डिसक्लेमर: "यह केस वास्तविक घटनाओं से प्रेरित है, लेकिन इसमें प्रस्तुत सभी पात्र और घटनाएँ पूरी तरह से काल्पनिक हैं। किसी भी वास्तविक व्यक्ति, स्थान, या घटना से कोई समानता मात्र एक संयोग है।"

बनारस की गलियाँ हमेशा चलती फिरती रहती है। लेकिन इस समय रात का सन्नाटा था। राघव ने इंस्पेक्टर हर्षवर्धन को वह तस्वीर दी और शास्त्री घाट से चला गया। हर्षवर्धन के हाथ में जिसकी तस्वीर थी, वह अब तक हुए मौत का कारण थी। फोटो, जिसमें एक आदमी नज़र आ रहा था। उसकी आँखें उस चेहरे पर अटक गईं। यह कोई अजनबी नहीं था, बल्कि उसका सबसे करीबी दोस्त और साथी, विजय था।

विजय एक काबिल पुलिस अधिकारी है। जो कई सालों से पुलिस फोर्स में है। वह हर्षवर्धन का पुराना दोस्त और साथी है, दोनों ने मिलकर कई केस सुलझाए हैं। विजय का बिहेव बेहद फ़्रेंडली है, लेकिन हाल में हुए घटनाओं के बाद उसके बिहेवियर में कुछ बदलाव दिखने को मिल रहा था। हर्षवर्धन को उससे मिलकर पहले वाली वाइब नहीं आती थी। उसे भी लगा की विजय कही किसी बात के टेंशन में हो सकता है।

विजय को अपने काम से लगाव है, लेकिन हाल के दिनों में वह सबसे अलग-अलग रहने की कोशिश करता रहा है। वह शायद कुछ छुपाने की कोशिश कर रहा था। जहाँ पहले वह हर्षवर्धन के सवालों का तुरंत और ईमानदारी से जवाब देता था। अब वह टाल-मटोल करने लगा था। इस बदलाव ने भी हर्षवर्धन का शक और मज़बूत कर दिया था।

विजय को छोटे-छोटे शहरों में काम करने का बहुत अनुभव है। वह हर्षवर्धन के साथ शास्त्री नगर के पुलिस स्टेशन में काफ़ी समय से काम कर रहा है और उनकी हमेशा दोस्ती मज़बूत रही है।

विजय का मकसद क्या था ये हर्षवर्धन को समझना ज़रूरी था, या वह ख़ुद किसी बड़े खेल का हिस्सा बन चुका है। ऐसा भी हो सकता है कि वह किसी दबाव में है।

हर्षवर्धन का दिल तेजी से धड़कने लगा था। उसे अपने सबसे क़रीबी दोस्त पर शक करना था। क्या विजय भी इस केस में शामिल है? विजय कहीं ना कहीं पुलिस डिपार्ट्मेन्ट  को, हर्षवर्धन की दोस्ती को धोखा दे रहा था, इस बात की हर्षवर्धन को बहुत तकलीफ़ थी।

वो कमरे में इधर-उधर टहलने लगा। उसके दिमाग़ में कई सवाल चोट करने लगे। उसने अपने सेटिस्फैक्शन के लिए फोटो को फिर से, ग़ौर से देखा। विजय का चेहरा साफ़ था।

हर्षवर्धन ने तुरंत निर्णय लिया कि वह विजय से सवाल करेगा। वह विजय से मिलने पुलिस स्टेशन जाने का फ़ैसला करता है। शास्त्री नगर का पुराना पुलिस स्टेशन, जहाँ दोनों साथ काम करते थे, उसकी यादों में अब धुंधला पड़ गया था। उस स्टेशन का रास्ता उसे अच्छी तरह याद था। यहाँ उसने अपने जीवन के कई साल बिताए थे। स्टेशन के सामने पहुँचते ही उसकी सारी पुरानी यादें ताज़ा हो गयी थी। उसने स्टेशन के अंदर क़दम रखा। विजय बैठा अपने फाइल्स में बिजी था।

अचानक से हर्षवर्धन को सामने देख वह शॉक हो गया। फिर एक पल के बात उसने हल्की-सी स्माइल के बाद हर्षवर्धन को बैठने के लिए कहा। हर्षवर्धन उसके सामने रखी कुर्सी पर जाकर बैठ गया। हर्षवर्धन के चेहरे पर फेक स्माइल थी। हर्षवर्धन ने फॉर्मैलिटी  के लिए सवाल किया और कहा...

इन्स्पेक्टर: "आज कल तो मिलने भी नहीं आ रहे, ना ही मेरे फ़ोन का जवाब दे रहे हो?"

