मोहन घर के पास आकर टेंपू से उतरा तो सभी उसे गौर से देखने लगे, लोगों को मोहन पहचान में ही नहीं आ रहा था। उसके सही ढंग से बने हुए लंबे बाल, शानदार सूट और बूट पहने वह कोई बाबू साहब ही नज़र आता था।

"राम-राम काकी, कैसे हैं सब लोग?" मोहन ने उसे घूर कर देखती पड़ोसन को हाथ जोड़कर नमस्ते करते हुए पूछा।

"नमस्ते बेटा, तुम कौन हो और किसके घर आये हो?" बूढ़ी काकी ने ऑंख थोड़ा और खोलते हुए पूछा।

"मैं तो अपने ही घर आया हूँ काकी! अरे मैं मोहन हूँ, पाँच दिन में ही भूल गए क्या सब लोग मुझे?" मोहन ने हँसते हुए कहा और लोगों को देखने लगा।

"लो साहब आपका सामान उतार दिया, मेरे पैसे दे दीजिए।" तब तक टेंपू वाले ने मोहन का सूटकेस उसके पास रखते हुए कहा।

"लो भईया आपके पैसे।" मोहन ने पचास रुपये टेंपू वाले के हाथ पर रखते हुए कहा। तब तक शोर सुनकर मोहन की माँ और भाभी भी घर से निकलकर बाहर आ गयीं थीं। मोहन ने आगे बढ़कर पहले माँ के और फिर भाभी के पैर छुए। तब तक मोहन का भाई भी दौड़ते हुए आ गया था जो पास ही मंदिर पर बैठा था और उसे किसी ने कह दिया था कि तुम्हारे घर कोई बाबू साहब आया है सूट-बूट में बड़ा सा सूटकेस लिए।

"क...कौन है ये बाबू साहब माँ?" मोहन के भाई ने अपनी माँ से पूछा , इस समय मोहन का मुँह मां की ओर था तो उसका भाई सोहन बस उसकी पीठ ही देख पा रहा था।

"भईया! अरे मैं हूँ मोहन। ना जाने सब मुझे बाबू साहब क्यों कह रहे हैं।" मोहन ने घूमकर भाई के पैर छुए तो भाई ने खुश होकर उसे गले से लगा लिया।

"कहाँ चला गया था रे तू? कुछ बताकर भी नहीं गया था, तुझे पता है कितनी फिक्र हो रही थी सबको तेरी।" भाई ने मोहन को डाँटते हुए कहा तब तक मुन्नी भी दौड़ती हुई आ गयी और 'ताता, ताता कहते हुए मोहन के पैरों में लिपट गयी। मोहन ने मुन्नी को गोद में उठा लिया और जेब से चॉकलेट निकालकर उसके हाथ पर रख दी। चाकलेट पाकर मुन्नी का चेहरा खिल उठा।

"अरे अंदर चलो, क्या सारी बातें यहीं कर लोगे? लंबे सफर से आया है मेरा बेटा, थक गया होगा। अरे सोहना मैंने तुझे बताया तो था कि मोहना बम्बई गया है, उसकी तस्वीर के लिए बुलाया था किसी ने।" तभी माँ ने कहा और मोहन का हाथ पकड़ कर अंदर चल दी।

"सोहना सामान लेकर अंदर आ जा।" मां ने सोहन को कहा और मोहन माँ के साथ घर के अंदर आ गया।

"लो भाभी ये कुछ फल और मिठाई हैं अंदर रख दो।" मोहन ने एक थैला भाभी को देते हुए कहा, उसने रास्ते से कुछ फल और मिठाई खरीद लिए थे।

माँ के कमरे में आकर मोहन ने सबको बुलाया और सूटकेस खोल दिया।

"ये लो माँ तुम्हारे खँडवे, और तुम्हारे लिए ये कपड़े।

भैया-भाभी ये कपड़े आप दोनों के लिए और ये फ्रॉक मेरी मुन्नी के लिए।

माँ और भाभी के लिए ये पायल और मुन्नी के लिए गले का लॉकेट।" मोहन ने सारी चीजें देते हुए कहा।

