श्री - "आप कबसे ये दुकान चला रहे हैं?" कचौरी खाते हुए श्री एक 70 साल के बुजुर्ग से ये सवाल करती है।
दुकानदार - "बाप दादों की दुकान है.. पहले वो बैठते थे, अब हमारे बेटे बैठते हैं।"
श्री - “बहुत बढ़िया.. तो क्या आप मुझे अपनी दुकान की सारी डिटेल्स अच्छे से बताएंगे? कब शुरू हुई.. और ये जो कचौरी है इसकी क्या रेसिपी है... सब कुछ।”
दुकनदार - "हां..हां..।बतायेंगे. दिन में आ जाइये, कचौरी खाइये और सब जान जाइये...''
एक प्यारी सी मुस्कान के साथ श्री ठीक बोलती है और आगे बढ़ जाती है। चलते हुए उसकी नज़र हर एक दुकान और उसकी रखी चीज़ों पर है। कुछ अलग सा लगता है तो वो उसकी तस्वीरें भी ले लेती है।
“आइए मैडम आपको एक नंबर साड़ियां दिखाता हूं।चलो.. चलो हमारे साथ”,
एक लड़का दौड़कर श्री के पास आता है... उसके बाद एक और आता है.. और फिर एक और। मुस्कुराकर वे आगे बढ़ती हैं और एक रुद्राक्ष वाले के पास रुक जाती हैं, सड़क किनारे, जो जमीन पर अपनी दुकान सजाये हुए बैठा है। श्री के रुकने पर भी वो कुछ भी लेने को नहीं कहते पर श्री खुद ही उत्सुक होकर नीचे बैठ जाती है और मालाएं देखने लगती है।
श्री - "भाई जी, ये क्या है?"
"रुद्राक्ष का फल है...घिसेंगे तो रुद्राक्ष निकलेगा।"
श्री - “और इसका क्या महत्व होता है।”
दुकानदार - "जितना हम जानते हैं, पुराणों में रुद्राक्ष को देवों के देव भगवान शिव का स्वरूप माना गया है।" पौराणिक कथा के अनुसार रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान शिव के अश्रु से हुई है। सिद्धांत यह है कि रुद्राक्ष नाम से मनुष्य की मानसिक और शारीरिक परीक्षाएं दूर हो जाती हैं। जो इसे धारण कर भोलेनाथ की पूजा करता है उसे जीवन में अनंत सुखों की प्राप्ति होती है।"
श्री - “ओह.. बहुत दिलचस्प..तो भैया क्या मैं आपकी और आपकी दुकान का एक फोटो क्लिक कर सकती हूँ?”
दुकानदार - "क्या फिल्म बने वाली हैं क्या मैडम..", दुकानदार बड़ी ही जिज्ञासा से पूछता है।
श्री - "ऐसा ही कुछ समझ लीजिये",
श्री इतना कहकर दुकान और उसकी दुकान के कुछ फोटो क्लिक करती है फिर... फलों के ढेर में से एक रुद्राख का फल उठा लेती है और दुकानदार की ओर बढ़ा देती है। दुकानदार उसे घिसकर साफ कर देता है।
दुकानदार - “अरे अरे अरे.. चमत्कार... मैडम जी... एक मुखी रुद्राक्ष निकला है। बहुत कम ही ऐसा होता है... बाबा विश्वनाथ की कृपा शुरू हो गई आप पर... संभल कर रखिएगा इसे।'
दुकानदार की बातें सुनकर श्री खुश हो जाती है और रुद्राक्ष लेकर अपने पर्स में रख लेती है। फिर आगे बढ़ने पर उसकी नज़र एक छोटी बच्ची पर पड़ती है जो आने वाले लोगों से कुछ खाने के लिए मांग रही है। श्री पास की ही एक दुकान से दो कचौरी खरीदकर बच्ची को दे देती है और आने वाली अगली गली में मुड़ जाती है।
काशी विश्वनाथ, मां गंगा, घाट, खाने पीने के व्यंजनों के साथ-साथ बनारस अपनी गलियों के लिए भी जाना जाता है। और अब श्री उन बहुत सी गलियों में से एक की और बढ़ गई है। दीवारों पर सुंदर - सुंदर कला कृतियां बनी हुई हैं, हर मोड़ पर दो रास्ते मिल रहे हैं और रास्ता दिखाने वाले भी कई लोग यहां मौजुद हैं।
“ अगर पहली बार आए हैं तो हम आपको घुमाते हैं.. यहां हाथ से बनने वाली साड़ियों की फैक्ट्री है। देखना चाहेंगी।
श्री के हाथ में कैमरा देख कर, ये व्यक्ति उसके पास आता है और उसे अपनी फैक्ट्री दिखाने की बात करता है। श्री हां में सर हिलाकर, उसके पीछे चलने लगती है।
"जब हम बच्चे थे, तब से गलियों में आने वाले मुसाफिरों को अपनी फैक्ट्री दिखा रहे हैं।"
श्री - “मतलब आपका काम ही ये है.. फैक्ट्री दिखाना?”श्री अचंभित होकर पूछती है।
"फैक्टरी ही हमारी है और काम कारीगर करते हैं...पर अब मालिक की कुर्सी पर बैठने में वो आनंद कहां है जो आप जैसे नए - नए मुसाफिरों से मिलने में हैं...आप जगह - जगह घुमने जाते हैं और हम यहीं, बनारस में रहकर, पूरा हिंदुस्तान घूम लेते हैं...अंतर बस इतना सा ही है!”