विजय कहीं खोया हुआ-सा लग रहा था। उसने भी सवाल को कवर करने के लिए कह दिया...

विजय: "हाँ...वो आज कल काम का प्रेशर है"

हर्षवर्धन को साफ़ पता चाल रहा था की, विजय उसे सामने देख के बिलकुल भी खुश नहीं है। मगर उसे तो अपना काम पूरा करना था। उसने विजय से सवाल पूछने के पहले एक लम्बी साँस ली और पूछ बैठा...

इन्स्पेक्टर: " विजय, मुझे तुमसे कुछ पूछना है।

हर्षवर्धन के तस्वीर उसके सामने रखी और कहा...

इन्स्पेक्टर: "ये तस्वीर देखो। इसमें तुम हो...और ये वही जगह है, जहाँ लास्ट वीक में कुछ मर्डर्स हुए है। तुम वहाँ क्या कर रहे थे?"

विजय ने सोचा नहीं था की, ऐसा कुछ हो जाएगा। उसने सामने रखे पानी के ग्लास को हर्षवर्धन की ओर बढ़ाया और कहा...

विजय: "पी लो...इतनी धूप है बाहर, प्यास लग गई होगी।"

हर्षवर्धन ने पानी का ग्लास उठाया और एक घूंट पानी पिया। फिर कहा...

इन्स्पेक्टर: "विजय में तुमसे इस केस के बारे में सवाल पूछने आया हूँ"

हर्षवर्धन इतना रुड नहीं बोलना चाहता था। मगर उसके पास कोई उपाय नहीं था। तभी विजय ने एकदम से कहा...

विजय: " तुम पागल हो गए हो, हर्ष? मैं वहाँ कभी गया ही नहीं। ये फोटो तो कोई भी बना सकता है।

विजय से अपने टेबल पर रखी एक फोटो फ्रेम की तरफ़ इशारा किया। जिसमें विजय भगत सिंह के बगल में खड़ा है। फिर स्मार्टली कहा...

विजय: "ये मेरे छोटे बेटे ने एडिट की है। देखो...ऐसा लग रहा है में बिल्कुल उनके साथ खड़ा हूँ। अब इसका मतलब ये तो नहीं की, मैं भी फ्रीडम फाइटर  हूँ।"

हर्षवर्धन को पता था की, विजय अपनी SMARTNESS दिखा कर सवालों को हल्के कर देगा। उसने विजय की इस जोक का कोई भी रिएक्शन नहीं दिया और फिर से बोला...

इन्स्पेक्टर: "विजय...मैं जोक सुनने नहीं आया यहाँ"

विजय समझ गया की, आज हर्षवर्धन कुछ ठान के आया है। उसने अब ईमोशनल ब्लैकमेल करना चालू किया और बड़े सेड तरीक़े से कहा...

विजय: "तुम मुझ पर शक कर रहे हो?"

हर्षवर्धन आज विजय के किसी जाल में नहीं फसनें वाला था। उसने गुस्से से कहा...

इन्स्पेक्टर: "मुझे नहीं पता, विजय। लेकिन ये बात सही नहीं बैठ रही। तुम हमेशा मेरे भरोसेमंद साथी रहे हो, लेकिन इस बार कुछ गड़बड़ है"

विजय अभी भी उसी ज़ोन में था। उसने कहा...

विजय: "तुम्हें मुझ पर शक हो रहा है? इतने सालों से साथ काम किया है हमने। ये तुम्हारा दिमाग़ खेल-खेल रहा है, हर्ष। जाओ जाकर आराम करो।"

हर्षवर्धन विजय की बातों पर विश्वास करने की कोशिश कर रहा था, लेकिन विजय का बिहेव कुछ और ही बता रहा था। उसके जवाबों में सवालों के दम घोटने की आवाज़ थी। एक अनकही घबराहट थी। उसकी नाचती आँखें सच्चाई छिपाने की कोशिश कर रही थीं। हर्षवर्धन को यक़ीन नहीं हो रहा था कि उसका सबसे भरोसेमंद दोस्त उसे धोखा दे सकता है। उसके मन का शक और भी तेज़ हो गया था।

जब विजय ने कोई ठोस जवाब नहीं दिया, तो हर्षवर्धन ने अपने दिमाग़ के कोनों में छिपी पुरानी यादों को देखना शुरू किया। उसने पुराने मामलों की फाइलों को खंगालने का फ़ैसला किया। शायद इन पुरानी केस फाइलों में कुछ ऐसा छिपा हो, जो उसे विजय के बारे में और जानने में मदद करेगा।

