काव्या, पूरी तरह से मिट्टी की मूर्ति में बदल चुकी थी और उसकी जगह जिसने ली, जो दिखने में हूबहू काव्या जैसी थी… उसका नाम था, छाया।
छाया ने चारों तरफ़ देखा… उस आँगन में एक तरफ़ उसे सीढियां दिखी, जो कुछ देर पहले तक वहां नहीं थी। उन सीढ़ियों से होते हुए छाया गुफ़ा में ऊपर की तरफ़ आ गयी। ठीक वहीं पर जहाँ से कुछ देर पहले काव्या सीढ़ियां उतरकर नीचे उस खुले आँगन में आई थी।
उधर, मिट्टी की मूर्ति बन चुकी काव्या को अचानक से एक तेज़ धक्का लगा और तभी उसकी आँख खुली। काव्या ने देखा कि वो किसी रेगिस्तान में, रेत के एक बहुत ही ऊँचे टीले पर है। काव्या ने चारों तरफ़ देखा… दूर दूर तक वहां सिवाय रेत के और कुछ नहीं था। काव्या ने दिमाग पर जोर डालते हुए याद किया तो उसे याद आया कि वो तो मिट्टी की एक मूर्ति में तब्दील हो चुकी थी, लेकिन फिर वो यहाँ कैसे आ गयी?... खुद से सवाल करते हुए काव्या उसी तरफ़ चलने लगी जिस तरफ़ उसके पाँव उसे लेकर जा रहे थे… वो किस दिशा में जा रही थी, काव्या को इसका कोई अंदाज़ा नहीं। लेकिन उसने सोचा कि एक जगह रुके रहने से बेहतर है चलते जाना… चलते हुए शायद वो कहीं पहुँच ही जाए। शायद कोई रास्ता मिल ही जाए, इस रेगिस्तान से निकलने का…
दूसरी तरफ़ छाया भी रास्ता ढूंढ रही थी… गुफ़ा से बाहर निकलने का। वो चलते हुए उसी कमरे के बाहर आ गयी जिसमें आदित्य और संध्या अभी भी गहरी नींद में सोये हुए थे। छाया ने दरवाज़ा खोला लेकिन वो खुला नहीं। काफ़ी कोशिश के बाद भी जब दरवाज़ा नहीं खुला तो छाया वहां से जाने लगी तभी पीछे से आई एक आवाज़ ने उसके कदम रोक दिए। रूद्र लौट आया था, उसने छाया को काव्या समझा और रुकने के लिए कहा। छाया ने पलटकर देखा, रूद्र उसके करीब आकर रुका और बोला…
रुद्र: मैंने कहा था ना, जब तक मैं वापस ना आऊँ कोई इस कमरे से बाहर नहीं निकलेगा। तुम्हें पता भी है यहाँ कितना ख़तरा है, एक पल में क्या से क्या हो जाएगा... तुम सोच भी नहीं सकती।
ये सुनते ही छाया बोली कि सोच भी सकती हूँ और जानती भी हूँ कि यहाँ कितना ख़तरा है… लेकिन मुझे अब किसी खतरे की परवाह… जो मैंने देखा है… उससे ज़्यादा यहाँ क्या ही ख़तरा होगा? मुझे बस इस गुफ़ा से बाहर निकलना है… मैं एक पल और यहाँ नहीं रहना चाहती… तुम अगर जानते हो तो मुझे बाहर जाने का रास्ता बता दो, मैं चली जाउंगी।
छाया को हैरानी से देखते हुए रूद्र बोला कि तुम ठीक हो ना काव्या?... कुछ हुआ है क्या?... और तुम्हारे बाकी दोस्त, वो सब तो अन्दर ही है ना?...