श्री - "बातें अच्छी करते हैं आप",
श्री फैक्ट्री में घुसते हुए, उनकी ओर देखकर बोलती है। फिर ये जनाब अपनी फैक्ट्री में हो रहे हैं हर काम को विस्तार में समझा, समझाकर उसे साड़ियां कैसे बनाती हैं बताते हैं। और अब बात आती है साड़ी खरीदने की.. तो श्री उन्हें दोबारा फिर आने का कहकर वहां से बाहर आ जाती है।
तभी श्री का फोन बजता है
श्री -“हैलो..हैलो..”
राजीव – “हैलो श्री .. हाउ आर यू , हव यू रीच्ड बनारस?
श्री - “हां राजीव. मैं कल पहुंची. मैं ठीक हूँ।"
राजीव - "बहुत बढ़िया.. बढ़िया!!.. तो काम शुरू हो गया?"
श्री - “हां..हां. आज से शुरू कर दिया है।”
राजीव -“तुम तो बड़ी अच्छी हिंदी बोल रही हो.. शाबाश.!!”
श्री - “3 महीने की पूरी ट्रेनइंग राजीव।”
राजीव - "ठीक है फिर.. मुझे अपडेट रखना ।" बताती रहना. बाकी मैंने तुम्हें कुछ विवरण मेल कर दिया है…तुम्हें मदद होगी रिसर्च में।”
श्री - "धन्यवाद.. बहुत बहुत धन्यवाद राजीव.. मैं अपडेट करती रहूंगी।"
बात करते-करते श्री दो गलियां पार कर उस जगह आ गई है जहां से उसे गंगा मां दिख रही हैं। आगे बढ़कर, श्री कुछ सीढ़ियाँ उतरती है और छाँव देखकर वहीं एक सीढ़ी पर बैठ जाती है। कुछ सीढ़ियां नीचे ही उसे एक लड़का पंडित जी के साथ बैठा हुआ दिख रहा है और जैसे - जैसे पंडित जी उसे करने को कह रहे हैं.. वो वैसा - वैसा करता जा रहा है।
श्री - “ये पूरा शहर ही कुछ और है.. कितना कुछ है यहाँ।” हर नया आदमी कुछ नया बता जाता है। आने जाने वाले सबके लिए कितना प्यार है यहां के लोगों में.. हा हा हा... और मैं ये बोल रही हूं, जिसका पूरा सामान यहां कदम रखते ही चोरी हो गया था... पर उसके बाद सब कितना अच्छा हुआ। सुजाता माई, रवि भैया, कचौरी वाले दादा, साड़ियों की फैक्ट्री, सुबह की ऑटो.. शेयरिंग इज़ केयरिंग.. हा हा ए.. और वो आंटी..उनके सवाल और सबके साथ वो अजनबी। वो हुड वाला लड़का. मेरा सामान बचाया, आरती में उसके विज़्डम वर्डस और फिर आज के दर्शन। उसे तो मिलना चाहूंगी में..”...
श्री को खुद से ही बातें करते देख, पंडित जी का ध्यान उस पर चला जाता है।
पंडित जी - "काशी की महिमा निराली है... यहां आकर आदमी अपने आप से भी बड़ी जोर-जोर से बात करने लगता है",
पंडित जी के ये शब्द सुनते ही श्री सीढ़ियां उतरकर नीचे आ जाती है और उनके पास बैठ जाती है।
श्री - "लो आ गई आपके पास, आप से बातें कर लेती हूं.. ज़ोर ज़ोर से।"
"शश्श.. पूजा चल रही है", पंडित जी सामने बैठे लड़के की तरफ देखते हुए कहते हैं, जो हाथ जोड़कर, आंखें बंद कर, कहे अनुसार, जाने वाले को याद कर उसकी मुक्ति की कामना कर रहा है। श्री उठकर अब थोड़ा दूर बैठ जाती है और एक टक उस लड़के को देख रही है। कुछ ही देर में पूजा संपन्न होती है और पंडित जी उठकर, अपना सारा सामान लेकर वहां से चले जाते हैं। वो लड़का उठकर, वहीं श्री से दो हाथ दूर बैठ जाता है।
वसन - "दर्शन सही से हो गए थे ना?", लड़का पूछता है।
श्री - "हां.."
श्री झट से हां में जवाब दे देती है पर उसकी बत्ती 2 मिनट बाद जलती है।
श्री - “हां.. .. दर्शन? तुम्हे कैसे पता?”
