हजारों सवाल और मन में गजेन्द्र को इंसाफ दिलाने की एकलौती आस लिए रिया और मुक्तेश्वर कुलधरा के खंडहरों में जाने का मन बना लेते हैं।

दूसरी ओर कुलधरा की वीरान हवाएं आज कुछ ज्यादा ही बेचैन थीं, मानों जैसे इतिहास अपने घाव खुद कुरेद रहा हो। भानूप्रताप के टूटे शब्दों और खून से लथपथ चेहरे की गवाही ने रिया और मुक्तेश्वर दोनों के भीतर एक तूफान मचा कर रख दिया था। रिया ने जैसे ही विराज की तस्वीर को जेब में डाला, उसकी आंखों में डर की जगह अब निश्चय की चमक थी। 

उम्मीद का दामन थाम रिया ने फिर विराज को फोन लगाया, लेकिन उसने फिर फोन नहीं उठाया। दस दिन हो चुके थे, रिया और विराज की आपस में कोई बातचीत नहीं हुई थी। लेकन वो अपने डर को खुद पर हावी नहीं होने देती।

“मुझे यकीन है विराज की हिम्मत और उसके वादें पर… वो ठीक भी होगा और गजेन्द्र के केस में सब ठीक भी कर देगा।”

ये ही बड़बड़ाती हुई वो मुक्तेश्वर से पूछती है— "मुक्तेशवर अंकल, क्या गजराज सिंह को एक पल के लिए भी कभी अपने पोते पर तरस नहीं आता, उन्हें अपनी झूठी शान इतनी प्यारी है कि उन्होंने राज राजेश्वर के सच को छिपाने के लिए अपने एकलौते पोते की पूरी जिंदगी दांव पर लगा दी है… आखिर क्यों अंकल..?"

मुक्तेश्वर ने बिना जवाब दिए सिर्फ उसकी आंखों में देखा और फिर धीरे से आगे बढ़ गया। उसके पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था। फिर भी वो खुद से बड़बड़ाते हुए बोला— “जिसने अपने बेटे को अपनी उसी झूठी शान के लिए दर-दर भीख मांगने को छोड़ दिया हो, वो पोते के साथ ऐसा करना से जरा भी नहीं हिचकेगा।”

इतना कहते-कहते मुक्तेश्वर की आंखे छल्क पड़ी, वो रिया को जल्दी सोने और फिर कल कुलधरा के जंगलों में जाने की बात कहकर वहां से चला गया, तो रिया भी अपने कमरे में चली गई।

वहीं दूसरी ओर राजघराना महल के दूसरे कोने में आज, शाम के रंग महल की दीवारों पर गहराने लगे थे। गजराज सिंह, जो कभी हर सभा में सबसे ऊंची आवाज में बोला करता था, आज अपनी ही सांसों की आवाज़ से डर रहा था।

दरअसल कुछ देर पहले ही गजराज सिंह एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में गजेन्द्र के मामले पर झूठी सफाई देकर लौटा था, जिसके बाद से मन पर बोझ और सर में दर्द से गजराज सिंह के कदम लड़खड़ा रहे थे। आलम ये था कि उसे पास की मेज का सहारा लेकर नीचे जमींन पर बैठना पड़ गया। काफी देर तक बैठे रहने के बाद उसने कई बार उठने की कोशिश की, लेकिन अब उसके पैर उसके मन की तरह ही जवाब दे चुके थे।

ऐसे में जब उसने भीखूं को वहां से गुजरते देखा, तो आवाज लगाई, “भीखूं… भी…”

ये कहते-कहते गजराज सिंह ज़मीन पर औंधे मुंह गिर गया। उसकी आंखों के सामने धुंधलापन छा गया। हर बार की तरह आज उसका ‘दायां हाथ’ फड़फड़ा रहा था। भीखूं समय पर वहां था, इसलिए तुरंत गजराज सिंह को उठाया और कार में डाल राजगढ़ के सीटी अस्पताल ले गया, जहां डॉक्टरों ने गजराज की हालत गंभीर देख उसे तुरंत आईसीयू में भर्ती कर लिया। 

