बीस सालों से अपने पिता को दो वक्त की रोटी के लिये भी दिन रात मेहनत करते देखने और छोटे-छोटे खिलौनों के लिये भी अपने मन को मारने वाला गजेन्द्र जब राजस्थान के सबसे रईस आदमी गजराज के मुंह से ये सुनता है, कि वो उसका दादा है तो गजेन्द्र के कदम लड़खड़ा जाते हैं। कमरे में सन्नाटा उतर आता है… लेकिन वो आगे कुछ कहता या पूछता उससे पहले उसके पिता मुक्तेश्वर उसे कमरे से बाहर जाने का इशारा करता है।

जिसके बाद मुक्तेश्वर के बगल में खड़ा उसका दोस्त कमल गजेन्द्र का हाथ पकड़ उसे कमरे से बाहर ले जाता है। जिसके बाद कमरे में अब सिर्फ दो लोग हैं — गजराज सिंह और मुक्तेश्वर सिंह।

मुक्तेश्वर का चेहरा थका हुआ है, उसकी आंखों में बीस साल का पछतावा और वर्तमान का डर दोनों, एक साथ साफ-साफ नजर आ रहे थे। वहीं बीस साल बाद अपनी ही औलाद के सामने खड़े गजराज की आंखों में कोई क्रोध नहीं…कोई सवाल नहीं था… था तो बस इंतजार—एक सफाई का, एक माफी का… जो वो पिछले बीस सालों से अपने बेटे से मांगना चाहता था।

“बीस साल तक तेरा इंतजार किया मुक्ति और अब जब तेरे सामने खड़ा हूं, तो तू मुझे पहचानने से भी इंकार कर रहा है...?”

गजराज की ये बाते सुनते ही मुक्तेश्वर एक नजर दरवाजे की तरफ देखता है और फिर दौड़कर कुंडी लगाते हुए धीरे से कांपती हुई आवाज में कहता है, “जान-पहचान की बात आप कर भी कैसे सकते है, जब उस दिन मेरे बेगुनाह होने के बावजूद आपने पूरी दुनिया के सामने मुझे... अपनी ही सगी औलाद को घर से निकाल दिया।”

मुक्तेश्वर का अपने पिता पर बीस सालों से उसके दिल में दबा गुस्सा फूट पड़ा, जिसकी चुभन ने गजराज को तोड़ दिया और वो अपनी बूढ़ी कांपती आवाज में बेटे के आगे हाथ जोड़कर बोला - “जिस खेल के मैदान में मैंने बीस साल पहले अपना बेटा खोया था… आज भगवान ने उसी पर मुझे मेरा पोता लौटा दिया।”

“बेटा…? नहीं… आप सिर्फ एक राजा थे मेरे लिये। पिता का मतलब सिर्फ खून नहीं होता। और अगर होता, तो आप मुझे उस दिन अपने सामने खड़ा कर सवाल नहीं बनाते… बल्कि मेरी ढाल बनते।”

गजराज हाथ जोड़े अपने बेटे की तरफ आगे बढ़ता है, लेकिन मुक्तेश्वर पीछे हट जाता है।

“राजघरानों में फैसले दिल से नहीं, सिंहासन से लिए जाते हैं बेटा… और उस दिन मैंने सिंहासन को चुना था… बेटा खो दिया।”

राजघराने और सिंघासन की बात सुन मुक्तेश्वर तिलमिला उठाता है.. और चिल्लाकर कहता है - “और उसी दिन मैंने भी एक फैसला लिया था… कि अब मैं किसी सिंहासन के नाम का मोह नहीं रखूंगा और ना उस राजघराने से रिश्ता। मैं कहता हूं निकल जाइये मेरे घर से… कहीं”

गजेन्द्र जो अब तक दरवाजे पर खड़ा सब कुछ सुन रहा होता है, वो अपने दादा और पापा की बातों से बीस साल पुरानी सारी बातों का अंदाजा लगा लेता है। और अंदर आकर चीख पड़ता है — “तो आप दोनों बाप-बेटे हैं… और मैं आपका पोता हूं। लेकिन इतने सालों तक आपने मुझे मेरी जिंदगी के सच से दूर क्यों रखा पापा...? और आपने दादा जी, आज से पहले कभी हमे ढूंढने की कोशिश क्यों नहीं की?”

