फ़ैक्ट्री की उस पुरानी दीवार पर सूरज की आखिरी किरणें चिपकी थीं। मशीनें अब भी गरज रही थीं, लेकिन माहौल पहले से ज्यादा भारी था। वीर की आँखें अब भी डगमगा रही थीं, लेकिन उसके अंदर एक दीवार खड़ी थी, जो ठोस, ठंडी और तिरस्कार से भरी थी… और ये ही दीवार इस बात से इंकार कर रही थी कि वो अपने पिता मुक्तेश्वर को माफ कर अपना लें।

दूसरी ओर गजेन्द्र ने जब उसे गले से लगाया, तो सबने सोचा था कि अब सब सुलझ जाएगा, लेकिन वीर की चुप्पी में कुछ अधूरा था। कुछ ऐसा, जो शब्दों से नहीं, सिर्फ उसकी आँखों की तल्खी से छलक रहा था… और तब ये खुलकर सामने आया जब मुक्तेश्वर ने कहा— “चलो वीर, अब घर चलें।” 

वीर ने उसकी ओर देखा...एक तीखी नजर से, जो बर्फ से भी ज्यादा ठंडी थी। और चिल्लाकर बोला— “क्या कहा...घर? कौन सा घर? कैसा घर?”

इतना बोलते-बोलते उसके होंठों पर हंसी का एक कटाक्ष उभरा, मानों जैसे वो वहां मौजूद हर अमीर शख्स को ताना देना चाहता हो।

“वो तो मैंने कभी देखा ही नहीं। मेरा घर तो वो अनाथाश्रम था, जिसे एक रात किसी ने जला दिया। वो अनाथ आश्रम था, जहां रातों में भी मुझे अपनी पहचान का पता नहीं चलता था।”

गजेन्द्र ने एक बार फिर पास आकर कहा— “भाई, बस एक बार सब सुन लें… सारी सच्चाई…मैं सच कहता हूं, हम में से कोई तेरा असली गुनाहगार नहीं है।”

वीर उन लोगों की बात सुनने के लिए मान गया और तभी सब उस फैक्ट्री के एक अंधेरे कमरे में बैठ गए, दरअसल वीर यहीं रहता था। तभी एसीपी रणविजय ने अपने फोन की लाइट जलाई और एक फोल्डर खोला।

“वीर, तुम्हारे लिए ये जानना जरूरी है कि तुम्हें क्यों और कैसे तुम्हारे अपने जुड़वा भाई से अलग किया गया। इस महल की दीवारों के पीछे जो साजिशें बरसों से चल रही थीं, तुम उन्ही का शिकार हुए हो… और तुम्हारे लिए उन्हें जानना जरूरी हैं…”

रणविजय एक सांस में सब बोलता रहा— जानकी की मौत, प्रभा ताई का संघर्ष, गजराज सिंह की क्रूरता, और एक बच्चे को बचाने की प्रभा ताई की एक आखिरी कोशिश। वो एक-एक कर वीर को राजघराने की असलियत बता रहा था। वीर पूरे वक्त बस चुप होकर सब सुनता रहा, वो एक बार भी कुछ नहीं बोला….बस सुनता रहा। गजेन्द्र की तरफ उसकी नजरें एक बार भी नहीं गईं, वो एक टक बस एसीपी के होठों को ही निहार रहा था।

एसीपी रणविजय ने कहा— “तुम्हें मारा जा सकता था, लेकिन प्रभा ताई ने तुम्हें बचाया। उन्होंने जानबूझ कर तुम्हें अनाथ छोड़ दिया — ताकि तुम जिंदा रह सको… और इसलिए तुम्हें वीर से आरव बना दिया गया।”

वीर अब भी चुप था। लेकिन उसकी आंखें गहरी हो चली थीं… मानों जैसे उसके अंदर उठ रहे सवाल अब तुफान बन गए हो।

तभी मुक्तेश्वर धीरे से बोला— “बेटा… हम मानते हैं कि हमने तुझे बरसों पहले खो दिया। पर अब जब तू मिल गया है, तो… हमें एक और मौका दे दे। मैं इस बार तुझे आंखों से ओझल नहीं होने दूंगा।”

मुक्तेश्वर की बात सुन वीर ने अपनी ठोड़ी ऊपर उठाई। उसकी आवाज़ अब कांप नहीं रही थी, वो लोहे की तरह कठोर और साफ थी… और फिर वो मुक्तेश्वर पर भड़क गया।

"कौन सा मौका, कैसा मौका… है कौन सर आप… देखिए मैं कहता हूं चुपचाप यहां से चले जाइये, और रही उस चिट्ठी की बात, तो बता दूं कि वो मैंने मेरी आश्रम वाली मां के मरने के बाद इमोशनल मूमेंट में लिख दी थी। मैं बस देखना चाहता था मेरे खून के रिश्तें आखिर दिखते कैसे है?” 

