महल की दीवारों पर चुप्पी लिपटी हुई थी। कॉन्फ्रेंस रूम में पूरी प्लानिंग करने के बाद आज जब गजेन्द्र महल वापस लौटा तो बिल्कुल खामोश था। लौटने के बाद से उसने खुद को अपने कमरे में बंद कर रखा था। उसे देख प्रभा ताई समझ गई थी कि वो खामोश जरूर है, पर उसके अंदर तूफान चल रहा है। उसने एसीपी की दी उस फोटो में जिस चेहरे को देखा… वो कोई अजनबी नहीं था — वो उसका अधूरा हिस्सा था, उसका अपना भाई...।
वहीं, मुक्तेश्वर सिंह हॉल के कोने में खड़ा अपनी ही साँसों से जूझ रहा था। उसकी आँखों में पछतावे की परतें थीं — लेकिन आज वो पछतावा सिर्फ अपने बेटे गजेन्द्र के लिए नहीं, उसके दूसरे बेटे वीर के लिए भी था, जिसे उसने कभी देखा तक नहीं।
मुक्तेश्वर का दिल उसे अंदर से कचौट रहा था, वो बेचैन था और खिड़की के बाहर देख खुद से ही बातें कर रहा था— “बाइस साल... मेरा अपना बेटा, जो मेरे खून का हिस्सा है, वो दुनिया की नजरों में एक नामहीन परछाई बनकर जिया। क्या मैं इतना कमजोर था कि अपनी ही बीवी और बेटे को बचा नहीं पाया?”
इतना कहते-कहते मुक्तेश्वर फूट-फूट कर रोने लगा। वहीं प्रभा ताई, जो उस कमरे के एक कोने में खड़ी थीं, ये सुनकर रो पड़ीं। उन्होंने धीमे कदमों से आकर मुक्तेश्वर के कंधे पर हाथ रखा।
“माफ कर दो मुझे... मुझे माफ कर दो मुक्तेश्वर... मैंने सब जानने के बाद भी इतने सालों तक चुप्पी ओढ़ें रखी। सोचती रही कि गजेन्द्र को बचा लिया, यही काफी है... लेकिन शायद मैंने दोनों को अधूरा कर दिया। दोनों को ईश्वर ने इस दुनिया में जोड़कर भेजा था, लेकिन मैंने दोनों को अलग कर दिया।”
मुक्तेश्वर ने उसकी तरफ देखा, और उसे एहसास हुआ कि उसकी जो बहन बीतें कुछ सालों में जायदाद के लालच और राजघराना की गद्दी के लिए उससे दूर हो गई थी, वो अब लौट आई है। लेकिन इस वक्त उसका दिल भी वीर के बिछड़ने से दर्द से भरा हुआ है। प्रभा की आँखों में इस वक्त आंसू और डर दोनों थे, वो हर पल वीर के लौट आने की दुआ कर रही थी।
“ताई,” मुक्तेश्वर की आवाज़ भरी हुई थी— “क्या तुम जानती थीं कि वो बच्चा ज़िंदा है, कि उसे कहीं ले जाया गया था?”
प्रभा ताई कांपते लहजे में बोलीं— “हां, क्योंकि पिताजी ने जिसे उसे मारने के लिए दिया था, मैंने उसे अपने सारे गहने और पैसे दे दिए थे। इसके बाद मैंने उससे वादा किया था, कि मैं कभी उससे वीर के बारें में नहीं पूछूंगी… बस वो उसे किसी भी अनाथ आश्रम में छोड़ दे और जिंदा रहने दे।”
और फिर…मुक्तेश्वर ने आगे पूछा, तो प्रभा ताई ने फिर से बोलना शुरु किया।
"उस वक्त मैंने देखा था… उस रात वो आदमी जो वीर को उठाकर ले गया था। पर मैं नहीं जानती थी कि वो बच्चा कहाँ लेकर गया था। क्योकि पिताजी का आदेश था…पीछा करने वाले और विरोध करने वाले को भी बच्चे के साथ उसे गढ्ढें में गाड़ दिया जायें।”
गजेन्द्र, जो अब तक दरवाजें के बाहर से दोनों की बात सुन रहा था, वो धीरे-धीरे कमरे के अंदर आया। उसने प्रभा ताई की बात को बीच में कांटतेे हुए कहा— “लेकिन क्यों चुप रहीं आप? आपने पापा को कभी नहीं बताया?”
