नीना बिस्तर पर लेटी हुई थी, उसकी आँखें छत पर टिकी थीं और उसके कानों में वसुंधरा की आवाज़ गूंज रही थी, "तुम्हें पता है, तुम्हें क्या करना है।" खिड़की से चाँद की हल्की रोशनी अंदर आ रही थी, लेकिन उस रोशनी में भी एक अजीब सा सन्नाटा छिपा हुआ था। दीवारों पर हल्की रोशनी में परछाइयाँ हिल रही थीं।

उसे हर पल वसुंधरा की फुसफुसाहट सुनाई दे रही थी। उसकी आवाज़ न कभी जोर से आती थी, न ही कभी पूरी तरह खामोश होती थी। नीना जानती थी, जैसे-जैसे यह painting पूरी हो रही है, उसकी ज़िंदगी बर्बाद होती जा रही है। कहीं यह painting पूरी होते ही उसे अपनी जान से हाथ न धोना पड़े।

एक तरफ़ सत्यजीत portrait को पूरा करवाने का stress, दूसरी तरफ़ वसुंधरा की आत्मा उसे बार-बार painting पूरा करने का ज़ोर डाल रही थी, वहीं नीना को ख़ुद से इसे पूरा न करने की आवाज़ आ रही थी। उसका sixth sense उसे इस बात की गवाही नहीं दे रहा था कि इस portrait को आगे बढ़ाया जाए।

हफ़्तों से नीना इस हवेली में फंसी हुई थी, एक अदृश्य शक्ति उसे कहीं जाने नहीं दे रही थी। वह यहाँ से दिल्ली जाती ज़रूर थी, लेकिन इससे पीछा नहीं छुड़ा पाती थी। वह उस अवस्था तक पहुँच चुकी थी कि उसका बच कर निकल पाना असंभव सा लग रहा था। वह कहीं भी चली जाए, उसे यहाँ आना ही होगा।

नीना यह समझ नहीं पा रही थी कि खुद को कैसे बचाना है।

जब इंसान को नींद नहीं आती, तो उसके मन में इतने सवाल होते हैं कि वह बेचैन हो उठता है। नीना के साथ भी वही हो रहा था। वह बेचैन थी। रात थी, और हवेली में सन्नाटा पसरा हुआ था। जब उसने अपने कमरे के बाहर कदमों की आवाज़ सुनी, तो उसने धीरे से दरवाज़े की ओर रुख किया।

झाँककर देखा, तो उसे सफ़ेद कपड़ों में कोई जाता हुआ दिखाई दिया। 
नीना (बुदबुदाते हुए): "यह वसुंधरा की आत्मा नहीं है।"

वह वसुंधरा की आत्मा से इतनी परिचित हो चुकी थी कि उसे तुरंत पता चल जाता था कि वह वसुंधरा है या नहीं है। अपने सवालों से परेशान, बिना डरे, उसने उसका पीछा करना शुरू किया। हवेली में काफ़ी अंधेरा था, लेकिन सफ़ेद रंग अंधेरे में भी दिखाई दे जाता है। नीना के साथ भी वही हो रहा था।

सफ़ेद कपड़ों वाला व्यक्ति आगे बढ़कर हवेली के नीचे बने एक सुनसान area में गया। वहाँ नीना पहले कभी नहीं आई थी। 

उस व्यक्ति ने एक कमरे का दरवाज़ा खोला। कुछ देर में कमरे की लाइट जल गई। उसने बाहर से झाँककर देखा। कमरे के एक हिस्से में एक दीवार से मोटी ज़ंजीर बंधी थी, मानो किसी को बांधने के लिए बनाई गई हो। 

नीना (सोचती हुई, धीरे से बुदबुदाते हुए): “यह क्या है यार? क्या यहाँ किसी को बाँध कर रखा होगा? अगर हाँ तो उसका कैसा हाल हुआ होगा, कोई इतना भी निर्दयी हो सकता है क्या?" 

