अस्पताल के उस आईसीयू वार्ड में अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था। मॉनिटर की बीप हर कुछ सेकंड पर कभी ऊपर तो कभी नीचे हो रही थी। मानों जैसे सांसे किसी भी वक्त रुक सकती हो।

एक तरफ मौत मुक्तेश्वर को बुला रही था, तो दूसरी तरफ उसने गजेन्द्र के लिए अभी भी ज़िंदगी की डोर छोड़ी नहीं थी। हां, बीप की आती आवाजों से ये इशारा मिल रहा था, कि मुक्तेश्वर की जिंदगी की डोर ढीली ज़रूर हो चुकी है, लेकिन आस अभी बाकी है। वहीं डॉक्टरों की टीम बाहर खड़ी थी, और भीतर, मुक्तेश्वर सिंह, जो कभी अपने इरादों के दम पर दुनिया हिला देता था, वो इस वक्त मशीनों पर निर्भर पड़ा था और एक टक बस दरवाजें की ओर अपने बेटे के आने का इंतजार कर रहा था। 

उसकी आंखें मानों जैसे जम गई थीं। पलके हिल तक नहीं रही थी, पर वो पूरी तरह से जिंदा था। होश में आने के बाद से वो सिर्फ दरवाजे को घूर रहा था, जैसे वहाँ कुछ लिखा हो... या कोई चेहरा, जिसका उसे बेचैनी से इंतजार था।

इसी बीच एक नर्स कमरे में आई। उसने कांपते हाथों से एक छोटा सा पार्सल मुक्तेश्वर के बेड के पास की मेज पर रखा और कहा— “ये आपके नाम पर आया है, सर… अभी-अभी इसे एक लड़का देकर गया है। इस पर भेजने वाले का नाम वीर सिंह है…”

नाम सुनते ही मुक्तेश्वर का माथा सिकुड़ गया, क्योंकि वो इस नाम के किसी शख्स को नहीं जानता था। इसलिए उसने चौकते हुए पूछा— “वीर…?” वो बुदबुदाया, “ये नाम…?”

उसने चौकती आखों और दर्द से कराहते कांपते हाथों से पार्सल खोला। तो देखा कि उसके अंदर एक छोटा-सा वीडियो प्लेयर और एक पेनड्राइव रखीं थी। उसे देखते के साथ वो बड़बड़ाया— "जरूर ये कोई राज़ होगा राजघराना का… ना जाने कितने रहस्य खुलने अभी बाकी है।"

उसने वीडियो प्लेयर ऑन किया और फिर उसमें वो पैन ड्राइव लगा उसमें मौजूद वीडियो को प्ले किया, तो स्क्रीन पर एक लड़के का चेहरा उभरा— सांवला रंग, तेज नैंन-नक्श, आंखों में अजीब सी बेचैनी… और चेहरा… चेहरा बहुत हद तक उसके अपने जैसा… उस चेहरे को देख मुक्तेश्वर का गला सूख गया और वो बेचैन हो उठा। तभी स्क्रीन पर नजर आ रहे उस लड़के ने बोलना शुरु किया।

“पिता जी…” वो स्वर जैसे सीधा मुक्तेश्वर के दिल में उतरा….मुक्तेश्वर की धड़कनें तेज हो गईं।

"आप मुझे नहीं जानते… शायद जानकी मां की मौत के बाद किसी ने कभी आपको बताया नहीं, लेकिन मैं आपका बेटा हूं… वीर। जानकी की कोख से जन्मा… लेकिन आपका नाम कभी मेरे नाम के साथ जुड़ा ही नहीं… लोगों में मुझे हमेशा अनाथ कहकर बुलाया।"

मुक्तेश्वर की सांस जैसे अटक गई। उसकी उंगलियां बिस्तर की चादर को कस कर पकड़ चुकी थीं। वीडियो में वीर ने आगे जो कहा, उसे सुनकर तो मुक्तेश्वर सर से पैर तक हिल गया।

"मैं जानता हूं, ये बात आपको झकझोर देगी… लेकिन अब छिपाने को कुछ नहीं बचा। मुझे पालने वाली अनाथ आश्रम वाली मेरी मां ने अपने आखिरी पलों में सब बता दिया था। उन्होंने कहा था कि आप जब जेल में थे, तभी मेरी मां जानकी की मौत हो गई थी। उसके बाद जब आप जेल से लौटे तब टूटे हुए थे। इसके बाद जब आपको गजेन्द्र को लेकर खबर मिली… तो आप उसे लेकर राजघराना छोड़कर चले गए।

