ध्रुवी ने अचानक एक एल्बम उठाया। उसके पहले पन्ने पर सुनहरे, खूबसूरत अक्षरों में "राजकुमारी अनाया" लिखा था। वह नाम इतनी खूबसूरती से लिखा था कि ध्रुवी की नज़रें कुछ पल तक उस पर ही टिकी रहीं। वह उसे छुए बिना, उसकी खूबसूरती को निहारे बिना नहीं रह सकी। कुछ पल बाद ध्रुवी ने अनाया की ज़िंदगी के पहले पन्ने को खोलकर, उसकी ज़िंदगी के सफ़र पर जाने की शुरुआत की।
ठाकुर कुलदीप प्रताप सिंह का नाम केवल रायगढ़ तक ही सीमित नहीं था, बल्कि दूर-दराज के शहरों तक लोग उन्हें और उनके नाम को बड़ी इज़्ज़त और प्रेम से नवाज़ते थे। ठाकुर कुलदीप को अपने माता-पिता से जो कुछ भी विरासत में मिला था, उससे चार गुना अधिक उन्होंने जीवन के एक पड़ाव में अपनी कड़ी मेहनत और ईमानदारी से अर्जित कर लिया था। हालाँकि, ठाकुर कुलदीप के पिता उनकी इतनी ऊँची कामयाबी देखने के लिए जीवित नहीं रहे थे। उनकी मृत्यु के बाद ही कुलदीप जी ने असल मायनों में अपनी रियासत की सारी बागडोर अपने हाथों में ली थी। उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारियों और फर्ज़ को बखूबी निभाया था।
उन्होंने लोगों के साथ इतना प्रेम और स्नेह रखा था कि हर कोई उनका प्रशंसक था और उनकी इज़्ज़त करता था। उनके मीठे व्यवहार और अच्छाई का ही यह परिणाम था कि उन्होंने बहुत कम समय में लोगों के सहयोग और स्नेह से दिन-दुगनी और रात-चौगुनी कामयाबी हासिल की। छोटी सी उम्र में ही लोग उनके प्रशंसक होने के साथ-साथ उनकी इतनी इज़्ज़त करने लगे थे कि वे जहाँ भी जाते, लोग अदब से उनके सामने अपना सिर झुका लेते थे। उनके एक हुक्म पर सब लोग उनके कहे अनुसार काम करने को तैयार रहते थे। यह सब केवल कुलदीप जी के अच्छे व्यवहार, उनकी समझ और सूझबूझ की वजह से ही था। उन्होंने अपनी रियासत को हर दिन कामयाबी की ओर अग्रसर किया। टेक्नोलॉजी के साथ आगे बढ़ते हुए उन्होंने अपने लोगों की ज़्यादा से ज़्यादा मदद की और हर वह काम किया जो उनकी प्रजा और विरासत के लोगों को रोज़गार दिला सके और उनकी ज़िंदगियों को पहले से कहीं बेहतर बना सके।
कुल मिलाकर कुलदीप जी की रियासत में हर कोई बेहद खुश और सफल रहा। कुलदीप जी ने अपने पिता की मृत्यु के बाद अपनी ज़िम्मेदारियों को न केवल बखूबी उठाया था, अपितु अपनी ज़िम्मेदारियों और रियासत को अपना धर्म समझते हुए अपनी आखिरी साँस तक उन्हें निभाया था। कुछ अरसे बाद उनकी माता का भी देहांत हो गया। हालाँकि, उनकी माता अपने बेटे की कामयाबी और गुणगान की साक्षी रहीं थीं। अपने पिता की मृत्यु के बाद अपनी माँ के आँचल के सहारे ही उन्होंने खुद को संभाला था। लेकिन अपनी माँ के जाने के बाद ठाकुर कुलदीप बिल्कुल अकेले पड़ गए थे। न तो उनके कोई भाई-बहन थे और न ही कोई सगे संबंधी या रिश्तेदार। अपने माता-पिता के जाने के बाद से ही ठाकुर कुलदीप जी ने कहीं न कहीं एक परिवार की कमी महसूस की थी, क्योंकि बहुत ही छोटी उम्र में पहले उनके पिता और फिर उनकी माता का स्वर्गवास हो गया था। हालाँकि, उनके दूर के कुछ रिश्तेदार थे, लेकिन सबका अपना ही मोह और लालच था जिनका कुलदीप जी के जीवन में होना या न होना एक समान ही था।
