पंडिताइन श्री को अपने साथ बाहर ले आती हैं और श्री प्रसाद में खीर देखकर बड़ी खुश हो जाती हैं,
श्री - “ये खीर तो अम्मा की खीर से भी बेस्ट है… कितनी यम्म है। वाह काकी, मजा ही आ गया।”
पंडिताइन - “बाबा का प्रसाद है.. स्वादिष्ट तो होगा ही न। अच्छा चलो हम वहाँ आगे चलकर इनका इंतजार करते हैं.. यहाँ बहुत लोग हैं, परेशानी आती है और लोगों को निकलने में।”
और ऐसे पंडिताइन और श्री कुछ दूरी पर आकर एक चबूतरे पर बैठ गए हैं।
श्री - “आपकी और पंडित जी की शादी को कितने साल हो गए काकी?”
श्री अपना कैमरा चालू कर लेती है।
पंडिताइन - “इस साल पूरे 35 साल हो जाएंगे। कैसे समय निकल जाता है न.. पता ही नहीं चलता। कभी-कभी तो हम सोचते हैं कि कैसे सब एक साथ बड़े होते हैं.. लोग बड़े होते हैं, रिश्ते बड़े होते हैं, पेड़-पौधे बड़े होते हैं, शहर बड़े होते हैं, देश बड़े होते हैं..”
श्री - “शहर बड़े होते हैं काकी? वो कैसे?”
श्री अचंभे से पूछती है।
पंडिताइन - “जब हम ब्याह कर यहाँ आए थे.. तब ये जो रोड है न.. वो ऐसी नहीं थी.. इन दीवारों को मिट्टी से लेपते थे तब, यू पेंट नहीं होता था.. विश्वनाथ के पास जाते थे तो पैरों में न जाने कितने कंकड़ लग जाते थे, ऐसा रोड नहीं होता था.. न मंदिर ऐसे थे और न इमारतें ऐसी थीं.. तो ऐसे बड़े होते हैं शहर.. काशी ने बहुत तरक्की की है पर जो पहले वाली काशी थी न, उसकी कभी-कभी हमें बहुत याद आती है… तुम्हें बताएं बेटा.. हम न अपनी सहेलियों के साथ गंगा किनारे जाते थे पानी भरने.., सब एक ही गली मोहल्ले में रहते थे.. हर शाम सब साथ खाना खाया करते थे… बड़ा अच्छा लगता था…”
श्री पंडिताइन को पूछती है कि फिर क्या ऐसा हुआ कि सब बदल गया और पंडिताइन बताना जारी रखती हैं,
पंडिताइन - “फिर सब बड़े हो गए.. किसी के बच्चे की बाहर नौकरी लग गई तो कोई बच्चों के पास ही चला गया, किसी ने शहर के दूसरे हिस्से में बड़ा मकान बना लिया तो कोई अब है ही नहीं…”
पंडित जी - “ऐसे कैसे कोई नहीं है.. हम हैं तो।”
पंडित जी आते ही बोलते हैं और श्री कैमरा उनके सामने कर देती है…
श्री - “ये हैं पंडित प्रभात द्विवेदी जी.. पंडित जी हमें आज भैरव मंदिर के बारे में बताएंगे। मंदिर से जुड़ी कथा.. कब बना था, किसने बनाया था और आज भी लोग क्यों यहाँ इतनी श्रद्धा से आते हैं.. वो सब बताएंगे..”
