तैयार होकर श्री घर से निकल आई थी और सुबह से करीब 4 मंदिर घूम चुकी है। इस वक्त शाम के 6 बज रहे हैं, और श्री संकटमोचन मंदिर के दर्शन कर, मंदिर परिसर के अंदर ही एक बेंच पर जाकर बैठ गई है।
श्री - "क्या आप मुझे यहाँ के बारे में कुछ बता सकते हैं?"
श्री पास बैठे पंडित जी से पूछती है।
पंडित  - "कहते हैं कि तुलसी बाबा को यहाँ हनुमान जी का साक्षात्कार हुआ था। फिर बाबा ने यहाँ मूर्ति स्थापित कर मंदिर की नींव रखी.. और ये भी माना जाता है कि तुलसी बाबा ने यहीं मंदिर में बैठकर रामचरितमानस के कुछ दोहे और चौपाइयाँ भी लिखीं थीं.."
(श्री ये सब सुनकर बहुत अचंभित हो गई है..)
श्री - "वाह... मतलब मैं काफी पुराने मंदिर में बैठी हूँ। कितना सरियल  सा है ये सब। "मैं उस स्थान पर हूँ जहाँ हनुमान जी ने तुलसीदास जी को दर्शन दिए।"
पंडित - (पंडित जी अब अपने आप ही बताने लगते हैं,)
"सोलवी शताबदी... तब से ये मूर्ति यहाँ विराजमान है। और ये देख रही हो.. बंदर.. सदैव यहाँ बने रहते हैं.... माना तो ये भी जाता है कि यहाँ आए भक्तों की मनोकामनाएँ बजरंगबली के कानों तक पहुँचते ही पूरी होने की ओर बढ़ जाती हैं.. हाँ बात ये भी है कि मनोकामना सच्चे दिल से और अच्छे मन से होनी चाहिए... अच्छा चलो अब हम चलते हैं, पंडिताइन इंतजार कर रही हैं घर पर। हमारे बिना खाना नहीं खाती हैं वो.. देर हुई तो डाँट पड़ेगी हमारी।"
श्री - "पर मुझे तो आपसे और भी कई चीजें पूछनी थीं पंडित जी.."
पंडित जी कुछ देर तक सोचते हैं और फिर श्री को अपने साथ अपने घर चलने को कह देते हैं। श्री पहले मना करती है और फिर पंडित जी के बहुत कहने पर उनके साथ चल देती है।
पंडित - "अरे ओ पंडिताइन… किधर हो? देखो तो आज हम अपने साथ किसी को लाए हैं.."
पंडित जी घर में घुसते ही पहले अपना झोला एक खूटी पर टांग देते हैं और श्री को कुर्सी पर बैठने का कह कर पंडिताइन को ढूँढने लगते हैं।
श्री बैठी - बैठी कमरे में रखी सभी चीजों को ऑब्जर्व कर रही है। कमरे में एक तरफ एक बेड रखा हुआ है, कोने में एक स्टूल पर कुछ पेपर रखे हुए हैं और स्टूल के पास एक अलमारी है जिसका गेट ग्लास का बना हुआ है और ग्लास में से किताबें दिख रही हैं।
पंडित - "बेटी अंदर आ जाओ.."
पंडित जी आवाज देकर श्री को अंदर बुलाते हैं। श्री कमरे में मौजूद दूसरे गेट से घर के अंदर जाती है तो चौक में पहुँच जाती है... और फिर उसे एक आवाज सुनाई देती है..
पंडिताइन  - "वहीं साइड में एक बाल्टी रखी हुई है, पाँव धोकर यहाँ अंदर रसोई में आ जाओ।"
कहे अनुसार श्री पाँव धोकर किचन के अंदर चली जाती है, ये कोई नॉर्मल किचन नहीं है.. पंडित जी की पंडिताइन की किचन है.. जिसमें एक तरफ प्लेटफॉर्म बना हुआ है, बर्तन ऐसे जमे हुए हैं कि जैसे किसी म्यूज़ियम में टूरिस्ट्स के देखने के लिए रखे गए हों.. और दूसरी तरफ डाइनिंग टेबल रखी हुई है... इस डाइनिंग टेबल की हाइट कुछ डेढ़ फीट है जिस पर प्लेट रखकर, आराम से नीचे बैठकर खाना खाया जा सकता है। हाइट के साथ-साथ एक और खूबी ये है इसकी कि इसके पत्थर पर नक्काशी की हुई है।
श्री - "नमस्ते आंटी.."
