मुक्तेश्वर के वार्ड के बाहर खड़े विराज, रिया और सुधा तीनों के अंदर की बेचैनी बढ़ रही थी, कि तभी वहां गजेन्द्र प्रभा ताई को लेकर आ गया। प्रभा ताई मुक्तेश्वर के वार्ड के अंदर कदम रखने ही वाली थी, कि तभी उनके पैर कांपने लगे और वो कमरे के बाहर ही रुक गई।
ये नजारा देख अब उन सबकी आंखें चौक गई। इस वक्त मुक्तेश्वर के कमरे के बाहर का नजारा कुछ ऐसा था, मानों जैसे हर सांस एक अनकही दास्ताँ बयान कर रही थी। उस अस्पताल की खिड़की के बाहर पेड़ों की सरसराहट मानों उन तमाम राजों को आज़ाद करने की पुकार दे रही थी, जो बरसों से कैद थे। आधी रात हो चली थी। इस वक्त अस्पताल के हर कोने में एक खामोशी थी... और उसी खामोशी को तोड़ती प्रभा ताई के कदमों की आहट और मुक्तेश्वर के कमरे में बार-बार चल रही उस रिकॉर्डिंग ने सबकुछ बदल दिया।
दरवाज़ा खुला, और प्रभा ताई धीरे-धीरे चलते हुए अंदर गई। उसे देखते ही मुकेश्वर ने चिल्लाकर कहा— "दरवाजा बंद कर दो ताई"
जहां एक तरफ कमरे में अंदर घुसते हुए इस वक्त प्रभा ताई के हाथ-पैर कांप रहे थे, तो वहीं दूसरी ओर मुक्तेश्वर के बैड के बगल में रखें रिकॉर्डर पर वो टेप लगातार लूप में बज रहा था। उसे सुनते हुए प्रभा ताई की आंखों में चढ़ते डर की लकीरें गहराती जा रही थी- जैसे यह रात ही सब कुछ जानती थी, और आज सब कुछ दुनिया को बता भी देने वाली थी।
तभी गजेन्द्र भी दौड़ता हुआ अपने पिता मुक्तेश्वर के कमरे के अंदर घुस गया। इस वक्त उसकी आँखों में आँसू और हजार सवाल थे, जिन्हें सोचते हुए उसने पुछा— “बुआ…”
उसकी आवाज़ फटी थी, और होठ कांप रहे थे। तो वहीं प्रभा ताई भी कांप रही थी, उनके पैर मानों जमींन पर चिपक गए थे। आज अस्पताल के उस बंद कमरे में ना जाने कितनी बातें, कितनी सच्चाइयाँ पहली बार खुलने के लिए तैयार थी, लेकिन उस पंक्ति में एक विराम था— ‘रात जो बिछड़ गई...’ और इसी विराम में छुपा था वो सबसे बड़ा राज, जो पूरे राजघराना के नजारें को सर से पैर तक बदलने वाला था।
विराज और रिया दोनों कमरे के बाहर ही खड़े थे। रिया के चेहरे पर चिंता थी, लेकिन वो भी चाहती थी, कि अब राजघराना के सारे राज खुल जाये, ताकि गजेन्द्र को रेस फिक्सिंग के केस से निकालना आसान हो जाये।
गजेन्द्र की आवाज अपनी बुआ प्रभा से पूछते-पूछते अचानक खामोश हो गई, लेकिन तभी मुक्तेश्वर अपने बेटे गजेन्द्र की बाँह के सहारे धीरे-धीरे बैड से उतर जमीन पर खड़ा हुआ। खिड़की से आती तेज ठंडी हवा भी इस वक्त उसके चेहरे को छूकर आग उगल रही थी। मुक्तेश्वर की आँखों में आंसू, आवाज़ में खरखरापन माहौल को चीर रहा था।