इसके बाद डॉक्टरों की टीम मशीनों के इर्द-गिर्द व्यस्त हो गई और गजराज की सांस-सांस पर नजर रखने लगी। तभी खबर मिलते ही राज राजेश्वर भागता हुआ सिटी अस्पताल पहुंचा, तो डॉ. अग्रवाल ने राज राजेश्वर को रिपोर्ट थमाई और गहरी आवाज़ में कहा—

“गजराज सिंह जी को Progressive Supranuclear Palsy है। ये एक तरह की न्यूरोलॉजिकल डिजीज है। धीरे-धीरे शरीर की सारी क्रियाएं बंद हो जाएंगी। जो भी करना है, जल्दी करें…”

डॉक्टर की बात सुन राज राजेश्वर जैसे कुछ पल के लिए सुन पड़ गया। फिर उसने धीरे से गर्दन हिलाई और सिर्फ इतना कहा— “उन्हें अभी तक होश आया या नहीं?”
 
“हां, लेकिन ज्यादा देर के लिए नहीं। मैं बता दूं कि वो ऑपरेशन के बाद बिल्कुल ठीक हो जायेंगे। बस आपकों फिलहाल इन पेपर पर साइन करने की जरूरत है…” 

वो डॉक्टर इससे आगे कुछ कहता उससे पहले गजराज सिंह को फिर से होश आ गया और तभी भीखूं अंदर गजराज के कमरे में आया और झुककर उसके कान में कहता है—

“साहब… रेनू को बुलाना चाहते थे ना? वो बाहर इंतज़ार कर रही है…”

रेनू का नाम सुनते ही गजराज की आंखें खुलीं। वो पथराई हुई निगाहों से छत को देख रहा था। सांसें भारी हो चुकी थीं, लेकिन फिर भी उसने धीरे से होंठ खोलें और बोला — “मुझे माफ करना मेरी बेटी रेनू, मैं तुम्हें आज तक सिंह खानदान की औलाद की तरह अपना नहीं पाया। लेकिन अब मैं तुम्हें यानि रेनू को... बाप की तरह... देखना चाहता हूं। एक आखिरी बार…”
 
गजराज के मुंह से पहली बार बेटी शब्द सुन रेनू का पत्थर दिल जैसे किसी मोम की तरह पिघल गया। ये रेनू अब वह पुरानी रेनू नहीं रही थी। अब उसकी आंखों में सवाल तो थे, पर साथ ही कुछ जवाब और गजराज के लिए प्यार भरी भावना भी उमड़ आई थी।

तभी गजराज ने उसे अपने पास अपने करीब बुलाया। वो कमरे में दाखिल हुई तो सामने बिस्तर पर बेसुध लेटे गजराज को देख उसकी आंखे भर आई। आज पहली बार था कि रेनू को उस आदमी में सिर्फ “गजराज सिंह” नहीं बल्कि कहीं ना कही अपना पिता भी दिख रहा है।

तभी गजराज सिंह ने बहुत धीमी आवाज़ में कहा— “रेनू… मुझे नहीं पता, मैं बाप कहलाने लायक भी हूं या नहीं। पर मुझे अपने आखरी वक्त और इस मौत के साए में अब और झूठ नहीं चाहिए। तुम मेरी बेटी हो… शारदा की कोख से तुमने जन्म लिया था। ये बात मैं अब सबके सामने कहने को तैयार हूं।”

रेनू गजराज के मुंह से ये सुन खुद को रोक नहीं पाती और फूट-फूट कर रोने लगती है। उसकी आंखें से टपकते आंसू उसके मन के भावों को बयां कर रहे थे, लेकिन तभी उसका फोन बजा उसने फोन की स्क्रीन को देखा तो एकाएक उसने खुद को संभाला।

“अब कहने से क्या होगा? जब मां रोती रही… मैं तड़पती रही…लोगों के मुंह से अनाथ होने की गांलिया खाती रहीं। बीच सड़क दो वक्त की रोटी के लिए भटकती रही... तब आप कहां थे?”