फिर उसने आगे देखा। और जो देखा,उससे नीना की आँखें आश्चर्य से बड़ी हो गयीं। 
नीना (हैरानी से अपने-आप से बात करते हुए): “Oh my god! यह तो सत्यजीत है!" 
उसी कमरे के दूसरे हिस्से में किसी नवजात को सुलाने के लिए पालना रखा हुआ था। वहाँ कुछ खिलौने और सामान कबाड़ की तरह फैला हुआ था।

नीना से रहा नहीं गया, और वह अंदर जा धमकी। उसे देखकर सत्यजीत बुरी तरह चौंक गए।

सत्यजीत: (shocked): "नीना! What are you doing here???"

नीना: "मिस्टर चौधरी, आप यहाँ क्या कर रहे हैं?"  

सत्यजीत (सँभालते हुए): "जब मुझे नींद नहीं आती, तो मैं इस कमरे में चला आता हूँ।"

नीना: "इस कमरे में इतनी अजीब चीज़ें क्यों हैं? ये ज़ंजीर और ये सब?"

सत्यजीत ने कहा, "यह एक पुराना कमरा है। पुरखों के समय से ही यह ज़ंजीर यहाँ लगी हुई है, और इस सामान को यहाँ रखवाया गया था। इनके रोर के सामने रहने से जीना मुश्किल हो रहा था।

पालने को हाथ लगाते हुए, उन्होंने एक खिलौना उठाया और बोले, 
सत्यजीत: "यह सब वसु लाई थीहमारे होने वाले बच्चे के लिए।" 
उनकी आवाज़ में एक अलग ही तड़प थी, एक खुशियों भरा लम्हा जो अब अतीत में दफ़्न था। सत्यजीत उस दिन को याद कर रहे थे, जब वसुंधरा ने उन्हें अपने pregnancy की खबर दी थी। उस दिन की याद आते ही उनके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ गई।

अब सत्यजीत, यादों से धूमिल आँखों से शून्य को तक रहे थे। और वह बोलने लगे कि वसुंधरा की बीमारी उस खुशी से पहले ही शुरू हो चुकी थी। पहले, जब मैं घर आता, तो वह अक्सर गुमसुम रहती थी। लेकिन जिस दिन उसे पता चला कि वह माँ बनने वाली है, वो दिन ही कुछ अलग था। 
सत्यजीत ने नीना की तरफ़ देखा और कहा: “उस दिन तो मेरे घर आते ही वह दौड़कर मुझसे लिपट गई थी। उसने मुझे कमरे में ले जाकर अपनी reports दिखाईं। उसकी आँखों में एक चमक थी, जैसे वह एक नया जीवन पाना चाहती हो। वह बस मेरा चेहरा पढ़ रही थी।”

धीरे धीरे सत्यजीत कमरे में चलने लगे और अपनी कहानी नीना को सुनाते रहे। 

सत्यजीत: “जब वसुंधरा ने शर्माते हुए अपनी साड़ी का पल्लू मुँह में लेकर झुकी आँखों से मुझे pregnancy की खबर दी थी, मैं खुशी से झूम उठा था। वह कितनी खुश थी! मैंने उसे गोद में उठा लिया था। ज़िंदगी में एक दौर आता है ना, जब लगता है कि अब इसके आगे और कुछ नहीं चाहिए। वह दौर मेरी ज़िंदगी में आ चुका था। सब कुछ ठीक चल रहा था। हम एक नए जीवन की शुरुआत करने जा रहे थे।”

अब मायूसी ने सत्यजीत चौधरी के चेहरे को घेर लिया। वो बोलते रहे कि उसे इस खुशखबरी के बाद और कोई ख़ुशी नहीं चाहिए थी। वो अपने नवजात शिशु के स्वागत के  गए। लेकिन ये सारी तैयारियाँ धरी की धरी रह गयीं। वो कहते हैं ना कि ऊपर वाले से कुछ नहीं मांगा तेरे सिवाय, और ऊपर वाले ने सब कुछ दिया तेरे सिवाय।" सत्यजीत की आवाज़ में दर्द और खिन्नता साफ़ झलक रही थी। आज उनके पास किसी चीज़ की कमी नहीं थी, लेकिन कमी थी तो सिर्फ़ वसु की।

उन्होंने पालने को पकड़कर वहीं बैठ गए, उनकी आँखों में आंसू भर आए। 
सत्यजीत: "सब कुछ जो यहाँ दिख रहा है, उसने अपनी पसंद का मंगवाया था।"

