श्री - “आहम्म आहम्म..!!”,
श्री वसन के पास जाकर खड़ी हो गई है और यूं हाथ उठाकर चायवाले को एक चाय का इशारा करती है। चाय की गुमटी पर यूं हाथों के इशारों में ही तो ऑर्डर दिया जाता है.. कभी एक, कभी दो, कभी चार..
और अपना कुल्हड़ हाथ में लेने के बाद श्री वसन का हाथ पकड़कर उसे साइड में ले आई है,
श्री - “तुम मेरा पीछा वीचा कर रहे हो क्या?”
वसन - (वसन अपना हाथ छुड़ाकर बोलता है,) “तुम्हारी सुई अब भी वहीं अटकी हुई है.. सुनो श्री अय्यर, मैं यहाँ की चाय पीने रोज आता हूँ.. तो मुझे तो लगता है कि तुम मेरा पीछा कर रही हो, जहाँ जाता हूँ मिल जाती हो और अभी तो खुद सामने से चलकर आई हो। एक तो मदद करो और दूसरा इनके ताने भी सुनो.. अरे तुम जानती क्या हो मेरे बारे में.. मुँह खोला और कुछ भी बोल दिया। दो बार बात क्या कर ली, तुम तो सिर पर ही चढ़ गईं।”
श्री को खुद के लिए ये सब सुनना बिल्कुल अच्छा नहीं लगा, इसलिए वो अब कुछ भी नहीं बोलती और वहाँ से चली जाती है.. श्री के जाने के बाद, वसन को रियलाइज होता है कि उसने उसे कुछ ज्यादा ही बोल दिया है। वसन अब उसी ओर जा रहा है जिस ओर श्री गई थी पर श्री उसे कहीं भी नहीं दिख रही है।
वसन - “पता नहीं कहां चली गई.. फिर किसी मुसीबत में ना पड़ जाए…”
श्री को देखते - देखते वसन को वो दूसरा चेहरा एक ठेले के पास गोलगप्पे खाते हुए दिखता है,
वसन - “फिर आ गईं तुम… कल तो भाग गई थी पर आज तो मैं तुम्हें पकड़ कर ही रहूँगा।”
कहते ही वसन उसे पकड़ने के लिए ठेले के पास भाग आया है पर वह वहाँ से भाग कर सामने की गली में मुड़ गई है। वसन अब उसके पीछे भाग रहा है..
वसन - “अभी तो मेरे आगे भाग रही थी, एकदम से पता नहीं कहां चली गई..”,
वसन हांफते हुए.. सीढ़ियों की ओर आ जाता है।
श्री - “ओओओ.. मिस्टर,”, पीछे से आवाज आती है तो वसन मुड़कर देखता है और वह श्री को वहाँ खड़ा पाता है।
श्री - “हाँ.. तुम। अब कौन आया मेरे पीछे?”,
श्री आगे बढ़ने लगती है और जो कुछ भी अभी कुछ देर पहले वसन ने उसे कहा था, उस हर एक बात का वह जवाब दे रही है।
श्री - “मैं पीछा करती हूँ.. हम्म.. मैंने कहा था तुमसे कि मेरा चोरी हुआ सामान लाकर दो मुझे। तुम लाए फिर खुद ही मेरे सवालों का आरती में जवाब देकर चले गए… तुम चाहते तो बोल देते कि नहीं करनी शेरिंग पर विश्वनाथ जाने के लिए तुमने ऑटो शेयर किया और फिर कल.. कल मेरा कैमरा भी तुम ही उस चोर से वापस लेकर आए.. मैं इस सब के लिए बहुत ग्रेटफुल हूँ पर क्या इसका मतलब ये है कि तुमने मेरी इतनी मदद की तो तुम्हें मुझसे कुछ भी बोलने का राइट मिल गया है.. अरे मुझे भी तो मेरी सेफ्टी देखनी है ना.. अगर तुमसे पूछ लिया तो कौन सा गुनाह कर दिया मैंने..”