"अरे! दो ही दिन में इतना सब? कोई लॉटरी लगी है या कहीं डाका डालकर आये ही देवर जी?" इतना सारा कीमती सामान देखकर मोहन की भाभी ने अविश्वास से ताना मारा।

 "ना तो कोई लॉटरी लगी है भाभी और ना ही डाका डाला है। अरे ये सब तो मैं मेरे बनाए चित्रों से मिले हुए पैसों से लाया हूँ।" मोहन ने हँसते हुए जवाब दिया।

"अच्छा भइया आप कल मेरे साथ बैंक में चलना मुझे अपना खाता खुलवाना है, और एक खाता आप भी खुलवालो भैया मैं उसमें भी पैसे डालूँगा।" मोहन ने भाई से कहा और ऊपर अपने कमरे की ओर बढ़ गया।

"सच बता माँ ये मोहन शहर करने क्या गया था और इसके पास इतने पैसे कैसे आये? अब तो ये बैंक में खाता खोलने को भी कह रहा है। मुझे तो बहुत डर लग रहा है माँ, कहीं मोहन कोई गलत काम तो?" अपनी पत्नी के इशारे पर सोहन ने माँ से सवाल किया।

"मेरा मोहन ऐसा नहीं है रे सोहना,  तू तो जानता है अपने भाई को। देख सोहन मैं फिर तुझे बता रही हूँ कि मोहन को बम्बई की किसी कम्पनी ने बुलाया था टिकट भेजकर और उन लोगों ने उसकी बनाई तस्वीरों को खरीद लिया होगा। तुझे नहीं पता सोहना मेरा मोहन ऐसे चित्र बनाता है कि अभी बोल पड़ें; देख तू ज्यादा पूछताछ मत कर उससे, पूरे पाँच साल बाद उसके चेहरे की मुस्कान वापस लौटी है। वक़्त देखकर मैं खुद उससे पूछ लूँगी।" माँ ने बहु की ओर टेढ़ी आँख से देखते हुए कहा और सोहन अपनी पत्नी के साथ अंदर चला गया।

"कैसा है मोहन? बहुत थक गया होगा ना बम्बई तक कि भागदौड़ में, वहाँ कहाँ आराम मिला होगा? और ये इत्ता सारा सामान? क्या ज़रूरत थी ये सब लाने की? देख मोहन ऐसे पैसे बर्बाद नहीं करते, तूने अपनी मेहनत से मिले सारे पैसे ये सब सामान खरीदने में खर्च कर दिये अब अगर फिर से बम्बई बुलाया तो कैसे जाएगा?" माँ ने मोहन को प्यार से समझाते हुए कहा।

"मैं माँ से मांग लूँगा माँ तू परेशान ना हो।" कहकर मोहन ने हज़ार रुपये माँ के हाथ पर रखते हुए कहा। 

"अरे इत्ते पैसे? इनका मैं क्या करूँगी? माँ ने पैसे देखते हुए पूछा।

"रख ले माँ आड़े वखत में काम आएँगे, तू परेशान ना हो माँ मुझे बहुत पैसे मिले हैं। अब हमारी गरीबी के दिन गए समझो।" मोहन ने मुस्कुराते हुए कहा और माँ की गोद में सिर रखकर लेट गया।

"अच्छा वो मिली क्या?" माँ ने मोहन के सिर पर हाथ फिराते हुए मुस्कराकर पूछा।

"क...कौन वो?" मोहन ने चौंकते हुए पूछा।

"अरे वही जिसके लिए तूने इतना लंबा सफर किया! अरे क्या नाम है उसका जो तू नींद में बड़बड़ाता है? अरे वह... हाँ याद आया रागनी! रागनी मिली क्या तुझे वहाँ?" माँ ने पूछा।

"नहीं मिली माँ, लेकिन मुझे लगता है कि वह हर समय मेरे साथ थी। माँ मुझे लगता है कि ये सब प्रदर्शनी...नीलामी ये सब रागनी ने ही किया है हमारी मदद करने के लिए लेकिन ना जाने क्यों वह मेरे सामने नहीं आती माँ।" मोहन ने धीरे से कहा,  उसकी आवाज में उदासी थी।