लेकिन मैं बता दूं कि मैं जानता हूं… आपने ही मुझे अपनाने से इंकार कर दिया था। मेरी अनाथ आश्रम वाली मां ने मुझे आपके बारें में जो बताया वो सब झूठ है। आप बहुत बुरे है, लेकिन वो हमेशा आपको अच्छा आदमी कहती है। मां की मौत के बाद आज मुझे आपकी मौत का पता चला। समझ नहीं आ रहा खुश होऊं या दुखी… कि कुछ दिन पहले बाप का पता चला और उससे आमने-सामने की मुलाकात से पहले ही उसके मरने की खबर भी आ गई।"

वीडियो रुका, मुक्तेश्वर की आंखों से आंसू बह निकले। वो तड़प कर उठना चाहता था, लेकिन शरीर जवाब दे चुका था।

वो बस बुदबुदाया— “जानकी… तू क्यों…? और… वीर…? आखिर मुझसे इन लोगों ने और क्या-क्या छिपाया है।

मुक्तेश्वर अकेले में ये सब बड़बड़ा रहा था कि तभी उसके वार्ड का दरवाज़ा खुला। उसने सामने देखा तो गजेन्द्र, सुधा, रिया और विराज कमरे में दाखिल हो रहे थे। सबकी आंखों में चिंता थी, और तभी गजेन्द्र ने पास आकर पहले मुक्तेश्वर को कस के गले लगाया और फिर पूछा।

“पापा… आप ठीक हैं? और आपके जहन में मुझे छोड़कर जाने का ख्याल आया भी कैसे? आपके बिना मैं सच में अनाथ हो जाता।

मुक्तेश्वर ने अपने बेटे की तरफ देखा, फिर आंखें मोड़ लीं, मानों जैसे कुछ टूट गया था उसके अंदर। और फिर वो रोती और कांपती आवाज में बोला— “ठीक…? नहीं बेटा… मैं कभी ठीक नहीं हो सकता अब तो…। ऐसा लग रहा है ये राजघराना और मेरे अपने खून के रिश्तें मेरे लिए श्राप बनते जा रहे हैं।”

ये सुन जहां गजेन्द्र और रिया चौक गए, तो वहीं सुधा ने धीरे से पूछा— “क्या हुआ, बड़े पापा?”

मुक्तेश्वर ने कांपती आवाज़ में कहा— "क्या कहा बड़े पापा… हो कौन तुम?”

तभी गजेन्द्र ने बात को संभालते हुए कहा— “पापा, ये बहुत लंबी कहानी है, फिर कभी पूरी सुन लेना। फिलहाल आप सिर्फ इतना जान लीजिए कि ये राज राजेश्वर अंकल की बड़ी बेटी सुधा है और उनकी एक और बेटी है मेघा...ये दोनों जुड़वा बहनें है। आपकी तरह ही मुझे भी कुछ घंटों पहले ही पता चला है कि मेरी दो बहने भी है।

गजेन्द्र जैसे ही ये बात कहता है मुक्तेश्वर तुरंत पलटकर कहता है— “तुम्हारा एक भाई भी है और वो भी जुड़वा— वीर सिंह।”

एक पल को उस कमरे में समय थम गया। विराज और रिया तो सिर्फ हैरान थे, लेकिन गजेन्द्र तो मानों जैसे किसी पत्थर सा हो गया। इस वक्त उसकी सांसे तेज चल रही थी आंखे एक टक पिता को निहार रही थी। उसके पैरों की पकड़ जमींन पर ढीली पड़ गई थी, जैसे किसी ने उसके पैरों के नीचे से ज़मीन खींच ली हो। तो वहीं सुधा की सांसें भी थम गईं। विराज के होठ खुले रह गए। 

तभी गजेन्द्र ने चौक कर पूछा— “क्या…? आप क्या कह रहे हैं ये पापा? होश में तो है ना, कहीं आपकों कोई गहरा सदमां तो नहीं लग गया।"

गजेन्द्र की आवाज़ अब डर और अविश्वास से भरी थी। दूसरी ओर सामने मुक्तेश्वर का चेहरा कांप रहा था, उसके गालों पर आंसू की लकीरें साफ़ दिख रही थीं, जिन्हें पोछते हुए वो दुबारा बोला।

