अपर्णा : प्रिया तुम रुको, मुझे तुमसे कुछ बात करनी है।

अपर्णा के कहने पर प्रिया रुक तो गई थी मगर उसके चेहरे पर परेशानी के भाव साफ नज़र आ रहे थे। वह सोचने पर मजबूर हो गई कि अगर उन्होंने उसके अतीत के बारे में कुछ पूछ लिया तो वह क्या जवाब देगी, मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। अपर्णा तो सिर्फ उसके साथ कुछ समय बिताना चाहती थी। सुषमा की सोच लेकिन अलग थी। वह किचन से अगले ही पल वापस आई और कहा:

सुषमा : (नॉर्मल अंदाज़ से) दीदी दोपहर के खाने में क्या बनाऊँ ?

अपर्णा : (नॉर्मल अंदाज़ से) जो तुम्हारा दिल करे ,वह बना लो।  

उसे भले ही जवाब मिल गया था मगर यह सवाल उसने जान बूझ कर किया था। वह नहीं चाहती कि दीदी नए किरायेदार से ज़्यादा घुले मिले। वह दोनों को आपस में बातें करने का मौका देना ही नहीं चाहती थी। जब इस बात से काम नहीं चला तो उसके शैतानी दिमाग में दूसरी बात आयी। उसने तुरंत कहा:

सुषमा : (तुरंत) दीदी, आज आप घर का सामान खरीदने के लिए बाज़ार जाने वाली थी।  

अपर्णा : (नॉर्मल अंदाज़ से) हां, मुझे बाज़ार तो जाना है। वहाँ सामान खरीदने के अलावा मुझे दूसरा काम भी है। मैं प्रिया को साथ ले जाती हूँ।

अपर्णा ने जैसे ही प्रिया को अपने साथ ले जाने की बात कही, तो सुषमा ने उसे अपने साथ घर के काम में लगाने की बात कह दी। वह समझ ही नहीं पाईं कि सुषमा यह सब उन्हें प्रिया से दूर रखने के लिए कर रही है। उन्होंने आगे कुछ नहीं कहा।

वैसे तो अक्सर बाज़ार से सामान हरि और सुषमा ही लाते थे मगर कभी कभार अपर्णा को जब दूसरा काम होता तो बाज़ार से सामान भी खरीद कर ले आती थीं। इस बहाने उनका बाहर निकलना भी हो जाता था। उनके जाने के बाद प्रिया भी अपने कमरे में चली गई। दोनों के जाने के बाद सुषमा के चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान आई। उसने खुद से बात करते हुए कहा:

सुषमा : (कुटिल मुस्कान के साथ) आज नाश्ते के लिए बोला है तो कल को खाने के लिए बोलेंगे… हम बस इसी काम के लिए रह गए।

अपर्णा को बाज़ार की रौनक देखकर बहुत अच्छा लग रहा था। कल तक जो लोग छोटी मोटी दुकान लगाते थे, आज वह बड़े व्यापारी बन चुके थे। कम सब्जियों को बेचने वाले के पास भी हर तरह की सब्जियां मौजूद थी। जो लोग पुराने थे, वह अपर्णा को एक ही बार में पहचान गए थे।

बहुत से लोगों को उन्हें देखकर सुरेंद्र दादा की याद आ गई। वह जब सब्जी वाली ताई के यहां सब्जी लेने के लिए रुकीं तो ताई ने सीधे राहुल के बारे में सवाल कर डाला। राहुल का नाम लेते ही एक बार फिर दीदी के ज़ख्म हरे हो गए। अब मां थी, अपने बेटे की कमियां तो बता नहीं सकती थी। उन्होंने कहा:

अपर्णा : (दर्द के साथ) वह अपने परिवार के साथ खुश है, हमें और क्या चाहिए।

इस बात पर ताई ने कहा, “बच्चों के साथ यही होता है, जब उनका परिवार बन जाता है तो वह अपने माता पिता को भूल जाते है”। ताई ने बात बिल्कुल सही कही थी। आगे बात करते हुए ताई ने कहा, “इंसान अगर खुद आत्मनिर्भर रहे तो दर्द कम होता है, अब मुझे ही देख लो”। जिस उम्र में ताई को आराम करना चाहिए था वह काम कर रही थी। कम से कम इससे उनके हाथ पैर तो चल रहे थे।  

