सुबह हो गई है और श्री  जल्दी तैयार होकर, पान मंडी आ गई है। अब वह एक पान वाले के पास जाकर बैठ जाती है और उससे पूछती है,
श्री - "आप लोग कितने बजे से आ जाते हो यहाँ?"
पान वाला - "मैडम जी.. हम सुबह 5 बजे आ जाते हैं और 7 बजे तक ये सब निपटाकर यहाँ से चले जाते हैं अपनी-अपनी पान की गुमटी पर। अब आप पूछेंगी कि कहाँ से आते हैं ये पान के पत्ते, कितने बिक जाते हैं रोज के... हमारा घर, घर में सदस्य और ना जाने आपको क्या-क्या ही जानना होगा.. क्यों, सही कहा ना?"
श्री  हँसकर बोलती है,
श्री - "और आपको कैसे पता कि मैं ये सब पूछूँगी?"
पान वाला- "वो क्या है ना मैडम जी.. हमको हो गए हैं पूरे 50 वर्ष ये करते-करते... छोटे बच्चे थे.. 10 साल के.. तबसे इस मंडी में आ रहे हैं और आपके जैसे कितनों को कितना कुछ बता चुके  हैं.. तो ये कोई पहली बार नहीं कि हमसे कोई यहाँ के बारे में पूछ रहा है.."
श्री  को इस पान वाले की बातें बड़ी ही दिलचस्प लगती हैं और वह झट से अपना कैमरा निकालकर सब कुछ कैप्चर करने लगती है। फिर वह बस एक ही सवाल करती है,
श्री - "आपका नाम क्या है काका?"
पान वाला  - "मिठू लाल चौरसिया... ये लीजिए.. खाकर देखिए ये पत्ता.."
श्री  पत्ता खाकर देखती है और उसे वह बड़ा ही स्वाद लगता है, "सिर्फ पत्ता इतना अच्छा है, पूरा पान होगा तो क्या खूब होगा।"
पान वाला  - "विश्वनाथ, द्वार नंबर 2 के बाहर आएंगी तो दुकान नंबर 40 सामने पाएंगी.. बस वहीं बैठे मिलेंगे आपसे हम। आइए वहाँ और लुत्फ उठाइए..."
और इतना कहकर मिठूलाल उठकर खड़े होते हैं.. फिर गुनगुनाते हुए मंडी के बाहर निकल जाते हैं। श्री  भी उठकर मंडी के अलग-अलग एंगल से तस्वीरें क्लिक करती है और फिर कुछ दूसरे पान वालों से भी बात करती है।
अब श्री  मंडी के बाहर आ गई है और रिक्षा लेकर वह काकी की कचोरी नमक दुकान के लिए निकल जाती है।
रिक्शावाला - "मैडम जी.. कचोरी के साथ जलेबी भी लीजिए.. बड़ी ही स्वाद बनती है.."
इस तरह इस बार रिक्शावाले ने खुद से ही बात करनी शुरू कर दी है और यह देखकर श्री  बड़ी खुश होती है।
श्री - "भाई जी.. क्या नाम है आपका?"
रिक्शावाला - "प्यारे लाल.. और आपका मैडम जी?"
श्री  से पहली बार किसी रिक्शे वाले ने पलटकर उसका नाम पूछा है.. वह खुश होकर बताती है,
"श्री .."
रिक्शावाला - "अरे क्या बात है.. आज स्वयं देवी माँ आकर हमारी गाड़ी में बैठी हैं। आपको पता है मैडम जी श्री  तो लक्ष्मी माँ को भी बोलते हैं.."
श्री - "जी भाई जी.., आप कबसे रिक्शा चला रहे हैं?"
रिक्शावाला - "आज ही के दिन पूरा एक साल हुआ है.. इससे पहले हम मुंबई की एक कंपनी में ऑफिस बॉय थे।"
श्री - "तो फिर यहाँ कैसे..?"