छाया ने रूद्र के मुंह से जैसे ही अपना नाम काव्या सुना… वो समझ गयी कि उसका चेहरा अब बदल चुका है। छाया ने रुद्र को सच नहीं बताया, कुछ सोचकर वो कुछ कहने ही वाली थी कि तभी उस कमरे का दरवाज़ा खुल गया। आदित्य और संध्या जैसे ही बाहर आये, काव्या और रूद्र को देखकर उन्हें कुछ तसल्ली हुई। आदित्य ने काव्या को गले से लगा लिया और फिर उसे डांटते हुए बोला…
आदित्य: कमरे से बाहर क्यूँ निकली तुम?... मना किया था कमरे से निकलने के लिए। थोड़ी तो रीस्पान्सबिलटी दिखाओ यार, डर गया था मैं… मुझे लगा तुम फिर से तो कहीं गायब नहीं हो गयी… और श्रीधर… श्रीधर कहाँ है?... वो भी कमरे में नहीं है।
संध्या: क्या हुआ काव्या?... तुम कुछ बोल क्यूँ नहीं रही हो?... ठीक तो हो?... क्या तुम श्रीधर को ढूँढने ही बाहर आई थी?... श्रीधर नहीं मिला क्या?
संध्या के सवाल का छाया के पास कोई जवाब नहीं था, तो उसने कुछ नहीं कहा… श्रीधर के ना मिलने वाले सवाल पर बस हाँ में सिर हिला दिया। सब लोग फ़ौरन ही श्रीधर को ढूँढने के लिए दौड़ पड़े। छाया भी उनके साथ ही थी। सब लोग उसे काव्या समझ रहे थे और छाया ने सोचा कि अभी ऐसा ही चलने देते हैं… जब इतने साल इस गुफ़ा में बिता दिए तो कुछ वक़्त और सही। छाया के रुकने का एक कारण और था और असल में वही इकलौता कारण था… आदित्य… छाया को पहली नज़र में ही आदित्य से इश्क हो गया था। रुद्र और बाकी सब श्रीधर को गुफ़ा में ढूंढ रहे थे। दूसरी तरफ़ श्रीधर, आर्मी हॉस्पिटल में था, वहां रात हो चुकी थी… श्रीधर अस्पताल के बेड पर सोया हुआ था, कमरा खाली था लेकिन अचानक ही श्रीधर की आँख खुल गयी… कमरे में बिलकुल अन्धेरा था… तभी उसे लगा कि वहां सामने कुर्सी पर कोई बैठा है। श्रीधर को लगा ये अजय होगा क्यूंकि अजय ने कहा था कि वो रात में यहीं रुकेगा। श्रीधर ने अजय से लाईट जलाने को कहा। पर सामने बैठा शख्स अपनी जगह से नहीं हिला। श्रीधर के दोबारा कहने पर भी जब कोई हलचल नहीं हुई तो श्रीधर ने लाईट जला दी… जैसे ही रौशनी हुई श्रीधर के होश ही उड़ गए! सामने कुर्सी पर अजय के पिता बैठे थे। उनकी आँखों में गुस्सा था और उनके हाथ में थी एक राइफल… श्रीधर फ़ौरन ही बिस्तर से उठ गया। वो जानता है कि अजय के पिता यहाँ क्यूँ आए हैं। वो ये भी जानता है कि वो क्या करने वाले हैं… श्रीधर जैसे ही उनके पास जाने के लिए आगे बड़ा… अजय के पिता ने उसे वहीं रुकने का इशारा किया… श्रीधर रुक गया। कुछ देर तक कमरे में खामोशी रही… दोनों में से किसी ने कुछ नहीं कहा। श्रीधर नज़रें झुकाए खड़ा था और अजय के पिता गुस्से से श्रीधर को देखे जा रहे थे। फिर उन्होंने राइफल लोड की और बोले - “जिस जंग में, तुम्हारी ज़िद की वजह से मेरे बेटे की जान जाने वाली है… वो जंग अभी हुई नहीं है… उसके होने में अभी वक़्त है… तो मैंने ये तय किया कि अगर मैं आज की रात तुम्हें मार दूं तो भविष्य में होने वाली उस जंग में मेरा अजय नहीं मरेगा। अजय के साथ साथ वो चार सोल्जर और बच जायेंगे जो तुम्हारी ज़िद और तुम्हारे एक गलत फ़ैसले की वजह से मरने वाले हैं। तुम जैसे ज़िद्दी और पागल आदमी को जीने का कोई हक नहीं।”
