शेखर अपने दर्द के साथ इतना खुश रहता था कि कोई अंदाज़ा ही नहीं लगा सकता था, उसे कोई उदासी छू भी सकती है मगर अंकिता ने बार - बार उसके ज़ख्मों को कुरेदा और बोलने पर मजबूर कर दिया। उसकी चीख में इस बार अतीत नहीं था, वह अपने होश खोकर भी अपने आज में था। उसके मुँह से रितिका का नाम नहीं निकला, बल्कि दर्द से घबरा कर वह अंकिता को आवाज़ लगाता है।

दिन भर अंकिता ने उसे अकेला रहने दिया, रात को भी उसका दरवाज़ा देखती रही, पर वह नहीं निकला तो वह चुपचाप जाकर लेट गई। वैसे तो वह चीख उस तक नहीं पहुँची थी पर शेखर का दर्द उसे दिन भर से बेचैन कर रहा था। लेटी तो सोने भी नहीं दे रहा था, आँखें बंद हुई ही थीं कि घबराकर झटके से उठकर बैठ गई। उसे अकेला छोड़ना सही नहीं लग रहा था। वह जानती थी अभी उसे सपोर्ट की ज़रूरत है पर उसे ख़ुद को भी संभालना था। सही ग़लत में उलझी, अंत में वक्त के भरोसे सब छोड़कर शेखर के पास पहुँच गई। दरवाज़ा नॉक किया ही था कि दो सेकंड में वह सामने खड़ा था, जैसे उसे पता हो वह आने वाली है। उसे सामने देखकर उस ने लंबी सांस खींच ली...  अंकिता उस के सामने नॉर्मल रहने की कोशिश कर रही थी।

अंकिता : - ( अंदर आते हुए ) माफ़ करना, आधी रात को तुम्हें परेशान किया। दिन में सो गई थी न, तो अब नींद नहीं आ रही, इसलिए सोचा तुमसे ही कुछ गपशप कर ली जाएं। कल हमें वापस जाना है, बच्चों के लिए शॉपिंग भी करनी है। आज का दिन तो सोने में गँवा दिया, कल सुबह देखते हैं जो मिल जाए…। तुम्हें भी घरवालों के लिए कुछ खरीदारी करनी ही होगी न…???

शेखर के मुँह से एक ही शब्द निकला, “घरवाले?” अंकिता ने जानबूझकर उस को घरवालों की याद दिलाई ताकि उसके कोई घरवाले हैं तो बता पाए कि उनसे क्यों घबराया है, और अगर नहीं हैं तो क्या हुआ था उनके साथ! वह सामने देखते हुए बीते कल में खो गया। “घर तो बर्बाद हो गया, घरवाले कहाँ रहेंगे?” वह आगे बोलने के लिए उसे फोर्स करती है, “कैसे हो गया घर बर्बाद ? किसने तुम्हारा घर बर्बाद किया? मुझे बताओ क्या हुआ था तुम्हारे साथ।” आगे बोलने की कोशिश में शेखर को चक्कर आ रहा था। उस ने पानी दिया और सोफे पर बिठाकर कहा। “अपनी पूरी कहानी सुना दो, तुम्हारा दर्द खत्म हो जाएगा, और इस तरह बार - बार नहीं तड़पना पड़ेगा।” अंकिता ने हिम्मत देने के लिए उस के हाथ में अपना हाथ रख दिया तो वह उसका हाथ सहलाते हुए बोला, ‘’मेरे विश्वास ने सब कुछ बर्बाद कर दिया था। मेरी जिंदगी में आए उस तूफान का सामना, मेरे पूरे परिवार ने किया। कभी नहीं भुला सकता मैं, मेरी जिंदगी की वह  मनहूस घड़ी… जब वह  मेरी जिंदगी में आई। सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था। पैसा कम था लेकिन बहुत सारा सुकून था। पापा के जॉब से जरूरतें पूरी हो जाती थीं। कॉलेज के बाद जॉब मिलना एक सपना लग रहा था , कैम्पस से ही मेरा सिलेक्शन एक कम्पनी में हो गया। एक हफ्ते के अंदर मैं अहमदाबाद शिफ्ट हो गया और ऑफिस के पहले ही दिन, मैं एक लड़की को देखकर दिल दे बैठा। वह अपने काम से काम रखती थी, किसी से बात करते नहीं दिखती, और चेहरे पर हमेशा सुन्दर मुस्कुराहट रहती थी। उसकी मुस्कुराहट सबको अपनी तरफ़ खींचती थी। वहीं से मैंने अपनी बर्बादी की शुरुआत कर दी…!''

