संस्कृति की नौकरी तय हो चुकी थी, यह उसके जीवन के एक नए अध्याय की शुरुआत थी। उसे "बचपन अनाथालय" में केयरटेकर के पद पर काम करना था। यह अनाथालय कानपुर शहर का एक फेमस संस्थान था, जिसे शहर के मशहूर बिजनसमैन माणिक लाल चौधरी ने शुरू किया था। उनका सपना था कि यह अनाथालय उन बच्चों के लिए एक सुरक्षित आश्रय बने, जिनके पास दुनिया में कोई सहारा नहीं है। माणिक लाल उन बेसहारा बच्चों को अपने बच्चों की तरह प्यार करते थे। कई लोग मानते थे कि माणिक लाल ने यह अनाथालय अपनी बच्ची की याद में बनवाया है। उनके सपने को साकार करने में उनके क़रीबी दोस्त कुंवर प्रताप सिंघानिया ने भी बड़ी भूमिका निभाई थी। हालाँकि, कुंवर प्रताप बिजी होने के कारण यहाँ कम ही आ पाते थे, फिर भी उनके योगदान को अनाथालय का हर स्टाफ़ जानता था।

यह बचपन अनाथालय कई सालों से कानपुर शहर के बेसहारा बच्चों का घर बना हुआ था। बच्चों के हेल्थ, पढ़ाई और नौकरी दिलाने तक की ज़िम्मेदारी अनाथालय ने उठा रखी थी और वो इसे बहुत अच्छे से निभा भी रही थी। अब तक अनाथालय से कई बच्चों को अच्छे परिवारों ने गोद लिया था। जिन बच्चों को किसी ने गोद नहीं लिया, उन्हें अच्छी शिक्षा दिलाने की ज़िम्मेदारी भी अनाथालय ने बखूबी निभाई थी। आने वाले दिनों में संस्कृति केयर टेकर के रूप में इस अनाथालय का हिस्सा होने वाली थी।

घर लौटते ही संस्कृति ने अपने पिता दशरथ को खाट पर लेटा पाया। संस्कृति को ख़ुश देख दशरथ उठ बैठा। संस्कृति ने ख़ुशी से अपने पिता को गले लगा लिया।

संस्कृति (भावुक होते हुए) - पापा! मुझे नौकरी मिल गई।

उसने इतना कहा ही था कि दशरथ की आँखों से आँसूं छलक पड़े।

दशरथ (भावुक होते हुए) - भगवान ने हमारी सुन ली। मुझे पूरा भरोसा था तुम्हें नौकरी ज़रूर मिलेगी। बस मुझे….

संस्कृति (थोड़ी हैरान होते हुए) - क्या हुआ पापा आप रुक क्यों गए?

दशरथ (भावुक होते हुए) - मैं तुम्हें अब तक नौकरी करने के लिए मना करता रहा। इसके लिए मुझे माफ़ कर दो। काश! मैं तुम्हें बता सकता कि मैं किन बातों से डरता था। अब मैं ख़ुश हूँ कि तुम्हें नौकरी मिल गई है, तुम्हें एक नई दिशा मिली है, खूब मन लगाकर काम करना।

संस्कृति (थोड़ी उत्साहित होते हुए) - पापा अब हम अपने क़र्ज़ को भी बहुत जल्दी चुका देंगे। साथ ही मैं अपनी पढ़ाई भी पूरी करूँगी और अपनी बहनों की भी मदद करूँगी।

थोड़ी देर तक दोनों ख़ुशी के आँसूं रोते रहें। उसके बाद संस्कृति रात का खाना बनाने में लग गई।

दशरथ (ख़ुशी में) - इस नौकरी के लिए तो बहुत सारे लोग आए होंगे। उनमें से तुम्हारी नौकरी लगना तो सच में भगवान की कृपा है।  

संस्कृति (ख़ुशी में) - पापा! इंटरव्यू के लिए आए तो और भी लोग थे। शुरू में तो सिर्फ़ एक ही पोस्ट की बात थी लेकिन आख़िरी में मेरे साथ-साथ एक और कैंडिडेट को भी उन्होंने सेलेक्ट किया। उसने तो ग्रेजुएशन पूरा कर रखा था। फिर भी भगवान की कृपा से उन्होंने मुझे भी सेलेक्ट किया।

दशरथ (मन ही मन) - भगवान तेरा लाख-लाख शुक्र है। तूने मेरी बेटी को एक नया जीवन दे दिया।

उस रात दोनों ने ख़ुशी-ख़ुशी खाना खाया और फिर सोने चले गए।

सोने से पहले संस्कृति ने बक्से में रखी अपनी कॉपी निकाली और उसमें लिखना शुरू किया,