श्री हाथ जोड़कर, पंडिताइन की ओर देखते हुए ग्रीट करती है। और पंडिताइन मुँह सिकोड़कर पंडित जी की ओर देखती है। फिर पंडित जी श्री को अपने पास आकर बैठने का इशारा कर बताते हैं,
पंडित - "हमारी पंडिताइन को आंटी वांटी रास नहीं आता.. तुम तो काकी कह लो इन्हें। क्यों, सही कह रहे हैं ना हम?"
पंडिताइन अब मुस्कुरा देती हैं और थालियों में खाना परोसने लगती हैं।
श्री - "सॉरी.. सॉरी.. अब से नो मोर आंटी। ओनली काकी। वैसे काकी मैंने आपको परेशान किया.. यूँ बिना बताए ही पंडित जी के साथ चली आई.. खाना भी खाने बैठ गई.. आपने उतना ही बनाया होगा और मैं..." (श्री थोड़ा एम्बैरेस हो कर बोल रही है।)
पंडिताइन - "काकी बोल रही हो और फिर ये भी बोल रही हो कि परेशान कर दिया.. ये कैसी बात हुई बेटी। हम रोज ही दो चार लोगों का खाना ज़्यादा बनाते हैं.. किसी ना किसी का आना हो ही जाता है और हमें सबको भोजन कराने में बड़ा आनंद आता है.. और जब कोई नहीं आता तो हम बनाकर ले जाते हैं बाहर और खिला आते हैं किसी ना किसी को.."
श्री को ये सुनकर बहुत अच्छा लगता है और वह अपनी अम्मा की बातें बताने लगती है कि कैसे उसकी अम्मा अप्पा को डाँट देती हैं अगर वो किसी को बिना बताए लंच या डिनर के समय घर ले आते हैं तो। और इस ही तरह खाना खाते - खाते, श्री पंडित और पंडिताइन को बहुत कुछ बता देती है।
पंडित - "आज तो गट्टे की सब्ज़ी खूब रही बिन्नू की मम्मी",
पंडित जी अपना पेट पर हाथ फेरते हुए उठते हैं। श्री भी उनके साथ ही उठ खड़ी होती है और फिर पंडिताइन के साथ सब साफ करवाने में मदद करती है।
अब श्री और पंडिताइन आँगन में आकर बैठ जाती हैं और श्री पंडिताइन से उनका नाम पूछती है,
श्री - "आपका नाम क्या है बिन्नू की मम्मी?"
पंडिताइन बिन्नू की मम्मी सुनकर हँसने लगती हैं और फिर बड़े ही प्यार से अपना नाम बताती हैं,
पंडिताइन - "सीमा... सीमा शर्मा। बिन्नू की मम्मी तो ये कहते हैं हमें।"
श्री - (श्री फिर पूछती है,) "ये कौन?"
पंडिताइन - (पंडिताइन अब शर्माकर बोलती हैं,) "बिन्नू के पापा।"
श्री - "अरे... आप लोग एक दूसरे का नाम नहीं लेते।"
पंडिताइन सिर ना में हिला देती हैं और श्री को बताती हैं कि जब उनकी शादी पंडित जी से तय हुई थी.. तब उनकी माँ ने उन्हें बताया था कि पति का नाम लेने से उसकी आयु कम होती है तो बस तब से उन्होंने कभी पंडित जी का नाम नहीं लिया।
श्री - "तो इसका मतलब है कि आप भी ये मानती हो काकी, कि ऐसे नाम लेने से आयु कम हो जाती है.." (श्री क्यूरियस होकर पूछती है।)
पंडिताइन - "बेटी.. देखो.. हम ये तो नहीं जानते कि ऐसा होता है या नहीं होता.. पर जब हमने पंडित जी को ये बात बताई तो उन्होंने तय किया कि वो भी हमारा नाम नहीं लेंगे क्योंकि उन्हें हमारी भी उतनी ही फिक्र है जितनी हमें उनकी.. बस तबसे ये आयु से ज्यादा हम दोनों के लिए एक दूसरे के प्रति प्रेम का प्रतीक बन गया।"
श्री - "सो स्वीट काकी.. आप दोनों तो एकदम लवली कपल हो। वैसे एक बात बताऊँ आपको?"