वीर के मन की कड़वाहट जायज थी, लेकिन मुक्तेश्वर और गजेन्द्र ने खाली हाथ ना लौटने की कसम खा ली थी। ऐसे में वो हर हाल में एक बार फिर वीर को समझाने की कोशिश करता है।

"ये फैक्ट्री, ये दो गज की जमींन का कमरा… बेटा ये तेरा नसीब नहीं है। तुझे यहां मेरे कुछ दुश्मनों ने पहुंचाया है, तू राजघराना की विरासत का वारिस… हिस्सेदार है। चल महल लौट चल, मेरे बेटे!”

ये बात सुन तो वीर का खून ही खौल उठा और वो बोला— "आपने एक बेटे को बचाया और दूसरे की बलि दे दी… क्या ये ही आपकी विरासत और आपका इंसाफ है।"

वीर की चीख से पूरा कमरा ठहर गया। तभी गजेन्द्र ने बढ़कर वीर के कंधे पर हाथ रखा। पर वीर ने उसका हाथ झटक दिया। फिर वो उसकी आँखों में सीधे देखते हुए बोला— “Don’t touch me, Gajendra. I wasn’t born for your approval. I was born to end this farce.”

वीर के ये तेवर देख गजेन्द्र पीछे हट गया, लेकिन उसकी आँखों में आंसू थे। वीर के बात करने के लहजे ने गजेन्द्र को झकझोर कर रख दिया, लेकिन फिर भी वो उसके करीब गया और बोला— “भाई, मैं तुझसे अपनी जगह नहीं मांग रहा… सिर्फ तेरा साथ मांग रहा हूँ। जो तू चाहे, वही होगा।”

वीर चुपचाप खड़ा रहा, जैसे उसके भीतर एक बवंडर उठ रहा हो… और वो उसे शांत करने की कोशिश कर रहा हो।

तभी प्रभा ताई सामने आईं और उन्होंने जमीन पर घुटने टेक दिए और बोलीं— “मैं पापिन हूं वीर… लेकिन अगर मेरी जान तेरे सुकून की कीमत है, तो ले ले बेटा। तुझे मैंने दुनिया से नहीं छुपाया, सिर्फ मौत से बचाया था।”

वीर का चेहरा फड़कने लगा। उसके अंदर का ज़ख्म रिसने लगा, लेकिन उसने खुद को समेट लिया और बोला— “आपने मौत से बचाया था… ज़िंदगी से नहीं। मैं दो दशकों तक जिंदा था… लेकिन किसी ने कभी मेरी ओर एक नजर के लिए भी नहीं देखा। आज मेरी दो पहचान है, मैं दो हूं — आरव और वीर… और अब इनमें से कोई भी तुम सबका नहीं।”

वीर की बातें इस वक्त तूफान से पहले की शांति का इशारा कर रही थी, जो उसके मन में उठ रहा था। बाहर फैक्ट्री के शेड के नीचे खड़े एसीपी रणविजय ने विराज से कहा— “हमारे पास समय बहुत कम है। गजराज के पुराने आदमी वीर की जानकारी हासिल कर चुके हैं। मेरे खुफियां खबरियों ने मुझे बताया कि हमें उसे महल में सुरक्षित ले जाना होगा, क्योंकि वो लोग वीर को ढूंढने के लिए मध्यप्रदेश के लिए निकल पड़े हैं।”

तभी विराज ने रणविजय से पूछा— “पर वो मानता ही नहीं... अब क्या?”

रणविजय ने गंभीर होकर कहा— “अब उसे सिर्फ सच ही बचा सकता है। हमे उसे ये समझाना होगा कि या तो वो राजघराना की इस साजिश का अंत करें, या फिर खुद इसका हिस्सा बनें… वरना जिस मौत को उसने बाइस साल पहले चकमा दिया था, वो एक बार फिर उसके पीछे ही दौड़ रही है।”

सब वीर को मना कर थक चुके थे और कार में बैठे-बैठे सोने लगे थे। दूसरी ओर रात गहरा चुकी थी। वीर अकेले फैक्ट्री की छत पर खड़ा था, उसकी आँखें अब अपने अतीत की दिशा में नहीं, बल्कि खुद की छाया में गड़ी थीं।

तभी कार से निकल गजेन्द्र उसके पीछे छत्त पर आया और वीर का नाम पुकारने लगा, लेकिन वीर ने बिना देखे कहा— “तू फिर क्यों आया है?”

