काफी देर ऐसे ही लेटे रहने के बाद जब रागनी उठी तो उसने देखा कि उसके आँसुओं ने तस्वीर खराब कर दी थी, "ओह्ह!! ये क्या हो गया? मेरे लिए यह तस्वीर कितनी कीमती है यह बात तो ये तस्वीर भी नहीं जानती। मुझे यह तस्वीर ठीक करके छिपा कर रखनी होगी, जब आपकी मदद करने पर ही इतना बखेड़ा हो रहा है तो यह तस्वीर देखकर तो ना जाने अम्मी-बाबा पता नहीं क्या करेंगें।" रेहाना ने धीमी आवाज में कहा और फिर रँग उठाकर तस्वीर को ठीक करने लगी।
"आप लोगों को हमने रेहाना की हिफाज़त की जिम्मेदारी दी है तो फिर वह आप लोगों के सामने से गायब होकर इंसानों से कैसे मिली? अब कोई यह मत कहना कि जब वह गयी, उस समय तुम सभी सोए हुए थे। और हाँ खबरदार जो किसी ने भी कोई बहाना ढूँढकर हमें बहलाने की कोशिश की तो उसके लिए अच्छा नहीं होगा।" रेहाना के बाबा अपने सामने खड़े लोगों से बहुत गुस्से से पूछ रहे थे।
"ह...हुजूर!! हम तो यहीँ थे, हमें सच में पता नहीं चला रेहाना जी कब वहाँ चली गयीं। उन्होंने ना तो हमसे कुछ पूछा और ना ही किसी को कुछ बताया।" उनके सामने खड़े सेवकों में से एक ने घुटनों पर बैठते हुए घबराए स्वर में कहा।
"देखो! जो भी हो, लेकिन हम नहीं चाहते की रेहाना फिर कभी उस बस्ती की ओर जाए और इन लोगों से मिले, अगर इस सब से कभी हमारी बेटी किसी मुसीबत में पड़ी तो हम तुममें से किसी को भी नहीं छोड़ेंगे।" रेहाना के बाबा गुस्से से चेतावनी देते हुए बोले।
"हम इस बात का पूरा ख्याल रखेंगे हुज़ूर, हम हर पल उनके साथ ही रहेंगे साये की तरह।" उन लोगों ने फिर से सिर झुकाते हुए कहा और वहाँ से चले गए। अब उनमें से दो-दो लोग बारी-बारी रेहाना के कमरे के बाहर पहरा दे रहे थे, रेहाना जब भी कहीं भी जाती थी उनमें से दो लोग गुप्त रूप से रेहाना का पीछा करते थे।
"उफ्फ! बाबा ने फिर इन खबीसों को हमारे पीछे लगा दिया, अब हम क्या करें? हम चाहते हैं कि जल्दी ही मोहन जी के चित्रों की एक और प्रदर्शनी लगवायी जाए जिससे उनको कुछ और पैसे मिल जायें और उनकी मुश्किल जिंदगी थोड़ी आसान हो जाये लेकिन यहाँ तो बाबा के इन ऐयारों ने हमारी ही जिंदगी मुश्किल कर दी है। हमें कैसे भी करके जल्दी ही यहाँ से निकलकर मित्तल से मिलना होगा और मोहन जी के चित्रों की एक प्रदर्शनी दिल्ली शहर में लगवानी होगी।" रेहाना कमरा अंदर से बन्द करके मोहन का वह चित्र हाथों में पकड़े खुद से बातें कर रही थी; वह चित्र अब पहले जैसे ठीक हो गया था, रेहाना ने उसके रँग ठीक कर दिए थे।
◆◆◆
मोहन के बहुत जोर देने पर मोहन के बड़े भाई सोहन ने एक दुकान खोल ली थी, मोहन ने अपने रहने का कमरा भी ठीक करवा लिया था और बाँस की सीढ़ी हटाकर उसकी जगह अब लकड़ी के पटलों का जीना बन गया था। मोहन के पैसों से घर की हालत काफी ठीक हो गयी थी लेकिन मोहन की भाभी का मुँह अभी भी मोहन की तरफ से सीधा नहीं था, वह अभी भी यही ताना मारती थी कि, "ऐसा क्या सोना जड़ दिया लाला जी ने उस तस्वीर में जो वह हज़ारों में बिक गयी? मुझे तो लगता है कि या तो वह तस्वीरों को खरीदने वाला पागल था या फिर लाला जी ने किसी के घर चोरी की होगी ऐसे तो कोई किसी पर ऐसे रुपये नहीं लुटाता है।"