पंडिताइन - "बताओ बेटी.."
श्री - "पंडित जी आपसे प्यार करने के साथ - साथ थोड़े डरते भी हैं.. हा हा हा... देर होने पर आप उन्हें डाँटेंगी ये कहकर मुझे भी साथ ले आएं",
श्री चुटकी लेते हुए बोलती है और पंडिताइन शर्माकर लाल हो जाती हैं। इस ही तरह कुछ देर और बातें होती हैं और फिर पंडित जी आँगन में आ जाते हैं।
पंडित - "आप कह रही थीं बेटी.. कि आपको हमसे कुछ पूछना है",
पंडित जी श्री को उसके सवालों की याद दिलाते हैं और वहीं एक कुर्सी लगाकर पंडिताइन के पास बैठ जाते हैं।
श्री - "हाँ हाँ.. मुझे ना आपसे डिटेल में जानना है काशी का इतिहास.. यहाँ किस मंदिर की क्या कथा है, किस समय, किस राजा ने क्या - क्या किया.. और जबसे आप यहाँ रह रहे हैं तबसे यहाँ क्या चेंजेस देखने को मिले हैं.. एक्टुअली, मैं आपके साथ एक वीडियो शूट करना चाहती हूँ पंडित जी.. ताकि इसे मैं अपनी प्रेजेंटेशन में दिखा सकूँ। वो क्या है ना ये मेरा पहला असाइनमेंट है इस कंपनी के साथ और यही मेरी आगे की जर्नी भी तय करेगा.. तो आपसे बात करके मुझे बड़ा अच्छा लगा.. आइ थॉट  की आप मेरी इसमें मदद कर सकते हैं.. तो यदि आप और काकी कंफर्टेबल हो तो.."
पंडित जी कुछ देर सोचते हैं और फिर हामी भर देते हैं,
पंडित - "मmmmm.. देखो बेटी, हमें हमारे दादा गुरु ने एक बात सिखाई थी कि जो ज्ञान दुनिया का उद्धार कर सकता है उसे अपने तक सीमित मत रखो.. जितनों को बता सको बताओ, बस एक बात का ध्यान रखना कि सही तरह से बताओ.. तो इतनी सी ही दरख्वास्त रहेगी कि यदि तुम हमारी बातों का सही कार्य के लिए इस्तेमाल करो तो ठीक और यदि ये किसी गलत कार्य के लिए इस्तेमाल की जाने वाली है तो फिर अभी बता दो.. हम उस सब में नहीं पड़ना चाहते.."
श्री पंडित जी को अपनी कंपनी की वेबसाइट और इंटरनेट प्लेटफार्म पर उसकी प्रेजेंस दिखाती है और फिर खुद भी उन्हें इस बात पर विश्वास दिलाती है कि वह किसी भी जानकारी का गलत इस्तेमाल नहीं करेगी। इसके बाद वह पंडित जी के घर के कुछ पिक्स क्लिक करती है और पंडिताइन की ऑर्गनाइजिंग स्किल्स पर उनसे बात करती है.. सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा होता है कि दरवाजे पर एक दस्तक होती है। पंडित जी, पंडिताइन की ओर देखते हैं और पंडिताइन श्री का हाथ पकड़कर उसे अपने साथ सबसे अंदर वाले कमरे में ले जाती हैं और दरवाजा भी लॉक कर लेती हैं.. अब श्री कमरे में अंदर बंद है और बस उसे बाहर से आने वाली आवाजें सुनाई दे रही हैं।
पंडित जी - "बोलो.. क्या काम है?"
आदमी  - "क्या काम है पूछ रहा है.. अबे बूढ़े घर खाली कर.."