उसने पुलिस स्टेशन के आर्काइव में जाने का सोचा, जहाँ वह और विजय पहले साथ काम किया करते थे। पुराने दस्तावेज़ों को देखकर उसे पता चला कि पिछले कुछ सालों में कुछ ऐसे मामले थे, जिनमें विजय की मौजूदगी डाउटफूल रही थी। लेकिन हर्षवर्धन ने कभी उस पर शक नहीं किया था।

अब ये सब कुछ साफ़ हो रहा था। क्या विजय पुलिस विभाग के किसी अंदरूनी खेल का हिस्सा था? क्या वह माफ़िया से मिला हुआ था? ये सवाल हर्षवर्धन के दिमाग़ में पैदा हो रहे थे। उसने इन सवालों के जवाब के लिए अपने सीनियर्स के पास जाने का फ़ैसला किया।

हर्षवर्धन अपने सीनियर से मिलने हेडक्वाटर जाता है। रात होने ही वाली थी। सभी लोग घर निकल रहे थे। हर्षवर्धन ने अपने सीनियर को ऑफिस से बाहर निकलते देखा। शायद वह भी घर जाने की तैयारी में थे। हर्षवर्धन के पास समय नहीं था। वह सीनियर के पास गया और कहा...

इन्स्पेक्टर: "जय हिन्द सर..."

सीनियर को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे वह जानते थे की हर्षवर्धन आने वाला है। उन्होंने कहा...

सीनियर : "इतनी लेट...कोई ज़रूरी काम होगा?"

इन्स्पेक्टर: "यस सर ...मुझे विजय के बारे में कुछ पूछना है?"

इन्स्पेक्टर: सीनियर चलते-चलते गाड़ी तक पहुँच गया था। उसनें खड़े होकर कहा...

सीनियर : "शक करना आसान है, मगर प्रूफ करना...चलो ख़याल रखो अपना"

रात का समय हो चला था और हर्षवर्धन थका हुआ अपने घर लौट रहा था। सीनियर से बात करके भी वह सैटिस्फाइ नहीं हुआ था। उसका मन विजय की बातों में उलझा हुआ था। उसने मन ही मन निर्णय लिया कि वह इस मामले को आसानी से नहीं छोड़ने वाला। तभी उसके फ़ोन की घंटी बजी. हर्षवर्धन के उठाया और कहा...

इन्स्पेक्टर: "हैलो, कौन बोल रहा है?"

सामनें एक अनजान आवाज़ थी। उसने कहा।

कॉलर : "अगर अपनी जान की सलामती चाहते हो, तो इस केस से दूर रहो। तुम नहीं जानते कि यह कितना बड़ा जाल है"

हर्षवर्धन एकदम से चौक गया उसके कहा...

इन्स्पेक्टर: "तुम कौन हो? क्या चल रहा है ये सब?"

सामनें वाला बात ख़त्म करने के लिए जल्दी-जल्दी बोल रहा था...

कॉलर : "ज्यादा सवाल मत पूछो। बस इतना समझ लो कि तुम जिस रास्ते पर जा रहे हो, वह तुम्हें ख़त्म कर देगा"

हर्षवर्धन के दिल में डर की जगह अब गुस्सा भर चुका था। वह आवाज़ अनजान थी, लेकिन उसकी बातें उसके लिए साफ़ इशारा थीं कि वह किसी बड़ी साज़िश के करीब पहुँच चुका था। विजय और उस फोटो के पीछे जो राज छिपा था, वह अब हर्षवर्धन को सुलझाना ही था। लेकिन अब सवाल ये था कि क्या वह सचमुच विजय पर भरोसा कर सकता था या फिर कहीं उसे धोखा मिल रहा था?

रात के सन्नाटे में हर्षवर्धन के कानों में वह अनजान आवाज़ गूंज रही थी। "यह कितना बड़ा जाल है" और ये जाल कितना बड़ा था, ये तो आने वाला वक़्त ही बताएगा। हर्षवर्धन को इस साज़िश के जाल में घसीटा जा रहा था, लेकिन उसे यह भी एहसास हो रहा था कि वह जितना इस मामले की तह तक जाएगा, उतना ही ख़तरा बढ़ता जाएगा। वह अब हर हद तक जाने को तैयार था। उसे बस सच्चाई तक पहुँचना था, चाहे इसके बदले उसकी जान क्यों ना चली जाए.

क्या विजय ने सच में उसे धोखा दिया है? फ़ोन कॉल में मिली धमकी किसकी थी? इस केस की सच्चाई क्या थी? इन सभी सवालों के जवाब जानने के लिए पढ़ते रहिए। 

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