वह एक ऐसे व्यक्ति की तरह लग रहे थे, जिसने अपनी खुशियों को खो दिया हो—एक ऐसा इंसान, जो अतीत में ही खोकर रह गया हो। नीना सत्यजीत के दर्द को महसूस कर रही थी। 

नीना को बुरा लगने लगा। वह क्यों बार-बार उसकी privacy में दखल देती है? इस बेचारे को उसके अपने घर में ही सवाल करती रहती है। यह आदमी चाहे कितना अमीर हो, लेकिन है तो वक्त का मारा ही।  

वह सत्यजीत के पास गई पर उन्हें क्या कहे ये समझ नहीं आया। सत्यजीत ने उसकी ओर देखा। उनकी आँखों में नमी और हल्की लालिमा थी। 

नीना ने सोचा, "यह दर्द और रहस्य जितना मैंने सोचा था, उससे कहीं ज्यादा गहरा है।"

नीना को एहसास हुआ कि उनका सामना केवल आने वाले कल से ही नहीं, बल्कि अतीत से भी है। वह सत्यजीत को वहीं उनकी यादों के हवाले करके अपने कमरे में जाकर लेट गई। न जाने क्या-क्या ख्याल मन में आने लगे और सोचते-सोचते नीना की रात गुजर गई। पर दवाइयों के असर के बावजूद वह चैन से सो नहीं पा रही थी।

**

अगली सुबह, वह उठी और तैयार होकर studio में पहुँच गई। नीना जहाँ भी जाती, उसे ऐसा लगता कि वसुंधरा उसे देख रही है, उसकी हर हरकत पर नज़र रख रही है। उसे सबसे ज्यादा भयानक एहसास studio में होता था जहां वसुंधरा की आत्मा बुरी तरह से नीना पर हावी हो जाती थी।

नीना का मन नहीं था, लेकिन फिर भी उसने studio में कदम रखा, क्योंकि वह जानती थी कि वसुंधरा की इस मौजूदगी से पीछा छुड़ाने का सिर्फ़ एक ही तरीका था—painting को पूरा करना। उसने तय किया कि चाहे जो भी हो, अब वह इसे खत्म करेगी। आगे, ऊपरवाले ने उसकी किस्मत जिस भी स्याही से लिखी हो, उसे वही जीना था। यह loop जैसी स्थिति उसे समझ नहीं आ रही थी।

धीरे-धीरे वह studio के अंदर गई। उसने brush को देखा, और वह उसे देखते ही उसकी तरफ़ झुक गए। अलमारी के फाटक अपने आप खुल गए। अंदर से paint, pigment सब बाहर आकर टेबल पर सजे हुए दिखने लगे, और नीना को ऐसा लगा कि सब उसकी तरफ़ देख रहे हैं।

नीना ने apron निकाला और बुदबुदाई, "सब अपने आप होना ही है तो apron भी बाँध देते!" उसने brush की तरफ़ देखा, वह जानती थी कि brush हाथ में लेते ही सब कुछ अपने आप होने लगेगा, और वसुंधरा अपने तरीके से खुद को आगे बढ़ाएगी। अब यह सब कुछ उसके हाथ में नहीं था—वह सिर्फ़ एक माध्यम थी, जिसके शरीर की वसुंधरा को ज़रूरत थी इस portrait को पूरा करने के लिए।

उसने गहरी साँस ली और brush उठाया। और वही हुआ जो अब तक होता आ रहा था—brush पकड़ते ही वह possessed होकर पेंट करने लगी। गाढ़ा pigment सिर्फ़ उसके हाथ पर ही नहीं, पूरे शरीर पर फैलने लगा, मानो उसके शरीर पर कब्ज़ा कर रहा हो। उसकी उँगलियाँ कैनवास पर अपने आप दौड़ रही थीं। वह pigment octopus की तरह अपनी भुजाएँ फैलाए उसके कानों में घुसकर आँखों से बाहर निकल रहा था। उस pigment के नीचे से काला रंग चमक रहा था, मानो वह उसके दिमाग को पूरी तरह निगल जाएगा और वह काम करती जा रही थी।