पंडित जी - "तुमने कितनी बार बताया है हमें, घर अब हमारा हो गया है। कागज़ात पर भी घर हमारा है.. हम कबका तुम्हारा कर्जा चुका चुके हैं.. फिर भी आ जाते हो।"
आदमी - "तेरी छोटी काटकर पूरे शहर में नंगा करके घुमाऊँगा पंडित.. समझ रहा है.. चुपचाप घर खाली कर दे मेरा.. मैं नहीं मानता तेरे ये कागज वागज। मुझे घर चाहिए।"
पंडित जी - "अरे कितनी बार तुमसे बता चुके हैं, हम कहीं नहीं जाएंगे। तुम जाओ यहाँ से और फिर कभी नहीं आना.. जो लिया था उससे दुगना वापस कर चुके हैं हम।"
कुछ गिरने की आवाज के साथ पंडित जी की आह सुनाई देती है और पंडिताइन घबराती हैं। उनकी आँखों में आँसू देखकर, श्री अब कुंडी नीचे गिरा देती है और दरवाजा खोलकर बाहर चली आती है।
श्री - "पंडित जी… आप ठीक तो हैं ना.."
पीछे-पीछे भागी आई पंडिताइन को श्री पंडित जी के पास जाकर उन्हें उठाने को कहती है और खुद इस लड़के के सामने आकर खड़ी हो जाती है।
श्री - "हाँ तो आप क्या कह रहे थे.. कि घर आपका है? जरा बताइए पेपर्स। कहाँ हैं घर के पेपर्स?"
आदमी - "तुम कौन हो? क्यों पंडित.. एक और रख ली क्या?",
ये सुनते ही श्री इस लड़के को एक जोर का चाँटा मारती है और उसकी कॉलर पकड़कर उसे घर के बाहर ले आती है।
जिस लड़की को सुबह तक चलने में भी तकलीफ हो रही थी, अब उसमें ना जाने कहां से इतनी शक्ति आ गई है कि एक लड़के को कॉलर से पकड़कर वह उसे बाहर खींच ले आती है,
श्री - "धारा 506, 420, 452 और बाकी की तुम्हे मेरा लॉयर बता देगा। समझा? अब तू इस घर के आस पास भी दिखा तो सीधा फिर जेल में दिखेगा.. जाता है या अभी पुलिस को बुलाऊँ।"
आदमी - "नहीं.. नहीं मैम.. माफ़ किजीये। अब नहीं आऊँगा.. पक्का अब नहीं आऊँगा। पर ये तो बताइए आप हैं कौन?" (लड़का हाथ जोड़कर श्री के पैरों में गिर जाता है।)
श्री - "मैं कौन हूँ.. मैं बेटी हूँ इनकी और अब तक जो इन्होंने नहीं किया वो सब करूंगी। ये बेचारे तो तुम्हारे बारे में सोचकर चुप थे पर मैं नहीं रहूँगी। एक और सेकंड भी तू इधर दिखा ना अब, तो फिर ना मेरे हाथ रुकेंगे और ना ही आने से पुलिस रुकगी।"
लड़का डरकर भाग जाता है और पंडित - पंडिताइन आकर श्री के गले लग जाते हैं। आस-पास वाले सभी लोग भी तालियाँ बजाने लगते हैं और श्री को उसकी हिम्मत पर दाद देते हैं। और कोई और भी है, जो एक कोने में खड़ा, ये सब देख रहा है। श्री की नजर भी उसे मिल जाती है.. पर..
श्री - "आप रो क्यों रही हैं काकी.. अब तो आपको खुश होना चाहिए.. आपको कोई भी परेशान नहीं करेगा अबसे... और.. किया तो उसकी खैर नहीं।"
पंडिताइन - "बेटा जो आज तुमने किया है.. उसके लिए हम जितना धन्यवाद करें उतना कम है।"
इस सबके बाद श्री पंडित और पंडिताइन को घर के अंदर ले आती है और बैठकर उन्हें पानी पीने को देती है। फिर कुछ देर उनके साथ बैठकर उन्हें कंफर्टेबल करती है और कल फिर आने का कहकर बाहर आ जाती है।
अब वह इधर - उधर देख किसी को ढूँढ रही है और फिर आखिरकार उसे वासं दिख ही जाता है जो वो सब कुछ देख रहा था जो श्री ने उस लड़के के साथ किया। और अभी वह एक गुमटी के पास खड़ा चाय पी रहा है।
अब क्या श्री वासं के पास जाएगी या यूँ ही दूर से ये कहानी किसी और मोड़ पर मुड़ जाएगी। होगा जो भी कहानी आगे बढ़ जाएगी ।

 

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