“हां… वीर… तुम्हारा भाई… मेरी और जानकी की दूसरी संतान। तुम दोनों जुड़वा हो… लेकिन जब मैं जेल में था, तब जानकी… वो अकेली थी… टूटी हुई… और शायद डर भी गई थी…। जोकि आम था, क्योकि तुम्हारे दादा गजराज सिंह हमेशा से तुम्हारी मां से नफरत करते थे। ऐसे में उन्होंने जानकी पर जुल्म की हर हद पार कर दी थी।”

वो थोड़ा रुका, सांस भरी और फिर कांपते स्वर में बोला….

“जानकी ने दो बच्चों को जन्म दिया था, लेकिन उन लोगों ने वीर को जन्म से ही मुझसे छिपाकर रखा। वो शायद इसलिए, क्योंकि तब पूरा महल हमारे प्यार से जलता था। और जब मैं जेल से निकला… तो प्रभा… हां तुम्हारी प्रभा बुआ… वो मुझे तुम्हें यानि मेरे एक बेटे गजेन्द्र को गोद में लेकर मिली… और कहां जानकी नहीं रही, लेकिन उस वक्त ना उसने वीर का जिक्र किया, ना जानकी के आखिरी पलों की कोई सच्चाई मुझे बताई। उस दौरान प्रभा ताई ने … बस एक नाम… एक खबर… और एक बच्चे को मेरी गोद में रख कर चली गई। और मैं उस वक्त जानकी की मौत से इतना टूट गया था कि मैं सिर्फ तुम्हें बाहों में लिए वहां से… राजघराना महल की परछाई से भी दूर लेकर पूणे भाग गया।”

अपने पिता के मुंह से ये सारी बातें सुन अब गजेन्द्र का चेहरा ऐसा था, मानों जैसे शरीर से किसी ने जान निकल ली हो, वो धीरे से वहीं पास रखी टेबल पर बैठ गया।

“मतलब… पापा… मतलब मेरा एक जुड़वा भाई है, जिसका नाम वीर है और वो भाई ज़िंदा भी है… और मैं… मैं कभी जान ही नहीं पाया?”

गजेन्द्र की बात सुन मुक्तेश्वर खुद को रोक नहीं पाया और उसे आपने पास बुला उसके हाथों को हाथों में लेते हुए बोला— “तुम्हें क्या...यहां तो मुझे भी आज तक उसके बारें में नहीं पता था... और अब जब उसने मुझे खुद अपना वीडियों भेजकर अपने बारें मे बताया, तो मेरे मरने की खबर आ गई। पर सच कहता हूं गजेन्द्र बस, अब मैं मरना नहीं चाहता। मुझे एक नजर अपने बेटे वीर को भी देखना है।”

मुक्तेश्वर की आवाज रोते-रोतें मानों टूट रही थी, उसकी आवाज में कंपकपी भी थी, जो एक पिता की तड़प को बयां कर रही थी।

रिया, विराज और सुधा… तीनों ये सब सुनकर हैरान थे। उनके चेहरे पर सिर्फ खामोशी और सवाल थे। इसी बीच सुधा की आंखों में आंसू छलकने लगे, जिन्हें पोछते हुए उसने पूछा— “बड़े पापा, वीर भैया कहां है? आपने उनसे बात की...या उन्होंने अपना कोई नंबर या पता उस वीडियों में आपकों दिया?”

“नहीं…” मुक्तेश्वर ने जवाब देते हुए अपनी आंखें बंद कर ली और बोला— “बस एक वीडियो… एक कड़वा सच… और एक ऐसी सज़ा… जो ना जाने क्यों मेरे हिस्से में है… और मैं उसे भोग रहा हूं।”

एक लंबी चुप्पी के बाद, उसने अचानक कमज़ोर, लेकिन सख्त आवाज़ में कहा— “गजेन्द्र… एक बात कहनी है… तुम तुरंत प्रभा बुआ को लेकर आओ… अभी… इसी वक्त…”

अपने पिता का गुस्सा सुन गजेन्द्र ने तुरंत अगला सवाल किया— “क्यों पापा? क्या हुआ है उन्हें?”