संस्कृति (ख़ुशी से,)- "मुझे विश्वास नहीं हो रहा कि आज मुझे नौकरी मिल गई है। वह भी उन लोगों के बीच जिनकी क्वालफकैशन मुझसे ज़्यादा थी। ऐसा क्यों हुआ, मुझे नहीं मालूम, लेकिन मैं बहुत ख़ुश हूँ। मुझे नौकरी मिलने से पापा भी बहुत ख़ुश हैं। मैं चाहती हूँ, वो ऐसे ही हमेशा ख़ुश रहें।"

ये लिखकर उसके चेहरे पर हल्की मुस्कान आ गई और वह अपनी जगह पर बैठी लिखती रही। उस रोज बहुत दिनों के बाद उसे चैन की नींद आई। अगले दिन उसकी नौकरी की बात पूरे मोहल्ले में फैल गई। जैसे ही यह बात दिवाकर को पता चली वह तुरंत दौड़ते हुए दशरथ के पास आया और फिर मुँह मीठा करने की बात कहने लगा। दशरथ ने उसके साथ-साथ बाकी मोहल्ले वाले को भी शाम को मिठाई खिलाने का वादा किया। नौकरी की बात से बहुत से लोग ख़ुश दिखाई दे रहे थे लेकिन साथ में कुछ लोग ऐसे भी थे जिनके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। उनके चेहरे को देखकर ऐसा लगता था मानों संस्कृति ने उनके हिस्से की नौकरी छीन ली है।

रेलवे स्टेशन पहुँचकर दशरथ ने नरेश को अपने पास बुलाया।

दशरथ (ख़ुशी में) - नरेश, आज एक बड़ी ख़ुशख़बरी सुनो, संस्कृति की नौकरी लग गई है।

यह सुनते ही नरेश भी ख़ुश हो गया, उसने चिल्ला कर बाकी कुलियों को भी बुला लिया। सभी यह सुनकर बहुत ख़ुश हुए और दशरथ से मिठाई खिलाने की बात करने लगे। इतने में ही नरेश ने अपनी जेब से पैसे निकाले और एक साथी को देते हुए कहा कि इसकी मिठाई ले आओ। संस्कृति सिर्फ़ दशरथ भाई की बेटी नहीं हमारी भी बेटी है। हमारा बस चले तो पूरे कानपुर सेंट्रल स्टेशन पर मिठाइयां बटवा दें। जब तक मिठाई आया तब तक बाकी लोग दशरथ से नौकरी के बारे में और जानकारी लेने लगें।  

दशरथ (ख़ुशी में) - यही पास में ही है एक अनाथालय। हम सभी ने भी सुना ही है “बचपन अनाथालय” का नाम । उसी में केयरटेकर की नौकरी मिली है संस्कृति को।

यह सुनते ही एक ने अनाथालय के मालिक माणिक लाल चौधरी की तारीफ़ की। दूसरे ने अफ़सोस जताते हुए उनकी बच्ची के खो जाने की बात की। उस रोज़ संस्कृति के नौकरी लगने की ख़बर से सभी बहुत ख़ुश  हुए। मोहल्ले में भी मिठाइयां बांटी गई। दशरथ को मालूम था कि मिठाइयों में जो ख़र्च हो रहे हैं वह पैसे कर्ज़दारों के हैं। आने वाले महीने में सारी परेशानियां दूर हो जाएगी बस यह सोचकर उसने अपने हाथ नहीं रोके। हालाँकि संस्कृति समझाती रही कि सभी को नौकरी लगने की मिठाइयां पहले वेतन मिलने पर खिला देगी, मगर किसी ने उसकी बात न मानी। नौकरी की बात सुनकर यमुना, दिव्या और नंदिनी भी बहुत ख़ुश हुई। उनके ससुराल वालों से भी बधाइयां मिली। दशरथ के चेहरे पर जो परेशानी की लकीरें थी वह थोड़ी कम हो गई। अपने केयरटेकर के काम को लेकर संस्कृति के मन में बहुत सी बातें चलने लगी। हालाँकि उसे बच्चों से प्यार था लेकिन केयरटेकर के रूप में काम करना बहुत ही ज़िम्मेदारी की बात थी। नौकरी ज्वाइन करने के एक दिन पहले संस्कृति अपने पिता से बात कर रही थी।

संस्कृति (थोड़ी हैरानी में) - पापा! आपको क्या लगता है, एक केयरटेकर के रूप में मैं अपनी जिम्मेदारी अच्छे से निभा लूंगी? मुझे तो अभी सोच कर डर लग रहा है। ऐसे बच्चों से प्यार होना अलग बात है लेकिन इस जॉब की ज़िम्मेदारी तो बहुत बड़ी लगती है।

दशरथ (समझाते हुए) - अरे! बिल्कुल निभा लोगी ये ज़िम्मेदारी। वैसे भी उन लोगों ने सारी चीज़ें जाँच परख कर चुना है तुम्हें। उन्होंने अपनी तरफ़ से बेस्ट कैंडिडेट ही चुना होगा और जहाँ तक रही ज़िम्मेदारी निभाने की बात, तो इस घर की ज़िम्मेदारी जिस तरह तुमने निभाया है, मैं तो बहुत ही गर्व के साथ कह सकता हूँ कि मेरी बेटी अपनी जिम्मेदारियाँ अच्छे से निभाना जानती है।