फिर वो लड़का श्री की ओर देखने लगता है। वही काली भूरी आंखें, बड़ी बड़ी पलकें...पर इस वक्त मुंह पर मास्क नहीं लगा हुआ है।
श्री - “ऊऊऊऊ अब आया समझ. तुम वही हो ना हुडी वाले. रहस्यमय आदमी।”
वसन - “हैलो.. मैं वसन हूं। वसन मल्होत्रा।”
वसन हाथ आगे बढ़ाते हुए खुद का परिचय देते है और इस तरह अब हुडी वाले लड़के को एक नाम मिल गया है। नाम कितना कुछ सरल बना देता है। एक अजनबी को जान पहचान दिलवा देता है। बोलने बुलाने को आसान बना देता है और जब कोई किसी को उसके नाम से बुलाता है तो दो अजनबियों को भी अपनेपन से मिलवा देता है।
श्री हाथ मिलाती है और अपना नाम बताती है,
श्री - “नमस्कार. मैं श्री हूँ. श्री अय्यर।”
श्री का नाम जानने के बाद, वसन फिर सामने बह रही गंगा की ओर देखने लगता है।
श्री - "वो इत्तेफाक ही था ना?"
वसन - "तुम्हें क्या लगता है?"
श्री - “मुझे लगता है की..”
वसन - "क्या लगता है?"
श्री - "मुझे लगता है कि तुम मेरा पीछा कर रहे थे।"
वसन - "अगर ये मानने में ख़ुशी मिलती है तो ये मान लो..",
वसन अब श्री की आंखों से आंखें मिलाकर कहता है।
श्री थोड़ी असहज हो जाती है और इधर उधर देखते हुए बोलती है,
श्री - “मतलब कि वो सब इत्तेफाक था. नाउ आइ गोट’इट।”
धीरे से "ह्म्म्म्म" कर वसन फिर पानी की ओर देखने लगता है और फिर एक सन्नाटा पसर जाता है। पर श्री तो श्री है...उठकर खड़ी हो जाती है और हाथ बड़ाकर वसन को उठाती है। वसन उसका हाथ नहीं पकड़ता पर उठकर खड़ा हो जाता है। फ़िर श्री 5 -7 सीढ़ियां और उतरती है और पानी में पाँव डालकर बैठ जाती है। मुड़कर देखती है तो वसन उसे दूसरी ओर जाता हुआ दिखता है पर जो पंडित जी अभी पूजा संपन्न करवाकर सीधे हाथ की ओर चले गए थे, वो आते हुए दिखते हैं.. दरसल भागते हुए दिखते हैं। इस बार पंडित जी के साथ कोई नया व्यक्ति है।
पंडित जी - "अरे अच्छा हुआ आप मिल गयीं.." हांफते हुए पंडित जी श्री से बोलते हैं।
श्री - "प्रणाम पंडित जी... आराम से.. पहले सांस ले लीजिये..",
श्री हाथ जोड़कर खड़ी हो जाती है।
पंडित - "एक मदद चाहिए आपकी?"
“सुना है यहाँ तो सब आपकी मदद लेने आते हैं। पर आप तो कह रहे हैं आपको मेरी मदद चाहिए। बताइये?”, श्री थोड़ा इतराकर पूछती है।
पंडित- “अभी कुछ देर पहले जिनके लिए हम पूजा कर रहे थे, वो यजमान का मोबाइल गलती से हमारे साथ- सामान में आ गया है। आप जानती हैं ना उन्हें.. हमने देखा आपको वहां दूर से.. उनसे बात करते हुए... तो क्या आप उनका मोबाइल उन्हें दे देंगी?”,
इतना कहकर पंडित जी वसन का मोबाइल फोन श्री के हाथ में रख देते हैं और इसे पहले श्री हां या ना में जवाब दे, पंडित जी अपने दूसरे यजमान के साथ आगे बढ़ते हैं।
वसन का फोन बजता है ,श्री फ़ोन उठाती है और फ़ोन उठाते से हाय,
औरत ... "हैलो वसन ... बेटा.. कहां है तू?" कुछ बोल ना. कबसे तुझे फोन मिला रही हूँ । देख घर आजा... मैं जानती हूं तू ठीक नहीं है.. अब होनी को कौन टाल सकता है वसन .. पुत्तर घर आजा..''
श्री जवाब देने को ही होती है कि उसके हाथ से फोन लेकर कट कर दिया जाता है...
वसन – “क्या समझती हो तुम खुद को? किसी से भी कभी भी बात कर लेती हो.. क्यों उठाया फ़ोन? तुम्हारा फोन है ये... हम्म तुम्हारा फोन है? बेवकूफ़.. ",
वसन गुस्से में बहुत कुछ बोल देता है और उसके गुस्से का नतीजा इस वक्त श्री की आंखों में दिख रहा है...जिनमें से टप-टप कर एक - एक आंसू नीचे गिरने लगा है।
क्या है ऐसा जो वसन को परेशान कर रहा है? क्या श्री फिर कभी वसन से मिलेगी? क्या है कहानी वसन की.. ये तो आगे बढ़ते - बढ़ते ही पता चलेगा तो चलते रहिए मेरे साथ और जानिये कि आगे क्या होता है...।
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