वह बोलते - बोलते रो पड़ा। अंकिता सोचने लगी, कोई किसी को याद करने में इतना बेसुध कैसे हो सकता है। तभी उस ने ख़ुद संभाला और अपनी कहानी सुनाना शुरू कर दिया। “उसके चेहरे से नज़र हटाना कितना मुश्क़िल लग रहा था, किसी न किसी बहाने से मैं उसे देख ही रहा था। ऑफिस के बाद जैसे ही वह निकली मैं भी उसके पीछे निकल गया, पर मैं जब तक पहुंचा, लिफ्ट चल चुकी थी। उसके बाद वह गायब हो गई, मैं ढूंढता रहा... इतनी जल्दी वह कहाँ चली गई थी, समझ नहीं आया।” वह अब अपनी कहानी में डूब गया था, उसके चेहरे पर मुस्कान थी जैसे वह लड़की सामने हो… ऑफिस के बाहर खड़ा शेखर उसकी खूबसूरती पर कविताएँ पढ़ने लगा…''क्या बला की ख़ूबसूरती पाई है इसने। यह लड़की सच में किसी जादू की तरह मुझ पर असर कर रही है, देखूं तो बेचैन, न देखूं तो बेचैन, इसकी सूरत नज़र से जाती ही नहीं! अगर इसी तरह रोज़ यह मेरे सामने बैठेगी तो हो गया मेरा काम... बहुत जल्द मुझे भगा दिया जाएगा। अब इसे कौन समझाए, कि वहां बैठ कर यह ऐसे स्माइल देती रही, तो क्या पता कितने लोगों की जॉब खा जाएगी।''

अगले दिन तो ऑफिस जाने की और भी जल्दी थी शेखर उससे पहले पहुँच गया, क्योंकि शेखर उस से किसी बहाने बात करना चाहता था। उसको नज़र भर कर देखना था, उसे जानना चाहता था, मगर वह लड़की अपने काम में लगी रहती थी। ऑफिस से निकल कर जाते हुए शेखर उसे ढूंढता रह जाता और वह अचानक से गायब ही हो जाती। दो चार दिन शेखर ने जल्दी आकर देखा, मगर फिर वह उससे और पहले आने लगी थी। निकलने में भी उसके पीछे जाता लेकिन लिफ्ट से निकलने के बाद वह जैसे हवा हो जाती।

शेखर बेचैन सा यहाँ वहाँ भटकता रह जाता। फिर एक दिन जब वह अपने काम में लगा, लैपटॉप में कुछ देख रहा था तो कानों में एक मीठी सी आवाज आई। उस आवाज से उस का रोम रोम खिल गया।  "हैलो मिस्टर शेखर, आई एम् रितिका रिजवानी"! एक तो वह उसके आने पर हैरान था, दूसरा उसे उसका नाम भी पता था, मगर सबसे ज़्यादा वह खुश था कि वह खुद आई है, बात करने। कुछ फाइल्स निकालते हुए वह उन पर कुछ डिस्कशन करने लगी। वह उसे सारी इंफॉर्मेशन देकर उससे और भी बात करना चाहता था, पर वह फाइल्स उठाकर चली गई।

उसके जाने के बाद शेखर की नजर गई कि वह एक पेपर छोड़ गई। वह आवाज़ देने वाला था तभी उस पेपर के बड़े बड़े शब्दों पर नजर गई जिसमें ऊपर ही लिखा था, प्लीज पढ़कर कुछ रिएक्ट मत कीजिए। ऑफिस से थोड़ा आगे, चार नंबर बस स्टॉप पर मिलिए। उस के लिए तो यह छोटा सा नोट, लव लैटर जैसा था। उसकी तरफ देखा तो वह निश्चिन्त सी अपने काम लगी थी। वह अपने आप से बातें करने लगा, ‘’कहां से मिली इसको यह बला सी खूबसूरती? ऐसी बड़ी बड़ी आँखें...  बिना काजल के ही काली कजरारी नज़र आती हैं। न माथे पर बिंदी है न कोई झुमका, न साज न श्रृंगार, बालों का हमेशा जूड़ा बंधा होता है। झुकी पलकें बेचैन कर देती हैं और अगर एक नजर भी देख ले तो बेहोश कर देती है। यह  सूरत ऊपर वाले की रचना तो नहीं हो सकती, जरूर किसी कवि ने कल्पनाएं लिखकर, प्रार्थना की होगी और उन्हीं कल्पनाओं पर एक रचना की गई होगी जिसे नाम मिला रितिका… रितिका रिजवानी।''

ऑफिस के बाद वह चार नंबर बस स्टैंड पर उसका इंतजार करने लगा। आधे घंटे में रितिका भी पहुँच गई पर मिलने की कोई खास वजह नहीं बताई। वह उस से दोस्ती करना चाहती थी और शेख़र के पास तब कुछ सोचने की फुर्सत ही नहीं थी,झट से दोस्ती के लिए बढ़ाया हाथ थाम लिया। फिर रोज मिलना होने लगा और प्यार में बदल गया। रितिका ने उससे कहा था कि ऑफिस में ज़्यादा बात न करे, ऑफिस को ऑफिस ही रहने दें। एक दिन वह उसे घर लाया और अपनी फैमिली से मिलवाया, उस की बहन अपनी भाभी से मिलकर खुश हो गई।

