हाँ तो भाई लोगों! क्या हाल चाल हैं आप सबके? अब तक आप लोगो ने हमारी कहानी के मुख्य किरदारों के बारे में जान ही लिया है. साथ में आपने इंद्रपुरी के नाम की सच्ची-झूठी वजह भी जान ही ली है. रामकृपा पंडित की चालाकी हो या लल्लन लाला की धूर्तता, मुझे यकीन है कि आप इन पात्रों को भूले नहीं होंगे. और झुन्नी काकी को तो बिलकुल ही नहीं भूले होंगे.

तो चलिए आगे की कहानी भी आपको सुनाना शुरू करूं.

गोंडा से भागकर आये परम प्रतापी ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि गाँव से भागने पर भी दरिद्रता और दुःख कभी नहीं छूटेगी. दरिद्रता और कठिनाइयां जैसे परम प्रतापी की कुल जमा संपत्ति थी जिससे पीछा छुड़ाना परम प्रतापी जैसे लोगों के लिए एकदम आसान नहीं होता. और यह बात सिर्फ परम प्रतापी की ही तो नहीं थी. हजारों लाखों लोग अपने अपने गाँवों में तमाम तरह की परेशानियों को झेलते हुए यही सोचते रहते हैं कि एक दिन आएगा जब वो गाँव से भागकर चले जायेंगे. और शहर जाकर फलाने और धिमकाने की तरह अपनी जिंदगी अच्छे से बिताएंगे. लेकिन ऐसा होता कहाँ है? गाँव से भागकर आये लोग फिर कभी गाँव के कहाँ हो पाते हैं. शहर कभी अपनाता नहीं और गाँव से बेवफाई रात को सोने नहीं देती. शहर में आकर बस गए लाखों कामगारों को गाँव की याद तो खूब आती है लेकिन जाएँ किस मुंह? लोग शहर आते हैं अपनी जिन्दगी को गुलजार करने और शहर है कि नरक का जाल बिछाए उन सब कामगारों को फांस लेता है. तो जब हर जगह दुःख ही दुःख तो फिर भगवान ने सुख जैसा शब्द आखिर बनाया ही क्यों है? किसके लिए बनाया है ? और कौन है जो सुखी है? कम से कम इंद्रपुरी जैसी जगहों में बसने वालों में से तो कोई नहीं न?

तो परम प्रतापी ने जैसा सोचा था वैसा बिलकुल नहीं निकला. वो ऐसी जगह आकर फंस गए, जो न शहर ही था, न गाँव ही था, और न कस्बा जैसा ही. अब जैसा था सो था. उस रात जब प्रतापी ने गाँव से भागने की इच्छा दृढ कर ली थी, तब भागने से पहले उसने पूरी योजना बना ली थी. कैसे जाना है? कौन कौन सा सामान लेकर जाना है? नहीं सामान नहीं, वह गाँव का और अपने घर का कुछ भी लेकर नहीं जाना चाहता था. कुछ भी नहीं मतलब कुछ भी नहीं. उसे चिढ थी अपने गाँव से. हर तरफ मुर्दायी, कहीं और सुख नहीं. जहाँ देखो वहां पेड़ पौधे और दूर तक फैले खेत के मैदान. मिटटी के घर. ज़रा सी बारिश आ जाए तो चूना शुरू. छप्पर गिरना शुरू. और जबतक बारिश होती रहे तबतक यही डर लेकर बैठे रहो कि कहीं दीवार ढह ही न जाए. ऊपर से परिवार की जिम्मेदारी. बाप बूढा, माँ बीमार. और उधारी पर उधारी. ऊपर से अपनी जाति. अब तो आलम यह था कि कोई उधारी भी नहीं देना चाहता था. जिसके पास जाओ वह पहले तो अपना पूराना पैसा माँगता और फिर बिना कुछ दिए हाडतोड़ काम भी कराता और बिना पैसे दिए भगा भी देता. आखिर इंसान करे सो क्या करे. रही बात बूढ़ा और बूढी की? तो उनकी तो उम्र कट ही गयी. आगे भी जैसे तैसे कट ही जायेगी. प्रतापी बस इस गाँव से बस भाग जाना चाहता था.