रिक्शावाला - "बीवी बच्चे यहाँ रहते थे और हम वहाँ.. पैसे भी अच्छे मिलते थे.. फिर हुआ ऐसा कि हमारी घरवाली की तबियत खराब हुई तो यहाँ कोई भी नहीं था उसकी देखभाल करने... बस फिर क्या, हमने बांधा अपना बोरिया बिस्तर और आ गए अपनी काशी.. अब भले थोड़ा कम कमाते हैं पर बीवी बच्चों के साथ बैठकर खाते हैं.. खुश हैं... हम भी कहां अपनी लेकर बैठ गए.. आप बताइए मैडम जी कैसी लगी आपको हमारी काशी?"
श्री - "बहुत अच्छी.. जैसे-जैसे दिन निकल रहे हैं, हर रोज कुछ नया जानने मिल रहा है.."
- और इन सब बातों में काकी की कचोरी आ जाती है। श्री  रिक्शे से उतरती है और रिक्शावाले को रुकने को कहती है.. फिर 5 कचोरी और आधा किलो जलेबी पैक करवा कर उसे देते हुए बधाई देती है,
श्री - "कांग्रैट्स प्यारे लाल जी.. आपको आज पूरा एक साल हो गया रिक्शा चलाते हुए और... आप बातें भी बड़ी ही प्यारी करते हैं। बहुत अच्छा लगा आपके बारे में जानकर।"
प्यारे लाल इमोशनल हो जाता है और श्री  को बहुत धन्यवाद करता है,
रिक्शावाला - "इस सबके लिए आपका बहुत धन्यवाद मैडम जी पर हम सोच लिए थे कि आपसे रिक्शे का भाड़ा नहीं लेंगे... इसलिए आप प्लीज ये बात मान लीजिए हमारी।"
और इस तरह श्री  की काशी की कहानियों में एक कहानी प्यारे लाल की भी जुड़ जाती है.. फिर श्री  काकी की कचोरी खाने में व्यस्त हो जाती है। और खा-पीकर जब वह तय करती है कि आज वह नमो घाट जाएगी। हाथ देकर ऑटो रुकवाती है तो एक ऑटो रुकता है और श्री  झट से अपने पास खड़ी एक लड़की को चकमा देकर उसमें बैठ जाती है..
श्री - "चलिए भाई जी.. नमो घाट।"

ऑटो चल रहा है और श्री  बाहर देख रही है.. अगला सिग्नल आने पर जैसे ही ऑटो मुड़ता है, श्री  को वसन दिख जाता है।
श्री - "भैया रोको.. रोको.. रोको.."
सुनते ही ऑटो वाला रुकता है और श्री  ऑटो से आधी बाहर निकल कर मुड़कर वसन  को आवाज देती है।
श्री - "ओoooo दोस्त.. कहां जा रहे हो?"
वसन  को एकदम से समझ नहीं आता और वह इधर-उधर देखने लगता है।
श्री - "हाँ तुम्हीं को बोल रही हूं.. मिस्टर वसन  मल्होत्रा।"
इतने में वसन  भी श्री  को देख, पहचान जाता है और उसके पास आकर बताता है..
वसन - "बस यूं ही… घुम रहा हूँ। तुम किधर?"
श्री  अब उसका हाथ पकड़कर उसे ऑटो के अंदर खींच लेती है और ऑटो वाले को चलने को कह देती है।
वसन - "तुम्हें पता है, मैं चाहूं तो अभी तुम्हारी कंप्लेंट कर सकता हूं। और ये ऑटो वाले भैया की भी.. तुम्हारी मदद करने के चक्कर में।"
- वसन  की इस बात पर ऑटो वाला सहम कर पीछे देखता है पर श्री  उसे तसल्ली देती है कि कुछ नहीं होगा.. तो वह फिर आगे देख अपने काम में लग जाता है.. मतलब कि आगे रास्ते पर ध्यान देता है।
वसन - "यूं बिना बताए मुझे पहले ऑटो में खींच कर बैठा लिया और अब कहीं ले भी जा रही हो... क्या? हो क्या तुम?"