ताई की आँखें झुक गईं और वो बोलीं— “डर था बेटा... कि पिताजी मुझे भी मरवा डालेंगे। उन्होंने मेरी आंखों के सामने ना जाने कितनों को मौत की नींद सुलाया है। अपनी सत्ता की कुर्सी हिलते देख वो मुझे भी जिंदा नहीं छोड़ते… और फिर जब तू पैदा हुआ, मुझे लगा… मेरे बिना जानकी की आखिरी निशानी भी खो जाएगी।”
गजेन्द्र की आँखें नम हो गईं। लेकिन अब उनमें गुस्सा नहीं, बस जिद्द थी….अपने भाई को वापस लाने की।
तभी महल का एक नौकर भागता हुआ आया और बोला— ACP रणविजय आये है, वो जल्द ही सबको हॉल एरिया में बुला रहे है। मुक्तेश्वर, गजेन्द्र और प्रभा ताई भागकर हॉल में पहुंचे।
"वीर की कोई खबर मिली क्या?”
जवाब में ACP ने दायें से बायें मुंडी हिला दी। एसीपी रणविजय के चेहरे पर इस वक्त थकान तो थी, लेकिन आवाज में एक अजीब सी खनक भी थी।
“हमारे पास ज्यादा वक्त नहीं है। जो रिकॉर्ड्स मिले हैं, वो हमें एक बंद हो चुके अनाथालय तक ले गए हैं। वो बच्चा — आरव — वही हो सकता है जिसे आप लोग वीर समझ रहे हैं। मुझे लगता है उसे ये आरव नाम अनाथ आश्रम में किसी ने दिया होगा।”
एसीपी की बात सुन विराज ने तुंरत कहा— “अगर ये सच है, तो अब सवाल उठता है... ये वीडियो किसने भेजी? क्या वीर अब भी हमारी तलाश में है या ये कोई और चाल है?”
ACP ने गंभीर लहजे में कहा— “एक बात और... वीर यानी आरव के हालात अब भी सामान्य नहीं हैं। हमें खबर मिली है कि उसने हाल ही में एक मेडिकल प्लांट में झगड़ा किया और वहाँ कुछ फाइलें जला दी। लगता है वो किसी से भाग रहा है... या फिर किसी चीज़ से।”
गजेन्द्र ने आगे बढ़कर कहा— “तो इंतज़ार किस बात का है? चलिए उसे ढूंढते हैं। मैं अब और देर नहीं कर सकता।”
मुक्तेश्वर भी सामने आया, और बोला— “इस बार तुम अकेले नहीं जाओगे। मैं तुम्हारे साथ चलूँगा।”
प्रभा ताई ने तभी तीनों को रोकते हुए धीरे से कहा— “और मैं भी... अगर मेरी एक गलती ने एक ज़िंदगी को अंधेरे में धकेला है, तो अब मुझे ही उसे उस अंधेरे से बाहर निकाल कर भी लाना होगा।”
इसके बाद चारों एक कार में सवार हो मध्यप्रदेश की तरफ निकल पड़े। कार में सबके बीच एक अजीब सी खामोशी थी। गजेन्द्र, मुक्तेश्वर, रिया एक कार में थे और प्रभा ताई, विराज और ACP रणविजय दूसरी कार में… दोनों कारें अनाथालय की ओर निकल चुकी थी।
तभी कार की खामोशी को खत्म करते हुए रिया ने धीरे से पूछा— “अगर आरव यानी वीर मिला… और उसने सब याद रखा हो, तो क्या वो आपको और प्रभा बुआ जी माफ कर पाएगा?”
गजेन्द्र ने धीमे से कहा— “पापा माफी मांगने नहीं जा रहें। बल्कि हम उसे बताने जा रहे हैं कि अब वो अकेला नहीं है। हम सब उसकी लड़ाई में साथ हैं।”
गजेन्द्र के इस जवाब के बाद एक बार फिर कार में सन्नाटा पसर गया। मध्यप्रदेश की सीमा पर बनी पथरीली सड़कें जैसे मुक्तेश्वर और गजेन्द्र के लिए किसी लंबे पहाड़ की चढाई से कम नहीं थीं। दो गाड़ियाँ, एक के पीछे दूसरी... धूल उड़ाती हुईं वीर यानी आरव को तलाशती हुई आगे बढ़ रही थी। कार की खिड़की से बाहर देखते हुए गजेन्द्र की आंखें वीर की तस्वीर में अटक गई थीं, जो इस वक्त उसके हाथ में थी और वो उसे बार-बार देख रहा था।
उसकी उंगलियाँ उस तस्वीर की कोनों को सहला रही थीं, जैसे महसूस करना चाहता हो वो स्पर्श, जो उसके भाई ने कभी महसूस नहीं किया। तभी मुक्तेश्वर ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा— “जब जानकी ने मुझसे पहली बार कहा था कि वो माँ बनने वाली है, तो मैं दुनिया का सबसे खुश इंसान था… और आज, बाइस साल बाद, मुझे लगता है जैसे मैं अब तक अधूरा पिता था। गजेन्द्र... अगर वीर हमें पहचानने से इनकार कर दे तो?”