“क्योंकि मैं मानता हूँ… तू मेरे बिना भी पूरा है, लेकिन मैं... तेरे बिना अधूरा हूं मेर भाई।”

वीर ने कुछ नहीं कहा, लेकिन तभी पीछे एक परछाई उभरी — एक चेहरा, जिसे कोई नहीं देख पाया, लेकिन उसकी आवाज़ हवा में गूंज रही थी— “तू वापस जा सकता है वीर… लेकिन क्या तू बचेगा?”

वीर मुड़ता है, लेकिन कोई नहीं होता। ये आवाज सुन गजेन्द्र भी बहुत हैरान होता है। वहीं अब छत्त पर सिर्फ वीर, गजेन्द्र और चुप्पी थी, लेकिन दोनों उस आवाज देने वाले शख्स को यहां-वहां छत्त पर हर तरफ ढूंढ रहे थे।

वीर ने अपने कदम धीमे-धीमे फैक्ट्री की छत की ओर बढ़ाए। उसका दिल भले ही तूफान से भरा था, लेकिन चेहरे पर अब भी एक अजीब-सी शांति थी, मानो हर घाव के साथ वो मजबूत, शांत और समझदार हो गया था।

गजेन्द्र उसकी परछाई की तरह पीछे-पीछे चलता रहा, लेकिन वीर के आगे बढ़ते कदम बता रहे थें, कि उसकी उम्मीदें टूट रही थीं। दोनों के बीच की खाई बड़ी होती जा रही थी, पर गजेन्द्र ने हार मानने की कसम खाई थी।

तभी अचानक, फैक्ट्री के दूसरी तरफ से तेज़ हवा के साथ एक चीख सुनाई दी। छत के किनारे एक अंधेरा साया अचानक सामने आ गया, जिसे देख वीर और गजेन्द्र दोनों के कदम थम गए और तभी फिर से वो आवाज आई— “तू वापस जा सकता है वीर… लेकिन क्या तू बचेगा?”

हालांकि इस बार और भी नज़दीक से, लेकिन चेहरा अभी भी साफ नहीं था। इस बार गजेन्द्र ने घबराकर कहा— “कौन है? सामने आओ! इस तरह छिपकर क्या बार-बार उसके कान भर रहे हो, तुम जो भी हो सामने आओ...”

गजेन्द्र के इस सवाल के जवाब में फैक्ट्री की पुरानी खिड़कियां अचानक से खड़कने लगीं, और अचानक छत की एक लोहे की रेलिंग ज़ोर से नीचे गिर पड़ी। ये नजारा देख वीर और गजेन्द्र दोनों के पैरों तले जमीन खिसक गई।

वीर ने एक झटके से पीछे हटकर गजेन्द्र को धक्का दिया और बोला— “यहाँ से हट, अब वक्त है लड़ाई का… ये तेरे नहीं मेरे दुश्मन है।”

गजेन्द्र ने वीर की तरफ देखा, उसकी आंखों में एक अनजाना डर और हल्की सी उम्मीद बाकी थी, जिसका दामन थाम गजेन्द्र ने कहां— “मैं तेरे साथ हूँ, चाहे जो भी हो। तेरा दुश्मन...मतलब मेरा दुश्मन...।”

जैसे ही गजेन्द्र ने अपनी ये लाइन पूरी की, तो वो परछाई अधेरें से उजाले में आ गई और अब सब साफ दिख रहा था। ये कोई और नहीं गजराज सिंह था। उसके चेहरे पर वही क्रूर मुस्कान थी, जो सदियों से राजमहल पर छाई थी। उसने कदम बढ़ाए, और उसके पीछे उसके गुंडों की टोलियाँ भी साथ थी।

गजराज सिंह को सामने देख गजेन्द्र चौक गया— "दादाजी आप, आप तो तहखाने में बंद थे… फिर इस तरह अचानक यहां कैसे?”