श्री - "हाँ तो? ले जा सकती हूँ मैं.. पूछ रहे हो कि मैं क्या हूं? मैं दोस्त हूं तुम्हारी.. तुमने ही दोनों हाथों से थम्स अप किया था ना।"
वसन - "हाँ किया था तो क्या कुछ भी करोगी.."
श्री - "कुछ भी नहीं कर रही यार। मैं नमो घाट जा रही हूं और तुम यूं ही घुम रहे थे.. तो उससे बेहतर तो यही है ना कि तुम मेरे साथ वहाँ घूम लो, क्यों ऑटो वाले भैया... सही कहा ना मैंने??"
ऑटोवाला भी श्री  की हाँ में हाँ मिलाने लगता है और इस सब में उसका ध्यान स्पीड ब्रेकर पर नहीं जाता... तो इसका नतीजा यह होता है कि जोर से धक्का लगता है और श्री  का सिर सीधे ऊपर की रॉड में पड़ता है और फिर वह उछलकर वसन  के ऊपर गिर जाती है।
कुछ सेकंड के लिए उन दोनों की आँखें एक-दूसरे की आँखों में खो जाती हैं...

ऑटोवाला - "मैडम आप ठीक तो हैं? चोट तो नहीं लगी ना मैडम.. मैडम... अरे मैडम ठीक हैं ना?" 
ऑटोवाला जोर से आवाज देता है तब श्री  और वसन  की आँखें दो से चार होती हैं और श्री  खुद को संभालते हुए सीट पर बैठ जाती है।
श्री - "सर पर सीधा रॉड लगा है भाई जी.. आप क्या कर रहे हैं.. अब पक्का स्वेलिंग आ जाएगी सर पर.. ध्यान से चलाइए... रोज घर जाती हूँ और रोज माई को कुछ न कुछ नया सुनने मिलता है। आज तो पक्का मेरी डाट लग जानी है।"
वसन  श्री  को उसका सिर दबाने को पूछता है और कुछ देर उसे चुप रहने को कहकर उसका सिर दबाने लगता है। ऑटो अब धीमी रफ्तार से आगे बढ़ रहा है और अगले 20 मिनट में श्री  और वसन  नमो घाट पहुँच गए हैं।
वसन - "देखो, तुम पक्का ठीक हो ना? चाहो तो वापस जा सकती हो.."
वसन  ऑटो वाले को भुगतान करते हुए पूछता है।
श्री - "वाह दोस्त, तुम तो बड़े स्मार्ट हो। मैं तुम्हें यहाँ लेकर आई और अब तुम मुझे ही यहाँ से जाने का पूछ रहे हो... सही है, फिर खुद अकेले घूमोगे.."
यह सुनने के बाद वसन  और कुछ नहीं बोलता और सीधे आगे बढ़ जाता है।
नमो घाट, वाराणसी का सबसे युवा घाट है और विश्व के सबसे बड़े घाटों में से एक। इसकी आधारशिला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा रखी गई थी और यह 21000 वर्ग मीटर में फैला हुआ है। घाट पर टूरिस्ट्स के लिए कैफेटेरिया, पार्किंग लॉट, और व्यूइंग डेक जैसी सभी सुविधाएँ मौजूद हैं।
श्री  ने इंटरनेट से मिली ये सारी जानकारी वसन  को दी और अब वह भागकर नदी के पास जाकर उन तीनों स्कल्पचर्स को देख रही है जो आधुनिक कला के साथ-साथ, हिंदुस्तानी संस्कृति के भी प्रतीक हैं। वसन  भी श्री  के पास आ जाता है और उसे फोटोज क्लिक करते हुए देखने लगता है।
"स्माइल.." श्री  वसन  के सामने आकर उसका पिक्चर क्लिक करती है और वसन  को यह बिलकुल भी पसंद नहीं आता। वह दूर चला आता है और अब आकर सीढ़ियों पर बैठ जाता है..
