श्री को रोता देख वसन कुछ नहीं बोलता और वहीं एक सीढ़ी पर बैठ जाता है। श्री अपने आंसुओं को पोंछ कर आगे बढ़ने लगती है कि वसन अब बोल पड़ता है,
वसन - "आसान नहीं है ये सब.."
श्री पलटती है और वसन की तरफ देखती है। फिर वहीं बैठ जाती है.
वसन - ''वो चाहते हैं कि मैं आगे बढ़ जाऊं। क्या यह इतना आसान है?”,
वसन श्री की ओर देखकर पूछता है। और श्री एकदम ब्लैंक है उसे नहीं पता की बात किस बारे में हो रही है। वो कुछ जवाब नहीं देती.
वसन – “सौ… सॉरी यार। मैंने तुम पर अपना गुस्सा निकाल दिया। परेशान कर रखा है मुझे फोन कर करके। खैर,यू से तुम यहाँ क्यों आई हो?”
श्री - “ठीक है वसन नो नीड़ टू फ़ील सॉरी. मैं समझती हूं... तुम किसी ना किसी बात से परेशान हो और फिर अच्छा ही है ना कि गुस्सा मुझ पर निकल दिया नहीं तो.. किसी और पर निकलता तो फिर सामने वाला भी दो सुनाता.. फिर क्या पता हाथ उठ जाता और एफआईआर पुलिस.. कोर्ट.. जेल…”
वसन – “अरे बस बस.. तुम तो काफ़ी आगे निकल गई वैसे तुम हमेशा से ही इतना बोलती हो या ये बनारस का रंग चढ़ गया है तुम पर?”,
वसन अब थोड़ा हल्का महसूस कर रहा है और वह श्री से वही पूछ लेता है जो हर मुलाकात में उसने नोटिस कर श्री से पूछना चाहा है।
श्री - “नहीं.. हां.. नहीं.. हां... अरे ये भी क्या सवाल हुआ... वैसे तुम पूछ रहे थे ना कि मैं यहां क्यों आई हूं? ”
“वसन सर हिला कर हां में जवाब दे देता है और फिर श्री एक बार फिर शुरू हो जाती है,
श्री - “तो सुनो.. मैं एक रिसर्चर हूं. अभी-अभी बेंगलुरु की एक एडवरटाइजिंग एजेंसी को ज्वाइन किया है। तो बस काम की शुरुआत ही हुई है बनारस से। यहां की संस्कृति, स्मारक, लोग.. पुराने रीति-रिवाज.. सबके बारे में जानकारी एकत्र कर रही हूं। वास्तव में मुझे हमारे आने वाले अभियान के लिए ये सब जानना है ताकि अच्छे अच्छे आइडेयज में में शहर की यूनीकनेस को यूस कर सकें.. यहां की परंपराएं, वे सभी रंगीन अनुष्ठान, मंदिर और सबसे महत्वपूर्ण यहां के लोग। आए हुए अभी पूरे दो दिन भी नहीं हुए हैं पर इतने अलग-अलग लोगों से मिलना हुआ है कि क्या ही बताऊं...'',
इतना बता कर श्री आखिरकार एक गहरी सांस लेती है।
वसन – “हा हा हा.. वैसे काफी कुछ बता चुकी हो.. थोड़ा आराम कर लो। बाकी का फिर कभी बता देना…”,
इतना बोलते ही वसन उठ खड़ा होता है।
फिर कभी, अगली बार, कोई और दिन... इस तरह के शब्द उम्मीद से भरे होते हैं। फ़िर मिलने की उम्मीद, एक और संवाद होने की उम्मीद, मुलाक़ातों में एक और मुलाक़ात जुड़ने की उम्मीद... और वसन के फ़िर कभी बता देना में भी तो इन दिनों दोबारा मिलने की एक उम्मीद मिल गई है।
"ज़रूर!!" श्री बस इतना ही कहती है और मुस्कुराकर दूसरी ओर बड़ी जाती है। इस तरह बनारस के अभी - अभी बने अपने घर से निकले श्री को पूरे 6 घंटे हो गए हैं और अब वे थोड़ी सी थक गई हैं। इसलिए वो घाट से ऊपर जाते ही कहती है कि अब सीधे घर जाएगी और रिक्शे की खोज में लग जाती है। कुछ ही देर में एक रिक्शा वाला तैयार भी हो गया है और अगले 15 मिनट में, उसने श्री को उसके बनारस वाले घर पहुंचा दिया है।
घर पर पहुँचते ही श्री को सुबह जो हुआ, वो याद आ जाता है और फिर वो सीधे गेट खोलकर, अपने कमरे की ओर बढ़ जाती है। पौधों की गुड़ाई कर रही माई को श्री के आने का पता चलता है तो वो उठकर किचन में चली जाती हैं और एक प्लेट में कुछ बिस्कुट रख देती हैं, गैस पर चाय बनाने के लिए रख देती हैं। उबाल आने पर पूरे घर में तुलसी, अदरक और काली मिर्च की चाय की महक बिखर जाती है। घर में अब एक कमरा श्री का भी है जहां चाय की महक पहूंचते ही...
