5.
सभी लोग उस महिला की ओर बढ़ रहे थे जिसने यह पेंटिंग पूरे छब्बीस हज़ार रुपये देकर खरीदी थी “लेकिन कौन है ये जो इस मामूली से चित्र के लिए छब्बीस हज़ार रुपये दे गयी??” मोहन के दिमाग ने झटका दिया और मोहन उस महिला से मिलने के लिए लड़खड़ाते हुए आगे बढ़ने लगा।
आगे बढ़ते हुए मोहन देख रहा था कि वह महिला जिसे लोग रेहाना कह रहे थे एक बुर्का पहने हुए थी जिसमें उसका शरीर पूरी तरह से ढका हुआ था। उसके चेहरे पर भी नकाब लगा हुआ था जिसमें से बस उसकी आँखें ही दिखाई दे रही थीं, जगमगाती हुई आँखें, मुस्कुराती हुई आँखें।
“वाह इतनी सुंदर आँखें…! लेकिन ये आँखें..? इन्हें कहीं तो देखा है!?” मोहन ने रेहाना की आँखों को गौर से देखते हुए धीरे से कहा और एकदम से बोल पड़ा, “रागनी…! तो तुम यहाँ हो? मैंने तुम्हें कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा रागनी! और अब जब मिली हो तो रेहाना बनकर?” बड़बड़ाते हुए मोहन रेहाना की ओर बढ़ने लगा तभी शम्भूनाथ ने रेहाना को आवाज लगा दी और रेहाना उस ओर मुड़ गयी, अब वह हर कदम पर मोहन से दूर होती जा रही थी। मोहन भी तेजी से उसके पीछे लपका लेकिन रेहाना और उसके बीच भीड़ की एक पूरी दीवार थी जिसे पार करना एक पैर के मोहन के लिए उस समय असम्भव हो गया था। मोहन किसी तरह प्रयास करके उस स्थान तक पहुँचा जहाँ कुछ देर पहले रेहाना खड़ी थी, वहाँ मोहन को वही चिरपरिचित सुगन्ध आ रही थी जिससे वह ऑंख बन्द करके भी रागनी को पहचान लेता था।
“ओह्ह! रागनी!! तुम ऐसा क्यों कर रही हो? तुम इतनी निष्ठुर कैसे हो गयीं जो मेरे सामने होने पर भी मेरी आवाज सुनकर नहीं रुकी उल्टा मुझसे दूर चली गयीं।” मोहन उदासी में बड़बड़ाते हुए उस स्थान पर बैठ गया जहाँ कुछ देर पहले रेहाना खड़ी थी, वह अपने हाथों से उस जगह को टटोल रहा था जहाँ रेहाना ने अपने पाँव रखे हुए थे।
“अरे देखो मोहन जी! शायद पैर मुड़ गया उनका या फिर लड़खड़ाकर गिरे हैं चलो जल्दी उठाओ उन्हें।” तभी किसी ने पीछे से आवाज लगायी और किसी ने आगे बढ़कर मोहन को उठाकर खड़ा कर दिया।
“व…वो रागनी…? मेरा मतलब रेहाना जी कहाँ गयीं?” मोहन ने खड़े होकर इधर-उधर देखते हुए सवाल किया।
“वे तो शायद अपनी पेंटिंग लेकर चली गयीं, या हो सकता है मित्तल साहब के पास गयीं हों पेंटिंग की पेमेंट करने।” पीछे से किसी ने मोहन के सवाल का जवाब दे दिया और भीड़ छँटने लगी।
“मित्तल साहब! मुझे जल्दी जाना चाहिए, कहीं रागनी चली ना जाये।” मोहन ने खुद से कहा और वह मित्तल के ऑफिस की ओर बढ़ गया।
“मित्तल सर! वो रेहाना जी कहाँ गयीं?” मोहन ने मित्तल के पास पहुंचते ही सीधे सवाल किया।