वसन - "यह समझती क्या है खुद को? पहले तो बिना बताए यहाँ ले आई और अब..."
श्री - "बड़बड़ाते हुए तो तुम बहुत ही क्यूट लगते हो यार... गुस्सा आ रहा है मुझ पर?"
यह पूछते हुए, श्री  आकर वसन  के पास बैठ जाती है।
वसन - "हाँ आ रहा है.. तुम पर आ रहा है। तुम क्यों ले आई मुझे यहाँ? अरे इंसान की खुद की भी तो कोई मरजी होती है ना.. नहीं आना था मुझे यहाँ। नहीं देखना था मुझे यह सब..."
श्री  गहरी लंबी साँसें लेते हुए, वसन  को भी वही करने का इशारा करती है और इस तरह वसन  का गुस्सा थोड़ा कम होता है। अब वह बैठे-बैठे सामने बैठे एक लड़के और लड़की को देख रहे  है। लड़के ने लड़की के कंधे पर हाथ रखा हुआ है और लड़की बस बोले जा रही है.. लड़का उसे देख रहा है और मुस्कुरा रहा है।
श्री - "सॉरी.. सो सॉरी। तुमने सही कहा कि मैं तुम्हें बिना पूछे ही ले आई और अभी भी तुम मेरी वजह से परेशान हो। आइ थिंक आइ शुड गो . तुम बैठो, और जब सही लगे तब चले जाना वापस।"
श्री  जाने के लिए खड़ी हो जाती है पर वसन  उसका हाथ पकड़कर, उसे बैठने को कहता है,
वसन - "मैं बार-बार तुम पर गुस्सा कर देता हूँ.. असल में यार, मैं ये सब नहीं करना चाहता पर हो रहा है.. और इसी वजह से मैं वापस अपने घर भी नहीं जा रहा। वहाँ सब मुझे बहलाने की कोशिश करेंगे और मैं गुस्सा करता रहूँगा। मैं खुद से खुद को संभालना चाहता हूँ और मैं ये जानता भी नहीं कि मैं खुद को कभी संभाल भी पाऊँगा कि नहीं..."
पता है श्री , मैं यहाँ पहली बार आया हूँ और जब से आया हूँ, लग रहा है कि कितने दिन दूर रहा मैं इस जगह से... यहाँ के लोगों से। कितना प्यार है ना यहाँ सबके पास... और कोई भेदभाव नहीं। उतने ही प्यार से एक साइकिल रिक्शे वाला भी बात करता है जितना की घाट पर बैठा एक संन्यासी, उतने ही प्यार से एक दुकान पर कचोरी दी जाती है जितना की मंदिर में प्रसाद। अब समझ आ रहा है कि क्यों बार-बार यहाँ आने की बात की जाती थी.. क्यों यहाँ के लोगों से मिलने की बात की जाती थी... और मैं? मैं बस लगा रहा अपना काम में, पता नहीं किसको क्या साबित करना चाहता था... दिन-रात बस काम में लगा रहता था... अब सोचने में सब आता है पर अब? अब तो बहुत देर हो गई ना, वापस तो नहीं जा सकता।"
श्री  वसन  के अतीत से अंजान है इसलिए वह अभी पास बैठी कुछ बोल नहीं रही, सिर्फ सुन रही है... पर आखिर क्या है ऐसा जिसकी वजह से वसन  अपने घर तक वापस नहीं जाना चाहता.. क्या उसके साथ कुछ ऐसा हुआ है जिसने उसे बहुत गहरा सदमा दे दिया है? अब जानना यह दिलचस्प होगा कि क्या उसके घर वापस जाने में, श्री  उसकी मदद कर पाएगी या वसन  और श्री  की कहानी किसी दूसरी राह पर मुड़ जाएगी।
 

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