वीर की हालत बिगड़ती जा रही थी। गजेन्द्र के साथ अस्पताल की ओर विराज कार को ऐसे भगा रहा था, मानों जैसे आज अंत तय हो। दूसरी ओर उनके पीछे मुक्तेश्वर और एसीपी रणविजय.. गजराज सिंह और उसके गुंडों का सामना करने के लिए तैयार थे।
कुछ देर तक दोनों बाप-बेटे के बीच काफी जुबानी जंग हुई, लेकिन ये जंग जुबान से हथियार के हमले तक पहुंचती उससे पहले ही एसीपी रणविजय की पूरी पुलिस टीम वहां आ गई और गजराज सिंह और उसके गुंडों को पकड़ कर ले गई, जिसके बाद रणविजय ने कहा— "हमें तुरंत राजघराना महल पहुंचना होगा, वहां के हालात ठीक नहीं होंगे। और हां… हमे वीर के लिए वहां पहले से माहौल भी तैयार करना है।"
हवेली की पुरानी दीवारें, जो ना जाने कितने सालों से राजघराने के काले इतिहास को छुपाए बैठी थीं, अब एक नए संकट की आग में जल रही थीं। बाइस सालों बाद इस हवेली का वारिस… अनाथों की जिंदगी जी कर लौट रहा था, तो लोगों के बीच कानाफूसी होना लाजमी थी । लेकिन ये कानाफूसियाँ तब चीखों में बदल गईं… जब हवेली से धुआं उठने लगा।
राजघराना हवेली, जहां हर ईंट के नीचे किसी न किसी राज की गूंज दफन थी, आज वही हवेली आग की लपटों में घिरी हुई थी। भीड़ हवेली के बाहर जमा हो चुकी थी। पुरानी नौकरानियों की आंखों में डर था, कुछ पुराने नौकरों के चेहरों पर हैरानी और कुछ मुखबिरों के चेहरे पर उस आग को देख... रहस्यमयी चुप्पी थी।
एसीपी रणविजय की गाड़ी जैसे ही हवेली के फाटक पर पहुंची, धुएं और जलती लकड़ी की महक ने सबके कदम रोक दिए। तभी कार से उतर मुक्तेश्वर जोर से चिल्लाया— “कोई अंदर है क्या?”
एक चौकीदार ने कांपती आवाज़ में जवाब दिया— “सर, आग ऊपर के कमरे से शुरू हुई है। पहली नजर से देखने में ये ही लग रहा है कि कोई जानबूझकर आग लगाकर भाग गया है, और ये सिर्फ़ हादसा नहीं लग रहा।”
ये सुनते ही एसीपी रणविजय के चेहरे पर गुस्से की लकीरें खिंच गईं, और उन्होंने वहां के नौकरों को इकट्ठा कर कहा— “अभी के अभी पूरी हवेली खाली कराओ। फायर ब्रिगेड को कॉल कर चुका हूं, लेकिन उससे पहले मुझे उस कमरे में जाना है… जहां वीर के नाम पर फाइलें रखी थीं।”
दूसरी तरफ अस्पताल में वीर बेहोशी की हालत में था, गजेन्द्र और विराज ऑपरेशन थिएटर के बाहर बैठे थे।
डॉक्टर ने वार्ड से बाहर आते ही कहा— “अगर अगले कुछ घंटों में होश नहीं आया, तो दिमागी तौर पर कुछ नुकसान हो सकता है। गोली दिल की नसो के बेहद करीब से गुजरी है।”
गजेन्द्र ने सिर पकड़ लिया, जैसे उसका अपना वजूद डगमगा रहा हो।
तभी वहां रिया आई और उसने गजेन्द्र का हाथ थामते हुए कहा— चिंता मत करों, वीर को कुछ नहीं होगा। भगवान ने उसे इतनी देर से अपने परिवार से मिलाया है, तो वो उसके साथ इतना बुरा नहीं कर सकतें।
राजघराना महल में धुएं से भरे गलियारों से होकर रणविजय और मुक्तेश्वर उस पुराने हिस्से में पहुंचे जिसे "रसोई का तहखाना" कहा जाता था। यह वही जगह थी, जहां कभी जानकी को बच्चों के जन्म के समय छिपाया गया था, ताकि किसी को पता ना चले कि उसने एक नहीं दो जुड़वा बच्चों को जन्म दिया था... और ये वहीं जगह थी, जहां से वीर के जन्म के साथ ही उसके आरव बनने की कहानी शुरु हुई थी।