“कौन! रेहाना जी? वे तो अपनी पेंटिंग लेकर चली गयीं। लेकिन तुम चिंता मत करो वह पूरी पेमेंट करके ही पेंटिंग ले गयी हैं। तुम चाहो तो अभी अपने सारे पैसे ले सकते हो नहीं तो होटल में जाकर आराम करो और दो-चार दिन आराम से बॉम्बे घूम कर अपने घर वापस चले जाना। आप हमें बता दो कब वापस जाना है ताकि हम उसी हिसाब से आपकी टिकट बनवा कर आपको दे दें।” मित्तल ने मोहन के सवाल पर जवाब देते हुए कहा और मोहन की ओर देखने लगा।
“बात पैसों की नहीं है मित्तल साहब, वह तो मैं बस एक बार रेहाना जी से मिलकर उन्हें धन्यवाद देना चाहता था। क्या आप जानते हैं मित्तल साहब कि ये रेहाना जी कहाँ रहती हैं?” मोहन ने बात घुमाते हुए कहा।
“सॉरी दोस्त! मैं यह नहीं जनता कि रेहाना जी कहाँ रहती हैं।” मित्तल ने अफसोस के साथ कहा।
“ऐसे कैसे मित्तल साहब? आपने उन्हें पेंटिंग बेची तो कोई बिल आदि तो बनाया होगा जिस पर उनका नाम-पता लिखा गया होगा। आप पता कीजिये कि क्या पता लिखाया है रेहाना जी ने?” मोहन बहुत विचलित भाव से बोला।
“हमने कोई बिल नहीं बनाया मोहन जी, यहाँ बिल देने का नियम नहीं है, तो बस उन्होंने पैसे दिए और हमने पेंटिंग उन्हें दे दी बस। हम तो हमेशा पेंटिंग्स ऐसे ही सेल करते हैं लेकिन अगर आप कहते हो तो आगे से हम बिल का प्रावधान भी रख लेंगे।” मित्तल ने अपनी आवाज को मधुर करते हुए कहा।
“अच्छा मित्तल साहब ये बताइए कि आपको मेरे ये चित्र और मेरा पता कैसे मिला? कौन आया था आपके पास इन्हें लेकर?” मोहन ने दूसरा सवाल पूछा।
“देखिए मोहन जी हमें किसी ने आपकी पेंटिंग्स पोस्ट से भेजी थीं इस अनुरोध के साथ कि हम उन्हें अपनी प्रदर्शनी में लगायें लेकिन भेजने वाले ने अपना नाम-पता कुछ नहीं लिखा था। पेंटिंग्स पर भी मोहन के अतिरिक्त कुछ नहीं लिखा था इसलिए हमें पता ही नहीं था कि ये पेंटिंग्स किसकी हैं, फिर भी हमने उन दोनों पेंटिंग्स को अपनी गैलरी में लगाया और लोगों ने उन्हें पसंद भी किया। कई लोग पूछते थे कि ये पेंटिंग कितने की हैं लेकिन हम बिना आपकी परमिशन के उन्हें बेच नहीं सकते थे तो हम मजबूर थे। फिर एक दिन हमें आपकी एक और पेंटिंग मिली जिस पर आपका नाम और पूरा पता लिखा हुआ था लेकिन उस पेंटिंग को प्रदर्शित करने या बेचने के लिए मना किया गया था, साथ ही एक पत्र था जिसमें लिखा था कि हम आपकी पेंटिंग को प्रदर्शनी में लगायें और आपको यहाँ बुलाएं। हम तो आपकी पेंटिंग्स खुद ही बेचना चाहते थे तो हमने आपको यहाँ बुला लिया।” मित्तल ने विस्तार में उत्तर दिया।
“कहाँ है वह चित्र? क्या मैं उसे देख सकता हूँ?” मोहन ने कुछ सोचते हुए पूछा।