गजेन्द्र ने बिना तस्वीर से नज़र हटाए कहा— “तो भी हम उसे जाने नहीं देंगे। हम नहीं चाहते कि वो हमें माफ करे, लेकिन ये ज़रूरी है कि वो सच्चाई जान ले।”
पीछे की कार में बैठीं प्रभा ताई अब भी उस चिट्ठी को अपने हाथों में लिए बैठी थीं, जो कभी वीर को उसकी नई ज़िंदगी के साथ मिली थी, वो बार-बार उसे पढ़ रही थी — “इस बच्चे को उस अंधेरे से दूर रखना, जो इसे निगलना चाहता था।”
प्रभा ताई की आँखें नम थीं, उनका माथा झुका हुआ और होंठ लगातार कुछ बुदबुदा रहे थे — जैसे अपने पापों की माफ़ी माँग रही हों।
दूसरी ओर राजगढ़ से करीब 80 किलोमीटर दूर एक पुरानी स्टील फैक्ट्री में वीर, अब ‘आरव’ नाम से काम करता था। उसके हाथ छिल चुके थे, चेहरे पर पसीने और कोयले की गर्द की परत थी। लेकिन उसकी आँखों में कुछ था — एक असमंजस, एक अनजाना डर... और साथ ही एक बुझी हुई उम्मीद, जो उसके चेहरे पर भी नजर आ रही थी।
वो अभी भी उस चिट्ठी के हर शब्द को याद कर रहा था और लगातार एक ही सवाल उसके जहन में घूम रहा था— “क्या सच में मैं राजगढ़ के राजघराना का खून हूं?... आखिर क्यों मुझे छोड़ा गया मुझे?”
बीते कुछ दिनों से उसकी रातें उथल-पुथल से भरी थीं। जो वीडियो उसने रिकॉर्ड की थी, वो सिर्फ एक सवाल के साथ भेजी गई थी —
आखिरकार दोनों गाड़ियाँ उस फैक्ट्री के बाहर आकर रुकीं, जिसका पता एसीपी रणविजय नें उन्हें दिया था। गजेन्द्र के कदम कांप रहे थे। मुक्तेश्वर ने उसका हाथ थामा और कहा— “तू अकेला नहीं है। चल, चलकर तेरे भाई और मेरे बेटे वीर को पहचानते हैं।”
गजेन्द्र, मुक्तेश्वर और रिया फैक्ट्री के भीतर पहुंचे, उनके पीछे-पीछे विराज, प्रभा ताई और रणविजय भी थे। धुंआ, गर्मी और धड़धड़ाते मशीनों की आवाज़ के बीच, उनकी नजर एक काले शर्ट और नीली टोपी में काम करते नौजवान पर पड़ी।
वो वीर था यानि आरव, जिसे उन्होंने बस कुछ सेकंडों में पहचान लिया। गजेन्द्र ने आगे बढ़कर धीमे से पुकारा— “वीर…?”
वीर ने चौंक कर देखा, क्योकि उसे उसकी आश्रम वाली मां ने मरते समय बता दिया था कि उसका असली नाम वीर है। उसकी आँखों में पहले डर आया, फिर भ्रम… और फिर वो नजरें गजेन्द्र पर टिक गईं। दोनों की आँखें मिलते ही एक कंपन सा शरीर में दौड़ गया। किसी को कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी — खून ने खून को पहचान लिया था।
लेकिन वीर पीछे हटा। उसकी आंखें सवालों से भरी थीं, और वो चिल्लाकर बोला, “तुम लोग कौन हो?”
मुक्तेश्वर आगे बढ़ा— “मैं… तेरा पिता।”
वीर के चेहरे पर दर्द, गुस्सा और अस्वीकार करने का तस्वीर एक साथ दौड़ गई और वो दुबारा चिल्लाया— “पिता? जो बाइस साल तक मरने के लिए छोड़ गया था?”
वीर के मुंह से ये सुनते ही मुक्तेशर का गला उसके आंसुओं की धार से भर गया, तो वहीं वीर की आवाज भी भारी हो गई थी, और वो आगे बोला— “जिसके लिए मैं बस एक नामहीन बच्चा था?”
तभी गजेन्द्र दोनों ने बीच में आ गया “भाई… मैं तुझसे माफी माँगने नहीं आया। मैं तुझे घर वापस लाने आया हूँ… मैं तुझसे वो वक्त वापस नहीं मांग सकता, लेकिन बाकी जिंदगी तुझे अकेला नहीं रहने दूँगा, ये वादा कर सकता हूं।”
वीर की आँखों में आंसू थे, लेकिन आवाज सख्त थी— “तुम्हें कैसे यकीन हुआ कि मैं तुम्हारा ही भाई हूँ?”
