​​अश्विन, मुंबई के एक बड़े अस्पताल में बैठा था। उसकी नज़रें, अपने बेहोश पड़े बाबा पर टिकी हुई थी। उनकी हालत, ऐसी लग रही थी जैसे मानों वे केवल मशीनों के सहारे ही ज़िंदा थे। ​

​​मॉनिटर की लगातार बीप की आवाज़, और बाकी के चलते हुए मशीनों का शोर, अश्विन के दिल में हलचल पैदा करने लगे थे। अश्विन के पिता, जो कभी बड़े ज़िंदादिल व्यक्ति हुआ करते थे, आज उन्हें इस हालत में देखकर उसको अच्छा नहीं लग रहा था। ​

​​अश्विन का एक हाथ, उसके पिता के एक हाथ पर था, और अपने दूसरे हाथ से, उसने अपनी माँ का हाथ थाम रखा था। उसकी माँ, उसके बगल में बैठकर, चुपचाप अपने पति को नम आँखों से देखे जा रहीं थीं। उनकी आँखों से बहते आँसू, रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। ​

​​कमाल की बात है न, जिन हाथों के होने से हमारे सर पर छत के होने या आशीर्वाद के बने रहने का भरोसा होता है, अगर उन्हीं हाथों को कुछ हो जाये, तो एक इंसान की ज़िंदगी काफ़ी हद तक बदल जाती है। बहुत कम लोगों को उन बूढ़े हाथों का सहारा बनने का मौका मिलता है। कभी-कभी, सहारा देने वाले जवान हाथ, उन बूढ़े हाथों को अपने हाथों में लेने, और उनकी ज़िम्मेदारी सँभालने से काँप जाते हैं, कतराते हैं। ऐसा इसलिए नहीं होता कि जवान हाथ, उन बूढ़े हाथों की ज़िम्मेदारी सँभालना नहीं चाहता, बल्कि इसलिए होता है कि जवान हाथ, उन बूढ़े हाथों को अपने से दूर होते हुए नहीं देखना चाहते। उन्हें अपने सर से उठने नहीं देना चाहते, और उन बूढ़े हाथों का साया अपने ऊपर हमेशा-हमेशा के लिये बनाये रखना चाहते हैं।   ​

​​कुछ ऐसी ही कैफ़ियत महसूस करते हुए, अजीब-ओ-ग़रीब से ख़यालों में फँसा हुआ अश्विन समझ ही नहीं पा रहा था कि उसके पापा की यह हालत कैसे हुई। अपने बूढ़े माँ-बाप को ऐसी हालत में देखकर, वह अंदर ही अंदर काफ़ी निराश और हारा हुआ महसूस कर रहा था। उसके दिल-ओ-दिमाग़ में भूकंप मचा हुआ था। वह पूरी तरह से झुँझलाया हुआ था। ​  

​​कभी वह एक नज़र अपने बाबा को देखता, कभी अपनी आई को, और कभी मॉनीटर पर चल रही टेढ़ी-मेढ़ी लकीरों को। उन लकीरों में उसके पिता की जान बसी हुई थी। वे लकीरें ही उनके ज़िंदा होने का सबूत थीं।

​​जब अश्विन दिल्ली में, अपने फ्लैट के कमरे में, बिस्तर पर बैठा हुआ, शीना से झगड़ने ही वाला था, तभी उसकी माँ ने रोते-रोते उसे फ़ोन किया और कहा कि उसके पापा को दिल का दौरा पड़ा है। यह सुनकर उसके हाथ-पाँव फूल गए। उसने तुरंत ही रजत को फ़ोन लगाया और कहा कि वह उसके माता-पिता से मिलने अस्पताल चला जाए और उसे हर पल की खबर देता रहे। फिर अश्विन ने दिल्ली से मुंबई की फ्लाइट ली और जैसे-तैसे मुंबई पहुँच गया।​

​​अस्पताल पहुँचते ही, जब उसने अपनी माँ की हालत देखी, और जब उसकी माँ ने कई दिनों बाद उसे देखा, तो वह उसके गले लगकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगीं। रोना तो अश्विन को भी आ रहा था, मगर वह मर्द था – "मर्द को दर्द नहीं होता, मर्द रोते नहीं हैं" - बचपन में उसे अपने पापा से यही सीख मिली थी, और फिर पूरे समाज ने भी उसे यही सिखाया। ऐसे में आश्विन कैसे रो पता? उसने अपने आप को स्थिर रखा। फिर अपनी रोती हुई माँ को हिम्मत देने लगा और बड़ी मुश्किल से उसने उन्हें चुप कराया।​

