चुन्नी बाबू किसी तरह अपने खोली  में पहुंचे तो एक रूखी सूखी रोटी खाकर सो गए. लेकिन सुबह कब हुई पता ही नहीं चला. सुबह उठे तो बहुत शोर मचा हुआ था. लग रहा था जैसे बहुत तरह की आवाज़ो  से आसमान गूँज रहा था. पानी का लोटा लेकर बाहर कुल्ला करने आये तो देखते हैं कि बहुत सारे पक्षी आसमान में उड़ रहे थे. ऐसा लग रहा था आज ये सारे पक्षी इंद्रपुरी को उड़ाकर ले जायेंगे. लेकिन ऐसे कैसे कोई इसे उड़ा सकता है. इसको उड़ाने के लिए सबको उड़ाना पड़ेगा न!

पहले रामकृपा पंडित, लल्लन लाला , फिर कसूरी बाई, झुन्नी काकी, खोमचे वाले, चुन्नी बाबू उर्फ़ परम प्रतापी उड़ते. झुग्गियां उड़तीं, पटरियां उडती, नाले उड़ते, कबाड़ खाने उड़ते, फैक्ट्री उड़ती, और न जाने क्या क्या लेकिन इन सबका उड़ना संभव नहीं था, तो इंद्रपुरी का उड़ना भी संभव नहीं था। क्योंकि इंद्रपुरी इन्हीं सब लोगों और जगहों से मिलकर बनी थी।

बहरहाल सुबह से ही चिड़ियों ने  शोर मचा मचाकर दिमाग खराब कर दिया था. आज इंद्रपुरी में चिड़ियों की महासभा थी. और इस महासभा का एजेंडा था कि पेड़ों पर रहने की जगह ख़त्म हो गयी थी, क्यूंकि एक तो वैसे ही इंद्रपुरी में बहुत कम पेड़ थे, दूसरे, जो इक्का दुक्का पेड़ थे, उन सब पेड़ों पर कई सारी चिड़िया पहले से ही रहती थीं. तो बाकी सब कहाँ जाएँ? सबकी व्यवस्था देखनी थी. सब चिड़ियों के अपने सवाल थे और किसी के पास जवाब कुछ नहीं था. इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए आज यह मीटिंग बुलाई गयी थी.

महासभा शुरू हो इससे पहले आपको इंद्रपुरी के चिड़ियों के इतिहास के बारे में जान लेना चाहिए. तभी इस कहानी का आनंद आप उठा पायेंगे. तो आदिकाल में, यानी जब इंद्र यहाँ कुछ समय के लिए रहे थे, जब वो कुछ समय के लिए असुरों से अपनी प्राणों की रक्षा में लगे हुए थे, तब उस काल में इंद्रपुरी में पक्षियों का ही शासन था. यूँ तो साधुओं और मह्त्माओं के इस स्थान पर किसी का शासन क्या ही चलता लेकिन यह भी है कि भिन्न भिन्न प्रकार के अनेकों नस्लों के पक्षी इस इंद्रपुरी में रहा करते थे. तोते की तो इतनी हज़ार प्रजातियाँ थीं कि कई बार साधुओं ने उन्हें भी शिक्षा प्रदान की. तोताराम गुरुकुल पीठ की स्थापना भी उसी युग में हुई थी जिसके वाइस चांसलर नियुक्त किये गए थे महान शिक्षाशास्त्री आचार्य मिठ्ठू शुक्ल वाचस्पति. मिट्ठू शुक्ल वाचस्पति इतने विद्वान थे, इतने विद्वान थे कि खुद साधू महात्माओं को कई बार उनसे विद्या ग्रहण करनी पड़ती. मिट्ठू शुक्ल वाचस्पति को संस्कृत, खगोल, भूगोल, विज्ञान, राजनीति, इतिहास आदि से लेकर कामशास्त्र, संगीत, वास्तु आदि सभी विद्याओं का ज्ञान था. बहुत ही प्रकांड विद्वान थे. उस समय के अन्य पक्षी जो वाइस चांसलर पद के दावेदार थे वो तोता नहीं थे, कौवा बिरादरी से थे और वो भी अपने समय के जानेमाने विद्वान थे. लेकिन उनकी नियति में वाइस चांसलर बनना नहीं लिखा था. हुआ यह था कि जब दोनों विद्वानों के नाम पर काफी लोगों की सहमती बनने लगी तब मामला फंस गया. आधे साधू चाहते थे कि आचार्य मिट्ठू शुक्ल को वाइस चांसलर बनाया जाए और आधे साधू चाहते थे कि पंडित बेंगामल कपाली को वाइस चांसलर बनाया जाए. फिर सबकी सहमती से तय हुआ कि शुभमूहूर्त देखकर एक दिन दोनों विद्वानों के बीच शास्त्रार्थ रखी जाए और उसके निर्याणक के लिए साक्षाटी देवों के गुरु गुरु ब्रहस्पति को बुलाया जाए. ऐसा ही हुआ. जब गुरु ब्रहस्पति के पास यह बात पहुंची तब वह उन दिनों देवताओं के लिए एक विशिष्ट ग्रन्थ के निर्माण कार्य में व्यस्त थे. शुरू में तो उन्होंने निर्णायक बनने में काफी ना नुकुर की. जिसकी एक वजह तो यह ग्रन्थ निर्माण था ही और एक दूसरी वजह भी थी, जिसे अभी नहीं बताऊंगा. उस वजह को ब्रहस्पति अच्छे से जानते थे इसलिए इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहते थे. लेकिन इंद्रपुरी के साधू महात्माओं के बार बार आग्रह करने पर वह इस निवेदन को ठुकरा न पाए और शास्त्रार्थ का दिन तय कर लिया गया.