मोहन का भाई सोहन जब भी अपनी पत्नी की ये कड़वी बातें सुनता उसे बहुत गुस्सा आता और वह अपनी पत्नी को झिड़क देता लेकिन वह बहस करने लगती और सोहन तंग आकर बाहर दुकान पर चला जाता था।
मोहन अपना कैनवास सजाए चित्र बनाने में व्यस्त था, वह एक आम का पेड़ बना रहा था जिसपर मोल आया हुआ था। पेड़ के ऊपर तोते का एक जोड़ा प्रेमालाप कर रहा था और मोहन खुद उस पेड़ के तने से पीठ लगाए बैठा हुआ था, रागनी मोहन की गोद में सिर रखे पेड़ के पत्तों पर लेटी हुई थी और मोहन रागनी की आँखों में देखते हुए पेड़ की टहनी से उसे हवा कर रहा था।
मोहन सुबह से ही इस चित्र को बनाने में लगा हुआ था, उसने दोपहर के खाने के लिए भी मना कर दिया था। मोहन बस अपनी धुन में उस चित्र को पूरा करने में लगा हुआ था।
"हाँ हाँ..., करते रहें इंतज़ार! लाला जी ने बांदी जो लगा रखा है हम; जब उनका मन होगा खायेंगे और जब नहीं होगा तो नहीं खायेंगे। अरे अगर नखरे दिखाने का इतना ही शौक है तो ले आओ अपने लिए कोई जर खरीद, हमसे नहीं होती इनकी लल्लो-चप्पो। जायें करें जो करना है, खाना हो खायें ना खाना हो ना खायें हम इनकी कोई खरीदी हुई गुलाम नहीं हैं जो इनके हुकुम के साथ खाना पकाकर देंगे। सुन मुन्नी! जा कह दे नवाब साहब से की खाना पकाकर रख दिया है, फुर्सत मिल जाये तो निकालकर खा लें।" मोहन की भाभी बहुत जोर-जोर से यह बात कह रही थी जिससे की मोहन सुन ले लेकिन मोहन तो अपने ख्यालों में इतना खोया हुआ था कि उसे सुबह या शाम का कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा था।
तभी मुन्नी जीने से ऊपर आयी और मोहन को पकड़ कर हिलाते हुए बोली, "चाचा! ओ चाचा देथो माँ दुस्सा तल ली है, दलदी थे थाना थाने तलो। अल जे लो अपनी चित्थी दातिया ताता देकल गए हैं।"
"क्या चिठ्ठी! मेरे लिए? लाओ मुन्नी देखूं किसकी है।" मोहन ने कहा और मुन्नी के हाथ से लिफाफा ले लिया।
"तुम जाओ मुन्नी, ये लो टॉफी खाओ और आराम से जाना जीने पर गिरना नहीं।" मोहन ने लिफाफा देखकर खुश होते हुए मुन्नी के हाथ पर टॉफी रखकर कहा और लिफाफा खोलकर चिठ्ठी पढ़ने लगा।
"नमस्कार मोहन जी,
आशा है आप पूरी तरह स्वस्थ और मस्त होंगे। आपको सूचित करते हुए हमें बहुत खुशी हो रही है कि हम आपको आपके सभी नए चित्रों के साथ इसी महीने की तेईस तारीख से सत्ताईस तारीख तक दिल्ली में चलने वाले कला प्रदर्शन के लिए बुला रहे हैं। आपके आने का टिकिट साथ में भेज रहे हैं, आप अवश्य आना। स्टेशन पर हमारी गाड़ी खड़ी रहेगी आप बस ट्रेन से उतर कर स्टेशन के गेट पर आ जायेगा।
धन्यवाद
आपकी प्रतीक्षा में
नरेंद्र मित्तल
"अरे! इतनी जल्दी दिल्ली की प्रदर्शनी?? अभी तो डेढ़ महीना ही हुआ होगा बम्बई की प्रदर्शनी को। मुझे तैयारी करनी होगी, आज बीस तारीख हो गयी है मुझे तो बाईस को ही निकलना होगा।" मोहन ने चिठ्ठी को ध्यान से पढ़ा और फिर लिफाफे से टिकिट निकालकर अपनी डायरी में संभाल कर रख लिया।
"मुझे दिल्ली जाना होगा, कंपनी ने दिल्ली में प्रदर्शनी लगायी है और मुझे भी मेरी तस्वीरों के साथ बुलाया है।" मोहन ने खुश होते हुए अपनी माँ को चिट्ठी की बात बतायी।