गजेन्द्र ने जेब से वो चिट्ठी निकाली जो उन्हें एसीपी रणविजय से मिली थी। और फिर वो जुड़वां तस्वीर उसके सामने रख दी — वीर और गजेन्द्र की बचपन की एक झलक उस तस्वीर में थी। वीर ने तस्वीर को देखा… फिर अपने चेहरे को छूआ… और फिर चुपचाप मुड़ गया।
वीर बिना किसी से कुछ कहे वहां से जाने लगा। बाहर प्रभा ताई, विराज और एसीपी रणविजय खड़े चुपचाप ये सब देखते रहे। गजेन्द्र और मुक्तेश्वर का दिल अब बैठा जा रहा था। तभी गजेन्द्र बोला— “वो मानने को तैयार नहीं है, वो अंदर से बिखरा हुआ है….उसे वक्त चाहिए।
तभी एसीपी रणविजय ने कहा— “लेकिन वक्त नहीं है हमारे पास। हमारे इन्वेस्टिगेशन में पता चला है कि गजराज सिंह के पुराने साथी अब भी वीर को खत्म करना चाहते हैं। वो सोचते हैं कि अगर वो वापस आया, तो वो गद्दी की सच्चाई सबके सामने लाकर राजघराना को मिट्टी में मिला देगा।”
सभी की सांसें थम गईं। तभी मुक्तेश्वर ने ठान लिया— “मैं अब और नहीं चुप रहूंगा। अब जो भी हो, मैं पूरे राजघराने का सच सामने लाउंगा… और अगर किसी ने भी गजेन्द्र या वीर को हाथ लगाने की कोशिश की, तो इस बार मुक्तेश्वर सिंह सामने होगा।”
शाम होने को आई थी। फैक्ट्री की छत पर खड़ा वीर दूर पहाड़ियों की तरफ देख रहा था। गजेन्द्र चुपचाप उसके पास आया और उसके बगल में खड़ा हो गया।
कुछ देर तक दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला। फिर गजेन्द्र ने धीरे से कहा— “तू जानता है, जब मैं छोटा था… तो हमेशा ऐसा लगता था जैसे मेरी कोई परछाई है, जो हर वक्त मेरे साथ चलती है। आज समझ में आया… वो तू था।”
वीर की आँखों से आंसू निकल पड़े, फिर उसने गजेन्द्र की तरफ देखा— “मैं तुझे माफ नहीं कर सकता, क्योंकि गलती तेरी नहीं थी। और मैं पापा से आज पहली बार मिला हूं, तो कैसे मान लू कि वो सही है।”
गजेन्द्र ने अपने दोनों हाथ फैलाकर कहा— “आ जा भाई… अब हम अधूरे नहीं रहेंगे।”
और पहली बार… बाइस साल बाद… दो जुड़वाँ भाई, एक ही माँ की कोख से जन्मे, एक-दूसरे की बांहों में समा गए। नीचे सब खड़े थे — प्रभा ताई फूट-फूट कर रो रही थीं।
मुक्तेश्वर ने आसमान की ओर देखा और बुदबुदाया— “जानकी… मैंने तेरे बेटे को तुझसे छीना था, आज उसे तुझसे वापस जोड़ रहा हूँ।”
आसमान को देख मुक्तेश्वर खुद से बाते कर रहा था, लेकिन अभी सबकुछ सुलझा नहीं था। क्योंकि वीर मुक्तेश्वर से मिलना तो दूर उसकी शक्ल तक नहीं देखना चाहता था।
तभी एसीपी रणविजय ने कहा— “ये सिर्फ एक भावनात्मक मिलन नहीं है। गजराज सिंह के पुराने गुंडे अब भी चालें चल रहे हैं। और राजघराना की गद्दी की दौड़ में अब कई चेहरे हैं, जो नहीं चाहते कि वीर घर लौटे… और शायद वीर भी खुद तुम्हें पिता के तौर पर अपनाना नहीं चाहता। ”
तभी रिया ने एसीपी रणविजय को बीच में टोकते हुए कहा— “तो अगला सवाल यही है…कि अब जबकि वीर लौट आया है, तो असली मुजरिम कौन है?”
क्या गजराज सिंह ने सिर्फ साजिश रची थी या उस रात जानकी की मौत भी उसकी सोची समझी चाल का हिस्सा थी?
क्या वीर सच में अपने पिता से नफरत करता है, और अगर ऐसा है तो उसने फिर वो वीडियो मैसेज क्यों भेजा था?
क्या प्रभा ताई ने सच में मजबूरी में आकर वो गलती की थी या वो भी किसी राज़ का हिस्सा हैं?
जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग।
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