श्री के पूछते ही पंडित जी शुरू हो जाते हैं,
पंडित जी - “काशी का काल भैरव मंदिर वाराणसी कैंट से लगभग 3 कि० मी० पर शहर के उत्तरी भाग में स्थित है। यह मंदिर काशीखंड में उल्लिखित पुरातन मंदिरों में से एक है। इस मंदिर की पौराणिक मान्यता यह है, कि बाबा विश्वनाथ ने काल भैरव जी को काशी का क्षेत्रपाल नियुक्त किया था। काल भैरव जी को काशीवासियों को दंड देने का अधिकार है। यहाँ रविवार एवं मंगलवार को अपार भीड़ आती है। आरती के समय नगाड़े, घंटा, डमरू की ध्वनि बहुत ही मनमोहक लगती है जिसमें कई लोग श्रद्धालु शामिल होते हैं। यहाँ बाबा के प्रसाद में शराब और पान का विशेष महत्व है। यहाँ विशेष रूप से भूत-प्रेत आदि के उपचार हेतु लोग आते हैं, तथा बाबा की कृपा से ठीक हो जाते हैं। यहाँ बच्चों को काले धागे यानी की गंडा दिया जाता है, जिससे बच्चे भय-मुक्त हो जाते हैं। काशी में ऐसी मान्यता है, कि किसी भी प्राणी को मृत्यु से पूर्व यम यातना के रूप में बाबा काल भैरव के सोटे की यातना का सामना करना होता है, हाँ … परन्तु मान्यता यह भी है, कि केदारखंड काशीवासी को भैरव यातना भी नहीं भोगनी पड़ती।”
श्री यह सब जानकर और भी हैरान हो जाती है और पंडित जी की स्पीकिंग स्किल्स की भी बहुत सराहना करती है.. फिर कैमरा बंद करके वो वसन से पूछती है,
श्री - “प्रसाद लिया?”
वसन को लगा था कि श्री उससे वो ठीक तो है न ऐसा कुछ पूछेगी पर श्री तो श्री ही है.. वो उससे प्रसाद लिया या नहीं ये पूछती है और वसन बताता है कि उसने प्रसाद नहीं लिया।
वसन ने प्रसाद नहीं लिया है, ये जानने के बाद श्री अपना कैमरा बैग में रखती है और उसका हाथ पकड़कर उसे मंदिर के बाहर ले जाती है.. और बाहर खड़े एक पुजारी से प्रसाद देने को कहती है।
पुजारी, श्री को पहचान लेता है और कहता है,
पुजारी - “आपने तो लिया न पहले?”
श्री - “हाँ मैंने लिया पर ये जो मेरे साथ हैं, इन्होंने नहीं लिया..”
पुजारी - “तो आप अपने में से दे देती..”
यह कहकर पुजारी श्री को एक डोना खीर दे देता है और श्री वह डोना, वसन को देते हुए कहती है,
श्री - “बुरा न मानो तो एक बात कहूँ?”
वसन - “कहो..”
श्री - “क्या मैं एक बाइट ले लूँ तुम्हारी खीर में से?”
वसन अब मुस्कुरा देता है और डोना उसके आगे कर देता है.. श्री को वसन के डोने में से खीर खाते देख, पुजारी भी हंसी लगाने लगता है और मन ही मन कहता है,
वसन - “हो गया काम..”
श्री और वसन अब वापस पंडित-पंडिताइन के पास आ जाते हैं और अब चारों पैदल ही पंचगंगा घाट की ओर निकल जाते हैं। रास्ते में उन्हें एक चूरण वाले बाबा मिलते हैं.. जिन्हें देखकर श्री बच्चों की तरह उछलने लगती है।
श्री - “मैं भी खाऊँगी.. मैं भी खाऊँगी.. यय्य… बाबा एक गटागट की गोली और दो पैकेट मिच्चर”, कहते ही श्री अपना कैमरा फिर निकाल लेती है और बाबा के उनके साइकिल वाले ठेले के साथ तस्वीरें खींचने लगती है।
पंडित जी - “कैसे हो गयासी?”
पंडित जी बाबा से पूछते हैं।
गयासी - “एकदम बढ़िया.. आप कैसे हैं द्विवेदी जी?.. अरे क्या बात है भाभी भी आईं हैं आज साथ..”