अपने पिता का भरोसा देखकर संस्कृति बहुत ख़ुश हुई उसने मन ही मन अपनी ज़िम्मेदारी को पूरी लगन और ईमानदारी से निभाने की कसमें खाई। अगले दिन भी संस्कृति ने ठीक समय पर उठकर पानी भरा, खाना बनाया और नौकरी ज्वाइन करने के लिए ख़ुद तैयार भी हुई। दशरथ पहले निकल गया। संस्कृति ने बाकी बचे और काम भी निपटा लिये। आज घर से निकल कर संस्कृति ने ऑटो नहीं लिया। उसने इंटरव्यू वाले दिन ही अंदाज़ा लगा लिया था कि घर से अनाथालय तक पैदल जाने में कितना वक़्त लगेगा और वो उतने देर पहले ही वहाँ से निकल गई।

वहाँ पहुँचते ही वह सबसे पहले उस ऑफिस में गई, जहाँ इंटरव्यू हुआ था। वहाँ कुछ लोग पहले से ही संस्कृति के स्वागत के लिए खड़े थे। उसके पहुँचने के ठीक बाद वह दूसरी कैंडिडेट भी आई, जिनका सेलेक्शन उसके साथ हुआ था। उसका नाम मेघा था। थोड़ी देर में उन दोनों को काम समझा दिया गया। संस्कृति ने सभी को धन्यवाद कहा और फिर अनाथालय के बच्चों से मिलने गई। बच्चे जहाँ रहते थे, वह एक बड़ा सा हॉल था। बड़े से हॉल में बहुत से बेड लगे थे। सभी बेड पर उनकी गिनती लिखी थी। जैसे ही संस्कृति वहाँ पहुँची, उसे कमरा पूरा खाली दिखाई पड़ा।

संस्कृति (हैरानी में) - मुझे तो बताया था कि बच्चे यही मिलेंगे, लेकिन यहाँ तो कोई भी नहीं है और यह तो लंच की भी टाइमिंग नहीं है। आख़िर बच्चे कहाँ गयें?

वो जैसे ही कमरे से बाहर निकलने लगी, अचानक से उसके कानों में जोरदार आवाज़ गूंजने लगी। सभी बच्चे बेड के नीचे छुपे थे। सभी ने एक साथ चिल्लाया, “वेलकम मैम, बचपन अनाथालय में आपका स्वागत है।” अचानक से इतनी आवाज़ सुनकर पहले तो संस्कृति घबराई, लेकिन जैसे ही उसने पीछे मुड़कर देखा, उसे सब माज़रा समझ में आ गया। बच्चे उसे सरप्राइज करना चाहते थे।

संस्कृति (मन ही मन, गंभीरता से) - यह केयरटेकर बनना इतना आसान भी नहीं होने वाला है।

संस्कृति ने देखा कि सभी बच्चों के हाथ में एक-एक फूल था। सभी बच्चों ने एक-एक करके संस्कृति को वह फूल थमा दिया और साथ ही अपना नाम भी बताया। वो सभी से बहुत प्यार से मिल रही थी। एक-दो जो बहुत छोटे बच्चे थे, उन्हें हाथ मिलाने के लिए वह घुटनों के बल बैठ गई। वे छोटे बच्चे प्यार से आकर उसे गले लगा लेते। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि वो आज पहली बार उनसे मिल रही है । बच्चों के इन्नोसेंस को देखकर वो ईमोशनल हो गई। उसने जैसे-तैसे अपने आप को संभाला और मुस्कुराती रही।

अगले ही पल उसने पाया कि एक बच्चा आकर उससे लिपट गया। लिपटते हुए उसने कहा, "थैंक यू दीदी।" उसने देखा, यह वही बच्चा था जो इंटरव्यू के दिन अपने दोस्तों के साथ खेलते हुए मैदान में गिर गया था और इसे ही चोट लगी थी। उसे देखते ही वो बहुत ख़ुश हुई। उसे गले लगाते हुए संस्कृति ने कहा,

संस्कृति (ख़ुशी में) - "कैसे हो तुम? चोट कैसी है तुम्हारी?"

संस्कृति ने ध्यान से उसके घुटने देखें। घाव के जख्म भर चुके थे, बस चोट के निशान रह गए थे।

नौकरी के पहले दिन ही संस्कृति को एहसास हो गया कि उसका काम इतना भी असं नहीं होने वाला है। संस्कृति ने जिस हौसले के साथ अपनी नौकरी ज्वाइन की थी उसी हौसले और यक़ीन के साथ अपनी ज़िम्मेदारी निभा पाएगी?

जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।

 

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