श्री - “कितनी अच्छी खुशबू आ रही है.. काश एक कप चाय मुझे भी मिल जाती।”
बिस्तर पर लेटे-लेटे एक कप चाय की इच्छा करती श्री की आंखें बंद हैं इसलिए वे ये नहीं देख पाती की सुजाता माई , उसके कमरे के दरवाजे पर ही खड़ी हुई हैं।
माई - “गरमा गरम चाय और बिस्किट तैयार हैं। यहीं रख दें या बाहर बैठ कर पियोगी?”
माई की आवाज सुनते ही श्री उठकर बैठ जाती है और चाय वहीं टेबल पर रखने का इशारा करती है पर वो माई से कुछ नहीं बोलती। माई भी कुछ ना बोलकर, चाय टेबल पर रखती हैं और उसमें से एक कप उठाकर बाहर चली जाती हैं। श्री उठती है, चाय पीती है और बिस्तर पर आकर दोबारा लेट जाती है। और फिर कुछ ही देर में उसकी नींद लग जाती है। 2 घंटे की मीठी सी नींद लेने के बाद, श्री उठकर अब बाहर आती है और फूलों के पास रखी कुर्सी पर बैठ जाती है।
"खाना तैयार है.. आजाओ सब।" माई की ज़ोर से आवाज़ आती है। दो दरवाजे खुलते हैं और उनमें से दो लड़के निकलते हैं। वो दोनों श्री को देखकर हैलो बोलते हैं और किचन की ओर चले जाते हैं। माई खाना परोसकर, उन्हें दो थालियां पकड़ा देती हैं। और वो थाली लेकर, अपने-अपने कमरे में वापस चले जाते हैं। इस तरह ऊपर की मंजिल पर बने कमरों से निकल कर चार पांच लड़के लड़कियां और आते हैं, और अपना - अपना खाना लेकर चले जाते हैं। अब माई दो थाली लेकर किचन से बाहर आती हैं और देखती हैं कि श्री अपने कमरे से बाहर आकर बैठ गई हैं।
"बिटिया अंदर कमरे में ही रख दें तुम्हारी थाली", माई ऐसा कहकर.. श्री के कमरे की ओर मुड़ती हैं पर श्री उन्हें रोक देती हैं।
श्री - “नहीं… ना रखें वहां।”
माई - “क्यों बिटिया? खाना नहीं खाओगी? तबियत तो ठीक है ना तुम्हारी?”,
श्री - "हां ठीक है पर मैं खाना अंदर कमरे में नहीं बल्कि बाहर जाकर आपके साथ बैठकर खाऊँगी ",
ये बता कर श्री अपनी थाली माई के हाथों से ले लेती है और वहीं नीचे जमीन पर बैठ जाती है। ये देखकर माई थोड़ी भावुक हो जाती हैं और अपनी थाली वहीं फर्श पर रख कर, जाकर दो आसन ले आती हैं।
माई - "लो बिटिया.. इसपर बैठ जाओ।"
श्री आसन ले लेती है और उस पर बैठकर खाना शुरू करती है। पहला निवाला खाते ही उसके मुंह से वाह निकलता है और वह माई की ओर देखकर उन्हें एक फ्लाइंग किस दे देती है। माई मुस्कुरा कर, उसकी फ्लाइंग किस को स्वीकार कर लेती हूं और फिर शांति से दोनों खाना खाती है।
श्री - “आ आह.. मजा ही आ गया. क्या दाल बनाती हो आप.. इतनी जगह उत्तर भारतीय खाना खाया पर ये उन सबसे अच्छा है माई .. इतना अच्छा खाना बनाने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद। और अबसे में रोज़ आपके ही साथ खाना खाउंगी.. घर में इतने लोग हैं और सब अलग - अलग अपने कमरे में जाकर खाते हैं। इसमें क्या मजा है?”,