तभी उसने नजर उठाई और प्रभा ताई को देखा। वह बैठी थी, टेबल पर रखी डायरी इस वक्त उसके हाथों में थी, जब उसने देखा कि मुक्तेश्वर के उसकी तरफ बढ़ते कदमों के साथ उन दोनों के बीच के भाई-बहन के रिश्ते की रस्सी टूट रही है।
तभी मुक्तेश्वर ने शब्दों को तरसते हुए कहा— “त…तुम…तुमने मेरी जिंदगी को तमाशा बना दिया… आखिर क्यों? तुमने मुझसे मेरी औलाद को बाइस सालों तक छिपा कर रखा… आखिर क्यों...?” ।
प्रभा ताई ने झुक कर खुद के झूठे-फरेबी चेहरे को ढाँकने की कोशिश की, लेकिन उनके हाथ में वो डायरी और कमरे में रिकॉर्डर पर बार-बार चल रही वीर की आवाज… जैसे लगातार सारा सच चिल्ला-चिल्लाकर बता रहे थे।
तभी प्रभा ताई बुदबुदाई— “मैंने… छुपा कर रखा… लेकिन अब और नहीं… अब और नहीं…हां-हां अब और नहीं… मैं थक गई हूं।”
प्रभा ताई के हाथ कांप रहे थे, आवाज़ गूँज रही थी, और फिर उसने डायरी को खोलकर पहला पन्ना पढना शुरु किया।
“जानकी की मौत… और जुड़वा बच्चों का सच…”
उस पन्ने पर जानकी के उस रात का सारा दर्द शब्दों में बिखरा हुआ था। साथ ही मुक्तेश्वर की जिंदगी का सबसे बड़ा सच भी, कि मरने से पहले उसकी पत्नी जानकी ने दो जुड़वा बच्चों का जन्म दिया, जिनमें से एक गजेन्द्र था और दूसरा वीर।
मुक़्तेश्वर ने इस बार चिल्लाकर पूछा— “कुछ और बताओं ताई… ये सच तो अब मैं जानता हूं…”
मुक्तेश्वर का गुस्सा देख प्रभा ताई की आँखों से आँसू छलक पड़े, जिन्हें पोछते हुए उन्होंने धीरे से कहा— “जब जानकी ने उन दोनों को जन्म दिया, तो मैंने… मैंनें दोनों को देख लिया… दोनों बच्चों को… लेकिन… लेकिन… बस एक को ही तुम्हारी बाहों में रखा।"
मुक्तेश्वर सदमें में उसका सिर थामे खड़ा था, एकाएक गजेन्द्र ने अपने पिता को दोनों हाथों से थामा, तो मुक्तेश्वर ने अगला सवाल किया।
“लेकिन…क्यों… दूसरा बच्चा मुझे क्यों नहीं दिया तुमने ताई?”
प्रभा ताई ने खुद को संभाला और फिर बोली— “उस रात जब हमारे पिता गजराज सिंह को ये पता चला, कि जानकी ने दो बच्चों को जन्म दिया है तो उन्होंने एक बच्चे को जिंदा जमींन में दफनाने का फरमान सुना दिया। उनका ये फरमान सुनते ही मेरी सांस मानों मेरे अंदर जम गई थी। मैंने किसी तरह हिम्मत कर उनसे पूछा, कि आखिर वो अपने ही सगे पोते… अपने खून को जिंदा जमीन में दफनाने के बारें में सोच भी कैसे सकते हैं, तो तुम जानते हो उन्होंने क्या कहा….