"ये तो खुशी की बात है बेटा, मैं तो ऊपरवाले से यही दुआ करती हूँ कि मेरे मोहन की तस्वीरें खूब नाम कमाएं और मेरा मोहन खूब दाम कमाए।" माँ ने ऊपर की ओर हाथ जोड़ते हुए कहा और मोहन को आशीष देने लगीं।
"ये तो है माँ लेकिन मेरे लिए तो नाम ही बहुत है, दाम तो मैं सारे तेरे हाथ में ही लाकर रखूँगा और फिर अपने खर्चे के लिए पैसे माँ से मांगूंगा तेरे आशीर्वाद के साथ। तो ला माँ मुझे दिल्ली जाने के लिए कुछ पैसे दे दे?" मोहन ने मुस्कुरा कर माँ के आगे हाथ फैलाते हुए कहा।
"अच्छा- अच्छा ये ले पाँच सौ रुपये रख ले, अच्छा वापस कब आएगा?" माँ ने हँसते हुए अपने पल्लू से खोलकर पाँच सौ रुपये मोहन के हाथ पर रखते हुए पूछा।
"लौटने का क्या ठिकाना माँ, कम्पनी ने केवल जाने का टिकट भेजा है। बाकी तो वहाँ पहुंचकर ही पता लगेगा माँ कि कितने दिन की प्रदर्शनी है।" मोहन ने जवाब दिया और माँ के दिये पैसे माथे से लगाने लगा।
"पांच सौ रुपये...! माँजी के पास इतने पैसे हैं और हम कभी अपने लिए दो रुपये भी माँग लें तो ये सड़ी सी शक्ल बनाकर कहती हैं कि मैं क्या कोई नौकरी करती हूँ जो मेरे पास इतने पैसे होंगे। वाह रे बूढ़ी! एक बेटे के लिए पांच पैसे नहीं और दूसरे के लिए पांच सौ...?" मोहन की भाभी ठुनकते हुए सोहन से शिकायत करते हुए बोली।
"श:शहः!! धीरे बोल मुन्नी की अम्मा, क्या गज़ब करती है। अरे पागल ये सारे पैसे मोहन के ही हैं, माँ सच कहती है कि उसके पास पैसे नहीं हैं। और अब जब मोहन खुद हमें इतने पैसे देता है, तब भी तुम इन दोनों को ताने मारने से बाज नहीं आती हो। थोड़ा अक्ल से काम लो मुन्नी की अम्मा, मोहन से नाराजगी अच्छी बात नहीं है।" सोहन ने अपनी पत्नी को चुप रहने का इशारा करते हुए कहा।
"मैं कहाँ कुछ कहती हूँ जी, लेकिन ऐसे माँजी को भेदभाव करते देखकर मुझे अच्छा नहीं लगता।" सोहन की पत्नी ने फिर मुँह बनाते हुए कहा।
"अरे!! अब मोहन के पैसे मोहन को देने में कैसा भेद-भाव? मैंने तुम्हें बताया तो कि ये पैसे मोहन ने ही माँ को दिए थे रखने के लिए और अब जब वह दिल्ली जा रहा है तो वापस माँग लिए बस।" सोहन ने फिर वही बात दोहराई।
"अच्छा सुनो ना! आप भी क्यों ना लालाजी के साथ दिल्ली चले जाओ, आखिर पता तो चले कि नवाब साहब कहाँ हेरा-फेरी करके इतने हज़ारों रुपये ला रहे हैं। मुझे तो नहीं लगता कि कोई इन उल्टे-सीधे रँगे हुए कागजों का इतना पैसा देता होगा।" सोहन की पत्नी ने बात घुमाते हुए कहा।
"क्या कहा मैं और दिल्ली?? तुम सच में पागल हो गयी हो मुन्नी की माँ। भला तुम ये क्यों सोचती हो कि मेरा भाई कहीं चोरी कर रहा है या फिर कोई गलत काम कर रहा है? अरे मैंने पिच्चर में देखा है कि कैसे लोग ऐसे ही प्रदर्शनी लगाकर तस्वीरों को लीलाम करके हज़ारों रुपये में बेचते हैं। मैं जानता हूँ ये मोहन को जो बुलाते हैं ना, ये लोग कोई वैसी ही कम्पनी चलाते होंगे। बड़े शहरों में पैसे वाले लोग रहते हैं और उनके लिए इन तस्वीरों की बहुत ज्यादा कीमत होती है।" सोहन ने फिर अपनी पत्नी को समझाने का प्रयास किया।