“जी बिल्कुल, आपका चित्र है आप क्यों नहीं देख सकते? मैं अभी मंगाता हूँ।” मित्तल ने कहा और मेज पर रखी घण्टी बजा दी तो एक चपरासी हाथ बाँधे उनके सामने आकर खड़ा हो गया।
मित्तल साहब ने अपने चपरासी से वह पेंटिंग मंगाई और उसे मोहन के सामने खोल दिया, मोहन इस चित्र को देखकर बुरी तरह से चौंका, "य...ये चित्र? ये चित्र आपके पास कैसे आया? ओह्ह! रागनी ये आपके अलावा कोई नहीं हो सकता।" मोहन बड़बड़ाया।
"क्या हुआ मिस्टर मोहन? कोई गलत चित्र आ गया क्या? और ये रागनी कौन है?" मोहन के हाव-भाव देखकर मित्तल ने पूछा।
"क...कौन रागनी?" मोहन ने बेख्याली में कहा और फिर मित्तल की आँखों में देखते हुए बोला, "मित्तल साहब देखिए आप सच-सच बताइए कि ये चित्र आप तक कैसे पहुँचे? मुझे नहीं लगता कि कोई ऐसे ही मेरे बनाये चित्र चुराकर आपको भेजेगा और फिर वह चित्र जिसमें मेरी रागनी की तस्वीर थी, वह तो मैंने रागनी को दे दिया था जिसे वह अपने साथ ले गयी थी। देखिए मित्तल साहब पिछले पाँच साल से रागनी की कोई खबर नहीं है और आज आपके पास वह चित्र है जो रागनी ने खुद मेरे सामने बैठकर बनवाया था और उसे अपने साथ ले गयी थी। हो ना हो रागनी ही आपके पास ये सारे चित्र लेकर आयी होगी और उसने ही आपसे इनके बदले मुझे पैसे देने को कहा होगा मुझपर तरस खाकर मेरी मदद करने के लिए; बताइए ना मित्तल सर कौन लाया ये चित्र आपके पास और ये चित्र! इसके बारे में तो रागनी को भी नहीं पता था, फिर ये आपके पास कैसे पहुँचा?" मोहन ने उस चित्र को देखते हुए कहा जिसमें मोहन दोनों हाथ हवा में खोले खड़ा हुआ था, उसके ठीक आगे रागनी खड़ी थी। ये चित्र ऐसे बनाया गया था कि मोहन का एक हाथ रागनी का हाथ लग रहा था और रागनी का पैर मोहन का पैर जैसा लग रहा था। इस पेंटिंग में ये दोनों एक दूसरे की अपूर्णता पूरी कर रहे थे, इनके चेहरे मुस्कान से खिले हुए थे और आँखे चमक रही थीं। यह ऐसा चित्र था कि इसे जो भी देखे बस कुछ देर के लिए तो खो ही जाए।
"बताइए ना मित्तल साहब!! कहाँ खो गए आप?" मित्तल को असमंजस में देखकर मोहन ने फिर पूछा।
"मैं...मैं सच कह रहा हूँ मोहन जी! मुझे ये चित्र पोस्ट से ही किसी ने भेजे थे और इनपर भेजने वाले या आपका कहीं कोई पता नहीं लिखा था।" मित्तल ने मोहन से आँखें चुराते हुए कहा।
"आप मुझसे कुछ छिपा रहे हैं मित्तल साहब! ये चित्र आपको पोस्ट से मिल ही नहीं सकते; ये अवश्य मेरी रागनी का ही काम है। रागनी! रागनी मैं जानता हूँ कि तुम यहीं हो मेरे आस-पास बस मेरे साथ आंख-मिचौली खेल रही हो, लेकिन मैं तुम्हें खोज ही लूँगा रागनी; मुझे तुम्हारी खुश्बू तुम तक पहुँचा ही देगी।" मोहन ने धीरे से कहा। उसका चेहरा आत्मविश्वास से भरा हुआ था और वह मुड़कर पीछे आने लगा। जैसे ही मोहन मुड़ा मित्तल के आफिस के बाहर से बहुत तेज़ी से एक बुर्खे वाली महिला पीछे हटी और तेज़ी से एक कमरे के अंदर चली गयी।