गजेन्द्र के सवाल सुनते ही गजराज उसकी ओर मुड़ता है। उसकी बूढ़ी आंखों में पश्चाताप का सागर उमड़ पड़ता हैं। और वो गजेन्द्र के कंधे पर हाथ रखते हुए कहता है, “क्योंकि अगर ये सच उस वक्त सामने आता… तो तुम्हारा बचपन राजनीति की रोटियों में जल जाता। तुम खेल के मैदान में नहीं, सिंहासन के खूनी फर्श पर बड़े होते। तुम्हारे पिता और मेरे बीच दूरी खड़ी करने वाला खून भी मेरा अपना ही था… ऐसे में मैं नहीं चाहता था कि तुम हमारे जैसे बनो। लेकिन अब मैं मरने से पहले तुम्हें तुम्हारा हक और कुर्सी दोनों लौटाना चाहता हूं, जिस पर कभी तुम्हारे पापा का हक था।

राजस्थान किंग गजराज की ये बाते सुन जहां मुक्तिश्वर का डर बढ़ने लगता है, तो वहीं गजेन्द्र को हिम्मत मिलती है और वो पूछता है, “लेकिन आप मुझे कैसे बचायेंगे दादा साहेब…? अब माफिया मेरे पीछे हैं, पुलिस मेरे खिलाफ है, और मीडिया मुझे बेच रहा है।”

ये सुनते ही गजराज की आवाज में एक तीखापन और बदले की भावना लौट आती है और वो गजेन्द्र के कंधे पर हाथ रखते हुए कहता है-“अब नहीं। अब राजघराना पीछे नहीं, तुम्हारे साथ खड़ा है। जिसके चौखट पर माफिया, पुलिस और मीडिया तो क्या बड़े-बड़े नेता तक अपना सर झुकाते है।

ये सुनते ही गजेन्द्र का सीना चौड़ा हो गया और राजघराना के सिंह सरनेम को अपने नाम के साथ जुड़ते ही उसके चेहरे पर एक अजीब सी घमंड भरी मुस्कान दौड़ गई। गजेन्द्र को पहली बार इस तरह तीखी मुस्कान हंसता देख मुक्तेश्वर को दिल ही दिल में घबराहट होने लगी। वो अपने बेटे को अपने दादा गजराज सिंह की चकाचौंध से भरी हवेली का काला सच बताने के लिये आगे बढ़ता है कि तभी गजराज सिंह का फोन बजने लगता है…

"हैलों, कौन बोल रहा है…?”

"प्रभा ताई हवेली लौट चुकी हैं।"

"क्या, प्रभा लौट आई… इस तरह अचानक बीस साल बाद...?”

अपने पिता गजराज के मुंह से प्रभा ताई का नाम सुनते ही मुक्तेश्वर के चेहरे का रंग सफेद पड़ जाता है और वो अपने बेटे गजेन्द्र का हाथ पकड़ एक बार फिर चिल्लाते हुए कहता है - मैंने कहा निकल जाइये मेरे घर से… मैं नहीं चाहता मेरा बेटा भी मेरी तरह उस राजघराने की राजनीति का शिकार बनें।

जहां एक तरफ गजराज अपने पोते गजेन्द्र और बेटे मुक्तेश्वर को वापस राजघराने के महल में लाने की कोशिश कर रहा था, तो वहीं दूसरी ओर महल में बिन बुलाया मेहमान बनकर लौंटी प्रभा ताई के आने से हंगामा मच चुका था। नौकर-चाकर चुपचाप उन्हें सलाम तो कर रहे थे, लेकिन साथ ही हवेली की औरतों से लेकर पुरानों नौकरों के बीच प्रभा ताई के लौटने को लेकर कानाफूसी हो रही थी।

