मोहन बड़ी तन्मयता से चित्र बनाने में खोया हुआ था, उसे अपनी धुन में समय का भी ध्यान नहीं रहा था। इस बीच वेटर अपनी तरफ से ही उसके पास दो बार कॉफी और कुछ बिस्कुट रख कर चला गया था, या हो सकता है कि शम्भूनाथ जी ने उसे ऐसा करने के लिए कहा हो या फिर "किसी और ने तो कहीं उसके लिए कॉफी नहीं मंगाई?" मोहन ने एक बार को यह सोचा था लेकिन चित्र बनाने की धुन में उसने इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और वह कैनवास पर ब्रुश चलाता रहा।

 शाम के लगभग साढ़े चार बजे थे जब वेटर ने आकर मोहन को बताया कि, "सर आप रेडी हो जाइए ठीक पाँच बजे  शम्भूनाथ जी आपको लेने के लिए आ जायेंगे, उन्होंने कहा है कि ठीक छः बजे से आर्ट गैलरी खुल जाएगी और चित्रों की प्रदर्शनी शुरू हो जायेगी।"

वेटर की बात सुनकर मोहन ने एक नज़र उस चित्र की ओर देखा और फिर थोड़ा उदास हो गया वह खुद से ही बातें करते हुए बोला, "अभी बस थोड़ी ही देर में ये चित्र पूरा हो जाता लेकिन क्या करूँ? मुझे अभी जाना होगा नहीं तो ये लोग ना जाने मेरे बारे में क्या सोचेंगे। कहीं ऐसा ना हो कि ये लोग नाराज़ होकर मुझे वापस ही भेज दें। मुझे जाना ही होगा, लेकिन तुम कहीं मत जाना मैं आकर ये चित्र पूरा करता हूँ।

 

 मोहन ने बाथरूम में जाकर अच्छे से स्नान किया और अपना नया कुर्ता-पायजामा निकाल कर पहन लिया। फिर उसने अपने लंबे बालों को कंघी से पीछे की ओर कर लिया, ऐसा नहीं था कि मोहन को लंबे बाल रखना पसंद था, वह तो समय नहीं निकाल पाता था वह खुद को बनाने-संवारने का या यह कहो कि रागनी के जाने के बाद उसका मन ही नहीं होता था ये सब करने का और फिर बाल बनवाने के लिए पैसे भी तो लगते थे।

 ठीक पाँच बजे शम्भूनाथ जी ने मोहन के कमरे का दरवाजा बजा दिया, मोहन ने फौरन ही दरवाजा खोल दिया और शम्भूनाथ जी को नमस्कार करके अंदर आने का इशारा करके पीछे हट गया।

 "हमारे पास बैठने का समय नहीं है मोहन बाबू, आप यदि तैयार हो गए हो तो जल्दी से चलिए हमारे साथ हमें छः बजे तक आर्ट गैलरी पहुँचना है और आप तो जानते ही हो मुंबई का ट्रैफिक...?" शम्भूनाथ ने कहा और मोहन की ओर देखने लगा।

 "मैं तो तैयार हूँ शम्भूनाथ जी, चलिए चलते हैं।" मोहन ने कहा और शम्भूनाथ जी के पीछे-पीछे होटल से बाहर निकल आया।

 छः बजे से पहले ही इनकी गाड़ी मित्तल नेशनल आर्ट गैलरी एवं संग्रहालय के सामने खड़ी थी। आज वहाँ बहुत भीड़ थी, ऐसा लग रहा था मानों कोई बड़ा कार्यक्रम आयोजित हो रहा हो। मोहन शम्भूनाथ जी के साथ गाड़ी से उतरा और उनके पीछे-पीछे गैलरी के हॉल में दाखिल हो गया।

 गैलरी का यह एक बहुत बड़ा हाल था जिसकी दीवारों पर एक से बढ़कर एक पेंटिंग्स लगी हुई थीं, हॉल में काफी लोग भी जमा थे। सभी लोगों ने एक से बढ़कर एक सुंदर और मंहगे कपड़े पहन रखे थे मोहन उनके बीच में खुद को बहुत निम्न महसूस कर रहा था। उसके चारों ओर जो भी चित्र लगे थे वह भी उसे अपने चित्रों से कहीं बढ़कर ही लग रहे थे। अभी मोहन इधर-उधर देख ही रहा था तभी उसे शम्भूनाथ की आवाज सुनाई दी, "सर ये हैं हमारे आज के मेहमान मोहन जी और मोहन जी ये हैं इस मित्तल आर्ट गैलरी के ऑनर श्री ‘नरेन्द्र कुमार मित्तल’ जी।" शम्भूनाथ ने इनका परिचय कराते हुए कहा और मोहन घूम कर उधर देखने लगा।