हालाँकि, एक ऐसा रिश्ता भी था जो कुलदीप जी के लिए परिवार और खून के रिश्ते जितना ही अनमोल और गहरा था, और वह था उनकी दोस्ती का रिश्ता। कहने को तो सुरेंद्र जी कुलदीप जी के मुंशी थे, लेकिन मुंशी से बढ़कर वे उनके लिए उनके दोस्त थे जो उनके साथ हमेशा, उनके हर सुख और दुःख में उनके साथ साये की तरह खड़े रहते थे। उनकी वफ़ादारी और स्नेह की वजह से ही कुलदीप जी के दिल और जीवन में सुरेंद्र जी ने एक अलग और खास जगह बना ली थी। उनका एक खास लगाव हो गया था। वे उनसे अपने मन की बातें साझा कर लिया करते थे और अक्सर किसी भी दुविधा में पड़ने पर वे सुरेंद्र जी से ही सलाह-मशविरा लिया करते थे। भले ही कहने को इन दोनों के घरानों और उनके स्तर में ज़मीन-आसमान का फर्क था, लेकिन फिर भी कुलदीप जी ने सुरेंद्र जी को हमेशा से एक दोस्त और परिवार की तरह ही तवज्जो दी थी। सुबह का वक़्त था और कुलदीप जी अपने बगीचे में बैठे कुछ फाइलें पढ़ रहे थे कि सुरेंद्र जी उनके पास आए। उन्हें देखकर कुलदीप जी ने एक बड़ी सी मुस्कान के साथ उनका स्वागत करते हुए उन्हें बैठने का आग्रह किया जिसे सुरेंद्र जी ने बड़े ही स्नेह के साथ मान भी लिया।
सुरेंद्र जी (कुलदीप जी को देखकर बड़े ही अदब के साथ): खम्मा घणी हुकुम सा!
कुलदीप जी (मुस्कुराकर फाइल बंद करते हुए): खम्मा घणी सुरेंद्र जी। आइए बैठिए!
सुरेंद्र जी (फाइलों की ओर इशारा करते हुए): आप शायद कुछ काम कर रहे थे। मैंने यहाँ आकर आपके काम में खलल तो नहीं डाला ना हुकुम सा?
कुलदीप जी (अपनी गर्दन ना में हिलाते हुए सामान्य भाव से): नहीं, बिल्कुल भी नहीं सुरेंद्र जी। आपने हमें बिल्कुल भी परेशान नहीं किया और न ही हमारे काम में किसी तरह की कोई खलल डाली है। और आपको हमारे साथ इतनी औपचारिकता करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। आप सिर्फ हमारे मुंशी नहीं हैं, बल्कि आप हमारे दोस्त भी हैं। तो आप जब चाहें, जैसे चाहें, जहाँ चाहें यहाँ आ सकते हैं। आपको किसी भी तरह की कोई औपचारिकता निभाने की कोई ज़रूरत नहीं है और न ही किसी की इजाजत लेने की आपको कोई आवश्यकता है।
सुरेंद्र जी (कुलदीप जी की बात सुनकर मुस्कुराकर): यह तो आपका बड़प्पन है हुकुम सा, जो आपने हम जैसे छोटे इंसान को भी इतनी बड़ी उपाधि दी, हमें अपनी दोस्ती से नवाज़ा। यह सच में हमारे लिए हमारा सौभाग्य है!
कुलदीप जी (सुरेंद्र जी की ओर देखकर नाराज़गी जताते हुए): आइंदा आपने अगर ऐसी कोई बात की, तो हम आपसे खफ़ा हो जाएँगे सुरेंद्र। आप जानते हैं कि हम यह पैसा, रुतबा और स्तर इन सब में बिल्कुल भी विश्वास नहीं रखते और न ही हमें इन सब चीजों से कोई फर्क पड़ता है। हमें फर्क पड़ता है तो सिर्फ इंसान के जज़्बातों से, उसके दिल से और उसकी सोच से और हमारे लिए वही सबसे अहम और ज़रूरी भी है। लेकिन अगर आपने दुबारा ऐसी कोई बात की तो हम वाकई में आपसे खफ़ा हो जाएँगे और इस बात को लेकर हम बिल्कुल गंभीर हैं!