"वो लौटी है… मैंने सुना है उसे इस खानदान के वारिस का पता चल गया है"

"फिर तो जरूर वो अपने भतीजे को देखने या उसके सामने वो राज़ उजागर करने का इरादा लेकर लौटी होगी"

नौकरों की कानाफूसी की आवाजे सुन प्रभा ताई हवेली की छत से नीचे झांकती हैं… और चिल्लाकर पूछती है - मुक्तेश्वर का बेटा गजेन्द्र कब लौट रहा है, कोई बतायेगा मुझे...?"

प्रभा ताई की आवाज सुनते ही नौकर इधर-उधर भागने लगते है। इसी बीच वहां खड़ा एक गार्ड आता है और नौकरों को फरमान सुनाते हुए कहता है, "राजघराना महल को दुल्हन की तरह सजा दो, छोटे सरकार पहली बार आ रहे है। राजा जी ने कहा है, स्वागत में कोई कमी ना हो।"

उस बूढ़े गार्ड की ये बात सुनते ही प्रभा ताई एक अजीब सी शैतानी हंसी हंसती है और मन ही मन बड़बड़ाते हुए कहती है-छोटे सरकार अपनी जिंदगी की सांसे छोटी करने लौट रहे है, आने दो… जो इसके बाप के साथ हुआ वहीं बेटे के साथ भी होगा।

प्रभा ताई की बात से साफ था, कि मुक्तेश्वर के साथ बीस साल पहले जो हुआ उसके गुनाह में वो भी शामिल थी और अब बीस साल बाद वो दोबारा कुछ वैसी ही शर्मनाक और घिनौनी चाल गजेन्द्र के लिये भी चलने वाली थी।

महल को चारो तरफ से सजाया जा रहा था। राजस्थान की तपती रेत में हवाओं का रुख धीरे-धीरे बदल रहा था। गजेन्द्र अब सिर्फ एक मामूली हॉर्स जॉकी नहीं रहा था, बल्कि गजराज सिंह के नाम के साथ जुड़ते ही, उसकी किस्मत की लगाम सीधी रॉयल एलीट सर्किट्स की तरफ मुड़ गई थी, जहां से देश का हर गोल्ड मेडलिस्ट खिलाड़ी निकला था।

राजघराना महल में गजेन्द्र के हुए स्वागत से उसकी पहली रेस के दिन तक, प्रभा ताई उससे ऐसे मिली मानों जैसे अपने भतीजे को देखने के लिये ना जाने कितनी बेताब हो और उसकी कामयाबी में कितनी खुश हो। लेकिन उनकी इस खुशी के असल चेहरे से पर्दा उस दिन उठा तब गजेन्द्र बतौर राजघराना वारिस दिल्ली की फाइव-स्टार होटल में आयोजित ‘हॉर्स रेसिंग लीग’ के ग्रैंड लॉन्च इवेंट में पहुंचा।

दरअसल जब गजेन्द्र पहली बार रॉयल क्लब के पोडियम पर सजे-संवरे लिबास में दिखा, तो लोगों की आंखों में सिर्फ सवाल थे—

“ये नया चेहरा कौन है, और इतनी ऊँचाई तक इतनी जल्दी कैसे पहुँचा?”

