राजघराना महल के दरवाजे पर अभी वीर को लेकर गजेन्द्र और विराज पहुंचे ही थे, कि तभी चारों तरफ से मीडिया ने उन्हें घेर लिया। महल के बाहर मीडिया की भीड़ बेकाबू हो चुकी थी। कैमरों की लाइट, रिपोर्टरों की चिल्ला-पुकार, माइक उठाए हर कोई बस एक ही सवाल पूछ रहा था। 

— "क्या वीर सिंह ही असली वारिस है?"

— "क्या जानकी देवी ने सच में दो बच्चों को जन्म दिया था?"

— "क्या गजराज सिंह ही अपने पोते के गुनाहगार है?”

— “आखिर कौन सी साजिश चल रही है राजघराना में पिछले 22 सालों से?”

दूसरी तरफ अंदर हवेली में, वीर सिंह की वापसी की खबर ने हर कोने में हलचल मचा दी थी। फाटक से लेकर दीवानख़ाने तक, दीवारों पर जमी राख पर कुछ नए पदचिन्ह उभरने लगे थे… वो वीर के थे। लेकिन वो खुद कहीं नज़र नहीं आ रहा था। ऐसा लग रहा था, कि कार से उतरे ही मीडिया की भीड़ देख वो कहीं छिप गया।

मुक्तेश्वर बाहर जाकर वीर से मिलने के बजाये अभी भी तहखाने में खड़ा उस पिटारे को ताक रहा था, जिसमें शायद जानकी ने वीर को जन्म देने और अपने जुड़वा बच्चों के कोई पेपर रखे थे। तभी महल के बाहर खड़ी भीड़ वीर को वहां से गायब होता देख अचानक से बेकाबू हो गई। इस दौरान कुछ लोग अंदर घुसने की कोशिश कर रहे थे। 

ठीक उसी वक्त गजराज, जो अभी-अभी पुलिस हिरासत से बेल पर बाहर आया था, वो मीडिया की भीड़ के बीच घिर चुका था। गजराज को भी कुछ लोग पहचान कर घेर चुके थे और वो लगातार उस पर पोते को अनाथों जैसी जिंदगी देने और उसे मार डालने का आरोप लगा कोस रहे थे।

रणविजय ने एक ही नजर में हालातों की गंभीरता को भांप लिया, और बिना देरी किये वो भीड़ को चीरते हुए गजराज और गजेन्द्र तक पहुँचा और चिल्लाया— “मुक्तेश्वर! इन दोनों को अंदर ले जाओ! मैं भीड़ को संभालता हूँ!”

मुक्तेश्वर ने एक सेकंड भी नहीं गंवाया। उसने गजेन्द्र का हाथ पकड़ा और गजराज को खींचते हुए हवेली के पिछले हिस्से में ले गया और फिर खुद से दूर धकेलते हुए बोला।

“जो भी हो गजराज सिंह… तुमने जो किया उसकी सज़ा तो तुम्हें मिलेगी… लेकिन अभी मैं सिर्फ अपने बेटों को बचाने पर अपना ध्यान लगाना चाहता हूं। मैं तुम्हारे बेटे होने के फर्ज से भी नहीं मुकर सकता… सत्ता-कुर्सी के लालची...एक बुरे पिता, एक बुरे दादा और एक बुरे इंसान… जो भी हो तुम पर मेरे जन्मदाता भी हो, तो तुम्हें इस तरह अपनी आंखों के सामने लोग के लात-घुसों से मरते हुए भी नहीं देख सकता।”

गजराज कुछ कहने ही वाला था कि रणविजय भी पीछे से वहां आ गया और पूछा— “वीर कहां है? वो मुझे बाहर भी कहीं नहीं मिला।” 

मुक्तेश्वर ने चौक कर गजेन्द्र की ओर देखा और बोला— “वो तो हमारे साथ था… लेकिन जब हम महल की सीढ़ियों पर पहुंचे, तब से वो कहीं दिखा नहीं…”

गजेन्द्र ने धीमी आवाज़ में कहा— “लगता है वीर भाई…फिर से भाग गया है।”

एसीपी रणविजय ने चौंकते हुए कहा, “क्या?”