सुरेंद्र जी (हल्की सी मुस्कान के साथ अपनी गर्दन ना में हिलाते हुए): नहीं हुकुम सा। आपकी नाराज़गी हमसे झेली नहीं जाएगी। हम आइंदा इस बात को ज़रूर ध्यान में रखेंगे। इसीलिए क्षमा कीजिए हुकुम सा। आइंदा हमसे ऐसी गलती दोबारा कभी नहीं होगी। और सच कहें तो यह सिर्फ हमारा सौभाग्य नहीं है, बल्कि पूरी रियासत का सौभाग्य है कि आप जैसे सोने के दिल वाले हुकुम सा हम सबको मिले!
कुलदीप जी (हँसकर सुरेंद्र जी की ओर देखकर): आपको तो सिर्फ एक मौका चाहिए हमारी वाहवाही करने का!
सुरेंद्र जी (कृतज्ञता भरे भाव से): अब क्या करें हुकुम सा। आप हैं ही इतने अच्छे कि हम चाहकर भी खुद को रोक ही नहीं पाते!
कुलदीप जी (मुस्कुराकर): यह तो सिर्फ आप सबका स्नेह और प्रेम है जो हम आज यहाँ तक पहुँचे हैं। (एक पल रुककर) खैर आप यह बताएँ कि कोई ज़रूरी काम था जो आप इतनी सुबह-सुबह अचानक आए हैं। फैक्ट्री और यहाँ सब ठीक तो है ना?
सुरेंद्र जी (सामान्य भाव के साथ): जी, जी हुकुम सा। सब बिल्कुल ठीक है। लेकिन आज हम आपसे रियासत या बिज़नेस की कोई बात नहीं करने आए हैं, बल्कि हम आज सिर्फ आपके बारे में आपसे बात करने आए हैं!
कुलदीप जी (असमंजस भरे भाव से सुरेंद्र जी की ओर देखकर): हमारे बारे में? मतलब हम कुछ समझे नहीं सुरेंद्र?
सुरेंद्र जी (सामान्य भाव से मगर पूरी गंभीरता के साथ): अभी कुछ देर पहले आपने ही कहा था ना कि हमसे सिर्फ आपका रिश्ता इतना ही नहीं है कि हम आपके मुंशी हैं, बल्कि इससे अलग हम आपके दोस्त भी हैं!
कुलदीप जी (अपनी गर्दन हाँ में हिलाकर हामी भरते हुए): जी, बिल्कुल ठीक कहा है हमने!
सुरेंद्र (गंभीर लहजे के साथ चेहरे पर गंभीरता लिए हुए): तो फिर ठीक है हुकुम सा। तो समझ लें कि आज आपके सामने आपके मुंशी नहीं, बल्कि सिर्फ आपके दोस्त सुरेंद्र बैठे हैं और उसी दोस्ती के नाते आज हम आपसे कुछ माँगना चाहते हैं!
कुलदीप जी (पूरी दृढ़ता के साथ अपनी चुप्पी तोड़ते हुए): आप सिर्फ हमें यह बताएँ कि आपको क्या चाहिए और भरोसा कीजिए हमारा, हम आपको किसी भी चीज के लिए ना कहकर निराश नहीं करेंगे, बशर्ते वह चीज बस हमारे बस के बाहर ना हो!
सुरेंद्र (बड़ी ही सहजता के साथ): वह चीज सिर्फ आपके ही बस में है हुकुम सा!
कुलदीप जी (असमंजस भरे भाव के साथ सोचते हुए): अगर ऐसा है, तो फिर आप बताएँ बस कि आपको क्या चाहिए। हम आपकी वह इच्छा ज़रूर पूरी करेंगे!
सुरेंद्र जी (पूरी उम्मीद भरी नज़रों के साथ कुलदीप जी की ओर देखते हुए): तो हम सिर्फ इतना चाहते हैं कि आप कोई भी सवाल किए बिना या हमें ना किए बिना शाम को हमारे साथ चलेंगे!
कुलदीप जी (असमंजस भरे भाव से): लेकिन कहाँ?
सुरेंद्र जी (कुलदीप जी की ओर देखकर गंभीर भाव से): रुक्मणी जी के घर हुकुम सा!
कुलदीप जी ने रुक्मणी का नाम सुना तो वे कुछ पल के लिए गंभीर होकर बिल्कुल खामोश हो गए।
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