 मोहन के सामने एक लंबा, गौरा शानदार व्यक्तित्व का स्वामी खड़ा था जिसने बहुत ही शानदार सूट पहना हुआ था, उसके हाथ में सोने की घड़ी और हीरे को अंगूठियां दूर से ही जगमगा रही थीं। उसे देखकर मोहन के हाथ खुद-व-खुद उसके सामने जुड़ गए और उसने सिर झुकाकर मित्तल को नमस्कार किया।

 "अरे रे! क्या करते हैं आप सर? आप तो हमारे आज के मुख्यातिथि हैं। सम्मान तो हमें अपना करना है।" मित्तल ने जोशीले अंदाज़ में कहा और मोहन का हाथ पकड़कर हिलाते हुए उसे गले लगा लिया।

 "लेडीज एंड जेंटलमैन, जिसका हमें बड़ी बेसब्री से इंतज़ार था वह घड़ी आ गयी है, मिलिए हमारे आज के मुख्य अतिथि से। जी हाँ ये हैं श्रीमान मोहन जी जिन्होंने अपनी शारिरिक कमी को कभी अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया और अपनी कल्पनाशीलता से ऐसे-ऐसे नायाब चित्र बनाये कि बस उनकी तारीफ मुँह से नहीं आँखों से करने को दिल चाहता है तो देवियों और सज्जनों अब बातों में और ज्यादा समय बर्बाद ना करते हुए आइये चलते हैं मोहन जी के साथ उनके बनाये कुछ चुनिंदा चित्रों की ओर।" तभी हॉल में शम्भूनाथ जी की आवाज गूँजी जो माइक से सभी का ध्यान मोहन की ओर केंद्रित करने के लिए बोल रहे थे।

 "हाँ हाँ...चलिए, हम लोग भी देखना चाहेंगे उनके चित्र।" तालियों की जोरदार गड़गड़ाहट के बाद लोगों के स्वर सुनाई दिए।

 "आइये मोहन जी अब समय आ गया है आपकी कला को लोगों तक पहुँचाने का।" मित्तल जी ने कहा और सभी लोग प्रदर्शनी हॉल के एक खास कोने की ओर बढ़ गए जिसे विशेष तौर पर सजाया गया था, उस कोने के ऊपर सुनहरे अक्षरों में लिखा था 'मोहन के मोती' सभी लोग कौतूहल से उधर देख रहे थे, उधर एक बड़ा सा पर्दा लगा हुआ था।

 "आइये मोहन जी अब आप ये पर्दा खोलकर स्वयं अपने चित्रों का अनावरण कीजिये।" मोहन भी बाकी लोगों के साथ उस पर्दे को देख रहा था तभी मित्तल जी ने उसके हाथ में पर्दे की डोरी थामते हुए कहा और मोहन ने धड़कते दिल से वह डोरी खींचनी शुरू कर दी।

 पर्दा खुलते ही सारा हाल तालियों की आवाज से गड़गड़ा उठा, उसी के साथ ही मोहन के कानों में वाह-वाह की आवाज भी गूँज रही थी। मोहन ने धड़कते दिल से अपनी आँखें खोलीं, सामने दीवार ओर दो चित्र लगे हुए थे जिनमें से एक में कुछ लोग रँग-गुलाल से होली खेल रहे थे और एक विकलांग लड़का छत के छज्जे पर बैठा उदासी से उन्हें देख रहा था। वहीं दूसरे चित्र में एक सुंदर लड़की थी जिसके चेहरे पर मधुर मुस्कान खिली हुई थी, वह प्यार भरी आँखों से सामने देख रही थी मानों सामने उसका प्रेमी हो और वह आँखों ही आँखों में उससे अपने प्रेम का इज़हार कर रही हो।

 मोहन उन दोनों चित्रों को देखकर चकित रह गया, "अरे! ये चित्र तो मैंने रागनी की और मेरी पहली मुलाकात के समय बनाये थे! ये यहाँ कैसे पहुँचे? कौन लाया इन्हें यहाँ? कहीं रागनी...??" मोहन बड़बड़ाते हुए पीछे हटा, वह मित्तल जी से पूछना चाहता था कि उन्हें ये चित्र कहाँ से मिले लेकिन तब तक मित्तल जी पीछे जा चुके थे और माइक हाथ में लेकर घोषणा कर रहे थे, "तो दोस्तों आगे आओ और बढ़चढ़कर इन चित्रों की बोली लगाओ, ऐसे तो दोस्तों ये चित्र अनमोल हैं फिर भी हमने इनकी शुरुआती बोली दस-दस हज़ार से रखी है जो हमारी आर्ट गैलरी की ओर से लगाई गई है। तो दोस्तों यदि आप इन अनमोल चित्रों को अपने घर की शोभा बनाना चाहते हैं तो बढ़-चढ़ कर इनकी बोली लगायें।"