और वो दिन था गुरु पूर्णिमा का. यह तोताराम गुरुकुल पीठ के लिए एकदम ऐतिहासिक घटना थी. आज ही के दिन इस विद्यापीठ के वाइस चांसलर को चुना जाना था. तीनों लोकों के बड़े बड़े विद्वान, पंडित, शास्त्री आदि इस शास्त्रार्थ में शामिल होने आये थे. एक बड़ा सा मंडप तैयार हुआ. उसमें निर्णायक को सबसे ऊंची गद्दी पर बिठाया गया और फिर यज्ञ के दोनों तरफ दोनों विद्वानो को बिठाया गया था. पूरा मंडप एक से एक विद्वानों से खचाखच भरा हुआ था . पञ्च मुखी शंख बजाकर शास्त्रार्थ शुरू हुआ. साधू महात्मा प्रश्न पर प्रश्न पूछते और दोनों ही विद्वान प्रश्नों का ऐसा उत्तर देते कि सब दंग रह जाते. खुद देवों के गुरु और इस महासभा के निर्णायक ब्रहस्पति को कई बार लगा जैसे यह दोनों विद्वान आगे चलकर कहीं स्वर्ग लोक की मेरी गद्दी न हासिल कर लें.

यह शास्त्रार्थ कोई एक दो दिन नहीं चला था भाई लोगों! पूरे एक वर्ष चला था. और जब यह सभा में बैठे सभी साधू महात्माओं को लगने लगा कि इन दोनों विद्वानों में से किसी एक चुनना एकदम संभव नहीं तब यह मसला ब्रहस्पति से साझा किया गया. गुरु ब्रहस्पति तो जानते ही थे कि यह तो होना ही था. लेकिन वह भी क्या करते. बोले, जो नियम हुआ था, उसी पर हम सबको कायम रहना है.

उधर शास्त्रार्थ रुकने का नाम नहीं ले रहा था. तभी एक मोरों के घराने के आखिरी शास्त्री पीयू प्रसाद बैकुंठी वहां आ पहुचें. आते ही उन्होंने कहा, ठहरिये यह शास्त्रार्थ नहीं हो सकता.

सब दंग रह गए. क्यों भाई क्यों नहीं हो सकता. और आप हैं कौन? आपका परिचय. अपना विस्तृत परिचय देने के बाद बैकुंठी ने कहा कि यह शास्त्रार्थ हो ही नहीं सकता. यह एकदम अमान्य है. ब्रहस्पति मुस्कराए. वह समझ गए कि सचाई खुलने वाली है. फिर भी उन्होंने बैकुंठी से पूछा कि क्यों अमान्य है. जरा खुल कर बताइए.

तब बैकुंठी ने कहा कि पंडित बेंगामल कपाली के पास किसी भी शिक्षा का आधिकारिक मान्य प्रमाण पत्र नहीं है. यदि है तो पंडित बेंगामल कपाली महासभा में प्रस्तुत करें.