भीड़ में से एक ठंडी आंखों वाला बुज़ुर्ग व्यक्ति दूर से गजेन्द्र को देख रहा था, उसका नाम था राघव भोंसले। राघव एक ज़माने में हॉर्स रेसिंग का बेताज बादशाह हुआ करता था, लेकिन अब… माफिया के लिए काम करने वाला मैंच फिक्सर बनकर रह गया है।

राघव भोंसले अपने शागिर्द से धीमे स्वर में कहता है—“ये लड़का, उसकी चाल देख… सीधी रेस नहीं, सीधी बगावत की ओर जा रही है ये। ऐसे जो सीधे चलते हैं, उन्हें या तो घोड़े रौंदते हैं… या फिर उनके अपने… हाहाहाहा।”

इतने में स्टेज पर गजराज सिंह की एंट्री होती है, जहां वो पूरी दुनिया के सामने गजेन्द्र को अपने पोते के तौर पर पहचान दिलाता है। और यहीं से शुरु होता है, गजेन्द्र की दुनिया का वो गंदा राजनैतिक सफर जिससे उसके पिता मुक्तेश्वर उसे बचाना चाहते थे। लेकिन वो राजघराने की दौलत और चकाचौंध के लिये अपने पिता को अकेले पुणे में छोड़ अपने दादा साहेब गजराज सिंह के साथ राजगढ़ की राजघराना हवेली, राजस्थान आ जाता है।

कुछ दिन बाद मुंबई रेस क्लब की और से एक स्पेशल घोड़ों की रेस का आयोजन किया जाता है, जिसके बारे में गजराज ना सिर्फ अपने पोते गजेन्द्र को बताता है, बल्कि साथ ही चलने के लिये भी कहता है। फ्लाइट से कुछ दो घंटे का सफर तय कर गजराज अपने पोते के साथ मुंबई रेस क्लब – VIP स्काईलाउंज में पहुंचता है।

जहां गजेन्द्र पहली बार एलीट सर्किट की सबसे बड़ी रेस में हिस्सा ले रहा था। तो वहीं उसने देखा कि उसके दादा ने उसके लिये उसके फेवरेट घोड़े “अग्निपुत्र” का इंतजाम किया था।

"दादा साहेब आपकों अग्निपुत्र कहां मिला, इसे तो चोट लग गई थी ना"

"लग गई थी तो क्या, मेरे पोते की कोई ख्वाहिश हो और मैं उसे पूरी ना करुं… ऐसा भले कैसे हो सकता है"

दादा-पोते की प्यार भरी बातें सुन राघव भोंसले हंसने लगता है और बड़बड़ाते हुए कहता है, “लुटा ले बूढ़े, जितना प्यार लुटाना है अपने इस पोते पर… क्योंकि कुछ घंटों बाद तो तुझे इसकी अर्थी पर आंसू बहाने पड़ेंगे...।”

दरअसल रेस से एक रात पहले राघव भोंसले का आदमी गजेन्द्र के पास आता है। उसके हाथ में एक ब्राउन सूटकेस होता है, जिसे वो गजेन्द्र की तरफ बढ़ाते हुए कहता है-“पांच करोड़ हैं इसमें… बस अग्निपुत्र को दूसरे नंबर पर आने देना है। वरना अगले हफ्ते तेरी रेस, तेरे बाप के फिक्सिंग केस जैसी फाइल में बंद कर दी जाएगी।”

गजेन्द्र खड़ा होता है, उसकी आंखों में लाल आग जैसे लपटें उठ रही थीं। वो गुस्से भरे अंदाज में सामने खड़े शख्स का कॉलर्र पकड़ लेता है और कहता है—“मेरे पापा को जिसने झुकाया था, अब उनका बेटा उसे आसमान फाड़कर भी ढूंढ निकालेगा और उनके पैरों में नाक रगड़कर माफी मंगवायेगा…और याद रखना अग्निपुत्र की लगाम मेरे हाथ में है, और ये हाथ बिकता नहीं।”

गजेन्द्र का गुस्सा और तेवर देख राघव के आदमी ने कहा—“इसका अंजाम जानता है?”

