डिसक्लेमर: "यह केस वास्तविक घटनाओं से प्रेरित है, लेकिन इसमें प्रस्तुत सभी पात्र और घटनाएँ पूरी तरह से काल्पनिक हैं। किसी भी वास्तविक व्यक्ति, स्थान, या घटना से कोई समानता मात्र एक संयोग है।"
बनारस की गलियों में रात का सन्नाटा छाया हुआ था, लेकिन इस सन्नाटे के पीछे एक बड़ा ख़तरा मंडरा रहा था। शहर में फैलते ज़हर के इस खेल ने हर किसी के दिल में डर और बेचैनी भर दी थी। पिछले कुछ दिनों से हो रही मौतों का रहस्य और भी गहराता जा रहा था। कई सारे सप्लायर्स से तरह-तरह की इनफार्मेशन निकालने के बाद भी हर्षवर्धन वहाँ तक नहीं पहुँच पाया था जहाँ से खेल चालू होता।
हर्षवर्धन, जो शुरू से इस मामले की जांच कर रहे थे, जानता था कि अभी तो खेल शुरू भी नहीं हुआ है। लेकिन उसे ये भी पता था कि एक बार उसके हाथ में पक्के सबूत लग गए तो, वह एक-एक को पकड़ कर बाहर निकलेगा। अपने इन्टेलिजेन्स ने लगातार जानकारी लेने के बाद हर्षवर्धन को एक काम की जानकारी मिली। अब वह सीधे उस तार तक पहुँचने की कोशिश कर रहा था, जो इस ज़हर के स्रोत और उसकी सप्लाई से जुड़ा था। जिसके वज़ह से उन लोगों की जान चली गई.
आज की रात, वह एक बार फिर से सोहन से मिलने जा रहा था, जो कीटनाशक का बड़ा सप्लायर था और जिसे वह पहले भी कई बार पूछताछ के लिए बुला चुका था। लेकिन सोहन अब तक कोई ठोस जानकारी देने से कतरा रहा था। उसे अपने ऊपर मंडराते माफ़िया के ख़तरे का डर था, जो हर तरफ़ से उसे घेर रहा था।
सोहन एक साधारण ग्रामीण व्यक्ति है। जिसकी दुनिया अपने छोटे से कारोबार और परिवार तक सीमित है। वह एक कीटनाशक सप्लायर था, जो गांवों और छोटे कस्बों में किसानों को ज़रूरी सामग्री बेचता था। उसकी नीयत में कभी कोई खोट नहीं थी, लेकिन अनजाने में वह ऐसे खेल का हिस्सा बन गया था, जिसकी उसे ख़ुद भनक तक नहीं थी।
जब हर तरफ़ ज़हर से लोगों की मौत की खबरें आने लगीं, तो सोहन का दिल दहशत से भर गया। वह जानता था कि जो कीटनाशक उसने बेचे थे। उनमें से कुछ का इस्तेमाल ग़लत तरीके से किया जा रहा है। लेकिन उसके पास और कोई रास्ता नहीं था। माफ़िया के साथ उलझना उसकी ज़िंदगी को ख़तरे में डाल सकता है।
सोहन का मन हर वक़्त बेचैन रहता। लेकिन उसे अपने परिवार की सुरक्षा की चिंता सबसे ज़्यादा थी। वह ख़ुद को जितना भी संभालने की कोशिश करता, उतनी ही बार पुलिस का दबाव और माफ़िया का खौफ़ उसे घेर लेते। उसे पता था कि अगर उसने सच बताया, तो माफ़िया उसे ज़िंदा नहीं छोड़ेगा। सोहन हालात के जाल में फंस गया था।
नगवा से पास का एक पुराना गाँव, जहाँ पेस्टिसाइड वेयर हाउस था। हर्षवर्धन सोहन से वहीँ मिल रहा था। सोहन अपने खेतों में बैठा था और हर्षवर्धन ठीक उसके सामनें खटिया में बैठा ग़ुस्से में सवाल कर रहा था...
इन्स्पेक्टर: "सोहन, अब वक़्त आ गया है कि तुम हमें सच बताओ. हमें पता है कि तुमने ज़हर दिया था और वह भी किसके कहने पर। अगर तुमने माफ़िया के डर से कुछ नहीं बताया, तो शायद तुम भी उन्हीं में से एक हो जाओगे, जो इस साज़िश का शिकार बन चुके हैं" ।
जब हर्षवर्धन ने उससे सवाल करने शुरू किए, तो सोहन का डर उसके बिहेवियर से साफ़ पता चाल रहा था। लेकिन हर्षवर्धन के सवालों के सामने उसकी हिम्मत टूटने लगी। उसने बोलने की कोशिश की और कहा...