उन्होंने कहा, कि वो जानकी जैसी दो कोड़ी की गरीब औरत की एक औलाद को कुत्ते की तरह राजघराना के दरवाजें पर भौंकने के लिए पाल सकते हैं, लेकिन उन्हें कुत्तों की फौज पालने का कोई शौक नहीं हैं।
प्रभा ताई की आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे थे। उसका गला सूख गया, लेकिन गुस्से और पछतावे की मिलीजुली ताक़त ने उसकी आवाज़ को कड़ा बना दिया। उसने कांपती आवाज़ में आगे जो बताया, वो किसी भी आम आदमी की रूंह को कपां देने वाला था।
“गजराज सिंह ने जब वो शब्द कहे… कि ‘उन्हें कुत्तों की फौज पालने का शौक नहीं,’ तो मेरी रगों में खून खौलने लगा। वो तुम्हारे ही बेटे थे मुक्तेश्वर! तुम्हारी ही जानकी के जिगर के टुकड़े! और उन्होंने उसे मिट्टी में मिलाने का फरमान सुना दिया था… सिर्फ इसलिए कि जानकी उनके खानदान की मर्यादा नहीं थी! वो एक गरीब परिवार से थी, इसलिए उन्होंने ना सिर्फ उसे कभी बहू माना और ना ही उसकी जन्मी दोनों औलादों को राजघराना का चिराग।”
ये सब सुनकर अब मुक्तेश्वर की आंखें लाल हो चुकी थीं। उसके होंठ कांप रहे थे, और हाथ बिस्तर की मुंडेर को पकड़ कर जैसे खुद को गिरने से रोक रहे थे।
प्रभा ताई भी ये सब बताते-बताते बेकाबू हो चुकी थी। वो आगे बोली— “मैं जानती थी कि अगर मैंने विरोध किया, तो जानकी की ही तरह मुझे भी मिटा दिया जाएगा। उस रात… मैं जानकी के कमरे में गई… वो होश में नहीं थी। और वहां दो बच्चों को देखकर मेरी रूह कांप गई। दो-दो नन्ही जानें… पर सिर्फ एक को ही गिनती में रखने की इजाज़त थी।”
फिर प्रभा ताई की आवाज में आंसुओं की बुदबुहाट आने लगी और वो धीमे से बोली— “मैंने दोनों को देखा… दोनों को अपने सीने से लगाया। लेकिन गजराज सिंह के आदमियों ने आकर कहा— ‘एक बच्चा दो, दूसरा हम खुद देख लेंगे।’”
गजेन्द्र, जो अब तक पत्थर बन कर खड़ा था, वो ये सुनते ही फट पड़ा— “देख लेंगे? क्या मतलब? उन्होंने मेरे भाई के साथ क्या किया?”
प्रभा ताई ने एक लंबी साँस ली, फिर रोते हुए कहा— “मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं। मैंने एक आदमी से सौदा किया… पैसे नहीं, बस इंसानियत की भीख मांगी। और उस आदमी ने वीर को वहां से निकाल कर एक अनाथालय पहुंचा दिया… जहां उसकी पहचान तक मिटा दी गई। और मैं… मैं चुप रही। क्योंकि डर ने मेरी ज़ुबान सिल दी थी। और गुनाह के बोझ ने मेरी आत्मा को मेरे अंदर मार दिया था। उस रात मैंने भी कसम खा ली थी, कि मैं वीर का नाम अपनी जुबान पर कभी किसी के सामने दुबारा नहीं लूंगी।”
मुक्तेश्वर अब तक फर्श पर बैठ चुका था। आंखें बंद थीं, होंठ हिल रहे थे, जैसे वो किसी मौन प्रार्थना में डूबा हो। कुछ पल की खामोशी के बाद उसने सिर उठाया और बोला— “तो ताई… तुमने मुझे मेरे बेटे से नहीं, मेरे पिता होने के अधिकार से भी वंचित कर दिया। तुमने मेरी जानकी की आखिरी निशानी को मुझसे छीन लिया। मैं जानकी को खो चुका था… लेकिन मैंने कभी ये नहीं सोचा था कि तुम मुझे मेरी बाकी बची ज़िन्दगी का भी मातम सौंप दोगी।”
फिर मुक्तेश्वर ने अपने कांपते शरीर और रूक-रूक कर चलती दिल की धड़कनों का थामते हुए कहा— “और वीर… उसका क्या? वो वहां अनाथ आश्रम में अकेला बड़ा हुआ…? जबकि मैं सोचता रहा कि मेरी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी लड़ाई जानकी को खोना थी… लेकिन नहीं… असल मात तो तुमने दी है ताई… मुझसे मेरी औलाद को छीनकर… मैंने आज तक उसे एक नजर देखा भी नहीं है। बताओं कैसा अभागा बाप हूं मैं...”