ये सुनते ही गजराज की आंखें डबडबा गईं और वो कांपती हुई आवाज़ में बोला— “मैं मजबूर था रेनू… या कहूं, कायर था। शारदा को राजघराने में लाकर इज्ज़त नहीं दे पाया। सब उसे मेरी रखैल कहते थे, और मैनें किसी को कभी नहीं रोका। पर अब… जब सांसें गिन रहा हूं, तो सिर्फ एक चीज़ चाहिए… तुम्हारी और तुम्हारी मां की माफी।”

रेनू ने कुछ नहीं कहा। सिर्फ धीरे से गजराज का हाथ थामा और बोली “अगर मां जिंदा लौट आई… तो फैसला वही करेगी।”

ये सुन गजराज की ब्लड प्रैशर हाई हो गया… और वो चिल्ला दिया, जिंदा लौट आई से क्या मतलब है तुम्हारा रेनू… आखिर कहां है तुम्हारी मां? बोलों कहां है शारदा?

इतना चिल्लाते-चिल्लाते गजराज की सांसे टूटने लगी और तभी डॉक्टरों की एक पूरी टीम भागती हुई आई। उन्होंने आते के साथ रेनू को भीखूं के साथ बाहर कर दिया।

दूसरी ओर गजराज सिंह के इस तमाशे से परे कुलधरा के खंडहर में धूप ढलने लगी थी। रिया, मुक्तेश्वर और भानूप्रताप तीनों एक पुरानी जीप में बैठे खंडहर की ओर बढ़ रहे थे। कि तभी भानूप्रताप ने बीच रास्ते में इशारा किया और बोला— “यहां से आगे हमें पैदल जाना होगा। जीप का जाना मुमकिन नहीं। मैंने कल उन लोगों को भी यहां अपनी गाड़िया रोक आगे पैदल जाते हुए देखा था।”

भानूप्रताप की ये बात सुन रिया ने चारों ओर देखा और वो सहम उठी। चारो दिशायें वीरानी थी, टूटे-फूटे कंगूरे, झाड़ियाँ और अजीब सी खामोशी। जैसे इतिहास ने यहां सांस लेना छोड़ दिया हो। अपने डर को कम करने के लिए रिया ने सवाल किया — “क्या तुमने उस आदमी का चेहरा देखा था, जब वो शारदा मां को पकड़ कर ले जा रहा था?” 

पलटकर भानूप्रताप ने तुरंत कहा— “नहीं… हेलमेट पहना था। लेकिन उसकी चाल में… उसकी आंखों में… कुछ जाना-पहचाना सा एहसास महसूस हो रहा था।”

तभी अचानक से रिया ने एक टूटी दीवार की ओर इशारा किया और बोलीं— “वो देखो… उधर कुछ गिरा है।”

भानूप्रताप झट से दौड़ा और वो जाकर उठा लाया, वो एक छोटी सी माला थी। ये वही माला थी, जो शारदा के गले में रेनू ने खुद पहनाई थी कोर्ट में उसकी पेशी से ठीक पहले। उस माला को हाथ में लेकर रिया ने तपाक से कहा— “मतलब वो यहां थी… और अब… शायद नहीं है।” 

रिया की आवाज कांपी, लेकिन फिर उसने खुद को संभाला और आगे बोलने के लिए वो अपना मुंह खोलती ही है, कि तभी दूर से एक चीख रिया और भीखूं के कानों में पड़ती है, जिसे सुन तीनों चौंक कर उधर भागे।

तीनों जैसे ही वहां पहुंचते है एक पत्थर सरकता हुआ पहाड़ से उनकी तरफ आता है। रिया-मुक्तेश्वर बचाने के लिए इधर-उधर नजर घुमाते हैं, जिसके बाद उसे नीचे एक गुप्त सीढ़ी नज़र आती है। बिना समय गंवाए वे नीचे उतरते हैं, जहां गहरा काला अंधेरा होता है, पर भानूप्रताप के पास टॉर्च है। वो उसे जेब से निकलकर रोशनी में इधर-उधर देखता है। 

इसके बाद जो भानूप्रताप को नजर आता है उसे देख उसकी आंखे फटी की फटी रह जाती है। ज़ंजीरों में बंधी एक महिला, जो इस वक्त बेहोश लग रही थी। भानूप्रताप रिया का हाथ पकड़े उस परछाई के करीब ले जाता है, लेकिन रिया जैसे ही जंजीरों से बंधी उस औरत को देखती है उसकी चीख निकल जाती है— “शारदा! काकी आप… यहां??” 