तभी गजेन्द्र ने आगे-पीछे चारों तरफ नजर घुमाते हुए कहा— “हां। शायद उसे यकीन नहीं हो रहा… या फिर वो अपनी पहचान को बचाने के लिए भाग गया… इस बार किसी और नाम के साथ जीने।”

"महल के दूसरे कोने में जानकी का वो पुराना कमरा, जिसे आज वीर के लिए तैयार किया गया था… वो एक बार फिर से अब खाली था। दरवाज़ा खुला था, जिसे देख सबकों लगा की शायद वीर ही आया होगा, लेकिन अंदर जाते ही सबके चेहरे पर मायूसी छा गई, क्योकि वीर वहां नहीं था। हालांकि एक बात चौका देने वाली थी कि उसके बिस्तर के पास वाले टेबल पर एक अधजली किताब रखी थी, जिस पर लिखा था- जानकी की Prayer Book.”

रणविजय और मुक्तेश्वर ने कमरे में कदम रखा, तो देख हवा में राख की महक और कुछ जले हुए शब्द थे। किताब का एक पन्ना आधा बचा था, जिस पर लिखा था।

“हे भगवान… मेरे बच्चों को बचाना… भले ही मुझे अपनी जान गवांनी पड़े, पर मेरा बच्चा आपकी शरण में सुरक्षित रहें।”

रणविजय ने पन्ना उठाया और गहराई से उसे देखा— “इस कमरे में आग नहीं थी… लेकिन यह किताब जली कैसे? इसका मतलब वीर यहां आया था… और जाते-जाते कुछ जलाकर गया है।”

गजेन्द्र भी वहां खड़ा ये सब सुन रहा था, ऐसे में उस आधी जली डायरी को उस कमरे में देख उसे भी यकीन हो गया कि वीर महल के अंदर आया था, लेकिन फिर कहां गायब हो गया… ये कोई नहीं जानता था।

“इसका मतलब है, वो हमें कुछ बताना चाहता था… बिना कुछ कहे।”

गजेन्द्र के इस डायलॉग के साथ कमरे में एक अजीब-सी चुप्पी छा गई थी। जानकी की अधजली वो डायरी अब सिर्फ एक जली हुई निशानी नहीं थी… वो वीर की चुप चीख भी बन गई, जो इस वक्त महल की हवा के साथ-साथ सबके दिमाग में सवाल बनकर गूंज रही थी।

रणविजय उस किताब को अपने दस्तानों से उठाकर अपने साथ ले गया, लेकिन क्यों… ये कोई नहीं जानता...?

तभी मुक्तेश्वर ने धीरे से कहा— “शायद वो मुझे अपने पिता के रुप में अभी भी अपना नहीं पाया है, उसने गजेन्द्र को तो अपना जुड़वा भाई मान लिया है, लेकिन मुझे अपना परिवार नहीं बनाया है।”

गजेन्द्र ने आंखें बंद करते हुए धीरे से बुदबुदा कर कहा— “भाई… तुझे समझा नहीं सके हम… इस बार भी तू खुद को अकेला समझ कर चला गया। पहले हम दोनों को दादा के लालच और घमंड ने अलग किया और अब तू खुद… प्लीज लौट आ मेरे भाई वीर।”

दूसरी ओर महल के बाहर अब भीड़ बेकाबू हो रही थी। कई टीवी चैनलों की OB वैनस वहां खड़ी थीं। चिल्लाते एंकर हर पल को ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ बना रहे थे।

— राजघराना का बाइस साल बाद मिला वारिस “वीर सिंह फिर से गायब!

— क्या राजघराना वारिस को स्वीकार नहीं कर सका, या वारिस ही सब छोड़कर चला गया?

— गजराज सिंह अब भी चुप क्यों हैं?

— कौन है वह परछाई जिसने जानकी की किताब जलाने की कोशिश की?

