो ​​​​बाकी बच्चों ​​के साथ ऑफिस-ऑफिस खेलती थी और सबकी बॉस बनती थी। अनीशा शुरू से ही जानती थी कि वो अपने सपनों के बीच किसी को नहीं आने देगी।​

​​अनीशा के प्रोफ़ेशनल जीवन की सफलता चाहे जितनी भी बड़ी क्यों न हों, उसकी ज़िंदगी का एक खालीपन है, जो हर रोज़ उसे ​​सताता​​ है। वो खालीपन, जो उसने अपनी बेटी को छोड़कर पैदा किया था। करियर को ऊंचाइयों तक ले जाने की उसकी दौड़ में, उसने एक ऐसी ​​चीज़​​ खो दी, जिसे वापस पाना अब नामुमकिन लगता है।​

​​तभी अचानक, उसके लैपटॉप पर ईमेल नोटिफ़िकेशन की आवाज़ आती है। अनीशा के माथे पर शिकन की लकीर खिंच जाती है और वह स्क्रीन की ओर देखती है। उसकी उंगलियाँ धीरे-धीरे कीबोर्ड की तरफ बढ़ती हैं और वह मेल खोलती है।​

सब्जेक्ट लाइन ​पढ़ते ही उसके चेहरे पर हल्की सी हैरानी दिखाई देती है:  
​​अनीशा: "तैयार हो अपने पछतावे को भूलने और एक नया फ़ैसला लेने के लिए?"​

अनीशा,  ईमेल में अटैच्ड डॉक्यूमेंट खोलती है। जैसे ही वह उसे पढ़ती है, वो हैरान हो जाती है।   ​

​​उस ईमेल के शब्द एक तीर की तरह उसके मन को चुभ गए।  
​​अनीशा: "अपनी बेटी को छोड़ने का अपराध रोज़ तुम्हें कचोटता है, है न? इससे बाहर निकलना मुश्किल लगता है? तुम चाहो तो ऐसा हो सकता है। एक जगह है, जहाँ तुम अपनी गलती को सुधार सकती हो।"​

अनीशा घबराकर टेबल से कुर्सी पर बैठ जाती है। उसकी साँसें थोड़ी तेज़ हो जाती हैं।​

अनीशा: “क्या बकवास है ये? ये कौन हो सकता है..  और ये किस गलती की बात कर रहा है? क्या.. क्या ये उसी दिन की बात कर रहा है? मेल आई.डी. भी अजीब सी है इसकी तो!”​

उस मेल में कुछ ऐसा था, जो अनीशा  के दिल की धड़कन को बढ़ा रहा था। एक मौक़ा, अपने बीते हुए फैसले को सुधारने का? क्या ऐसा मुमकिन था? उसके मन में सवालों की बाढ़ आ गई थी। एक बात जिसका अफ़सोस अनीशा को रोज़ होता है, क्या वो उसको सुधर पाएगी?​

​​तभी उसका फोन बजता है, और अनीशा  झट से उठा लेती है। उसकी आवाज़ में उलझन वाली झुंझलाहट साफ़ सुनाई दे रही थी। ​

​​अनीशा​: ​“हाँ, खन्ना इंटरप्राइसेस की मीटिंग कल शाम 5 बजे फिक्स कर दो। इसे अब और टाला नहीं जा सकता। ओके?”​

अनीशा फोन रख देती है और खिड़की के बाहर फिर से देखती है। सूरज धीरे-धीरे ढलने को है, और वो चिड़िया अब भी वहाँ बैठी, लगातार उसे देखे जा रही है। ​

​​ख्यालों के जंगल में खो रही अनीशा को एक और नोटिफ़िकेशन मिलता है।​

​​अनीशा​: ​“कल... कल आर्या का जन्मदिन है...”​

उसकी आवाज़ से एक गहरी उदासी और पछतावा झलकता है। ठीक बात भी है… आखिर अनीशा माँ है और एक ऐसी माँ जिसे पूरे समाज ने फ़्री फंड में जजमेंट भरी निगाहों से देखा। ​

​​कल उसकी बेटी का जन्मदिन है, जिसे उसने सालों पहले पीछे छोड़ दिया था। हर साल यही दिन उसे उस कड़वे फैसले की याद दिलाता है, जिसे उसने अपनी प्रोफेशनल ज़िंदगी के लिए चुना था और अब, यही दिन उसकी ज़िंदगी का काला दिन बन गया है। न चाहते हुए भी उस ज़िन्दगी को पीछे छोड़ने के बाद उस ज़िन्दगी ने उसे कभी नहीं छोड़ा और बस उसके दिल में एक वक़्त के साथ एक बड़ा सा घाव बना दिया।​