“बूढ़ा शेर भी सवा लाख लोगों पर भारी होता है गजेन्द्र… और शेर को जेल में रखना, आसान नहीं।

तभी वीर ने अपने दांत कस लिए और बोला— “तो तुम मेरे दादा हो... जो मेरे मरने का इतने सालों से इंतज़ार कर रहे थे। वैसे सच बताउं मिल तो मैं तुम्हें पहले ही लेता, जब मेरी आश्रम वाली मां के सच बताने के बाद मैं पहली बार राजघराना आया था। पर मैंने देखा वहां तो सबको तुमसे घिन्न आती है, हर कोई तुम्हें दुत्कारता था। और दोषी तो तुम मेरे भी हो...या यूं कहूं कि असली गुनाहगार तो तुम ही हो मेरे।”

वीर की जहर जैसी कड़वी बातें सुन गजराज के तन-बदन में आग लग गई और वो चिल्लाकर बोला— “वीर, तुझे पता होना चाहिए कि मेरे राजघराना महल की असली ताकत कौन है। तुम बस एक टुकड़ा हो इस खेल में। और अब खेल खत्म होने वाला है, तो तुम्हें तो मैं सबसे पहले मारूंगा, क्योंकि तुझसे तो मैं तेरे जन्म से ही नफरत करता हूं।”

गजेन्द्र ने वीर का हाथ पकड़ लिया और बोला— “हम साथ हैं दादाजी...।”

वीर ने गहरी सांस ली, और फिर झटके से फिर से गजेन्द्र का हाथ हटा दिया… और फिर भड़क कर बोला— मुझे किसी की जरूरत नहीं है..। मैं अकेले में ही दो हूं—आरव और वीर, और मैं इस खेल को खत्म करने का दम भी रखता हूँ, तो ध्यान रहे कि कोई हमारे बीच ना आए… और अगर दुबारा मुझे हाथ लगाया, तो तुम्हारी सेफ्टी तुम जानों।”

गजराज के लोग छत पर वीर पर टूट पड़े। मुक्केबाजी, चीखें, और हथियारों के वार में वीर ने अपनी ताकत के साथ हर बात का जवाब दिया। वहीं जब वो थक कर दुश्मनों से एक कदम पीछे होने लगा, तो गजेन्द्र ने भी अपनी पूरी ताकत झोंक दी और भाई के साथ उन लोगों से भिड़ गया।

लेकिन तभी गजराज ने अपने छुपे हुए बंदूकधारी को आदेश दिया, जिसने एक गोली सीधे छत्त के निशाने पर चलाई, और फिर...

वीर ने अपनी जान की परवाह किए बिना, गजेन्द्र को धक्का दिया और उसे अपने सीने पर ले लिया। वीर को जमींन पर खून से लथपथ गिरता देख गजेन्द्र चीखा, लेकिन वीर ने उसे शांत करते हुए कहा— “अब... मेरा वक्त है।”

वीर गिरा, लेकिन उसकी आँखों में वह आग अभी बुझी नहीं थी। गजराज सिंह ने ज़ोर से हँसते हुए कहा— “आखिरकार मैंने उस गंदी नाली से आई जानकी की औलाद… इस कीड़ें को मार ही डाला.. हाहाहा।”

पर तभी छत की दूसरी ओर से एक तेज़ रोशनी और एक आवाज़ गूंजी, जैसे बिजली की गरज हो— “गजराज, अब तेरा अंत तय है, मेरी औलाद पर दुबारा वार कर तुने ठीक नहीं किया।”

इतना कहते के साथ मुक्तेश्वर अपने पिता गजराज सिंह की तरफ बढ़ा और उसे लगातार दस से ज्यादा जोरदार चाटें जड़ दिये।।

दूसरी ओर छत्त पर औंधे मुंह खून से लथपथ वीर का शरीर अब धीरे-धीरे उसका साथ छोड़ रहा था। खून की बहती धार के साथ छत्त का रंग भी लाल हो गया। 

तभी एसीपी रणविजय चिल्लया— "विराज जल्दी से गाड़ी निकालों, वीर की हालत बहुत खराब हो गई है… इसे अभी अस्पताल ले जाना होगा।"

विराज ने तुरंत कार निकाली और गजेन्द्र अपने भाई को लेकर अस्पताल के लिए निकल गया। अब गजराज और उसके गुंड़ों के सामने मुक्तेश्वर और एसीपी रणविजय उनका सामना करने के लिए खड़े थे।


 

क्या वीर बचेगा? क्या गजराज सिंह की साजिश का कभी अंत होगा? 

और राजघराने का असली वारिस आखिर कौन होगा — वीर या कोई और? या फिर वीर सच में राजघराना से खत्म कर देगा अपना रिश्ता?

जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग। 

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