मुक्तेश्वर ने आंखें भींच लीं और आवाज को तरेरते हुए बोला— “क्योंकि जानकी की मौत की खबर… और उस दिन तुझको मेरी गोद में रखने वाला कोई और नहीं… प्रभा ताई ही थी… और अब मुझे यकीन है, वही थी जिसने… जानबूझकर मुझे… मुझसे मेरा सबकुछ छीना…”

गजेन्द्र ये सुनते के साथ ही एकदम सन्न रह गया। रिया और सुधा के चेहरों पर भी हैरानी की लकीरें खिंच गईं।

“और… वीर?” गजेन्द्र ने पूछा।

मुक्तेश्वर ने आंखें बंद कर लीं। होंठ कांपते रहे और बस एक बात दोहरा रहे थे— “मेरा बेटा… जिसे मैंने कभी जाना ही नहीं…”

और फिर उसी पल मशीन की बीप की रफ्तार बढ़ गई, डॉक्टर दौड़कर भीतर आए। डॉक्टरों ने तुरंत सबको वार्ड से बाहर निकाल दिया। गजेन्द्र, सुधा और रिया बाहर खड़े हो गए। उनके चेहरों पर डर साफ झलक रहा था। ये वो डर था जो तब होता है जब कोई सच बहुत देर से सामने आता है और उसकी गहराई इतनी होती है कि कोई सदमें मे भी जा सकता है।

दूसरी ओर राजघराना महल का नजारा भी कम डरावना नहीं था। प्रभा ताई चार धाम की यात्रा कर वापस राजघराना महल लौट आई थी। और उनके लौटते ही महल में कानाफूंसी फिर से शुरु हो गई थी।

"देखों तो जरा, कैसी अभागिंन है, चेहरे पर शिकन तक नहीं है ताई के… एक तरफ इसके पति उस राघव भोंसले ने पूरे परिवार सिंह परिवार को तबाह कर दिया और दूसरी तरफ ये राजघराना में चौड़े में बैठकर राजसी खाना ठूस रही है… छी, छी, छी… कैसी बेशर्म औरत है।"

ऐसा नहीं था कि प्रभा ताई अपनी पीठ पीछे अपने महल के नौकरों की ऐसी बातों और तानों से अंजान थी। वो सब जानती थी, लेकिन बस अंजान होने का दिखावा करती थी क्योकि उसके पास अब रहने का कोई ठिकाना नहीं था। पति राघव भोंसने जेल में था और ससुराल वालों ने भी बांज कहकर घर से धक्का मारकर निकाल दिया था।

प्रभा ताई अभी अपनी जिंदगी के उतार चढ़ावों के बारे में सोच ही रही थी, कि तभी राजघराना महल के दरवाजे पर किसी के चीखने की आवाज सुनाई दी। प्रभा ताई भागती हुई वहां पहुंची, तो देखा उनका एकलौता भतीजा गजेन्द्र था। 

प्रभा ताई ने तुरंत सवाल किया— "क्या हुआ गजेन्द्र इतना चिल्ला क्यों रहे हो…? और इतना घबराएं हुए क्यों हो?”

गजेन्द्र ने तुरंत पलटकर जवाब दिया और बोला— "पापा की तबियत बहुत खराब है प्रभा बुआ, जल्दी चलिये… वो बस एक रट लगाए हुए है, कि उन्हें आपसे मिलना है। उनकी सांसे बार-बार आपका नाम ले गले में अटक रही है, जल्दी कीजिए...।"

ये सुनते ही प्रभा ताई तुरंत गजेन्द्र के साथ अस्पताल आ गई, लेकिन जैसे ही वो मुक्तेश्वर के वार्ड के बाहर पहुंची, वहां हो रहे शोर में एक आवाज सुन… उनके कदम कमरे में जाने से रुक गए। 

वो लड़खड़ाई और कांपती हुई आवाज में बोलीं— "वीर… वीर यहां कैसे आया, उसे यहां कौन लेकर आया?”



क्या प्रभा बुआ सच में इस महल के सबसे बड़े राज़ की चाबी हैं? आखिर प्रभा ताई ने सिर्फ आवाज सुनकर वीर को कैसे पहचान लिया? 

वीर… उसका अगला कदम क्या होगा? 

क्या मुक्तेश्वर दोनों भाइयों को एक कर पाएगा या ये रिश्ता भी महल की राजनीति में कुर्बान हो जाएगा?

जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग। 

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