मोहन के बाहर आते ही शम्भूनाथ ने उसे अपने साथ लिया और गाड़ी में बैठकर होटल के लिए निकल गया।
"आपने देखा रेहाना जी! मोहन जी कैसे सवाल पर सवाल करके हमसे इन पेंटिंग्स को हम तक पहुँचाने वाले के बारे में तफ्तीश कर रहे हैं; उफ्फ कितना मुश्किल है उनसे सच्चाई छिपा पाना।
लेकिन हमें एक बात समझ में नहीं आती कि आपने खुद ही ये तीनों पेंटिंग्स खरीद लीं और उनके ऊपर इतना खर्च भी कर रही हैं फिर भी आप उनके सामने क्यों नहीं आतीं? क्या आप ही वह रागनी हैं जिन्हें मोहन जी ढूँढ रहे हैं?" मित्तल ने उस कमरे में आकर उस महिला से प्रश्न किया जो रेहाना थी; उसने खुद को बुर्खे में पूरी तरह छिपाया हुआ था, उसकी आँखों पर भी काला चश्मा लगा हुआ था जिससे उसकी आँखें भी नहीं दिख रही थीं।
"आप अपने काम से काम रखें मित्तल जी। कल के सारे अखबारों में यह खबर आनी चाहिए कि किसी नए चित्रकार की शानदार पेंटिंग्स जिन्हें देखकर लोग घण्टों तक वाह-वाह करते रहे वह बहुत ऊँची कीमत पर बिकीं। हो सके तो आज की प्रदर्शनी का कोई वीडियो टीवी पर भी...? पैसे की चिंता आप मत करना बस काम अच्छे से हो जाना चाहिए और हाँ अगली बार चित्रकला प्रदर्शनी दिल्ली में..., हम चाहते हैं कि तब तक मोहन जी सच में फेमस हो जायें और लोग उनकी पेंटिंग्स खरीदने में इंटरेस्ट दिखाएं; नहीं तो हम तो हैं ही, तो इस बार की तरह तब भी आपके आदमी हमारे लिए मोहन जी के चित्र खरीद लेंगे लेकिन हम चाहते हैं मोहन जी का आर्ट में एक नाम बने और नाम कैसे बनता है यह आप अच्छी तरह से जानते हैं।" मित्तल के सवाल पर रेहाना ने बहुत गम्भीरता से कहा।
"ज...जी समझ गया मेम! अच्छा मैं कह रहा था, आपका दिया सोना एक लाख रुपये का बिका था जिसमें से कोई पंद्रह हजार तो इस इवेंट को करने में लग गया और कोई पाँच हज़ार अन्य कामों में लग गया तो अभी हमारे पास अस्सी हजार रुपये आपके शेष हैं। मोहन जी की तीनों पेंटिंग्स की कीमत होती है कुल इकसठ हज़ार रुपये।" मित्तल ने सकपकाते हुए बात बदली।
"देखिए आप मोहन जी को पेंटिंग्स के सारे पैसे मत दीजिए, उन्हें गैलरी के नियमानुसार कमीशन काट कर ही पेमेंट कीजिए नहीं तो उन्हें शक हो जाएगा।" रेहाना ने धीरे से कहा।
"शक तो उन्हें पहले ही है मेम इससे तो उन्हें यकीन हो जाएगा, ठीक है तो हम पच्चीस प्रतिशत कमीशन काटकर बाकी पैसे उनको दे देंगे। बाकी पैसे क्या करें मेम! क्या आप उन्हें वापस...?" मित्तल ने धीरे से पूछा।