दो दिन बाद मोहन अपना सूटकेस लेकर दिल्ली के लिए निकला, मोहन के सूटकेस में उसके कपड़े और उसकी पेंटिंग्स के साथ ही पेंटिंग बनाने का सामान भी था। उसके कंधे पर एक झोला था जिसमें माँ ने रास्ते के लिए खाना बनाकर रखा था।
सोहन ने मोहन का सूटकेस साइकिल पर रखा और बोला, "चल भाई तुझे टेंपू में बिठाकर आऊँगा।"
"अरे नहीं भईया मैं चला जाऊँगा, आप क्यों तकलीफ करते हो। आप दुकान संभालो जाकर भैया मैं चला जाऊँगा।" मोहन ने धीरे से कहा।
"अरे नहीं, ये इतना सारा समान लेकर तू अकेला कैसे जायेगा भाई। चल अब जिद मत कर मुझे ये सामान उठाने दे।" सोहन ने कहा और सामान सायकिल पर रखकर टेंपू स्टैंड की ओर बढ़ने लगा, मोहन अपनी छड़ी लिए धीरे-धीरे सोहन के पीछे आ रहा था।
सोहन ने मोहन का सामान टेंपू में रखकर उसे विदा किया, मोहन स्टेशन पहुँचा और सही समय पर उसकी गाड़ी आ गयी।
मोहन गाड़ी में बैठा और पाँच-छः घण्टे में गाड़ी नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँच गयी। जैसे ही मोहन स्टेशन से बाहर आया शम्भूनाथ उसे हाथ हिलाता गाड़ी के पास खड़ा दिख गया।
मोहन मुस्कुराते हुए शम्भूनाथ के पास आया और उसे नमस्कार किया, शम्भूनाथ ने मोहन से हाथ मिलाया और मुस्कुराते हुए दरवाजा खोल दिया, मोहन गाड़ी में बैठा और गाड़ी चल दी।
लगभग आधे घण्टे में ही गाड़ी मोहन को लेकिन एक शानदार होटल पहुँची और शम्भू मोहन को उसके कमरे तक पहुँचाकर वापस चला गया।
मोहन ने कमरे में जाकर स्नान करके कपड़े बदले बदले और फोन उठाकर चाय-नाश्ता अपने कमरे में मंगा लिया।
मोहन एक बार होटल में रह चुका था, वह अब काफी कुछ जान गया था तो अब उसे कोई ज्यादा मुश्किल नहीं हो रही थी। मोहन बाईस की शाम को ही दिल्ली पहुँच गया था, प्रदर्शनी तेईस की शाम को शुरू हो रही थी। मोहन ने कुछ देर आराम करके चाय नाश्ता किया और केनवास सज़ा कर चित्र बनाने लगा, मोहन ने आते समय दिल्ली में एक बहुत सुंदर दृश्य देखा था जिसमें एक लड़का और एक लड़की पार्क में एक पेड़ के नीचे पीठ से पीठ लगाए आँखें बंद किये बैठे हुए थे। उनके आसपास सुंदर-सुंदर फूल खिले हुए थे और उनके ऊपर बीच में एक तितली उड़ रही थी, वह सुनहरे लाल रंग की तितली भी बहुत सुंदर थी। तो बस मोहन यही चित्र बना रहा था, उसने लड़के और लड़की के चेहरे मोहन और रागनी के बनाये थे।
तेईस तारीख शाम को प्रदर्शनी में बहुत भीड़ थी, मित्तल कम्पनी ने बहुत प्रचार किया था जिसपर रेहाना ने काफी खर्च करवाया था, प्रदर्शनी से पहले ही दिल्ली के सभी छोटे-बड़े अखबारों में मोहन की पेंटिंग्स और मुम्बई में उनके ऊँचे दाम पर बिकने की बात कही गयी थी। एक अखबार ने तो चित्रकार मोहन का इंटरव्यू भी छाप दिया था जोकि उसने कभी लिया ही नहीं था।
कुछ ने मोहन की पेंटिंग्स के चित्र भी छापे थे, लोग उन चित्रों को देखकर भी प्रदर्शनी में आये थे और कुछ सच्चे कला प्रेमी भी यहाँ उपस्थित थे।
प्रदर्शनी में मोहन के चित्रों के लिए एक पूरा शानदार हॉल था, बाकी हाल में अन्य चित्रकारों की पेंटिंग्स भी प्रदर्शित की जा रही थीं।
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