पंडित जी - “हाँ.. बच्चे साथ ले आए। दोनों बनारस के बारे में जानना चाह रहे थे तो हम सोचे, हम घुमा देते हैं थोड़ा.. और जितना जो जानते हैं वो बता देते हैं थोड़ा।”
गयासी - “बहुत अच्छे.. बहुत अच्छे…. लीजिए बच्चे, आपकी गटागट और मिच्चर चूरण..।”
श्री बाबा के हाथ से सब लेते ही खाना शुरू कर देती है और जबरदस्ती वसन और काकी को भी खिलाती है। और ऐसे ही मस्ती करते - करते चारों घाट पर पहुँच जाते हैं।
पंडित जी - “इस घाट का नाम है पंचगंगा घाट। ये कई चीजों के लिए जाना जाता है.. कहते हैं कि ये घाट संत कबीर के गुरु, वैदंत रामानंद जी के शिक्षण स्थल के रूप में भी प्रयोग किया जाता था। इसके साथ ही ये भी माना जाता है कि कवि तुलसीदास जी ने प्रसिद्ध विनय-पत्रिका की रचना भी यहीं, इसी घाट पर की थी।”
पंडित जी बताते - बताते आखिरी सीढ़ी तक उतर आए हैं और पंडिताइन दो सीढ़ी ऊपर रुककर ही बैठ गई हैं।
श्री और वसन , पंडित जी के पास ही खड़े हैं और श्री पूछती है,
श्री - “आपको कितना कुछ पता है पंडित जी.. और द थिंग इज कि आपको ये सब याद भी है..”
पंडित जी मुस्कुराने लगते हैं और पंडिताइन की ओर देखकर कहते हैं,
पंडित जी - “अब क्या ही बताएं.. क्या - क्या देखा है, कहाँ - कहाँ से आए हैं कि अब जाकर यहाँ पहुँचे हैं..”
पंडिताइन, पंडित जी को अपने पास आकर बैठने को कहती हैं और फिर दोनों साथ बैठकर, नदी में कहीं खो जाते हैं। श्री कुछ पूछने को ही होती है कि वसन उसे खींचकर दूर ले आता है,
वसन - “कितने प्यार से साथ बैठकर घुल गए हैं वो गंगा में… कुछ देर रहने दो न उन्हें वहीं..”
श्री अब कुछ नहीं बोलती और वहीं बैठ जाती है। वसन भी बैठ जाता है..
वसन - “आज सुबह तुम्हें वो मजाक नहीं करना चाहिए था..”
वसन धीरे से बोलता है।
श्री - “सॉरी!”
वसन - “हम्म.. पता है आज पहली बार रोया हूँ मैं यहाँ आकर..”
श्री - “ठीक हो?”
वसन - “हम्म.. हल्का महसूस हो रहा है।”
श्री - “आइ ऐम हैप्पी फॉर यू .”
वसन - “तुम्हें पता है, तुम बहुत बोलती हो।”
श्री - “हाँ मुझे पता है.. फिर भी बोलती हूँ… और ये बात तुम पहले भी बता चुके हो।”
वसन - “मुझे पता चला है कि यहाँ एक जगह टमाटर चाट बहुत अच्छा मिलता है.. तुम चलोगी साथ?”
श्री - “उम्म्म.. सोचना पड़ेगा…”
वसन - “अच्छा.. मैं तो टी टोस्ट वाली शॉप पर एक बार में चल दिया था और तुम बोल रही हो कि तुम्हें सोचना पड़ेगा..”
श्री - “हाँ बाबा चल दूँगी.. मजे ले रही थी तुम्हारे.. वैसे याद है न तुम्हें कल सारनाथ जाना है..”
वसन - “हम्म.. याद है। शाम को बाइक ले आऊँगा.. कल सुबह जल्दी निकलेंगे ताकि टाइमली वापस भी आ जाएं।”
श्री - “यप्प..”
वसन और श्री ने आने वाली शाम और कल की प्लानिंग कर ली है। और अब दोनों पंडित और पंडिताइन की ओर पलटकर देखते हैं तो पाते हैं कि वो आपस में बातें कर रहे हैं। श्री दूर से ही उनकी कुछ तस्वीरें खींचती है फिर जैसे ही पास जाती है.. वो दोनों श्री को देखकर थोड़े झिझक जाते हैं..
श्री - “अरे.. कीजिए न.. एक बार फिर कीजिए..”