 

 "अरे सर..., रुकिए एक मिनट। मेरी बात तो सुनिए।"मोहन कहता रह गया लेकिन तब तक लोगों ने अपनी ओर से चित्रों की बोली लगाना शुरू भी कर दिया था।

 "होली वाले के ग्यारह हजार...बारह...ते...पंद्रह हजार..., लड़की के चित्र के बारह...चौदह...बीस हज़ार।" मोहन के देखते-ही देखते वहाँ उसके चित्रों की बोली लगने लगी थी।

 "क्या दोस्तों, इतनी अनमोल कला की बस इसी कीमत? किसी के मन के सच्चे भावों के बस पंद्रह-बीस हज़ार? अरे कला के कद्रदानों जरा खुलकर बोली लगाओ..., इसके बाद हम मोहन जी का एक और अनमोल शाहकार एक और नगीना पेश करेंगे और उसकी बोली कि परफ़्रेंश हम इन चित्रों को खरीदने वालों को देंगे तो मेरे कला के प्रेमियों अपना दिल खोलो और जरा मोहन जी की ओर देखकर कीमत बोलो।" मित्तल जी ने लोगों को उकसाते हुए कहा और लोग फिर अपनी तरफ से बोली बढ़ाने लगे।

 "मेरा एक और चित्र?? लेकिन कौनसा?" मोहन मित्तल की बात पर बहुत असमंजस में था उसे याद ही नहीं आ रहा था कि उसने कोई और भी चित्र बनाया है।

 "सोल्ड!! सोल्ड! तो दोस्तों अब दिल थाम कर बैठ जाइए मोहन जी की एक और अनमोल पेंटिंग देखने के लिए जिसकी बोली हम हमारी आर्ट गैलरी की ओर से पंद्रह हजार से शुरू करेंगे, तो दोस्तों दिल थाम कर देखिए और कीमत लगाइये।" मोहन सोच ही रहा था तभी उसके कानों में माइक पर चिल्लाते शम्भू नाथ का स्वर पड़ा।

 "वाह! गज़ब, नायाब, शानदार, सौलह हज़ार...सत्रह...अठारह...बीस हज़ार।" अभी मोहन शम्भूनाथ की ओर देख ही रहा था कि लोगों का भारी शोर उसके कानों में पड़ने लगा। मोहन ने आगे बढ़कर देखा, इस समय प्रदर्शन बोर्ड पर वह पेंटिंग लगी हुई थी जो मोहन होटल के कमरे में बना रहा था, रागनी और मोहन की पेंटिंग। इसमें ट्रेन के कम्पार्टमेंट का दृश्य था जिसमें एक लड़की सुंदर लहँगा-चोली पहने चुनरी को थोड़ी तक किये बैठी हुई थी और मोहन उसकी गोद में सिर रखे सोया हुआ था। छीनी चुनरी में से रागनी का चेहरा बहुत सुंदर दिख रहा था, उसकी आँखें मोहन की आँखों पर झुकी हुई थीं और मोहन की आँखें बंद और चेहरे पर मधुर मुस्कान। यह चित्र इतना सुंदर बना था जैसे कि चित्र में दिखाए दोनों लोग सजीव हैं और अभी उठकर चल देंगे।

 "लेकिन ये चित्र तो अधूरा...?" मोहन उस चित्र को ध्यान से देखने लगा लेकिन अब उस चित्र में कहीं भी कोई कमी दिखाई नहीं दे रही थी।

 "किसने किया ये? मैंने तो इसे पूरा नहीं किया था! और ये यहाँ गैलरी में कैसे पहुँचा? मैं तो होटल का कमरा बाहर से बन्द करके आया था। कहीं रागनी ही तो इस सब के पीछे?" मोहन अपने ख्यालों में खोया था तभी एक शोर ने उसकी तन्द्रा भंग कर दी।

 "छब्बीस हज़ार...मुबारक हो ये नायाब कलाकारी मिस रेहाना जी की हुई।" मोहन ने यह बात साफ सुनी और फिर भीड़ का शोर बढ़ गया, "बधाई हो बधाई हो।"

 

Continue to next

No reviews available for this chapter.