श्रीधर: मैं आपके सामने खड़ा हूँ… जो चाहे सज़ा दे दीजिये… मैं तो वैसे भी जीना नहीं चाहता… मरने का ख़्याल हर वक़्त मेरे सर पर सवार रहता है। मैं आपका गुनेहगार हूँ… उठाइये बन्दूक और उतार दीजिये इस राइफल की गोली मेरे सीने में… और मुझे… मुझे आज़ाद कर दीजिये… जो काम मैं अब तक अपने हाथों से नहीं कर पाया, वो आप अपने हाथों से कर दीजिये… शायद, तब आप मुझे माफ़ कर पाएं।
श्रीधर के कहे शब्दों का अजय के पिता पर कोई असर नहीं हुआ। वो गुस्से में बोले कि माफ़ और तुझे… तुझे मैं कभी माफ़ नहीं करूँगा, कभी नहीं… और अगर मौत तेरे लिए आज़ादी है… तो ये आज़ादी तेरे हिस्से नहीं आएगी… जा, जीता रह… लम्बी उम्र मिले तुझे और यूँ ही तड़पता रहे तू, ऐसे ही… हर दिन हर पल जैसे मैं तड़पता हूँ… अपने अजय के लिए।
अस्पताल के उस कमरे में मौजूद श्रीधर ने बहुत मिन्नतें की लेकिन अजय के पिता ने राइफल का ट्रिगर नहीं दबाया। वो जानते थे कि असली सज़ा मौत नहीं असली सज़ा तो ज़िन्दगी है… वो ज़िन्दगी जिसमें हम किसी के गुनेहगार होते हैं… जिसमें हमें जीना होता है… अपने लोगों के बिना… जिसमें एक पूरी दुनिया होती है और इतनी बड़ी दुनिया में भी, हम होते हैं… अकेले, पूरी तरह से अकेले… लेकिन श्रीधर अभी पूरी तरह से अकेला नहीं है… उसके पास दोस्त हैं, दोस्त जो उसे सच में चाहते हैं, उसकी फ़िक्र करते हैं… उसके लिए किसी खतरे से भी लड़ सकते हैं। वो कहीं खो जाए तो उसे ढूंढ भी सकते हैं। हालांकि बहुत देर तक श्रीधर को गुफ़ा में ढूँढने के बाद भी जब उसका कोई सुराग नहीं मिला तो आदित्य और बाकी सब लोग थककर एक जगह बैठ गए। किसी को समझ नहीं आ रहा था कि श्रीधर को आखिर कैसे ढूंढें?... संध्या ने बहुत उम्मीद से रुद्र की तरफ़ देखा। उसे यकीन है रूद्र कोई रास्ता ज़रूर निकाल लेगा। रूद्र की बातों से संध्या इतना तो समझ चुकी थी कि रूद्र सिर्फ़ एक टूर गाइड नहीं है… वो कुछ और भी है जो शायद उसकी असली पहचान हो, जिसे उसने सबसे छुपा रखा है। रूद्र की आँखें संध्या से मिलीं तो वो समझ गया कि संध्या उससे रास्ता पूछ रही है, वो रास्ता जिस पर चलकर श्रीधर को वापस लाया जा सके। रूद्र के पास इस समस्या का अभी कोई हल नहीं था… सो उसने ना में गर्दन हिला दी। संध्या निराश हो गयी और तभी छाया जो वहां सबकी नज़र में काव्या थी, उसने कहा - “हम लोग अपना समय नष्ट कर रहे हैं… ये गुफ़ा अपने रास्ते बदलती रहती है… श्रीधर को ढूँढने की जगह अगर हम बाहर जाने का रास्ता ढूंढें तो वो ज़्यादा सही होगा। इस गुफ़ा के अन्दर, किसी के लिए मरने से अच्छा ये है कि समय रहते अपनी जान बचाओ और निकल जाओ यहाँ से। अगर समय हाथ से निकला, तो फिर हमेशा के लिए, हम लोग यहीं बंदी बनकर रह जायेंगे।”
ये सब सुनते ही संध्या बोली…
संध्या: तुम्हारा दिमाग तो ठीक है काव्या, ये क्या बोल रही हो तुम?... श्रीधर हमारा दोस्त है, हम उसे छोड़कर यहाँ से बाहर नहीं जा सकते।
आदित्य: कोई इस गुफ़ा से बाहर नहीं जाने वाला… दोबारा ये बात नहीं होनी चाहिए काव्या और हम साथ मिलकर कोशिश करते रहेंगे तो श्रीधर को ढूंढ ही लेंगे।
छाया को लेकिन ऐसा नहीं लगता। उसने आदित्य से कहा कि हमने कोशिश की तो… क्या मिला, कुछ भी तो नहीं। कहाँ है श्रीधर?...