हर बार की तरह घर का ही कोई भेदी था, जो मीडिया तक राजधराना महल के अंदर की पल-पल की खबर पहुंचा रहा था। तभी एसीपी रणविजय ने अपनी पुलिस टीम को ऑर्डर दिया कि हवेली के चारों तरफ सुरक्षा बढ़ाई जाए, लेकिन अंदर से वो भी ये जानता था, कि राजघराना का दुश्मन घर के अंदर ही मौजूद था।

“जिससे इन लोगों को बचाना है, वो तो इनके बगल में ही बैठ कर खाना खा रहा है। उस पर एक बार फिर वीर हमारी निगाहों के दायरे में नहीं रहा, उसे बचाना… किसी जंग से कम नहीं होगा।”

महल के अंदर और बाहर दोनों तरफ हंगामा था। बाहर मीडिया के लोग सवालों की बौछार कर चिल्ला रहे थे, तो अंदर उधर उसी रात, शहर से करीब 300 किलोमीटर दूर एक सुनसान रेलवे स्टेशन पर एक युवक खड़ा खुद से ही बाते कर रहा था।

उसके चेहरे पर हल्की दाढ़ी थी, आंखों में नींद नहीं, बस एक अजीब-सी तल्खी थी। उसने अपने हाथ में थामी टिकट को देखा। ट्रेन आने में सिर्फ दो मिनट बाकी थे। उसे बार-बार ऐसा करता देख पास खड़े चाय वाले ने पूछा— “कहां जाना है बेटा?”

उसने धीमे से जवाब दिया— “वहां… जहां मेरा नाम न हो, और पहचान कोई पूछे नहीं।”

“अरे, क्यों बेटा… तुम्हारे नाम में ऐसा क्या बुरा है, बताओं तो जरा क्या नाम है?”

“वीर…” युवक ने रुककर कहा….“वीर सिंह।”

ये नाम सुनते ही चाय वाला बहाना कर अपनी दुकान से कुछ दूर गया और अखबार से लेकर टेलिविजन तक.. पर दिखाए जा रहे नंबर पर फोन कर बस इतना कहा— "वो बच्चा यहां है, आ जाइए उसे लेने।"

उस फोन कॉल के बाद महल के तहखाने में फिर से हलचल शुरु हो गई। एक तरफ गजेन्द्र अपने भाई को लेने रेलवे स्टेशन की तरफ भागा, तो दूसरी तरफ तहखाने में रणविजय और मुक्तेश्वर उस जले हुए पिटारे को तोड़ने की कोशिश कर रहे थे, जिसमें जानकी के आखरी दस्तावेज थे। आखिरकार, करीब 40 मिनट की मशक्कत के बाद ताला टूटा।

पिटारे में से राख के बीच एक कपड़े में लिपटी दो चीजें निकलीं— एक चांदी की चेन जिसमें 'VS' खुदा था — "Veer Singh", और दूसरी एक लाल रंग की डायरी।

मुक्तेश्वर के हाथ कांपने लगे। उसने डायरी खोली… और पहले ही पन्ने पर लिखा था।

“अगर मुझे कुछ हो जाए, तो ये साबित करने के लिए काफी होगा कि मेरे दो बेटे हैं….वीर और गजेन्द्र। मैंने मेरे जुड़वा बच्चों के नाम पहले ही रख दिए थे। और मैं… जानकी… इसे अपनी जान से भी ज्यादा संभाल कर रख रही हूं। क्योंकि मैं पहले से जानती हूं कि मेरे बच्चों को गजराज सिंह मरवा देगा।”

एसीपी रणविजय ने उस डायरी के उस पन्ने को पढ़ते हुए गहरी सांस ली और बोला— “हमें कल के कल ये सब तुरंत कोर्ट में जमा करवाना होगा। ये विरासत अब भावनाओं की नहीं… कानून की लड़ाई है।”

वहीं मुक्तेश्वर की आंखों से आंसू टपकने लगे। वो भारी गले के साथ बोला— “मैंने उसे वापस बुलाया… लेकिन रोक नहीं पाया। अब बस यही चाहता हूं, वो जहां भी हो, सुरक्षित रहे।”

गजेन्द्र जैसे ही रेलवे स्टेशन पहुंचा और उस चायवाले से वीर के बारें में बात की, तो उसने बताया— "वो बहुत दुखी था, जैसे किसी ने उसका सबकुछ छीन लिया हो। मैं अगर उसे यहां रोकता, तो वो समझ जाता और भाग जाता। मैंने देखा था, उसके हाथ में बनारस की टिकट थी, तुम उसे बनारस धाम ढूंढने जाओं।"

बनारस का नाम सुनते ही गजेन्द्र को याद आया, कि उसने अपनी मां की उस लाल डायरी में पढ़ा था, कि उनकी आखरी इच्छा थी….उनकी अस्थियों को बनारस गंगा घाट में विस्जृत किया जायें।