वहीं जब वहां पहुंच रणविजय ने लात मारकर दरवाजा खोला, तो अंदर का नजारा देख सन्न रह गया। सामने हर तरफ बिखरी राख और जली हुई पुरानी चीज़ों का अंबार लगा था। तभी मुक्तेश्वर से उससे कहा— "रणविजय यहां तो कुछ भी तलाश पाना नामुकिन है, सब जलकर राख हो गया।"
जवाब में रणविजय ने एक बार फिर अपने पुलिसिया दिमाग की तारीफ की और कहा— "अरे हम पुलिस वालों की नाक और आंख शिकारी कुत्ते से भी तेज होती है। हम अपनी पर आये तो कुड़े के ढ़ेर में से भी सुई खोज लाये। फिर ये तो एक छोटा सा कमरा है।"
इतना कह दोनों ने यहां-वहां उस कमरे के हर कोने के राख और कबाड़ में अपनी तलाश शुरु की। चार घंटों के तालाश में भी दोनों को कुछ नहीं मिला, तो मुक्तेश्वर थक कर जमींन पर बैठ गया। वहीं एसीपी रणविजय भी बैठने ही वाला था कि उसे दाई तरफ पड़े कबाड़ के बीच, एक जली हुई कमीज़ का टुकड़ा मिला।
रणविजय ने उसे दस्तानों से उठाया। उस पर किसी का नाम नहीं लिखा था। गौर से देखने पर समझ आया कि हल्की कढ़ाई में उस कमीज के टुकड़े पर दो अक्षर अब भी नज़र आ रहे थे, रणविजय धीरे से बोला — “V.S.”
मुक्तेश्वर ने जैसे ही वो देखा, उसका चेहरा फक पड़ गया और वो हल्के से बुदबुदाया— “वीर सिंह…?”
तभी रणविजय ने उसकी आंखों में झांकते हुए कहा— “इसका मतलब साफ है… किसी ने जानबूझकर ये आग लगाई है। और जिसे हम बचाने की कोशिश कर रहे हैं, उसी को फिर से निशाना बनाया जा रहा है। तुम्हारी पत्नी जन्म के समय जानती थी, कि वो जुड़वा बच्चों को जन्म देने वाली है… और जरूर उसने अपने बच्चों के बारें में किसी को बताया होगा, जिसके जरिये गजराज ने वीर को जन्म के बाद ही मारने की कोशिश की।”
मुक्तेश्वर फौरन बोला— “जरूर ये कोई अंदर का आदमी है… जो नहीं चाहता कि वीर इस महल में लौटे। वो नहीं चाहता कि वीर राजघराना का वारिस बने। इसलिए उसने वीरे के जन्म के सारे राज खत्म करने की कोशिश की, ताकि हम साबित ही ना कर पाये कि वीर जानकी और मेरा बेटा है।”
वहीं कुछ घंटे बाद भी अस्पताल में वीर के कमरे के बाहर का नजारा काफी गंभीर था। रात के दो बजे थे, वीर ने पलक तक नहीं झपकाई थी। गजेन्द्र दरवाजे के बाहर खड़ा शीशे से बस एक टक अपने जुड़वा भाई का निहारे जा रहा था।
"प्लीज भाई, लौट आ ना… खोल दे आंखे… तेरे बिना 22 साल की जिंदगी में कोई मजा नहीं था। वही आज सुबह जब पहली बार मैं अपने भाई के साथ खड़ा होकर उन गुंडों से लड़ रहा था, तो ये वो पल था… जिसमें मेरे शरीर ने पहली बार खुद को महसूस किया था। चोट तुझे लग रही थी और दर्द मुझे हो रहा था। गोली तेरे सीने में घुसी और छल्ली मेरा सीना हो रहा है। लौट आ भाई...खोल दे आंखे...।”
इतना कह गजेन्द्र फूट-फूट कर रोने लगा और दरवाजे पर ही गिर पड़ा। तभी जैसे अस्पताल के उस कमरे में कोई जादू हुआ… और वीर की पलकों में हलचल हुई, नर्स ने गजेन्द्र को आकर उठाया और तुरंत डॉक्टर को भी आवाज लगाई।
"डॉक्टर-डॉक्टर… पेशेंट की पलकों में हलचल हुई… शायद उसे होश आ रहा है, जल्दी चलिए।"
एक तरफ दो डॉक्टर भागते हुए उस वार्ड में पहुंचे, तो दूसरे तरफ गजेन्द्र ने भी अपने भाई वीर का हाथ थामा… जिसे महसूस कर वीर ने धीरे-धीरे आंखें खोलीं। गजेन्द्र उसकी ओर झुका और पूछा— “वीर, तू ठीक है... मैं यहीं हूं।”
वीर की आवाज़ फुसफुसाहट जैसी थी— “आग… हवेली में आग…”
गजेन्द्र चौंका— “तुझे कैसे पता?”