​​वहीं, अश्विन के अचानक ही वहाँ पहुँचने से, उसकी माँ की हिम्मत भी ज़रा बढ़ गयी थी। ​

​​अश्विन ने कभी नहीं सोचा था कि वह अपने पापा को इस हालत में देखेगा। जो पापा हमेशा हँसते-खेलते और खुश रहते थे, आज वही इतने लाचार, बेबस, कमजोर और बेजान नज़र आ रहे थे। अपने पापा की ऐसी हालत देखकर, अश्विन अपने बाकी सभी समस्याओं को भूल चुका था।​

​​वह उदास मन से उन्हें देखते हुए सोचने लगा, 

​​अश्विन: क्या मैं इसी दिन को देखने के लिए अपने आई-बाबा से दूर रह रहा था? मुझे लगा था कि अपनी सक्सेस से अपने बाबा को खुश करूँगा, मगर मैंने कभी नहीं सोचा था कि वो मेरी सफलता को देखने की हालत में ही नहीं रह पाएँगे।”​  

​​अश्विन का ख़याल टूट गया, जब उसकी माँ ने अपना सिर उसके कंधे पर रख दिया। वह बस अपने पति को देखे जा रही थीं, लेकिन उनकी आँखों से आँसू लगातार बहते रहे।​  

​​अश्विन ने अपनी माँ से दबी आवाज़ में कहा,  

​​अश्विन: आई, रोने से बाबा ठीक नहीं हो जाएँगे। उन्हें आपकी ज़रूरत है, और मुझे भी। चलो, मैं रजत से कहता हूँ कि वह आपको घर छोड़ आए। वह बाहर ही बैठा हुआ है। घर जाकर थोड़ा आराम कर लो, फिर कल सुबह आ जाना... ठीक है?”​

​​अश्विन की आवाज़ को सुनकर भी, उसकी माँ ने उसकी बात को अनसुना कर दिया, तभी उसने फिरसे कहा,  ​

​​अश्विन: “सुन रही हो क्या कह रहा हूँ? कुछ कहती क्यों नहीं? अपनी भी तबियत खराब करनी है क्या?”​  

​​तभी उसकी माँ ने दबी आवाज़ में धीरे से कहा, “तू भी तो कबसे आया हुआ है। तुझे भी तो नींद आ रही होगी। थका हुआ है, तू चला जा... जाकर आराम कर, थोड़ी देर सो ले। मैं इन्हें छोड़कर कहीं नहीं जाने वाली। हम दोनों यहाँ से एक साथ ही अपने घर वापस जाएँगे।”​

​​मेघलता जी ने बहुत देर बाद कुछ कहा, जिससे अश्विन के बेचैन मन को थोड़ी राहत मिली। मगर उसके मन से पापा की चिंता हटी नहीं। साथ ही, अश्विन को खुद पर हँसी भी आई, और वह मन ही मन कहने लगा:​

​​अश्विन: “ऐसे ही क्या आई को कम टेंशन है, जो उन्हें और टेंशन देने के लिए यह बताऊँ कि मुझे आजकल नींद ही तो नहीं आती... और इसका कारण शीना है।”​

​​तभी अचानक, अश्विन के दिमाग़ में गिरधारी की बात गूँज उठी:​

​​गिरधारी: “इसका इस्तेमाल बहुत सँभलकर करना बेटा, क्योंकि इसमें वाकई ज़िंदगी बदलने की ताक़त है।”​

​​तभी, न जाने क्यों, वह और भी बेचैन होने लगा। उसे अपनी ज़िंदगी में चल रही एक के बाद एक समस्याओं की याद आने लगी, जो शायद उसकी ज़िंदगी में उस ब्रेसलेट की वजह से आई थीं। ​​इसी के साथ, उसे यह भी याद आया कि जब उसने अपनी पहली विश मांगी थी…​​मुझे वरुण जैसा बनना है। मुझे वरुण जैसी लाइफ़ चाहिए। जादुई ​​ब्रेसलेट​​, दिखाओ अपना कमाल।” - ​