तो उसने योजना पक्की बना ली थी. शुक्रवार की रात को भागना है, और फला स्टेशन से फलां ट्रेन पकड लेनी है. लेकिन टिकट के पपैसे तो थे नहीं, लेकिन क्या हुआ अगर टीटी आया तो हाथ पैर जोड़ लेंगे. नहीं मानेगा तो कहेंगे जेल भेज दीजिये. एक दो दिन जेल में रहने से क्या हो जाएगा? कम से कम वहां खाना तो मिलेगा न? यहाँ क्या है? शुक्रवार की रात को भागकर शनिवार की सुबह शहर तक पहुँच ही जाऊँगा फिर किसी से पूछकर अपने फलाने दोस्त के घर पहुँच ही जाऊँगा. आखिर फलाना बचपन का दोस्त है. वो मुझे जरूर कहीं न कहीं काम पर लगा ही देगा. और बस एकबार काम मिल गया फिर क्या दिक्कत? लाइफ सेट बेट्टे. वहीं एक सुन्दर सी लड़की से शादी करूँगा. (उसने अचानक अपने बूढ़े माँ बाप की याद आई) नहीं शादी बाद में करूंगा. कुछ पैसे बचाकर बाबा को भेज दिया करूँगा. जब मैं कमाने लगूंगा तो उन्हें भूखा रहने की जरुरत नहीं. और फिर मैं सारी उधारियाँ भी चुका दूंगा न. सब बल्ले बल्ले हो जाएगा.

तो ऐसे ऐसे ख्याली पुलाव थे हमारे चुन्नी जी उर्फ़ परम प्रतापी जी के. चुन्नी नाम भूले तो नहीं थे न? अब इस चुन्नी को जीवन में क्या क्या भोगना पड़ता है? यह मैं आगे जरूर बताऊंगा लेकिन उससे पहले मैं आपको उस बन्दे के बारे में बता दूँ जिसकी वजह से चुन्नी उर्फ़ प्रतापी के मन में गाँव से भागने की इच्च्चा प्रबल हुई थी.

तो हुआ यूं था कि एक बार फलाना और चुन्नी बचपन के बहुत अच्छे दोस्त थे. साथ में खाना, रहना दौड़ना मस्ती, उत्पात हमेशा यही सब करना. बचपन था तो किसी तरह की चिंता भी नहीं थी. भूख लगती तो लपक कर बेर खा लिए. पेड़ पर कुछ भी फरे, तोड़ा और खा लिया. चिंता किस बात की. लेकिन जैसे जैसे उम्र बढती गयी, आते दाल का भाव समझ आने लगा. फिर अचानक हुआ ये कि एक दिन सुबह सुबह चुन्नी को बहुत शोर सुनाई पड़ता है. चुन्नी बाहर निकलकर देखता है तो पाता है कि एक जगह बहुत भीड़ लगी हुई है. चुन्नी भीड़ को हटाते हुए अन्दर घुसता है और देखकर दंग रह जाता है अरे यह तो फलाने का बाप है, और यह कुछ लोग इसे लगातार मारे जा रहे हैं. लेकिन मार क्यों रहे हैं. तभी उसने देखा कि कोने में थोड़ी दूर पर दुबला पतला फलाना घुटने में मुंह दबाए रोये जा रहा है. चुन्नी ने उसके पास जाना ठीक नहीं समझा और पास खड़े आदमी से पूछा कि माजरा क्या है? तो उसने बताया कि अरे भैया उधारी बहुत हो गयी थी, पैसे लौटा नहीं पा रहे थे और गाँव से भागने वाले थे कि सेठ के बाशिंदों ने पकड लिया. चुन्नी तो यह सुनकर हक्का बक्का रह गया. लेकिन फलाने के पास जाने की उसकी हिम्मत नहीं हुई. कहीं ऐसा न हो कि पास गए और उसे भी लोग मारने लगे. तब चुन्नी ने वहां से घर लौटना ही ठीक समझा.