"नहीं! वापस नहीं लेने हैं आप उनमें से अपने पैसे निकालकर जो बचें उन्हें अगले इवेंट के लिए रखिये, हम आपको बता देंगे कि अगला इवेंट कब करना है दिल्ली में और जो पैसे कम पड़ेंगे हम आपको और सोना दे देंगे आप उसे बेचकर पैसे ले लेना।" रेहाना ने कहा और वहाँ से उठकर चली गयी।
"लीजिए मोहन जी ये आपके चित्रों के पैसे, पूरे पैंतालीस हज़ार। आपकी पेंटिंग्स -पंद्रह जमा बीस जमा छब्बीस हज़ार की बिकीं जिनका कुल मूल्य इकसठ हज़ार हुआ उसमें से कम्पनी का कमीशन हुआ पच्चीस प्रतिशत के हिसाब से पंद्रह हजार दो सौ पचास रुपये तो आपके बाकी बचे पैंतालीस हज़ार सात सौ पचास। सात सौ पचास हमने आपके टिकिट और होटल के काट लिए और बाकी के पैंतालीस हज़ार ये रहे नगद।" शम्भूनाथ ने नोटों की गड्डी मोहन की ओर बढ़ाते हुए कहा।
"पैंतालीस ह.जा.र?? लेकिन इतने सारे पैसे मैं सफर में लेकर कैसे जाऊँगा? कहीं चोरी हो गए तब?" मोहन ने पैसे देखकर घबराते हुए कहा।
फिर ऐसा कीजिए कि आप हमें अपना बैंक अकाउंट नंबर बता दीजिए हम पैसे आपके खाते में जमा करा देंगे।" शम्भूनाथ ने कहा।
"बैंक खाता...? मेरे पास कोई बैंक खाता नहीं है शम्भूनाथ जी।" मोहन उदास होकर बोला।
"कोई बात नहीं मोहन जी आप घर जाकर एक बैंक खाता खोल लीजिएगा, आगे आपको उसकी बहुत जरूरत पड़ेगी। अभी आप ये पैसे या तो नगद ले जाइए या फिर हम इन्हें आपके पते पर मनीऑर्डर कर देते हैं।" शम्भूनाथ ने उपाय बताया।
"मनीऑर्डर?? ये क्या होता है?" मोहन ने फिर सवाल किया।
"अरे मोहन जी हम आपके पैसे पोस्ट ऑफिस में जाकर जमा कर देंगे और पोस्ट ऑफिस वाले उन्हें आपके घर जाकर आपको दे देंगे।" शम्भूनाथ ने समझाया।
"क्या ऐसा हो जाता है? ये डाक वाले पैसे गायब तो नहीं करते रास्ते में?" मोहन ने असमंजस में पड़कर पूछा।
"कुछ गायब नहीं होता मोहन जी बस पोस्ट ऑफिस पैसे सुरक्षित पहुंचाने के कुछ पैसे लेते हैं, लेकिन एक साथ सारे पैसे डाक से नहीं भेजे जा सकते हैं मोहन जी तो हम जितनी बार में सम्भव हो सकेगा आपके पैसे आप तक पहुँचा देंगे आप चिंता ना करें।" शम्भूनाथ ने मुस्कुराते हुए कहा, वह मोहन के भोलेपन पर हैरान था।
"अच्छा फिर ठीक है आप ऐसा करो पाँच हज़ार मुझे दे दो और बाकी के पैसे डाक में डाल देना।" मोहन ने धीरे से कहा और शम्भूनाथ पाँच हज़ार रुपये मोहन के हाथ पर रखकर बाहर निकल आया।