**

उधर दिल्ली में सतीश अपनी bike  से office जा रहा था। आजकल उसे नीना के बिना दिल्ली ख़ाली-ख़ाली लगती थी। वह bike पर अपने AirPods लगाए दिल्ली के traffic से जूझता आगे बढ़ रहा था। उसकी नज़र सामने बने एक बड़े हॉस्पिटल पर गई।

वह सोचने लगा, "ये जगह किसी के लिए मनहूस तो किसी के लिए वरदान है। मेरे लिए भी ये मनहूस होते-होते रह गई।"

उसे वो दिन याद आया जब नीना का बुरी तरह accident हो गया था। बात तकरीबन डेढ़ या दो साल पुरानी होगी। वो और नीना दोनों bike  से कहीं जा रहे थे, और पीछे से एक तेज़ कार ने उनकी bike  को टक्कर मार दी थी। नीना का सिर कार के बोनट से लग गया था और वह गिरकर पहिये के नीचे आ गई थी।

सतीश को तो उस वक्त ज्यादा चोटें नहीं आई थीं, लेकिन नीना, वह कितनी बुरी तरह ज़ख़्मी हो गई थी। सतीश जब भी यहाँ इस हॉस्पिटल के सामने से गुज़रता, वो भयानक दिन उसकी आँखों के सामने से ऐसे गुजरता जैसे कल की ही बात हो। हम सब कुछ भूल जाते हैं, लेकिन अतीत के कुछ डरावने लम्हें होते हैं जो हम कभी नहीं भूल पाते। सतीश भी उसी दिन से नीना की ढाल बनकर उसके साथ खड़ा था। उस दिन अगर एक भली औरत ने उसे वक़्त पर हॉस्पिटल नहीं पहुंचाया  होता, तो वो आज जिंदा नहीं बचती।

सतीश को फिर से उसकी फिक्र हुई। उसने चलती  bike को साइड लगाकर उसे कॉल कर लिया और सोचा कि "अभी बात कर लेता हूँ, नहीं तो काम के दौरान ठीक से बात नहीं हो पाएगी।" 

लेकिन नीना ने कॉल रिसीव नहीं किया। उसे तो कुछ और दिखाई ही नहीं दे रहा था; उसके सिर पर जुनून सवार था, और वह सिर्फ़ एक बात के बारे में सोच रही थी—painting को पूरा करना। फ़िलहाल यही उसका इकलौता लक्ष्य था, और यही उसका सबसे बड़ा डर भी।

आज भी उसके हाथ लगातार चल रहे थे। वह खुद को रोकना चाहती थी, लेकिन रोक नहीं पा रही थी। नीना का पूरा शरीर जैसे canvas में घुलने लगा था। उसे लगने लगा था कि यह painting ही उसकी नियति है।

वह अपने बाएँ हाथ पर काम कर रही थी, उसका ऊपरी गाउन का हिस्सा रंगा जा चुका था, और वह हाथों की उंगलियों की outline कर रही थी। वह कल लगी चोट की परवाह किए बिना काफ़ी समय से पेंट कर रही थी। वह काफ़ी थक चुकी थी; उसके हाथों की उँगलियाँ अकड़ चुकी थीं। उसने उन्हें सीधा करने की कोशिश की, तो दर्द होने लगा।

उसने दूर हटकर देखा, painting अच्छे से पूरी हो रही थी। जब वह पेंट करती, उस समय उसे कुछ याद नहीं रहता था। उसने देखा कि दाएँ हाथ के नाखून थोड़े-थोड़े बढ़ गए थे।

नीना के दिल की धड़कन तेज़ हो गई। तभी वसुंधरा की गूंजती हुई आवाज़ पूरे कमरे में फैल गई, मानो दीवारों से टकरा रही हो, "आशोल बैपार टा जानिश की?" क्या तुम असली बात जानती हो?

नीना ने दहशत में brush छोड़ दिया। सवाल हवा में लटक गया, और नीना के मन में डर की लहरें दौड़ गईं - 

क्या वह सच में असली बात जानती थी? 

क्या वो उस असली बात को handle कर पाती?

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