​​अनीशा का दिल तेज़ी से धड़क रहा है। उसकी आँखों में उलझन और सवाल तैर रहे हैं। वह ईमेल को फिर से देखती है और बार बार पढ़ती है, जैसे कुछ समझने की कोशिश कर रही हो। उसने ये सच इस शहर में अपने नए दोस्तों को नहीं बताया था, यहाँ तक की किसी को उसकी पिछली ज़िन्दगी के बारे में पता भी नहीं फिर ये ईमेल उसे किस ने भेजा?  वो भी उसकी ऑफिस की ID पे?​

​​अनीशा​: ​“क्या यह सब सिर्फ एक इत्तिफाक़ है? कैसे यह ईमेल उसी वक़्त आया जब मैं आर्या के बारे में सोच रही थी?”​

​​ईमेल में जो पता लिखा था, वह एक अजीब सी जगह का था। एक लाइब्रेरी का ज़िक्र था, जो मसिनागुड़ी, नीलगिरी घाटी के पास कहीं है। वहाँ जाने का एक न्योता, जहाँ अनीशा अपने फैसलों का सामना कर सकती थी। अनीशा के चेहरे पर परेशानी अब तक टिकी हुई है। ​

​​कुछ देर के बाद , अनीशा अपनी कुर्सी से उठती है और खिड़की के पास चली जाती है। खिड़की के बाहर का सीन धीरे-धीरे धुंधला हो रहा है - गोधूलि का वक़्त था, सूरज ढल चुका था। उसे उसकी ज़िन्दगी भी कुछ ऐसी ही नज़र आने लगी - धीमी, बिना रोशनी की। ​

​​अनीशा​: ​“क्या मैं सच में अपनी गलती को सुधार सकती हूँ? या यह एक और भ्रम बनकर रह जाएगा?”​

​तभी दरवाज़े पर दस्तक होती है। उसकी असिस्टन्ट अंदर आती है, हाथों में कुछ फाइलें लिए हुए। वह थोड़ी झिझकती है, जैसे उसने अनीशा के गंभीर मूड को भांप लिया हो। ​

​​असिस्टन्ट धीरे से फाइल्स टेबल पर रखती है और अनीशा को याद दिलाती है कि कल की मीटिंग से पहले यह फाइल्स उसे अप्रूव करनी होंगी और फिर वह उससे पूछती है कि उसे किसी और चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है? ​

​​अनीशा धीरे से मुड़कर असिस्टन्ट की तरफ़ देखती है। ​

​​अनीशा: ​“बस फाइल्स छोड़ दो, मैं देख लूंगी।”​

असिस्टन्ट हल्की सी मुस्कान के साथ बिना कुछ कहे बाहर चली जाती है। अनीशा की नजरें फिर से उस ईमेल पर टिक जाती हैं। 
उस ईमेल का पता अब उसके दिमाग में घूम रहा है। एक लाइब्रेरी जो अतीत को बदलने का मौका देती है! यह सच है या सपना? केबिन में अनीशा की साँसों की आवाजों के अलावा दूसरी कोई आवाज़ सुनाई नहीं दे रही। ​

​​अनीशा: ​“इज थिस फॉर रियल? क्या मैं सच में इस फैसले का सामना कर पाऊंगी? क्या आर्या मुझे मिल जाएगी?”​

वह लैपटॉप की स्क्रीन पर रिप्लाइ का बटन दबाती है, और ईमेल का जवाब लिखने लगती है। कुछ ही पल में वह सेन्ड बटन दबा देती है।​

​​अनीशा ने उस निमंत्रण को स्वीकार कर लिया था लेकिन अब भी उसके दिल में एक डर था। आगे क्या होगा? कैसा होगा? इस सब का जवाब तो अब वहाँ जाकर ही पता चलेगा। ​

​​अचानक, उसका फोन बजता है। इस बार एक नया मेसेज आता है। वह फोन उठाती है और देखती है—एक मैप, जो उस लाइब्रेरी की लोकेशन दिखाता है, जो ईमेल में बताई गई थी। अनीशा बार बार सोचती है की यहाँ जाना सेफ़ होगा या नहीं? उसे लगता है कि कहीं उस जगह जा कर उसे अफसोस न करना पड़ जाए। ​

​​आखिर, अनीशा क्या फैसला लेगी?​

​​ऐसी कौन सी लाइब्रेरी है जो जंगलों के बीच है?​

​​क्या अनीशा सच में अपनी गलती सुधार कर अपनी बेटी से वापस मिल पाएगी?​

आगे क्या होगा, जानेंगे अगले चैप्टर में!

 

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