पंडित जी शर्मा कर पंडिताइन की जुल्फें फिर एक बार सवारते हैं और पंडिताइन शर्मा कर पूरी लाल हो जाती हैं.. फिर आँचल में अपना मुँह छुपा लेती हैं।
श्री - “काकी.. देखिए तो ज़रा अपना फोटो.. कितनी सुंदर लग रही हैं आप…”
श्री क्लिक किए हुए फोटो पंडित पंडिताइन को दिखाती है और वसन ये सब कुछ वहीं बैठा देख रहा है.. इतने में वसन का फोन बजता है,
वसन - “हैलो!”
माँ - “हैलो वसन । बेटा कैसा है?”
वसन - “आइ ऐम फाइन मॉम … ठीक हूँ।”
माँ - “कैसा लग रहा है वहाँ?”
वसन - “शांति है.. पीसफुल..”
माँ - “तुझे अच्छा लग रहा है.. तो कुछ और दिन रहना वहीं और अपना ध्यान रखना..”
वसन - “ओके मम्मी.. आप.. आप कैसे हो?”
माँ - “मैं ठीक हूँ । डैड भी ठीक हैं.. तेरा पूछते रहते हैं..”
वसन - “हम्म…. ध्यान रखना उनका.. और अपना भी।”
इतने में श्री उछलती कूदती हुई वसन के पास आ जाती है और उसे स्माइल करने को कहती है.. वसन फोन कट कर देता है और उठकर खड़ा हो जाता है। फिर वो चारों घाट से ऊपर आते हैं और पंडित - पंडिताइन अपने घर और श्री और वसन चाट खाने के लिए बाजार की ओर निकल जाते हैं।
श्री - “वो देखो वहाँ.. लकड़ियों से क्या - क्या बना दिया उन्होंने.. और वो देखो वहाँ.. वो हनुमान जी वाला मास्क टंगा हुआ है.. जब - जब भी मैं विश्वनाथ के सामने से गुजरती हूँ.. कुछ न कुछ नया दिख ही जाता है।”
वसन - “हम्म्म… ”
वसन ज्यादा कुछ नहीं बोलता और आसपास की दुकानों को ऑब्जर्व करने लगता है।
श्री - “एक बात कहूँ वसन ..”
वसन - “कहो..”
श्री - “तुम न कह दिया करो.. जो भी मन में आता है। ऐसे चुप रहने से .. कई बार जो बाहर आना होता है वो भी नहीं आ पाता। अब मेरे जितना तो तुम नहीं बोल पाओगे पर कम से कम उतना बोल लिया करो जिससे मन हल्का हो जाए..”
वसन - “हाँ ये बात तो तुमने बिल्कुल सही बोली.. मैं तुम्हारे जितना तो नहीं बोल सकता… और हाँ अब से कोशिश करूंगा कि बताऊँ, बात करूँ।”
श्री - “ये की न तुमने गुड बॉय वाली बात.. वेरी गुड।”
श्री वसन को ये कहती ही है कि रिक्शा चाट भंडार पहुँच जाता है और रिक्शे से उतरते - उतरते श्री का पैर मुड़ जाता है…
श्री - “आआआआ.. अम्मा..”
रिक्शावाला - “मैडम जी संभाल के..”
रिक्शावाला ध्यान रखने का कहकर चला जाता है और वसन आगे आकर श्री का हाथ पकड़ लेता है।
वसन - “तुम ध्यान क्यों नहीं देती हो..”
श्री को कहते हुए, वसन चाट वाले को दो लोगों के लिए टेबल का इशारा करता है।
श्री - “मुझे बड़ा मजा आता है यूं गिरने पड़ने में.. अब यार… ध्यान तो रखती ही हूँ न.. पर हो जाता है कभी - कभी..”
वसन अपने माथे पर हाथ रखता है और आकाश की ओर देखते हुए कहता है,
वसन - “पता नहीं और क्या - क्या देखने को मिलेगा अब।”
वसन और श्री चाट भंडार की अपनी टेबल की ओर धीरे - धीरे बढ़ रहे हैं और आप मेरे साथ इस कहानी में आगे बढ़ रहे हैं। न जाने अब ये कहानी किधर मुड़ेगी, ये गुत्थी तो हमें साथ सुलझानी पड़ेगी। पढ़ते रहिए श्री वसन !
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