यह सुनकर पंडित बेंगामल कपाली ने अपना मुंह नीचे कर लिया.

बैकुंठी ने फिर कहा कि हो सकता है कि जल्दबाजी में पंडित बेंगामल कपाली प्रमाणपत्र लाना भूल गए हों. लेकिन इस सभा के सामने यह तो बता ही सकते हैं कि उनके गुरु कौन हैं? उन्होंने किस से विद्या अर्जित की है?

गुरु ब्रहस्पति फिर मुस्कराए. लेकिन महासभा के सभी साधू महात्मा हूट करने लगे कि हाँ भाई हाँ, दोनों विद्वान अपने अपने गुरु का नाम बताएं नहीं तो दोनों को साधुओं के कोप का भाजन झेलना पड़ेगा. आचार्य मिठ्ठू शुक्ल वाचस्पति ने मुंह का पान निगलते हुए अपने गुरु का नाम बताया : स्वयं ब्रह्मा हैं मेरे गुरु. मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ.

ब्रह्मा ऊपर ब्रहमलोक में चाय पी रहे थे. अपने शिष्य के ऐसे करुण शब्द सुनकर उनकी छाती भर आई. उन्होंने वहीँ से कमल का फूल फेंका जो आकर आचार्य मिठ्ठू शुक्ल वाचस्पति के पैरों में गिरा.

अब सभा में उपस्थित सभी साधू महात्मा पंडित बेंगामल कपाली की ओर देखने लगे. पंडित बेंगामल कपाली चुपचाप अपने आसन पर मुंह दबाए बैठे थे. साधू महात्मा बार बार पूछे जा रहे थे लेकिन पंडित बेंगामल कपाली ने कुछ नहीं कहा.

तभी बैकुंठी ने कहा, मैं बताता हूँ. पंडित बेंगामल कपाली के गुरु और कोई नहीं बल्कि आचार्य मिठ्ठू शुक्ल वाचस्पति ही हैं.

हैं? क्या? सब दंग? क्या कहा? क्या ये सच है? सब चारों और से हाहाकार मच गया.

उधर ब्रहस्पति तो यह जानते ही थे. वो अट्टहास हँसे और अपने आसन से ही बैठे बैठे बोले, बैकुंठी सही कह रहे हैं. आचार्य मिठ्ठू शुक्ल वाचस्पति ही पंडित बेंगामल कपाली के गुरु हैं. इस संसार में उनका विद्यार्थी ही शास्त्रार्थ में उन्हें टक्कर दे सकता है. मैं दोनों विद्वानों का हृदय से अभिनन्दन करता हूँ और आचार्य मिठ्ठू शुक्ल वाचस्पति को तोताराम गुरुकुल विद्यापीठ का वाइस चांसलर नियुक्त करता हूँ. इनके नेतृत्व में सभी पक्षियों का भविष्य उज्व्वल होगा.

फिर क्या था सभा में आचार्य मिठ्ठू शुक्ल वाचस्पति के नाम की धूम मच गयी और उनके नाम के जयजय कार होने लगे.

तो भाईयों और बहनों इस बात से आप यह अंदाजा लगा ही सकते हैं कि यह इंद्रपुरी कोई ऐरी गैरी नत्थू खैरी जगह तो है नहीं. यहाँ मामूली सी मामूली बात के भी कई मायने होते हैं.

और इस कहानी से आप यह तो जान ही चुके होंगे कि इंद्रपुरी में पक्षियों की बड़ी बड़ी महासभाएं हो चुकी हैं और यह जगह पक्षियों के लिए भी ऐतिहासिक है.

हाँ तो इंद्रपुरी आज की तरह मरभुक्कड़ हमेशा नहीं रही. प्राचीन काल में यहाँ बहुत से फलदार वृक्ष थे. एक हरा भरा जंगल था. जहाँ साधू महात्माओं का वास था. इसलिए पक्षी भी खूब थे. उस समय तोताराम गुरुकुल के वाइस चांसलर बनने के बाद आचार्य मिठ्ठू शुक्ल वाचस्पति ने कई तरह के ग्रंथों का निर्माण किया था उसमें से एक ग्रन्थ बहुत ही अनिवार्य था सभी पक्षियों को पढने के लिए. और उस ग्रन्थ का नाम था आत्मरक्षा

इस ग्रन्थ में आचार्य मिठ्ठू शुक्ल वाचस्पति ने कई सारे उदाहरणों के माध्यम से यह तथ्य समझाने का प्रयास किया था कि भविष्य में यदि सावधानियां नहीं बरती गयीं तो एक दिन इस हरे भरे इंद्रपुरी का नाश होगा और यहाँ गिने चुने पेड़ पौधे ही रह पाएंगे. तमाम पक्षियों की प्रजातियाँ भी मारी जायेंगी.