​​तबसे ही उसकी ज़िंदगी में बदलाव आने लगे थे। एक हादसे में वरुण की मौत हो गई थी। अश्विन धीरे-धीरे सफल हो रहा था, लेकिन उसी विश की वजह से तो शीना भी उसकी ज़िंदगी में आई थी। फिर, धीरे-धीरे उसकी ज़िंदगी से शांति भी गायब होने लगी थी। इन सब चीज़ों के बारे में सोचते हुए, अश्विन ने मन ही मन खुद से कहा:​

​​अश्विन: “हो न हो, अब मुझे यक़ीन हो गया है कि ये सब उसी ब्रेसलेट की वजह से हो रहा है। अच्छा हुआ कि मैंने उसे ताला लगाकर रख दिया है।”​

​​एक-दो दिन मुंबई में रहने के बाद, अश्विन ने फिर से दिल्ली जाने का फैसला किया, क्योंकि उसके लिए उसका काम भी ज़रूरी था। रही बात उसके बाबा  की तबीयत की, तो यह तो साफ़ था कि बाबा इतनी जल्दी ठीक नहीं होने वाले थे। डॉक्टर ने उन्हें “अंडर ऑब्ज़र्वेशन” रखा हुआ था, ताकि किसी भी तरह की दिक्कत हो, तो उनका तुरंत इलाज हो सके।​

​​साथ ही, बाबा का खयाल रखने के लिए वहाँ उसकी आई थीं, नर्सें थीं, डॉक्टर थे, कुछ दोस्त और रिश्तेदार थे और अश्विन का क़रीबी दोस्त रजत भी तो था।​

​​वहीं दूसरी तरफ, दिल्ली में, एजेंसी में प्रोजेक्ट का काम संभालने वाला कौन था? अश्विन की टीम के लोग? जिन पर अश्विन को ज़रा भी भरोसा नहीं था।​

​​क्रिएटिविटी के मामले में सबके सब एक से बढ़कर एक नमूने थे, जिसकी वजह से सारे काम की ज़िम्मेदारी अश्विन के सिर पर थी। वह उन सभी को अपने आगे कुछ भी नहीं समझता था। ऐसे में, वह किस पर भरोसा करता? कैसे वह इतने बड़े क्लाइंट को अपने हाथ से जाने देता? फिर चाहे वह खुद कितने भी मुश्किल हालातों से क्यों न गुजर रहा हो। बस, इन्हीं वजहों से उसने सोचा कि उसका दिल्ली में होना ज़्यादा ज़रूरी है, और उसने दिल्ली लौटने का फैसला लिया। ​​जबकि सच्चाई तो यह थी कि अश्विन से कभी भी स्तिथि कंट्रोल हुई ही नहीं सही से। ​

​​इन सब बातों की वजह से अब उसके और उसकी माँ के बीच हल्की सी कहा-सुनी हो गई। उन्होंने अश्विन पर एक गैर-ज़िम्मेदार बेटा होने का इल्ज़ाम लगा दिया। यह बात अश्विन के ईगो को काफ़ी ठेस पहुँचा गई। गुस्से में, उसने भी अपनी माँ से झगड़ा कर लिया और रातों-रात दिल्ली लौट गया।​

​​एयरपोर्ट पर शीना उसकी राह देख रही थी, लेकिन इससे अश्विन को कोई फर्क नहीं पड़ा। उसने शीना से कह दिया कि उसे कुछ वक्त के लिए अकेला रहना है। शीना उसकी खस्ता हालत से वाकिफ थी, इसलिए उसने अश्विन को अकेला छोड़ दिया और वैसा ही किया जैसा वह चाहता था।​

​​मगर अश्विन भाई साहब को इसमें भी चैन नहीं मिला। उसे लगने लगा कि शीना अब उससे पहले की तरह प्यार नहीं करती। अगर वह पहले की तरह प्यार करती, तो उसे इस हाल पर छोड़कर नहीं जाती। इस बात से वह शीना से और भी ज़्यादा नाराज़ हो गया! अब हर बात के लिए अश्विन को शीना ही ज़िम्मेदार लगने लगी।​

​​क्या यह सब उस ब्रेसलेट की वजह से हो रहा है या यह अश्विन का ईगो है? ​

क्या आश्विन कोई दूसरी विश मांगने कि तैयारी कर रहा था? अगर हाँ, तो क्या विश मांगी होगी?  

जानने के लिए पढ़ते रहिए। 

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