वसन - “एक बार में कितना कुछ बोल लेती हो तुम..”,
वसन आगे बढ़कर श्री के होठों पर अपनी उंगली रख देता है।
वसन - “मैं तुम्हारा पीछा नहीं कर रहा था.. और ना ही इससे पहले कभी किया… आओ.. बैठो इधर”,
वसन श्री को, साथ आकर सीढ़ी पर बैठने का कहकर वहीं पहली सीढ़ी पर बैठ गया है। पहले श्री थोड़ा इठलाती है और फिर आकर वसन के पास बैठ जाती है।
दोनों कुछ देर सामने बैठें पानी को देख चुप बैठे रहते हैं और फिर वसन श्री की ओर देखने लगता है,
वसन - “देखो.. ना मैं तुम्हें जानता हूँ और ना तुम मुझे पर फिर भी यहाँ आकर पिछ्ले तीन दिनों में हम कई बार टकरा चुके हैं.. और ये वाकई एक इत्तेफाक है और तुम्हें परेशान करने का, या तुमहे डराने का मेरा कोई भी इंटेंशन नहीं है.. और वो सब जो मैंने तुम्हें वहाँ कहा.. उसके लिए "आई ऍम एक्सट्रीमली सॉरी। आई होप" तुम समझ रही हो।”
श्री वसन को देखती है और हम्म कर फिर से पानी को देखने लगती है।
वसन - “अब तो तुमने कितना कुछ एक सांस में ही बोल दिया था और अब? अब सिर्फ एक हम्म.. तुम सच में बहुत अलग हो”, (वसन अब हंसने लगता है।)
श्री - “अच्छे लगते हो हंसते हुए.. इतने इत्तेफाकों में ये पहली बार है कि तुम ऐसे खिल-खिलाकर हंस रहे हो।”
और श्री के ऐसा कहते ही वसन की हंसी गायब हो जाती है।
श्री - “अरे.. बंद क्यों कर दिया हंसना… कहा ना हंसते हुए अच्छे लगते हो।”
वसन अब उदास हो गया है और धीरे से उसके मुँह से निकलता है,
वसन - “हंसने की वजह ही नहीं रही..”।
श्री सुन लेती है और अपना सीधा हाथ बढ़ाकर पूछती है, “दोस्त बनोगे मेरे?”.. वसन दो सेकंड के लिए हिचकिचाता है और फिर श्री से हाथ मिला लेता है। और श्री, एक बार फिर शुरू हो जाती है..
श्री - “अब तुम मेरे दोस्त बन गए हो.. तो अबसे मैं तुमसे कुछ भी पूछ सकती हूँ और तुम बताने से मना नहीं कर सकते। अबसे हम इत्तेफाक से नहीं फोन पर बात कर तय करके मिलेंगे.. अब से तुम बनारस में मेरे ऑफिसियल प्रोटेक्ट्टर हो और मैं तुम्हारी.. अभी देखा था ना.. उस गुंडे की क्या मस्त वाट लगाई थी मैंने। हाँ और एक और सबसे इंपॉर्टेंट बात.. मेरी रिसर्च में तुम मेरी मदद करोगे.. डील पक्की?”
इससे पहले दोस्ती की ऐसी डेफिनिशन वसन ने कभी नहीं सुनी थी, इसलिए वह अब और जोर - जोर से हंसने लगता है और हंसी के साथ अपने दोनों हाथों से श्री को थंब्स अप दिखाते हुए हाँ कर देता है..
श्री - “हाँ अब की ना तुमने दोस्तों वाली बात, ये हंसी ही तो सबसे बेस्ट है। अब बताओ.. क्यों हंसी की कोई वजह नहीं रही?.. मुझे पता है कि ये काफी पर्सनल है, इसलिए पूछने से पहले मैंने तुम्हारी और दोस्ती का हाथ बढ़ाया.. "तुम उदास क्यों हो गए?"
वसन मुँह घुमा कर फिर बैठते हुए पानी को देखने लगता है और बताना शुरू करता है,
वसन - “मैं बनारस का नहीं हूँ। दिल्ली से हूँ और पिछले 2 सालों से लंदन में रह रहा हूँ। यहाँ किसी की विशेस पूरी करने आया था और फिर अब वापस जाने का मन ही नहीं हो रहा.. वापस जाऊँगा तो वही सब.. वही लोग, वही घर और उनकी आँखों में खुद के लिए दया। आइ डोंट वॉन्ट टू सी दैट।”
श्री को वसन की बातें समझ नहीं आ रही हैं, इसलिए वो उसे बीच में टोक देती है और पूछती है,
श्री - “एक मिनट.. देखो मुझे ना ऐसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा है.. तो क्या थोड़ा सा डिटेल में बता सकते हो कि एक्चुअली में हुआ क्या है? क्यों सब तुम्हें वैसे देखेंगे.. दया एण्ड आल। कुछ बहुत गलत हुआ है क्या तुम्हारे
वसन , श्री की आँखों में आँखें डालकर देखने लगता है और फिर श्री के पीछे कुछ दूरी पर उसे फिर वही लड़की दिखाई देती है.. जो उसकी ही ओर देख कर मुस्कुरा रही है.. वसन उठ खड़ा होता है और उसकी ओर चलने लगता है… श्री भी खड़ी हो जाती है और वसन को आवाज देती है पर वो उसकी एक नहीं सुनता। श्री के लिए ये सब बहुत अजीब है.. वो कुछ देर वहीं खड़े रहकर वसन के लौटने का इंतजार करती है और फिर घर वापस जाने के लिए ऑटो ढूंढ़ने निकल जाती है।
“मैडम जी.. आप तो वहीं हैं ना जिसका सामान चोरी हुआ था..”, ऑटोवाला मजाकिया अंदाज में पूछता है और गुमसुम श्री हाँ करके ऑटो में बैठ जाती है।
“अरे मैडम जी, उन चोरों की तो उन भैया जी ने क्या खूब मार लगाई थी.. और फिर पुलिस ने भी अच्छे से पेला … मेरा मतलब है कि अच्छी खबर ली। ना जाने कितनों का सामान पार कर चुके थे वो दोनों।”
श्री - “अच्छा.. और आपको ये सब कैसे पता?”