वीर ने आंखें बंद करते हुए कहा— “क्योंकि वो मेरी पहचान जलाना चाहते थे… मुझे नहीं… मेरी असलियत को खत्म करना चाहते हैं। दरअसल मुझे गोली मारने के बाद गजराज सिंह ने अपने गुंडो को इशारे में ये ही कहा था- "महल में आग लगा दो।"…”
ठीक इसी वक्त हवेली में रणविजय और मुक्तेश्वर उस हिस्से तक पहुंचे जहां राजघराने के गुप्त दस्तावेज़ बंद रखे जाते थे। लेकिन वो हिस्सा भी पूरी तरह राख में तब्दील हो चुका था।
उस नजारे को देख रणविजय ने कहा— “जिसे हम वारिस बनाने चले थे, पहले उसकी यादों को जलाया गया है… अगला निशाना शायद उसकी जान ही हो।”
वहीं महल की छत पर एक परछाई खड़ी थी… उसका चेहरा अंधेरे में छिपा था। उसके हाथ में एक जला हुआ कागज का टुकड़ा था, जिसे उसने हवा में उड़ाते हुआ बड़बड़ा कर कहा— “अब देखना… वीर सिंह का राजघराना से रिश्ता खत्म हुआ… या शुरू।”
वो जली हुई चिठ्ठी हवा में उड़ी और अधजले पत्तों के साथ छत से नीचे आकर एक पत्थर से टकराकर बुझ गई। लेकिन उस परछाई की आंखों में बुझने जैसा कुछ नहीं था — उसकी आंखों की नफरत बता रही थी, कि वो वीर से बहुत ज्यादा नफरत करती थी... और उसे बस वीर के मरने की खबर का इंतज़ार था।
इसके बाद उसने अपनी जैकेट की जेब से एक पुरानी पॉकेट डायरी निकाली, जिसके पहले पन्ने पर किसी ने कांपते हाथों से लिखा था — "अगर वीर कभी लौटा... तो वो मेरा भी सब कुछ छीन लेगा।"
इतना पढ़ उस परछाई ने उस छोटी डायरी का पन्ना पलटा, और उसके नीचे वीर उर्फ आरव की एक धुंधली-सी इंसटेट कैमरे की तस्वीर चिपकी थी। वो तस्वीर शायद उसके जन्म के कुछ दिन बाद की थी।
उस परछाई ने वो तस्वीर देखकर दांत पीसे, और धीरे से बड़बड़ाते हुए कहा— “तुम दो हो… पर मुझे सिर्फ़ एक ही चाहिए था। अब वो दूसरा… या तो खुद मिटेगा… या मैं उसे खत्म कर दूंगी।”
और उसने डायरी के एक और पन्ने को फाड़कर हवा में उड़ा दिया, जो हवेली की जलती हुई खिड़की से अंदर जा गिरा… वहीं जहां बची-कुची राख, और राजघराने के राजों की आखिरी परतें और वीर सिंह की जली हुई पहचान पड़ी थी।
उधर अस्पताल में वीर अब होश में आ गया था, लेकिन उसका चेहरा उतना ही ठंडा था जितना कि उस दिन जब उसने अपने पिता को ठुकराया था।
गजेन्द्र ने हल्की सी मुस्कान चेहरे पर लाते हुए वीर का हाथ थामा और बोला— “तू लौट आया…मेरा भाई… मेरा छोटा, जुड़वा भाई...”