"आएगी बेटा, देखना एक दिन मेरी बहु ज़रूर आएगी, हमारी रागनी आएगी मोहन बस तू हिम्मत मत हार और तस्वीर बनाता रह। हो सकता है तेरी इन्हीं तस्वीरों में से कभी रागनी निकल आये और कहे कि तुम्हारा इंतजार जीत गया, मैं सच में हूँ मैं रागनी हूँ।" माँ ने विश्वास भरी आवाज में कहा और उठकर नीचे आ गयी।

  

   "रागनी! कहाँ हो तुम? अब तो माँ को भी विश्वास है कि तुम एक दिन हमें ज़रूर मिलोगी, अब आ जाओ रागनी और कितना इंतज़ार करवाओगी?" मोहन अपने बिस्तर पर लेटा हुआ सोच रहा था। उसे इतनी थकान के बाद भी नींद नहीं आ रही थी। 

रागनी को याद करते-करते जैसे तैसे मोहन को नींद आयी, सुबह उठकर मोहन अपने भाई सोहन के साथ बैंक गया और उसने दोनों भाइयों के खाते खुलवा दिए मोहन ने अपने खाते में पाँच सौ रुपये जमा कराए थे और सोहन के में एक हज़ार रुपये, सोहन ने उसे बार-बार मना किया कि उसे बैंक खाते की कोई ज़रूरत नहीं है लेकिन मोहन नहीं माना।

कुछ ही दिनों में मोहन के पास मित्तल आर्ट कम्पनी की ओर से रजिस्ट्री डाक द्वारा चालीस हजार रुपये का चेक आ गया क्योंकि एक बार में चालीस हजार रुपये का मनीऑर्डर नहीं हो सकता था।

मोहन ने वह चेक बैंक में जमा करा दिया और बीस दिन में मोहन के बैंक खाते में चालीस हजार रुपये आ गए।

मोहन ने सोहन से कहा कि इन पैसों को किसी काम धन्धे में लगा ले और ये मजदूरी करना छोड़ दे, बाकी थोड़े बहुत पैसे लगाकर मकान ठीक करा लें। सोहन ने मोहन को पैसे लेने के लिए मना कर दिया लेकिन फिर भी मोहन ने सोहन को एक दुकान खोलने के लिये मना ही लिया।

रास्ते से मोहन ने अपने लिए चित्रकारी का सामान खरीदा और वापस आकर अपनी कोठरी में आकर चित्र बनाने में लग गया।

मोहन बेख्याली में ब्रुश चला रहा था, वह पता नहीं क्या चित्र बनाना चाहता था लेकिन जब वह चित्र आधे से अधिक पूरा हुआ तो मोहन खुद चौंक गया। उसने बुर्खे वाली रेहाना का चित्र बनाया था जिसका चेहरा रागनी का था।

  "अरे ये क्या चित्र बन गया! मैं तो ख्यालों में ही खोया रहा और मैंने ये रेहाना जी का चित्र बना दिया लेकिन इनका चेहरा!! यह तो रागनी का चेहरा है? लेकिन रेहाना जी का चेहरा तो किसी ने भी नहीं देखा था वहाँ फिर मैंने यह चेहरा रेहाना जी को कैसे दे दिया? मेरी कला ने मेरी रागनी और रेहाना जी को एक कर दिया इसका अर्थ तो यही हुआ कि मेरा हृदय भी यह मानता है कि रेहाना और रागनी एक ही हैं और वह मेरी मदद कर रही है यह सब करके लेकिन क्यों? क्या रागनी मुझ गरीब को अपने प्रेम के लायक नहीं मानती हैं और इसीलिए वे उस आर्ट गैलरी के नाम पर गुप्त रूप से मेरी आर्थिक मदद करके मुझे पैसे दे रही हैं। लेकिन रागनी आखिर मेरे सामने क्यों नहीं आतीं? शायद उनको यह डर होगा कि ऐसे सीधे मदद करने पर मैं उनके पैसे नहीं लूँगा...! लेकिन यदि मेरी रागनी को इसी में खुशी मिल रही है तो यही सही, मैं उनकी खुशी के लिए चित्र बनाता रहूँगा और आर्ट प्रदर्शनी में जाता रहूँगा ऐसे में मैं ना सही रागनी जी तो मुझे देखती ही होंगी...? हो सकता है कभी उन्हें मुझपर तरस आ जाये और वह मेरे सामने आकर कहे कि 'ख़त्म हुई प्रतीक्षा मोहन आओ अब हम दोनों सदा-सदा के लिए एक हो जाएं' मैं जानता हूँ रागनी एक दिन यह दिन अवश्य आएगा।"  मोहन उस चित्र को देखकर बहुत देर बड़बड़ाता रहा और फिर कुछ देर रुककर उस चित्र की कमियां पूरी करने लगा।