“पक्का वो मां की उस डायरी की राख को बनारस घाट पर विस्जृन के लिए लेकर गया होगा।” 

ये ही बड़बड़ाते हुए गजेन्द्र ने कार को हवा से बात करते हुए नाक की सीध में राजगढ़ रेलवे स्टेशन से सीधे बनारस की तरफ दौड़ा दिया। गजेन्द्र पूरी रात कार को सुनसान सड़क पर दौड़ाता रहा।

अगले दिन बनारस गंगा घाट के किनारे शमशान में वही एक लड़का सीढ़ी के सहारे पीठ टिका कर बैठा था। उसके हाथ में पुड़िया में कुछ राख थी, जिससे वो रोते हुए बातें कर रहा था।

"मां मैंने तुम्हे ना कभी देखा और ना ही कभी तुम्हारी छुअन महसूस की, लेकिन तुम्हारी लिखी उस डायरी के शब्दों ने महल में तुम्हारे साथ जो हुआ उसके दर्द का एहसास मुझे कराया। मैं किसी को नहीं छोड़ूगां। तुम देखना एक-एक से बदला लूंगा।"

इतना कह उसने उन परतों को गंगा में बहाया और बुदबुदाया— “इस विरासत को अब जलना नहीं… बदलना होगा। मैं किसी कुर्सी का हकदार नहीं… लेकिन अगर कोई मुझे फिर से मिटाने चला… तो इस बार मैं राख नहीं… चिंगारी बनूंगा।”

गजेन्द्र दूर खड़ा ये सब देख रहा था… और वीर की बाते सुन वो ये भी समझ गया था, कि वो खुद कल सुबह तक महल लौट आयेगा। 

ठीक उसी वक्त महल की छत पर वो परछाई रात के अधेंरे के साथ दुबारा आ जाती। महल के सबसे ऊपरी वाले हिस्सें में छत पर तेज़ हवा चल रही थी। रात के सन्नाटे को चीरता हुआ बस एक हल्का-सा क्लिक हुआ… और मोबाइल स्क्रीन पर चमकता एक वीडियो फाइल, जो वीर की थी। उस वीडियो में वीर महल में आज सुबह आने के बाद सबकी नजरों से बचकर पहले अपने कमरे में आया और फिर कमरे से निकलते हुए कुछ फाड़ रहा था... कुछ जला रहा था… और फिर किसी को देखकर वो चौंक गया।

महल की छत पर मौजूद वो अंजान परछाई उस वीडियो को बार-बार देख रही थी। ऐसे में आखिरकार वो कुछ बोलीं। उसने धीरे से मुस्कराते हुए खुद से ही कहा— “बहुत भोला है तू, वीर… तुझे लगता है तू लड़ाई लड़ने गया है, लेकिन असली युद्ध तो तेरे आने के बाद ही शुरू होगा।”

इतना कह वो एक बार फिर से उस वीडियों को देखता है और फिर मोबाइल उठाकर पास रखी एक लाल फाइल पर रख देती है— जिस पर सुनहरे अक्षरों से लिखा था “Operation V.S.”

और फिर…उसके पीछे से एक अनजान आवाज़ सुनाई देती है।

“अब बहुत हुआ… इस खेल में एक और खिलाड़ी उतर चुका है। लेकिन इस बार खेल वीर के साथ खेलना है, और याद है ना वो महल में प्यार-दुलार में पला इंसान नहीं। अनाथ आश्नम में लोगों के ताने और गालियां खाकर बड़ा हुआ है। तो उसके साथ सियासत की ये जंग इतनी आसान नहीं होगी।”

परछाई गुस्से और तेवर के साथ झटके से पलटती है… लेकिन एक कदम चलकर ही रुक जाती है— तो मुझे कौन सा प्यार और दुलार नसीब हुआ है… मैंने उससे ज्यादा तिरस्कार झेला है। मेरे तो बाप ने तक मुझे ठुकरा दिया था।


 

आखिर किसकी ह ये परछाई? और कौन है जो इसका साथ दे रहा है? 

कौन-कौन शामिल है Operation V.S.” में ? और वो तीसरा खिलाड़ी कौन है, जो अब महल की चुप्पियों को तोड़ने आ रहा है?

जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग। 

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