सोहन: "साहब, मैंने कुछ नहीं किया। मैं तो इसलिए SUPPLY करता था की, कुछ पैसे बन जाएँगे, जिससे घर चाल जाएगा साहब। वह लोग बहुत ख़तरनाक हैं...अगर मैंने कुछ बोला, तो मेरी और मेरे परिवार की जान चली जाएगी"
सोहन के चेहरे में पसीना उतर आया और उसकी नीली SHIRT भीग कर और गाढ़े रंग की हो गई. उसकी बेपरवाह हिलती उँगलियाँ साफ़ दाफ बता रही थी की, वह डरा हुआ है। वह कुछ बोलने की हिम्मत कर रहा था, पर उसके अंदर का खौफ़ उसे हर बार रोक देता था। हर्षवर्धन ने उसकी स्थिति को समझते हुए एक बार फिर प्यार से समझाते हुए कहा:
इन्स्पेक्टर: "सोहन, तुम्हें क्या लगता है? अगर तुमने पुलिस को सच नहीं बताया, तो भी क्या माफ़िया तुम्हें छोड़ देंगे? ज़हर का ये खेल बहुत बड़ा है और तुम भी इसमें फँस चुके हो। मेरी बात अभी भी मान लो, सच बताओ, नहीं तो अंजाम तुम जानते ही हो।"
सोहन के चेहरे पर घबराहट और बढ़ गई थी। लेकिन हर्षवर्धन की बातों ने उस पर कुछ असर किया। उसे महसूस होने लगा था कि अगर वह अब भी चुप रहा, तो उसकी ज़िन्दगी ख़तरे में पड़ जाएगी। उसने धीरे-धीरे हर्षवर्धन को वह सारी बातें बतानी शुरू की, जो उसने अब तक छुपाई हुई थी। उसका डर उसके शब्दों से बाहर आने लगा और आख़िरकार वह कुछ इशारें देने पर मजबूर हो गया।
सोहन: "साहब, मैं सिर्फ़ सप्लाई करता हूँ...मुझे नहीं पता था कि ये ज़हर इतनी दूर तक जाएगा। पर जिसने मुझसे कीटनाशक खरीदा था, वह कोई मामूली आदमी नहीं था। उसने मुझसे कुछ ऐसे सवाल किए थे, जो मुझे अजीब लगे थे"
वह न तो पूरी तरह दोषी था और न ही पूरी तरह निर्दोष। वह जितना जानता था अब बोलने लगा था। हर्षवर्धन को उससे जो बात सुननी थी वह उसने पूछी...
इन्स्पेक्टर: "कौन था वो? क्या तुम उसका चेहरा पहचानते हो?"
हर्षवर्धन बस उसके मुंह से हाँ सुनना चाहता था। सोहन ने बोला...
सोहन: "हाँ साहब, मैं उसे देख चुका हूँ। वह यहाँ बनारस के इर्द-गिर्द ही रहता है। पर मुझे ये नहीं पता था कि वह किसके लिए काम करता है"
हर्षवर्धन को सोहन से एक अहम सुराग मिल गया था। ये वही सुराग था, जिसकी उन्हें कई दिनों से तलाश थी। सोहन उस आदमी के बारे में जो भी बातें जानता था, वह सब बताने लगा। सोहन के बताए हुए हुलिए से हर्षवर्धन को शक हुआ कि ये मामला सिर्फ़ ज़हर की सप्लाई तक सीमित नहीं था, बल्कि इसके पीछे एक बड़ी साज़िश छिपी हुई थी। उन्हें अब और भी गहरी जांच करनी थी।
इसी बीच, हर्षवर्धन ने अपने सभी पुराने मुख़बिर को काम पर लगा दिया था। सोहन की बताई हुई ख़बर अब सबके कानों में थी। ख़ोजबीन चालू हो चुकी थी। तभी कुछ दिनों के अन्दर ही हर्षवर्धन के एक पुराने मुखबिर, राघव से कुछ ख़बर मिली। राघव ने बताया कि उसे एक फोटो मिली है, जिसमें उस आदमी का चेहरा साफ़ दिखाई दे रहा है। जिसने कीटनाशक खरीदी थी। राघव ने फ़ोन पर कहा कि उसने वह फोटो किसी से चुपके से हासिल की है और वह उसे जल्द से जल्द हर्षवर्धन तक पहुँचाना चाहता है।
राघव सामनें से किसी हड़बड़ी में भागते हुए आ रहा था। वह लंगड़ा रहा था। बचपन में ही उसका पैर पोलियो का शिकार हो गया था। हर्षवर्धन का ख़ास और बेहद इमानदार आदमी है राघव। राघव हर्षवर्धन के बताए हुए पते पर शास्त्री घाट आता है।