लेकिन भाई शब्द सुनते ही वीर ने अपनी हथेली खींच ली और भड़क कर बोला— “मैं लौटा नहीं… मुझे खींच कर वापस लाया गया। और अब जब सब मिटा चुके हैं… तो मैं क्या बनूंगा? वारिस? या सिर्फ़ एक नाम… जिसके होने का कोई सबूत अब नहीं बचा?”
गजेन्द्र कुछ बोलने ही वाला था कि रिया ने कमरे में आकर कहा— “वीर… पुलिस महल से लौटी है। रणविजय सर आए थे… कुछ मिला है वहां।”
वीर ने उसकी तरफ देखा और चौक कर पूछा— “क्या? क्या मेरी पहचान?”
रिया ने आंखें झुकाकर कहा— “एक जली हुई कमीज़… जिसमें ‘V.S.’ कढ़ा था… और एक नाम… जिसे कोई ज़ुबान पर लाना नहीं चाहता… लेकिन जो अब हर दीवार पर लिखा जा रहा है।”
वीर कुछ देर चुप रहा। फिर डॉक्टर से कहा— “डिस्चार्ज पेपर बनाइए… मुझे महल लौटना है।”
डॉक्टर चौंक गया और बोला— “देखों तुम्हारी हालत बहुत खराब है, हम ऐसे तुम्हें डिस्चार्ज नहीं कर सकते…”
डॉक्टर की बात सुन वीर तुरंत पलटा और बोला— “मेरी हालत? मैं दो दशक तक जिंदा था बिना नाम, बिना पहचान… अब बस कुछ जवाब लेने हैं और फिर चाहे मौत ही क्यों ना हो।”
डॉक्टर ने वीर की आंखों में एक अजीब सी जिद्द देखी, जिसके बाद ये साफ था कि अगर वो उसे डिस्चार्ज नहीं करते, तो वो वहां से भाग जाता। अगली सुबह डॉक्टरों से डिस्चार्ज लेकर वीर अपने भाई गजेन्द्र के साथ राजघराना हवेली पहुंचा।
जहां हवेली की दीवारें अब काली हो चुकी थीं, और छतों पर राख ने नए पैरों के निशान छोड़े थे। मुक्तेश्वर और रणविजय उसी तहखाने में खड़े थे, और उसी राख में उन्हें कुछ और मिला था- एक लोहे का पिटारा, जो काफी हद तक जला था… पर ताले के भीतर अभी भी कुछ दस्तावेज़ सुरक्षित लग रहे थे।
रणविजय ने कहा— “हो सकता है कि यही तय करें कि वीर सिंह भी जानकी की ही संतान है। क्योंकि मुझे ना जाने क्यों पर यकीन है कि उसने वीर की निशानियों को कहीं ना कही तो इस तहखाने में रखा होगा, ताकि वो दुनिया को बता सकें कि उसके एक नहीं दो बेटे थे।”
मुक्तेश्वर की आंखे इस वक्त नम थी, वो अपने ही बाइस साल के बेटे की पहचान राख के बीच तलाश रहा था। तभी उसने पिटारे को देखा… फिर खिड़की से बाहर निगाह डाली, जहां वीर सिंह की कार महल के फाटक से अंदर आ रही थी।
वहीं महल की छत पर खड़ी वो परछाई भी ये नजारा देख रही थी… इस बार उसके हाथ में एक दूरबीन थी। उसने वीर की कार को आते देखा, और बुदबुदाया— “ओह, तो तू आया है, वीर… अब देख, तेरे नाम पर इस महल में कौन-कौन से नए तमाशे से मौत का मंजर शुरु होता है। देखते है तुझे महल की गद्दी पर हक मिलता है या कफंन और जिंदा गाड़ने के लिए अपनी मां की तरफ दो गज जमींन… हाहाहाहा।”
आखिर किसकी है ये परछाई और क्यो करती है ये वीर से इतनी नफरत?
क्या गजराज सिंह के इशारे पर इसने ही मिटाया है वीर के जन्म का पूरा रहस्य?
और राजघराना महल में कदम रखने के बाद अब आगे क्या होने वाला है वीर के साथ?
जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग।
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