“अंजाम रेस खत्म होने पर तय होते हैं… और मेरी रेस अभी शुरू हुई है।”

वहीं आज, रेस वाले दिन—

चारों तरफ भीड़ ही भीड़… हर किसी में राजघराने के नए वारिस को घुड़सवारी करते देखने की लालसा… उस पर जैसे ही रेस शुरू होती है, गजेन्द्र अपने घोड़े के साथ सामने निकलकर आता है, चारों और से गजेन्द्र के घोड़े अग्निपुत्र का नाम गूंजने लगता है।

कुछ पांच मिनट में रेस की अनाउंसमेंट करने वाला कॉमेनटेटर तीन तक गिनती करने के साथ सीटी बजा देता है। और सीटी की आवाज सुनते ही सारे खिलाड़ी अपने घोड़ों को रेस के मैदान में दौड़ाते हुए कभी आगे, तो कभी पीछे नजर आते है।

इसी बीच दो घुड़सवार मैच के आखिरी मोड़ पर गजेन्द्र और उसके घोड़े अग्निपुत्र को दूसरी पोजीशन पर धकेलने की दो बार कोशिश करते है—एक बार तो आगे बढ़ने का कोना भी ब्लॉक कर दिया गया, और दूसरी बार फाल्स स्टार्ट का झूठा अलार्म।

लेकिन गजेन्द्र घोड़े पर बैठा खुद से बात करता हुआ फुसफुसाता है—

“अब कोई हमें रोक नहीं सकता बेटा… जीत भी ईमानदार होगी, और धमाका भी।”

ये कहते हुए गजेन्द्र अपने घोड़े को और भी तेज दौड़ा देता है, रेस खत्म होती है और इस बार गजेन्द्र जीत जाता है और घोड़े से उतरकर खुद मीडिया के कैमरों के आगे जाता है और कहता है—“ये जीत सिर्फ मेरी नहीं, उन सबकी है जिन्हें कभी खरीदने की कोशिश की गई थी… और उन सबकी हार है जो खेल को धंधा समझते हैं। मैं बता दूं, मैं आज खुद मेहनत से जीता हूं… और कल मैं अपनी बेगुनाही भी साबित कर के रहूंगा।
 
इतना कह, जहां गजेन्द्र अपने दादा गजराज की तरफ बढ़ जाता है, तो वहीं दूसरी ओर — राघव भोंसले, एक टेलीफोन कॉल करता है।

“वो नहीं माना… अब अगली रेस में उसका घोड़ा नहीं, उसकी किस्मत दौड़ेगी… और वो भी हमारी पटरियों पर।”

अपनी जीत के जश्न और ट्रॉफी के साथ गजेन्द्र राजगढ़ की राजघराना हवेली लौटता है। दरवाजे पर आरतियों के साथ पूरे धूम-धड़ाके का बंदोबस्त किया गया था, जिसे देख गजेन्द्र की खुशी दुगनी हो जाती है, लेकिन साथ ही उसे अपने पिता मुक्तेश्वर की भी याद सताती है।  

लौट आया मेरा भतीजा… तूने एक बार फिर राजघराने का नाम रोशन कर दिया। वो नाम जो कभी तेरे पिता मुक्तेश्वर ने डूबों दिया था।

अपने पिता का नाम सुनते ही गजेन्द्र भड़क जाता है और कुछ कहने ही वाला होता है, कि तभी गजराज आगे बढ़ता है और अपनी बेटी यानि प्रभा ताई का हाथ पकड़ उनके कानों में धीरे से फुसफुसाते हुए कहता है—

“मुक्तेश्वर ने अपने हिस्से का सच छिपाया… लेकिन अब गजेन्द्र को सब कुछ बताना होगा। सच चाहे जितना दर्द दे, पर यही उसका हक है।”

प्रभा ताई चुप रहती हैं… और धीरे से कहती हैं—“अगर गजेन्द्र को सच बताना है… तो उसे उसकी मां जानकी का सच भी बताना होगा।”