लेकिन जैसा की होता आया है, होनी को कौन टाल सका है भला.

जब तक आचार्य मिठ्ठू शुक्ल वाचस्पति जीवित रहे तब तक उनके चेले चपाड़ी उन्हें खुश रखने के लिए यह ग्रन्थ ऊपर ऊपर से पढ़ लिया करते. फिर उनके चले जाने के बाद ग्रन्थ की सारी प्रतियां कहाँ गायब हुईं, किसी ने जला दी, कुछ समझ नहीं आया. आचार्य मिठ्ठू शुक्ल वाचस्पति के मरने के बाद उनकी बताई सारी बातें लोग भूलते गए और आज यह नौबत आ गयी कि रहने के लिए जगह भी नहीं बची.

इसी सब को ध्यान में रखते हुए आज यह पक्षियों की महासभा हो रही है.

इस महासभा के अध्यक्ष बनाये गए बिरजू सारस

बिरजू सारस धीर गंभीर थे. उन्होंने खैनी मलते हुए कहा कि सभी जातियों के पक्षी भाइयो! हम का बताईं आप लोगन क. आज ई जगह क जउन हाल बा, ऊ बहुत दुःख देवेला. बुझात बा कि नाहीं?

हम सब लोगन के संकट के ई समय एक दूसरे क हाथ पकड़े क चाही. नाही त एक्को पेड़ बची नाई. एही से हम त कहत बाड़ी कि इह जगह के छोड़के सब पक्षी भाई के कहीं अउर चलेके जाई

इतने में सर्किट उल्लू बोला कि कोई कहीं न जावेगा चिचा. यो म्हारी जमीन से. हम सब यहीं रैवेंगे. असल मसला तो यो है कि रहने की जगह कहाँ से आएगी.

तबतक बीनू गौरैया ने कहा कि तू बात बात पर भड़का न कर. अध्यक्ष बाबू ठीक कह रहे हैं. हम सबको यह जगह अब छोड़ देनी चाहिए.

यह चर्चा यूं ही जारी थी. इंद्रपुरी के लोगों ने देखा कि आज इतने पक्षी आसमान में और पेड़ो पर दिखाई पड़ रहे हैं. अगर इनको किसी तरह मार गिराया जाए तो कम से कम एक सप्ताह तो इन्हें भूनकर खाने की व्यवस्था हो ही जायेगी.

फिर क्या था. लल्लन लाला इस काम में बहुत माहिर था. तुरंत गुलेल निकालकर एक एक पक्षी पर निशाना साधना शुरू कर दिया . कभी आसमान से तीतर गिरता, कभी बटेर और कभी कबूतर. इंद्रपुरी के लोग इतने भूखे थे कि जो मिल जाए उसी को खा जाने की नौबत आ गयी थी और यहाँ तो इतने पक्षी थे कि दावत मन जाती. लोग इकट्ठा हो गए. पक्षियों पर निशाना साधते और पक्षी के गिरते ही उसे लेकर अपने खोली की तरफ भागते. झुन्नी काकी सबको समझाने लगी. मत मारो रे. मत मारो. जानवर बन गए हो क्या? मत मारो पक्षियों को. लेकिन इन भूखे लोगों को कहाँ कुछ सुनाई देता. भूख हावी थी.

हद तो तब हो गयी जब रामकृपा पंडित दो मरे हुए बटेर लेकर अपने खोली की ओर भागा जा रहा था. झुन्नी काकी ने देखा तो गालियाँ बकने लगी. इसे देखो, इस पाखंडी को देखो, आज इसका असली रंग दिखाई पड़ रहा है.

पंडित जाते जाते बोल गया कि इंद्रपुरी के लोगों के लिए बटेर का भोग देवी को चढ़ाना है बुढिया. पागल मत हुआ कर.

उधर बचे कुचे पक्षी अपनी जानबचाकर रोते चिल्लाते इंद्रपुरी को छोड़कर उड़ गए.

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