बोलते-बोलते श्री अपनी उंगलियां चाटते जा रही हैं। फ़िर वे जाकर अपने बर्तन साफ़ करके रख कर आती हैं और आकर माई के पास बैठ कर उन्हें देखने लगती हैं.. जो कि बड़े ही आराम - आराम से पूरा स्वाद लेकर एक - एक निवाला खा रही हैं। कुछ ही देर में माई खाना खा लेती हैं.. और जैसे ही वे बरतन रख कर अपने कमरे में घुसने को होती हैं, श्री उनका हाथ पकड़कर उन्हें रोक लेती हैं और अपने साथ बैठने को कहती हैं।
श्री - "सॉरी माई ..",
श्री अपने दोनों हाथों से कान पकड़ लेती है और सर झुककर माई के सामने खड़ी हो जाती है।
माई -“सॉरी ? भला वो क्यों बिटिया?”
माई श्री के हाथों को अपने हाथों में लेते हुए पूछती हैं।
श्री - "उस समय आप मेरे साथ चाय पीने आए थे और मैंने तो आपको नमस्कार भी नहीं किया.. वो असल में मैं.."
माई - “हम समझते हैं बिटिया.. थक गयीं थी तुम और फिर मन में हमारे प्रति कई सारी शंकाएं भी तो आ रही होंगी...क्यों?...आ रही थी ना? ”, माई हस कर पूछती हैं।
श्री - “आपने सुबह दरवाज़ा लगा लिया था और फिर खोला भी नहीं.. मैने इंतज़ार भी किया .. आप को आवाज़ भी दी.. मुझे कुछ समझ ही नहीं आया..।क्या मैंने कुछ गलत कर दिया था माई? या क्या मैंने आपसे कुछ ग़लत कहा?”
माई - "जिसके साथ भी ये पहली बार होता है.. उसके मन में ऐसे ही ना जाने कितने सवाल आ जाते हैं.. लोग तो पता नहीं क्या - क्या सोच लेते हैं.. असल में बिटिया हम सुबह के समय ध्यान करते हैं .. वो क्या कहते हैं आप लोग.. मेडिटेशन . इसलिए सुबह अपना समय बातों में या व्यर्थ किसी और काम में ना जाया कर, हम आरती कर सीधे अपनी रसोई में चले जाते हैं.. और वहीं बैठकर ध्यान लगाते हैं... ब्रह्म मुहूर्त में ध्यान करना बड़ा ही लाभकारी होता है बिटिया..मन शांत रहने लगता है… अच्छा महसूस होता है… तुम भी किया करो..”
सुनते ही श्री का जिज्ञासु दिमाग फिर जाग जाता है, "
श्री - तो फिर किचन में ही क्यों?.. मेरा मतलब है कि आप अपने कमरे में भी कर सकते हैं या यहां बाहर फूलों के पास या घर के पीछे वाले हिस्से में, बाहर आसमान के नीचे, खुले वातावरण में।”
ये सुनकर ही माई उठ खड़ी होती हैं और श्री को अपने साथ चलने को कहती हैं। अब दोनो किचन के अंदर आ गई हैं और वहां जाकर श्री देख रही हैं कि किचन में एक और दरवाजा मौजुद है..माई उस दरवाजे को खोलती हैं और श्री को उसमें जाकर आंखें बंद कर कुछ देर बैठने को कहती हैं। माई के कहे अनुसार श्री जाकर आंखें बंद कर बैठ गई है..
और श्री के चेहरे पर शांति महसूस होने के भाव देखकर, माई किचन से बाहर आ गई है और उन्होंने दरवाजा लगा दिया है।
क्या माई का ये खुफिया ध्यान कमरा श्री के लिए कोई चमत्कार लेकर आएगा या मिलेगा कोई ऐसा संकेत जो श्री को कहीं दूर ले जाएगा।
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