मुक्तेश्वर का ये दर्द सुन प्रभा ताई ने घुटने टेक दिए और बिना सांस लिए रोते हुए बोलीं— “मैंने अपराध किया है… और मुझे सज़ा मंज़ूर है। लेकिन मेरी मजबूरी को समझो मुक्तेश्वर… मैं उस रात गजराज सिंह की राक्षसी नीयत की अकेली शिकार नहीं थी, बल्कि उसे निभाने के लिए मुझे मजबूर किया गया था।”
गजेन्द्र अब तक चुपचाप सुन रहा था, लेकिन अब वो उठ खड़ा हुआ और कहा— “और हम… हम दोनों भाई… जो एक साथ पैदा हुए… वो बाइस साल तक अजनबी बने रहे। क्यों? क्योंकि किसी ने तय किया कि हमारे खून का रंग कमतर है? नहीं बुआ… ये सिर्फ गुनाह नहीं, ये श्राप है… ये पाप है। और ये श्राप सिर्फ वीर या पापा पर नहीं… हम सब पर है।”
तभी अचानक से जोर-जोर से रोने की आवाज कमरे के बाहर तक सुनाई देने लगी, जिसे सुनते ही विराज और रिया फटाक से अंदर आ चुके थे। कमरे में सन्नाटा था। हवा भी जैसे थम गई थी। तभी कमरे के कोने में रखा रिकॉर्डर फिर से बजने लगा।
वीर की आवाज़— “पिता जी… मैं जानता हूं कि आप मुझे नहीं पहचानते… लेकिन अब मैं आपको पहचानता हूं। और मैं जानता हूं कि आप क्या खो चुके हैं… पर क्या आप जान पाते अगर ये टेप आपको न भेजा जाता?”
वीर की ये बात सुनते ही मुक्तेश्वर की आँखें बंद हो गईं। उसने धीरे से सिर झुकाया और कहा— “अब मैं मरना नहीं चाहता… नहीं जब तक मैं अपने अपने दूसरे बेटे को एक बार गले न लगा लूं, मैं मरना नहीं चाहता…। मुझे उसे गले लगाना है, जिसने बिना किसी गलती के सब कुछ खो दिया गजेन्द्र…”
गजेन्द्र पास आया, पिता के सामने झुका, तो मुक्तेश्वर ने कहा— “तुम्हें अपने भाई को खोज कर लाना होगा… और ये काम किसी बेटे, किसी वारिस के रूप में नहीं… एक भाई के तौर पर करना होगा।”
गजेन्द्र की आँखों से आंसू बह रहे थे, लेकिन चेहरे पर पहली बार सुकून की झलक थी। उसने सिर झुकाया और बस इतना ही कहा— “मैं लाऊंगा पापा… मैं मेरे जुड़वा भाई वीर को वापस लाउंगा। और आप चिंता मत करिये, मां ने उसका नाम वीर बहुत सोच कर रखा है, वो सिर्फ नाम से वीर नहीं… बल्कि अपनी तकदीर से भी वीर निकला। देर से ही सहीं पर अब वो अपनों के साथ होगा, अनाथ नहीं।”
प्रभा ताई अब एक कोने में बैठी थीं, आँखें बंद किए। जैसे उन्होंने तमाम गुनाहों की चुपचाप सज़ा खुद को सुना दी हो। और बाहर… अस्पताल की खिड़की से झांकती रात… अब चुप नहीं थी। वो धीरे-धीरे उजाले की दस्तक दे रही थी। सूरज की रोशनी के साथ आज मुक्तेश्वर की जिंदगी में नया उदय हुआ था।
क्या गजेन्द्र ढूंढ पाएगा अपने जुड़वा भाई वीर को?
क्या वीर जिंदा है या फिर प्रभा ताई और मुक्तेश्वर के भाई-बहन के रिश्तें में दरार डालने के लिए किसी ने खोला है वीर के जन्म का ये 22 साल पुराना राज?
अब क्या करेगा मुक्तेश्वर अपने पिता गजराज सिंह के साथ, जब होगी उसकी दुबारा मुलाकात?
क्या मुक्तेश्वर माफ कर पायेगा अपने उस हैवान-शैतान पिता गजराज सिंह को, जिसने 22 साल पहले उसके एक दिन के बच्चें को जिंदा जमींन में गाड़ देने का फरमान सुना दिया था… और वो भी सिर्फ इसलिए कि उसे जन्म देने वाली मां गरीब थी।
जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग।
No reviews available for this chapter.