अपर्णा भी उनकी बातों का सार समझ गई थी। ताई की बातों ने उनके आत्मविश्वास को बढ़ा दिया था। बाज़ार में और भी कई मिलने जुलने वालों ने उनसे इसी तरह की बातें कही थी। सभी लोगों की बात सुनकर उन्होंने फैसला कर लिया कि वह भी कुछ ना कुछ खुद का काम शुरू करेंगी। इसी सोच के साथ वह सामान लेकर घर की तरफ वापस लौट रही थी तो उनकी नज़र बाज़ार के बीच स्थित सिटी बैंक पर पड़ी। उन्होंने बोर्ड को देखा और कहा:

अपर्णा : (नॉर्मल अंदाज़ से) लो, जिस काम के लिए मैं बाज़ार आयी थी, वह तो हुआ ही नहीं।

एक तरफ यह कहकर वह बैंक के अंदर चली गयी थी, तो दूसरी तरफ मटरू बदले की आग लिए बेचैन दिख रहा था। जैसे ही राजू अपने साथियों के साथ उसके पास आया तो वह गुस्से में लाल हो गया। उसने गुस्से में कहा, “तुम लोगों की मेरे पास आने की हिम्मत कैसे हुई, जब तक तुम उस बबलू के बच्चे के पिटने की खबर मुझे नहीं सुना देते, मेरे सामने आए क्यों हो”।

राजू ने डरते हुए कहा, “मुझे खबर मिली है कि वह आसफ नगर छोड़ कर जा रहा है”। आगे कुछ सुनने से पहले वह ज़ोर ज़ोर से हंसने लगा। उसकी हंसी को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे उसकी जीत हो गई हो। उसने हंसते हुए कहा, “अच्छा तो डर के मारे यहां से भाग रहा है, मुझसे तो अच्छे अच्छे डरते है, आखिर बबलू किस खेत की मूली है”।

पूरी बात तो राजू को भी नहीं पता थी। तभी मटरू ने आगे कहा, “जब भी वह वापस आएगा, मैं उससे अपने नुकसान का बदला लूंगा, मेरा बदला अभी अधूरा है”।

तभी रंगा और बिल्ला ने कहा, “अब हमारे लिए क्या हुक्म है बॉस, यह चैप्टर तो यहीं खत्म हो गया”। इस बात का जवाब देते हुए मटरू ने कहा, “मेरे पास तुम्हारे लिए दूसरा चैप्टर है, मैं बहुत जल्दी तुम्हें उसके बारे में बताऊंगा, अभी के लिए तुम लोग जाओ”।

इधर अपने बॉस के कहने पर राजू और उसके साथी चले गए थे तो उधर बबलू ने रोहन को कंपनी के बाहर छोड़ा और जाने लगा। जाने से पहले जिस गरमजोशी के साथ रोहन अपने दोस्त बबलू के गले मिला तो उससे बबलू इमोशनल हो गया। जैसे ही दोनों गले मिलकर हटे तो रोहन की आँखे भी नम थीं। तभी रोहन ने कहा:

रोहन :  (थोड़ा उदास होते हुए) जो भी तूने मेरे लिए किया, वह तेरा एहसान है।

यह सुनकर बबलू ने कहा, “कर दिया ना एक पल में पराया, तू तो मेरे लिए भाई से भी बढ़ कर है”। इस बात पर रोहन की आँखों में आंसू छलकने ही वाले थे कि बबलू ने तुरंत कहा, “जिस तरह शोले फिल्म में जय और वीरू की जोड़ी थी, उसी तरह आसफ नगर में भी एक जोड़ी का नाम होगा और वह नाम तेरा और मेरा होगा, मतलब बबलू और रोहन”। तभी रोहन ने कहा:

रोहन : (कॉन्फिडेंस के साथ) हाँ, मेरे दोस्त, बिल्कुल ऐसा ही होगा।

यह कहकर, वह एक बार फिर बबलू के गले लग गया। इस बार रोहन ने उसे कस के पकड़ लिया था। बबलू ने गले मिले हुए ही कहा, “अब क्या रुलाएगा पगले, इतना प्यार करेगा तो मेरा मुंबई जाना मुश्किल हो जायेगा, और वैसे भी पहले दिन जल्दी पहुंचेगा तो अच्छा रहेगा”, यह कहकर बबलू वहां से चला गया।