“अरे.. हम वहीं थे ना। सब देखे थे अपनी आँखों से। अब आपको तो पता ही ना मैडम जी.. देखने वाले तो हर जगह होते हैं पर हाँ कुछ करने वाले कम ही होते हैं और वो भैया जी उनमें से एक थे… वैसे कहाँ जाएंगी?”
श्री - “हाँ वो गोडोलिया चौक से सीधे ले लीजिए और अगले सिग्नल से लेफ्ट में जाकर जो बड़ा गेट आता है वहाँ.. माई.. हाँ मतलब वहीं उस गेट के अंदर..”
“अच्छा.. तो सीधे बोलिए ना माई के घर..”
और इस तरह ऑटोवाले ने श्री को माई की याद दिला दी है। अब श्री अपनी घड़ी देखती है और बज गए हैं रात के 12:40
श्री - “मैंने माई को इंफॉर्म भी नहीं किया.. इतना लेट हो गया। माई क्या ही सोच रही होंगी..”
अगले 20 मिनट में श्री घर पहुँच जाती है और दरवाजा खोलकर दबे पाँव अंदर जा ही रही होती है कि एक आवाज आती है,
माई - “खाना लेकर आ रहे हैं.. हाथ मुँह धोकर आ जाओ।”
ये आवाज किसी और की नहीं माई की ही है। और सुनकर ही श्री जल्दी से कमरे में भाग जाती है, “माई मेरे लिए जाग रही थीं.. यार.. अब जल्दी से चेंज करके जाती हूँ और उन्हें पूरी बात बताती हूँ।”
श्री - “माई मैं आ गई..”
माई - “हम्म, देखा हमने। अब तसल्ली से खाना खा लो”,
माई थाली रखकर पानी लेने चली जाती हैं।
श्री खाना शुरू करती है और देखती है कि आज उसकी फेवरेट आलू की सूखी सब्जी, खीर और पूरी बनी है। माई के आते ही, श्री उन्हें देखती है और बोलने को होती है कि माई चुप रहकर खाने का इशारा कर उसके पास बैठ जाती हैं। अब श्री खा रही है और माई उसे खाते हुए देख रही हैं।
“अच्छा लगा?”, श्री का खाना खत्म होते ही माई पूछती हैं।
श्री - “फाइनली अब मैं बोल सकती हूँ.. इट इस डिलिशस. आपको पता है माई आलू की ऐसी सूखी सब्जी और पूरी मेरी फेवरेट है।”
ये सुनते ही माई मुस्कुरा देती हैं।
श्री - “आप हंस रहे हो, मतलब आपको पता है ना.. आपने सुबह जब मैं वो बाजू वाले कमरे में रहने वाली रिधिमा को बता रही थी तब सुना ना..”
माई - “हां.. और देखो आज तुम अपना फेवरेट खाना खा रही हो.. जाओ अब जाकर थाली साफ करके रख आओ”,
माई श्री को ये करने का बोलकर, खुद गेट लॉक करने चली जाती हैं। फिर आकर अपने कमरे में जा ही रही होती हैं कि श्री आ जाती है और उनके गले से लग जाती है,
श्री - “थैंक यू माई। आप बेस्ट हो।”
माई - “ऐसे फेवरेट खाना बनाने से बेस्ट हो जाते हैं क्या?”
श्री - “नहीं माई.. बात खाने की नहीं। आप सच में बेस्ट हो.. एण्ड सॉरी आपको मेरी वजह से देर तक जागना पड़ा। आज बहुत कुछ हुआ.. और मुझे आपको वो सब बताना है। मैं बहुत कन्फ्यूज़ भी हो रखी हूँ..”
माई श्री के सर पर हाथ फेरते हुए उसे सब कल बताने को कहती हैं और सोने के लिए, अपने कमरे में जाने को कहती हैं पर श्री उनसे उनके साथ ही सोने को पूछ लेती है और जितनी मासूमियत से उसने पूछा है.. माई मना नहीं कर पाती। अब श्री माई के पास, उनके साथ उनके बिस्तर पर लेट गई है और थोड़ी सी खुली दरवाजे से छत पर पड़ रही उस हल्की सी रोशनी को देख रही है जो धीरे-धीरे पूरे कमरे में फैलती जा रही है। और देखते-देखते श्री को नींद आ जाती है.. आज का दिन उसके लिए काफी लंबा भी रहा है।
पर कहानी का काम तो है बढ़ते रहना इसलिए कल फिर एक नई सुबह होगी और श्री की बनारस की यात्रा में जुड़ जाएगी… इस यात्रा का हिस्सा बने रहिए और मेरे साथ इस कहानी से जुड़े रहिए।
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