दो दिन बाद मोहन ट्रेन से उतरा तो उसका हुलिया पूरी तरह से बदला हुआ था, शम्भूनाथ ने उसे मार्केट से अच्छे कपड़े दिला दिए थे। मोहन ने माँ, भाभी के लिए अच्छी साड़ियाँ खरीदी थीं भाई के लिए बढ़िया कुर्ते पायजामे, मुन्नी के लिए परी वाली फ्रॉक और अपने लिए दो जोड़ी कुर्ते पायजामे और दो जोड़ी पेंट शर्ट के साथ ही एक सूट भी खरीदा था। मोहन इस समय वही सूट और शानदार बूट पहने हुए ब्रीफकेस लिए जब ट्रेन से उतरा तो स्टेशन के कुली उसकी ओर दौड़ आये, "लाइये बाबूजी सामान हम उठा लेते हैं, कहाँ जाना है आपको? रिक्शा से जायेंगे या टेंपू से?" कई कुली आवाज लगाने लगे।
"रिक्शे में ही रख दो चलो।" मोहन ने अपने सूटकेस की ओर देखते हुए कहा और अपनी शानदार छड़ी को संभालने लगा।
"दो रुपये लगेंगे साहब।"एक बूढ़े कुली ने दौड़कर मोहन का ब्रीफकेस उठाते हुए कहा।
"चलो।" मोहन ने कहा और छड़ी के सहारे आगे बढ़ गया। कुली उसका ब्रीफकेस उठाये उसके पीछे था।
मोहन ने रिक्शे में बैठने के बाद कुली की हथेली पर पाँच का नोट रखा और मुस्कुराकर बोला, "रख लो बाबा।"
कुली ने दोनों हाथ उठाकर मोहन को आशीष दी और मोहन ने रिक्शेवाले को सुनार की दुकान की ओर चलने को कहा।
"लाला जी मैं मोहन, याद है पाँच दिन पहले आपको एक खंडवा देकर गया था और कह गया था कि ऐसा ही एक और बनवाऊँगा? लाइये मेरा खंडवा और उसके जैसा ही दूसरा भी बना दीजिए।" मोहन ने दुकान पर जाकर दुकानदार को नमस्ते करके बैठते हुए कहा।
"हाँ जी! आपका खंडवा रखा है बाबू साहब, अभी मंगाए देता हूँ।" सुनार ने नौकर को इशारा करते हुए कहा।
"ये लीजिए आपका अदद, इसका दूसरा बनाने में तो कोई एक से डेढ़ घण्टा लग जायेगा बाबू साहब, आप उतनी देर रुको तो...?" सुनार ने खंडवा मोहन के सामने रखते हुए मुस्कुरा कर कहा।
सुनार की मुस्कान में छिपे मतलब को मोहन जान गया था, मोहन ने जेब में हाथ डाला और पाँच सौ रुपये निकालकर सुनार के हाथ पर रखते हुए बोला, "बनाइए वर्मा जी, मैं तब तक नाश्ता कर आता हूँ आप बस मेरा ये सूटकेस..?" मोहन ने पैसे रखकर उठते हुए कहा।
"अरे बाबूजी नास्ते के लिए बाहर क्यों? अरे हुजूर हम यहीं आपके लिए चाय नाश्ता मंगा देते हैं, तबबतक आप चाहो तो और भी कुछ जेवरात मेरा मतलब पायल आदि...! छोटू नई डिज़ाइन की पायल और चेन दिखा साहब को और उनके लिए चाय और नास्ते का इंतज़ाम कर।" सुनार ने कहा और पैसे गल्ले में रखकर हाथ लगाकर माथे से लगाने लगा।
कोई दो घण्टे बाद मोहन सुनार की दुकान से उठा तो उसके पास उसकी माँ के खँडवे की चमचमाती हुई जोड़ी थी, माँ और भाभी के लिए पायल थीं और मुन्नी के लिए गले में पहनने का चाँदी का लाकेट। सुनार के हज़ार रुपये चुकाकर मोहन ने टेंपू पकड़ा और अपने घर की ओर चल दिया।
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