पहले ही दिन रोहन को अपने नए ऑफिस में अच्छा लगा। टाइम से पहले पहुंचने पर वह खुश था। उस ऑफिस की सारी देखरेख शर्मा जी करते थे। वह यहां सबसे पुराने थे, स्वभाव से बहुत ही अच्छे आदमी थे। उनका पूरा नाम महेश बाबू शर्मा था मगर लोग उन्हें “शर्मा जी” कहकर ही बुलाते थे। उन्होंने अपनी जिंदगी के तीस साल इस ट्रांसपोर्ट कंपनी को दिए थे।

उन्होंने तब इस कंपनी को ज्वाइन किया था जब इसमें सिर्फ दस लोग ही काम करते थे। आज इस कंपनी में तकरीबन 300 के करीब लोग काम करते थे। ऑफिस में काम करने वाले लोग इतने थे मगर बाहर कितने लोग संपर्क में थे, शायद कोई नहीं जानता था। रुड़की में जितनी भी बड़ी बड़ी मिलें थी, उन सब का ट्रांसपोर्ट का काम यही कंपनी देखती थी।

कंपनी का नाम था विजय ट्रांसपोर्ट। अपने नाम की तरह कंपनी दिन रात, दुगनी और चौगुनी तरक्की कर रही थी। आसफ नगर में इस ट्रांसपोर्ट कंपनी को सबसे बड़ी कंपनी के रूप में पहचाना जाता था। रोहन ने शर्मा जी से कहा:

रोहन :(आदर के साथ) सर, मुझे क्या काम करना है।

शर्मा जी ने तुरंत रोहन को नीचे से ऊपर की तरफ देखा और कहा, “नयी जॉइनिंग है,? रुको, मेरे हाथ में एक ज़रूरी काम है, उसके बाद मैं तुमसे मिलता हूँ। वैसे अगर तुम चाहो तो कैंटीन मैं जाकर कुछ खा सकते हो”।

यह कहकर शर्मा जी अपने एक एम्प्लोयी के साथ चले गए। उनके हाथ में कुछ पेपर थे। रोहन समझ गया कि कुछ ज़्यादा ही इम्पोर्टेन्ट काम होगा। रोहन ने खुद से बात करते हुए कहा:

रोहन : (आहिस्ता से) यहां खड़े होने से अच्छा है कैंटीन में ही चल कर बैठा जाये।

जैसे ही रोहन कैंटीन में पंहुचा तो वहां मौजूद भीड़ को देख कर दंग रह गया। उसने सोचा भी नहीं था कि यहाँ इतने सारे लोग खा पी रहे होंगे। कैंटीन जो चला रहा था, उसे भी फुर्सत नहीं थी। उसके कारीगर लगातार काम में लगे हुए थे। टेबल खाली नहीं होती थी कि उस पर बैठने के लिए, पहले से दो लोग खड़े रहते थे।  

यह तो संजोग अच्छा हुआ कि जैसे ही रोहन ने चाय ली, उसे तुरंत खाली टेबल मिल गई, वह बैठकर चाय पीने लगा। चाय पीने के साथ साथ रोहन की नज़र चारों तरफ घूम रही थी। वह सोच रहा था कि शायद कोई उसकी जान पहचान का मिल जाये मगर ऐसा नहीं हुआ। वहां सभी लोग बिलकुल अनजान थे।

तभी उसके कान में एक आवाज़ आयी, “यार इस कैंटीन को चलाने वाले सही नहीं है, सफाई तो नाम को नहीं होती, कोई अच्छा चलाने वाला होे तो बहुत अच्छी चले ”। तभी एक कड़क आवाज़ आयी, “हमारा ही खाते हो और हमारी ही बुराई कर रहे हो, यह कौन सी अच्छी बात है”। यह सुनकर रोहन चौंक गया।

 

कौन था यह आदमी जिसने कड़क आवाज़ में जवाब दिया?

क्या कैंटीन में कुछ गड़बड़ होने वाली थी?

आखिर प्रिया के अतीत में कोई राज़ छिपा हुआ था?

अपर्णा को बैंक में क्या काम था?

 

जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।

 

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