तभी आदित्य ने कहा कि एक बार फिर कोशिश करके देखते हैं काव्या… सुनो रूद्र, इस बार दो-दो की टीम बनाकर चलते हैं… ऐसे हम गुफ़ा के ज़्यादा रास्तों को कवर कर पायेंगे। मैं संध्या के साथ जाता हूँ… तुम काव्या के साथ जाओ।
छाया को तो आदित्य के साथ ही रहना था तो उसने तपाक से कहा - “नहीं नहीं, मैं तुम्हारे अलावा किसी और के साथ नहीं जाउंगी। मेरा मतलब है… या तो हम सब साथ चलेंगे नहीं तो मैं, मैं आदित्य के साथ ही जाउंगी।”
सब लोग काफी चौंके हुए थे काव्या के इस बर्ताव से। आदित्य को भी लगा की काव्या काफ़ी ज़्यादा अजीब बिहैव कर रही थी। पर इस वक़्त श्रीधर को ढूंढ़ना ज़्यादा ज़रूरी था, सो आदित्य काव्या के रूप में दिख रही छाया की बात मान गया। संध्या, रूद्र के साथ जाएगी और आदित्य, काव्य के साथ। चारों लोग अभी गुफ़ा में ऐसी जगह पर थे जिससे थोड़ा आगे, दो रास्ते निकल रहे थे… श्रीधर को ढूँढने के लिए, आदित्य और छाया पहले वाले रास्ते पर चले गए और संध्या - रुद्र ने दूसरा रास्ता ले लिया। संध्या चुपचाप चल रही थी, वो कुछ परेशान थी, कुछ था जो उसके मन में अटका हुआ था। रूद्र समझ चुका था कि कुछ तो बात है। उसने संध्या से पूछा तो पहले संध्या ने बात टाल दी लेकिन रूद्र के दोबारा पूछने पर संध्या ने बताया कि उसे काव्या कुछ अलग रही है। ये वाली काव्या उसकी सबसे अच्छी दोस्त नहीं हो सकती। और सबसे बड़ी बात तो ये है कि अभी कुछ देर पहले काव्या ने दो बार आदित्य का नाम लिया और दोनों बार उसे उसके पूरे नाम से पुकारा। काव्य और आदित्य बचपन का दोस्त हैं और वो हमेशा से ही उसे आदित्य की जगह आदि कहती है। ये सुनते ही रूद्र रुक गया और उसने संध्या से कहा…
रुद्र: आदित्य की जान खतरे में है… अगर वो लड़की काव्या नहीं है… तो वो…. वो छाया है।
कौन है ये छाया?
क्या रूद्र और संध्या मिलकर, आदित्य को छाया से बचा पाएंगे?
क्या काव्या और श्रीधर, फिर से गुफ़ा में लौट पायेंगे?
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