भानूप्रताप दौड़ता है, ज़ंजीरें खोलता है, और शारदा को दोनों हाथों से पकड़ कर उठाता है। तभी पीछे से कोई आता है— “बहुत अच्छा काम किया, भानूप्रताप। तुमने उन्हें सही लोकेशन तक पहुंचा दिया।”

ये आवाज़ सुन रिया और मुक्तेश्वर भी भौच्चका रह जाते है। और एक साथ पलटते है— "भीखूं तुम… यानी वो हैलमैट मैंन तुम ही थे...”
 
भीखूं पलटकर तुंरत जवाब देता है और कहता है— “बिल्कुल सहीं समझे, वो मैं ही थी...हाहाहाहा”
 
भीखूं की हंसी के बाद सब ने चौंककर पीछे देखा। भीखूं, दो हथियारबंद लोगों के साथ उन लोगों को घेरकर खड़ा था।

तभी रिया एक और सवाल दाग देती है और पूछती है— “तो R कौन है, तुम लोगों में से? क्या तुम ये बता सकते हों?”

रिया का ये सवाल सुनते ही भीखूं अपनी हंसी रोक नहीं पाता और जोर-जोर से हँसता है— “R… सिर्फ एक नाम नहीं। राजघराना की परछाई है, जो हर कदम की खबर रखता है। मुझे गजराज का दायां हाथ कहा जाता था, लेकिन मैंने अब अपना कंधा राजेश्वर को दे दिया है।”

ये सुनते ही भानूप्रताप गुस्से से आगे बढ़ता है और कहता है— “तूने हमें धोखा दिया?”

“नहीं, तुमने खुद को धोखा दिया… दोस्ती में अंधा होकर। अब मैं R हूं… और R का मतलब है... Reset है… ये तो मैं तुम्हें नहीं बताउंगा।”

इतना कह भीखूं ने जैसे ही इशारा किया, उसके दोनों आदमी रिया, मुक्तेश्वर और भानूप्रताप पर बंदूक तान देते हैं। लेकिन इससे पहले कि गोली चलती, एक छाया हवा में लहराती है, जिसे देख रिया चिल्ला पड़ती है— विराज!

उसके हाथ में लोहे की रॉड है और वो बिजली की तरह झपटता है। एक सेकेंड में दोनों गार्ड्स ढेर हो जाते है। जिसके बाद भीखूं भागता है, लेकिन विराज उसका पीछा करता है। हाथ लगते ही विराज उसे एक जोरदार घूंसा जड़ देता है, जिससे उसकी जोरदार चीख निकलती है और भीखूं अंधेरे में गिर पड़ता है।

इसके बार रिया शारदा की सारी रस्सियां खोलकर उसे बाहर लेकर आती है। रिया और भानूप्रताप उसे सहारा देते हैं, लेकिन असली झटका सबको तब लगता है जब विराज घायल होकर वहीं जमींन पर गिर जाता है और बड़बड़ाते हुए कहता है— “वो जो कहते थे ना… ये खेल ‘दायें हाथ’ का है… अब देखो, यही हाथ नफरत नहीं, इंसाफ के लिए उठेगा।”

दूसरी ओर अस्पताल में गजराज की हालत और भी बिगड़ गई, लेकिन उसके कमरे की दीवार पर एक पुरानी तस्वीर लगाई गई— शारदा, रेनू और खुद की।

रेनू चुपचाप उस तस्वीर को देख रही थी। तभी पीछे से एक आवाज आती है— “अब तू ही संभालना इस राजघराना को…”

ये सुनते ही रेनू पलटती है और देखती है कि गजराज की आंखों में आंसू हैं।
 


आखिर क्या चल रहा है गजराज के मन में? 

क्या अब रेनू राजघराना की बागडोर संभालेगी? 

क्या भीखूं के दिमाग में कोई और बड़ा खेल है? 

विराज का ‘दायां हाथ’ वाकई सबकी चालें उल्टी पलट देगा?

जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग। 

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