शास्त्री घाट, वाराणसी का एक प्रसिद्ध घाट है, जहाँ गंगा नदी की लहरें अद्भुत सुन्दरता और शांति का अनुभव कराती हैं। गंगा की धारा में लोग अपने पापों से मुक्ति पाने के लिए आते हैं। हर्षवर्धन भी आज यहाँ बनारस को इस ज़हर से मुक्ति के लिए सबूत इकट्ठा करने आया था।
शाम होते ही जब सूर्य की अंतिम किरणें गंगा जी पर पड़ रही थी। तो मनो ऐसा लग रहा था जैसे लाल, नारंगी और पीले रंग से बनी कोई ज़िन्दा तस्वीर हो। यहाँ हर्षवर्धन भी सभी लोगों की तरह अपने दिन की थकान को भूलकर, गंगा के किनारे बैठकर इस नज़ारे का आनंद ले रहा था।
शास्त्री घाट केवल एक धार्मिक स्थान नहीं है; यह एक ऐसा स्थान है, जहाँ जीवन, मृत्यु और पुनर्जन्म का चक्र चलता है। यहाँ के अनुभव को शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता।
अब इंतज़ार ख़त्म हुआ था। हर्षवर्धन जो घाट की किसी छतरी के नीचे बैठा, आँखों से अपने सवाल गंगा जी की लहरों में लिख रहा था। अचानक राघव सामने आता है। आते ही राघव हर्षवर्धन को नमस्कार करता है और नज़दीक जाकर शर्ट के ऊपर के पॉकेट में रखी फोटो की ओर इशारा करते हुए कहता है...
राघव: "साहब, ये फोटो मैंने काफ़ी मशक्कत से हासिल की है। इसमें वही आदमी है जिसने ज़हर खरीदा था। मैंने उसे कई बार देखा है, लेकिन मुझे नहीं पता था कि वह आपके इतने करीब का होगा"
हर्षवर्धन को यही तो चाहिए था। उसके ठहरे शरीर ने तुरंत रिऐक्ट किया। उसका चेहरा रिऐक्ट नहीं कर पा रहा था। शायद उसे विश्वास नहीं हो रहा होगा की, राघव के पॉकेट में रखी तस्वीर उसी की है, जिसे वह कब से ढूँढ रहा है। राघव ने भी उसकी बेचैनी का इम्तेहान नहीं लिया। वह फोटो अपनी SHIRT की पॉकेट से निकालकर हर्षवर्धन के नज़दीक ले गया।
हर्षवर्धन ने जैसे ही उस तस्वीर को देखा उसके होश उड़ गए. फोटो में जो चेहरा था, वह और कोई नहीं उसका पुराना दोस्त विजय था। विजय, जो कभी उनके साथ पुलिस ट्रेनिंग में था, अब किसी गैंग के लिए काम कर रहा था। हर्षवर्धन को अपनी आँखों पर यक़ीन नहीं हो रहा था।
हर्षवर्धन का मन एक ही सवाल पर अटका हुआ था। विजय इस साज़िश में कैसे शामिल हो सकता है? उसका दोस्त, जिसने कभी पुलिस में कंधे से कंधा मिलाकर काम किया था, अब अपराधियों के साथ था? इन सवालों का जवाब मिलना अभी बाक़ी थे। लेकिन हर्षवर्धन के सामने अब एक और चुनौती थी। इस केस को सुलझाना, चाहे जो भी हो जाए. उन्हें अपने दोस्त पर शक करना पड़ रहा था और ये उनके लिए सबसे मुश्किल पल था। लेकिन हर्षवर्धन जानते थे कि सच्चाई तक पहुँचने के लिए उन्हें अपने जज़्बातों को यहीं गंगा में बहाना पड़ेगा।
ज़हर के इस खेल का अंत अब और भी उलझता जा रहा था। बनारस की गलियों में फैला ये ज़हर, सिर्फ़ लोगों के शरीर में ही नहीं, बल्कि उनके दिलों और रिश्तों में भी फैलता जा रहा था। हर्षवर्धन के हाथ में फोटो थी और उनका मन ना जाने कितने सवालों से घिरा हुआ था।
क्या हर्षवर्धन अपने दोस्त विजय की सच्चाई का पता लगा पाएगा? या फिर ये माफ़िया की कोई सोची समझी चाल थी? इन सभी सवालों के जवाब जानने के लिए पढ़ते रहिए।
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