जहां एक तरफ राजघराना के महल की दीवारों से अब वो सच बाहर आने वाला था, जिसमें गजेन्द्र की मां जानकी की इज्जत और चीखों के सच का हिसाब होना था, तो वहीं दूसरी ओर अस्पताल में जर्नलिस्ट रिया शर्मा भी आज कोमा की नींद से जाग उठी थी। आंखे खुलने के साथ ही वो डॉक्टरों से उसे डिस्चार करने की जिद कर रही थी-"प्लीज डॉक्टर किसी की जिंदगी और मौत का सवाल है...मुझे जाने दिजिये...।"

"देखिये आप नहीं जा सकती। आप अभी-अभी कोमा की बेहोशी से बाहर आई है, हमें आपकों अंडर ऑब्जरवेशन रखना होगा। प्लीज जिद मत करिये।"

रिया डॉक्टरों की बात का कोई जवाब नहीं देती और उनके जाने के बाद चुपचाप छुपके से वहां से भाग जाती है। अस्पताल के बाहर आते ही वो एक टैक्सी रोकती है और उसे सीधे राजगढ़ के राजघराना महल चलने के लिये कहती है। टैक्सी में बैठकर वो खुद से ही बड़बड़ाती हुए कहती है—

“मुझे राजगढ़ पहुंचना है… और इस बार मैं सिर्फ रिपोर्टर नहीं, एक गवाह बनकर लौट रही हूं। मेरी कहानी अब चाल नहीं, वार बनने वाली है। वो औरत नहीं डायन है डायन….

दूसरी ओर राजघराना महल में एक अलग ही शांति पसरी होती है। राघव भोसलें के मुंह से अपनी मां जानकी और पिता का नाम सुन जहां गजेन्द्र का दिमाग सवालों से फट रहा होता है, तो वहीं प्रभा ताई अपने कमरे में बैठे किसी से फोन पर बात कर रही थी-

“जिस नज़र से ये लड़का घोड़े को देखता है, वैसी ही नज़र थी मुक्तेश्वर की… फर्क बस इतना है कि एक को धोखा मिला, दूसरा लड़ने को तैयार है। हमें जल्द से जल्द इसका भी हिसाब करना होगा, वर्ना वो बूढ़ा राजा मरने से पहले सब इसके नाम कर जायेगा… और हमारी 25 साल की मेहनत पानी में चली जायेगी”

अगले दिन सुबह, राजगढ़ के एक बड़े से घर के एक छोटे से कोने में बैठा राघव भोंसले गजेन्द्र की तस्वीर देख खुद से बाते कर रहा था-“अब राजघराना अपना वारिस लेकर आया है… लेकिन उसे ये बताना भूल गया कि इस ट्रैक पर वफादारी नहीं, चालाकी जीतती है।”

तभी वहां एक मोटा सांड जैसा गुंडा आता है, जिसके चेहरे पर बना लंबा सा चाकू का निशान ये साफ बता रहा था कि वो कितना खतरनाक होगा। वो कमरे में एंट्री करने के साथ ही राघव भोसलें के आगे सर झुकाता है और कहता है, “आर्डर दे सर? आप कहों तो इसे इस बार सिर्फ इसके बाप की तरह फंसाते नहीं है, उड़ा ही डालते है घोड़े के साथ हवा में...”

उस गुंडे की बात सुन राघव पलट कर कहता है-“सही कहा, अगली रेस में या तो ये लड़का घोड़े से गिरेगा… या लोगों की नजरों से...। तैयारी शुरु करों। और हां एक बात और, मैंने सुना है वो लड़की कोमा से बाहर आ गई है, उसका भी इंतजाम करे। उसके पास तुम्हारी प्रभा ताई के खिलाफ सबूत है”

"जी सर, सब हो जायेगा… उस लड़की के पंख हम जल्द ही काट देंगे।"

 

आखिर क्या होने वाला है आगे गजेन्द्र और जर्नलिस्ट रिया के साथ?

क्या गजेन्द्र के सामने खुलेगा उसकी मां की मौत का असली राज? 

जानने के लिये पढ़िये राजघराना का अगला एपीसोड।

Continue to next
a
Anonymous

16 Jun 2025

Awesome
Reply