 मोहन अब उस चित्र की सुंदरता में खुद ही खो गया था, रागनी मानों उसके दिल दे निकलकर उस तस्वीर में उतर आयी थी और उससे बातें कर रही थी। शाम तक मोहन ऐसे ही उस तस्वीर को देखता और फिर खुद से बातें करता, ऐसे ही शाम गहराते हुए रात होने लगी और नीचे से माँ ने मोहन को खाने के लिए आवाज लगा दी। आज का खाना खुद मोहन की माँ ने बनाया था, सब कुछ मोहन की पसन्द का। 

 "हुँह!! देखो जी आज माताजी ने एक ही टाइम में तीन दिन का खाना बना दिया, तीन सब्जी, दाल, रायता और हलवा भी। अरे अगर हम ऐसे खाना बनाने लगे तब तो चल गयी हमारी जिंदगी, हमें तो अपने हिसाब से ही चलना होता है नहीं तो महीना खत्म होते-होते तो हमें फाका करने की नौबत आ जायेगी। आप समझाओ माँ को की ऐसे मोहन लाला जी को एक ही दिन में ख़िला पिलाकर मोटा कर देंगी तो बेचारे से बिल्कुल भी नहीं चला जायेगा...ऐसे भी अभी ही कौन सा...।" माँ को खाना परोसते देखकर सोहन की पत्नी सोहन को कमरे में खींचते हुए बोली।

 "श: श: श:, धीरे बोल मुन्नी की माँ किसी ने सुन लिया तो गज़ब हो जायेगा। अरे ये सब हमारे नहीं मोहन के पैसों से हो हो रहा है, भूल गयी कितने सारे पैसे मिले हैं मोहन को? अरे हम सारी जिंदगी भी मजूरी करेंगे तब भी इतने पैसे नहीं कमा पायेंगे और फिर तेरे और मुन्नी के लिए भी तो कितना सारा सामान लाया है मोहन। देख मुन्नी की माँ अब मोहन कोई निकम्मा-निठल्ला लड़का नहीं है, चार लोग उसे जानते हैं और इज़्जत देते हैं। मोहन के पास इतने पैसे हैं कि वह चाहे तो ऐसा खाना रोज़ खा सकता है, अरे तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि मोहन हम से के लिए कितना कर रहा है। उसने पूरे एक हज़ार रुपये मेरे खाते में भी डाले हैं और मुझे दुकान खोलने के लिए भी पैसे देने को कह रहा है; मुन्नी की माँ अब हमें भी मजूरी छोड़कर खेती और दुकान पर ध्यान देना चाहये और तुम्हें भी मोहन से बहुत अब बहुत प्रेम से पेश आना चाहिए। आखिर कितना सोचता है वह हम सब के बारे में और हम बदले में उसे क्या देते हैं? हर समय ताने और उलाहने। मैं कहता हूँ तुम मोहन से प्रेम का व्यवहार करो और उसका ध्यान रखो, आखिर हमारे अलावा उसका और है भी कौन?" सोहन ने अपनी पत्नी को समझाते हुए कहा।

 "है क्यों नहीं?? वह है ना 'रागनी' जिसके नाम की देवर जी हमेशा माला जपते रहते हैं और कहते हैं कि रागनी की मदद से ही वह पैसे वाले बने हैं।" मोहन की भाभी ने फिर से ताना मारा।

 "इसस्सशः!! चुप रहो तुम और खबरदार जो आगे से कभी मोहन को किसी बात के लिए परेशान किया तो...!" सोहन कह ही रहा रहा था कि तभी उसके कानों में में माँ की आवाज पड़ी जो उसे भोजन के लिए पुकार रही थी।

 

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