उस दिन के बाद, कई दिनों तक, कई महीनों तक फलाना कहीं दिखाई नहीं पडा. बल्कि सालों तक उसकी कोइ खोज खबर नहीं मिली.

लेकिन एक दिन एक दुपहरिया, चुन्नी अपने घर की बाहरी गिरी हुई दीवार को उठाने का काम कर रहे थे कि देखते हैं कि एक आदमी सूटबूट पहने , काला चश्मा लगाये पूरे रौब के साथ उसकी और चला आ रहा है. पहले तो चुन्नी पहचाने ही नहीं. उसे लगा कि कुर्की हो गयी. बहुत मारेगा यह अफसर और कहीं का नहीं छोड़ेगा. और जैसे ही वह अफसर पास आया, चुन्नी सीधे उसके पैरों में गिर पड़े, रहम मालिक रहम, एक महिना बस. सब उधारी चुका देंगे. बहुत हालात खराब है मालिक, आप ही देवता हैं, आप ही रक्षक हैं, बूढा बाप है मालिक, माँ है मालिक, कहाँ जायेंगे. इस बार बक्श दीजिये मालिक.

चुन्नी इस विशुध्द ड्रामा में लगे ही हुए थे, (ड्रामा इसलिए कि गाँव के सभो ग़रीबों ने संकट यानी अफसरों से दया पाने के लिए इस तरीके को खोज निकाला था कि ऐसे रोने से और ऐसा ऐसा कहने से कई बार अफसर दया भी कर दते हैं) कि तभी उसे जोर से हसंने की आवाज़ सुनाई पड़ी . चुन्नी को समझ ही नहीं आया कि हुआ क्या? उसे लगा यह मालिक ने उसका ड्रामा पकड लिया है और अब तो वह जान लेकर ही छोड़ेगा. अब वो इसी बात पर माफ़ी मांगने लगा. माफ़ क्र दो सरकार आगे से कोई नाटक नहीं करेंगे. कोई रोना धोना नहीं मचाएंगे. लेकिन आप से झूठ नहीं कहता , हालत बहुत खराब है हमारी.

अब अफसर से रहा नहीं गया. और उसने बूट से एक ठोंकर मारकर कहा, सूअर! आँख उठाकर देख मैं कोई अफसर नहीं, फलाना बाबू हूँ फलाना बाबू, तेरे बचपन का यार.

हैं? यह क्या? गजब? चुन्नी को काटो तो खून नहीं! अरे यह कैसे कब क्यों किसलिए क्या क्या क्या? ऐसी कायापलट. उसे अपनी हालत पर दया आई—जोकि एकदम बेकार चीज थी.

अब क्या चुन्नी सुबह शाम फलाने के साथ ही रहता और फलाने सुबह शाम शहर के किस्से उसे सुनाते. एक ये गाँव जहां सायकिल भी इक्के दुक्के लोगों के पास है और उधर वो शहर कि चार चक्के से नीचे कोई कदम नहीं रखता. खूब कमाओ और खूब उडाओ. कोई चिकचिक नहीं. शाम को बाज़ार निकल जाओ तो आँखें चार हो जाती हैं साहब! ये सुन्दर सुन्दर कमसिन लडकियां. एक नज़र घुमा लें तो हाय जवानी करवट ले ले. और खाने की चीजों के बारे में तो पूछो न. ये एक से एक चाट पकौड़ियाँ, विलायती खाने, चाउमीन का नाम सुना है कभी? और मिठाइयां, रहने दो बच्चू! इतनी मिठाइयां खा चुका हूँ कि अब तो मिठाइयों का नाम सुनकर ही ऊब होने लगती है. यहाँ देखो. क्या है इस गाँव में सिवाय दरिद्रता के, गरीबी के, भुखमरी के? कहीं कोई सुखी नहीं. मैली कुचैली लडकियां, न कपडे पहनने का शौक, न उठने बैठने का तरीका, इस गाँव के लोगों ने तो कभी कोई चाट खायी भी न होगी बच्चू, जो जो चीजें चाट मैं खा चुका हूँ. शहर स्वर्ग है भाई! मैं तो तुझसे भी कहूँगा कि शहर आ जा, सब बढ़िया हो जाएगा. ऐश करेंगे दोनों भाई!