उस की मां जल्दी शादी करवाना चाहती थी पर रितिका शादी का नाम सुनकर थोड़ा सा घबरा गई और अपने पापा के लौटने तक, उस बात को टाल गई। इस बीच दोनों की करीबी बढ़ती जा रही थी। एक दिन रितिका के घर में बातें करते - करते, दोनों एक दूसरे के बेहद करीब आ गए, अंजाम की परवाह किए बिना, एक दूसरे में खो गए। उस मुलाक़ात को याद करके उस के रोम खड़े हो रहे थे। वह अंकिता के सामने तो बैठा था मगर अतीत में डूबा काँप रहा था। उस ने उसे ज़ोर से हिलाते हुए समझाया।

अंकिता ; - ( सख्त होकर ) होश में आओ शेखर… अपनी हालत देखो! क्या हाल बना लिया है तुमने? अरे तुम गुजरे वक्त की बात कर रहे हो, गुजरे वक्त को वापस नहीं जी रहे हो। अपने आप को इतना कमजोर कैसे पड़ने देते हो तुम, जो बीत गया वह बीत चुका है, अब नहीं लौटेगा। उसे इस तरह दिल में जकड़ कर मत रखो कि तुम अपने गुजरे कल को सोच भी न पाओ। कितना भी गलत क्यों न हुआ हो तुम्हारे साथ, गर्व करो खुद पर कि तुमने सब सहा और हिम्मत से आगे बढ़ गए।

शेख़र ; - ( खोया हुआ सा ) आगे,,, हां ना… हम बहुत आगे बढ़ गए थे अंकिता। वह  दिन रात कुछ नहीं देखती थी, जितनी मुझे उसकी तलब थी उतनी ही वह मेरे लिए तड़प जाती थी। मेरा ज्यादा से ज्यादा वक्त उसके साथ गुजरता था। एक दिन वह  हाथ में कुछ पेपर्स लिए हॉस्पिटल से निकलते दिखी। मैं घबरा गया, उसकी तबियत तो नहीं बिगड़ी है। मैंने रोका, तो मुझे इगनोर करके जाकर गाड़ी में बैठ गई। मुझे उसका व्यवहार अजीब लगाl मुझे विश्वास नहीं हो रहा था मगर मैं उसके पीछे पीछे उसके घर चला गया। और फिर…

अंकित ने उस का हाथ पकड़ लिया। वह आगे बोल रहा था और उसका पसीना बह रहा था… रितिका के पीछे घर पहुँच कर उसने पूछा, “क्या हुआ है रितिका? तुम अस्पताल क्यों गई थीं ? तबियत ठीक नहीं है क्या, काफी थकी हुई भी लग रही हो। कल तो ठीक थीं, क्या हुआ अचानक से?” शेखर की घबराहट देखकर वह भी समझ रही थी कि उसको कितनी फ़िक्र है! सोफ़े पर बैठकर आँखें बंद करके उसने कहा, “घबराओ मत सब ठीक है, कोई प्रॉब्लम होती तो सबसे पहले तुम्हें ही बताती।”

उसे उसकी बात पर विश्वास नहीं कर सकता था क्योंकि उसकी हालत बता रही थी कि वह बीमार है पर अचानक से क्या हुआ? शेखर उसके पास बैठ गया और माथे पर हाथ रखते हुए बोला, ‘’तुम कह दोगी,सब ठीक है और मैं मान लूँगा ? अपने आप को देखो, तुम इस तरह थकी हुई दिखती हो क्या? मुझे बताओ न क्या हुआ, और अगर सब ठीक है तो हॉस्पिटल क्यों गई थीं? मुझे बताने में क्या दिक्कत है तुम्हें? यह तो तुम जानती हो कि मैं तुम्हें इस हाल में अकेला तो नहीं छोडूंगा। इसलिए मुझे बताओ क्या हुआ है…? ‘’

वह ज़िद पकड़ कर बैठ गया। रितिका के बहुत टालने से भी जब वह नहीं माना, तब उस ने हैंड बैग से एक पेपर निकाल कर दे दिया और वापस वैसे ही आँख बंद करके बैठ गई। वह पेपर उस की मेडिकल रिपोर्ट थी, जिसे देखते ही शेखर के माथे पर पसीना आ गया।  वह घबराकर खड़ा हो गया, बेचैन हो कर उस को देखने लगा। रिपोर्ट देखता, फ़िर रितिका को देखता… उसे समझ नहीं आ रहा था क्या करे। आख़िर में वह चिल्लाया… “मुझे कुछ बताना भी जरूरी नहीं समझती तुम…”

क्या हुआ था रितिका को कि शेखर के होश उड़ गए???

क्या शेखर की बर्बादी की शुरुआत थी यह???

जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।

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