यह सब बातें चुन्नी सुनता तो उसे लगता कि कितनी सचाई है इन सब बातों में. ठीक ही तो कहता है फलाना. आखिर है ही क्या इस गाँव में कुछ नहीं कुछ नहीं.

तो यही सब सोचकर समझकर चुन्नी बाबू एक दिन गाँव से भाग आये शहर की ओर अपनी किस्मत चमकाने! लेकिन किस्मत कोई ऐसी चीज़ तो है नहीं जो सिर्फ सोचने भर से चमकने लगे. और वो चमकती कैसे है? यह किसी को आज तक नहीं पता. तो आपको अगर पता हो हमें जरूर बताएं. न पता हो तो चुपचाप आगे की कहानी सुनें.

ट्रेन में बैठते ही चुन्नी ने अपना नाम सोच लिया. परम प्रतापी. बस ऐसा ही गंभीर नाम उन्हें चाहिए. वो नहीं चाहते थे कि कोई भी चुन्नी जैसे चिरकुट नाम से बुलाये. शह, यह भी को नाम है भला? चुन्नी? हट-हट. नाम ऐसा होना चाहिए कि चार लोग उठते बैठते सलाम करें. नाम से रौब बनता है. लोगों के मन में सम्मान बनता है. यह चुन्नी चुन्नी क्या है. नाम में ही दरिद्रता. नहीं बाबा चाहे कुछ हो जाए गाँव की सीमा पार होते होते इस नाम को यही छोड़ देना होगा. और आज से मेरा नाम होगा. परम प्रतापी. परम प्रतापी ने अपना यह नाम रखकर खुद पर जो बड़ा एहसान किया था. इंद्र पुरी में आते ही उन्हें इसका मतलब समझ आ गया था.

चुन्नी उर्फ़ परम प्रतापी जब किसी तरह इस इंद्रपुरी में आ गिरे, तब उन्हें जो समझ आया, उनके तो काटो तो खून नहीं! यह क्या? यह तो गाँव से भी बुरा. यहाँ तो कुछ भी नहीं. गाँव में कम से कम हवा पानी पेड़ पौधे तो हैं! यहाँ तो कुछ भी नहीं. एक घंटे के लिए पानी आता है, और उसपर ये लम्बी लाइन. गाँव में तो इतनी बढ़िया नदी थी, चाहे नहाओ चाहे डूब मरो? पानी ही पानी. और गाँव की हवा, क्या हवा थी, और यहाँ केवल धुँआ और चारो और उडती कालिख. पेड़ पौधों के नाम पर केवल नाली के किनारे किनारे उगी झाड. हट यार क्या ससुरी जिन्दगी. उन्हें अपने फैसले पर रोना आया और साथ में अपने गाँव की याद. लेकिन अब क्या करें? गाँव तो वापिस जा नहीं सकते. वहीँ से तो भागकर आये थे.

तो चुन्नी उर्फ़ परम प्रतापी साहब ने फैसला लिया. कि चाहे जो हो जाए वो यही रहेंगे और मेहनत से रुपया कमा कर अपने गाँव जायेंगे. लेकिन हाय रे किस्मत. और किस्मत की कहानी.

हमारे परम प्रतापी बिचारे यहीं के होकर रह गए. और अब जब वो कई सालों से यहाँ रह चुके हैं तब उनके दिमाग में एक चिंता घर कर गयी है. जिसकी वजह से वो बहुत परेशान रहते हैं. हाय राम, ये चिंता जाती क्यों नही?

तो क्या है चुन्नी उर्फ़ परम प्रतापी की चिंता. जानने के लिए पढिए अगला एपिसोड.

बोल परम प्रतापी की जय

नारायण नारायण

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