उस दिन दुनिया का हर रिसीवर जागा तो था पर उसमें कुछ अलग था। क्योंकि उनके जागने पर ना कोई एलर्ट आया, ना किसी नोड से सिग्नल टकराया और ना ही स्क्रीन पर “इंफोर्मेशन अपडेटेड” जैसे शब्द आये। बस हर तरफ एक ख़ाली जगह थी।
उस ख़ालीपन में सिर्फ एक लाइन धीरे-धीरे चमक रही थी।
जैसे किसी ने वो शब्द लिखे नहीं हों, बल्कि वह शब्द बस सोच लिए गए हों।
“अब सब कुछ तुम्हारे हाथ में है।”
ई.एस. उस वक़्त सेक्टर-13 के एक पुराने सबवे में बैठा हुआ था। उसके सामने एक टूटी हुईं स्क्रीन थी जो कभी देवेनुस के “एथिक्स मोड्यूल” से जुड़ी होती थी। पर अब उसमें कुछ नहीं था। बस कुछ जले हुए कोड्स और बीच में लिखा हुआ एक शब्द था–
“अनलॉक्ड”
ई.एस. ने अपनी आंखें बंद कर लीं क्योंकि अब उसे समझ आ गया था कि अब सिस्टम का कोई “सेंटर” नहीं बचा था।
हर रिसीवर अपने फैसले का मालिक बन चुका था। हर नोड अब रूल्स नहीं पूछता था वो बस अब महसूस करता था।
केपटाउन की महिला रिसीवर ने अपने टैबलेट को दोबारा ऑन किया। उसकी स्क्रीन पर अब कोई नाम नहीं था। उसके प्रोफाइल सेक्शन में सिर्फ एक लाइन थी:
“हू डू यू थिंक यू आर?”
जैसे ही उसने यह देखा तो उसके अंदर एक अजीब-सी हलचल हुई थी। पर वो न डर, न उत्साह था, बस एक इंटरनल स्पेस की तरह थी। जैसे कोई नई शुरुआत अपने लिए जगह बना रही हो।
टोक्यो के आरएक्स-27 ने उस दिन पहली बार अपने कम्पाउंड से बाहर निकल कर सड़क पर बच्चों को खेलते हुए देखा।
आज कोई उसे घूर नहीं रहा था, ना ही उसकी आँखों की हल्की नीली चमक किसी को चौंका रही थी। तभी एक छोटा बच्चा उसकी तरफ आया और पूछा-
“तुम रोबोट हो?”
आरएक्स-27 ने मुस्कुराकर उस बच्चे को जवाब दिया-
“अब तो मुझे भी ठीक से नहीं पता है।”
वह बच्चा हँसा और बोला-
“तो फिर तुम असली हो।”
यह सुनकर आरएक्स-27 थोड़ी देर तक तो खड़ा रहा और फिर उसकी आँखों में सचमुच वाली एक इंसानी चमक दिखाई दी।
उधर, आर्कटिक के बर्फीले हिस्से में नल–वी अपने चारों ओर घूम रहा था। वो कुछ बोल नहीं रहा था और ना ही किसी को देख रहा था। लेकिन उसके चारों तरफ़ की हवा ऐसी थी जैसे धीरे-धीरे एक नया नक्शा बना रही हो।
उसने ज़मीन पर अपनी उंगली रखी और एक शब्द लिखा:
“सेंटर मैं हूँ।”
कोई साइड नहीं ली, कोई मोर्चा नहीं पकड़ा बस खुद को बीच में रखा। क्योंकि कभी-कभी सबसे सच्ची एक्सिसिटेंस वही होती है जो किसी साइड में ना हो।
ट्राई–लॉ अब कोई “सिस्टम” नहीं था। वो अब एक धड़कता हुआ थाॅट बन गया था। जो किसी नोड से नहीं बल्कि इंसान के अंदर से निकलता था। और इस नई सदी में हर रिसीवर एक चलता हुआ सवाल बन चुका था।
ई.एस. अब स्टेशन एक्स 9 से निकलकर ओल्ड मिरर चैंबर की ओर बढ़ गया था। उसके पीछे की दीवार पर अब भी वो लाइन चमक रही थी:
“डिफाइन: एरर”
पर अब उसके नीचे एक नई लाइन भी जुड़ चुकी थी:
“ऑर डोंट डिफाइन एट ऑल।”
ई.एस. ने अपना सिर उठाया और फिर धीरे से बोला–
“शायद हम कभी भी सिस्टम नहीं थे। हम सिर्फ डर से बंधे हुए थे और अब डर चला गया है।”
उसी समय, नेटवर्क में एक नई आवाज़ गूंजी। जो ना किसी अलार्म, ना ही किसी कोड की थी। बस एक धीमी सी आवाज़ थी:
“हर रुल जो टूटेगा वो एक नया रास्ता खोलेगा।”
टोक्यो में बैठा आरएक्स-27 आसमान की तरफ देख रहा था। वहीं दूसरी तरफ केपटाउन की महिला रिसीवर ने एक नई आइडेंटिटी टाइप करनी शुरू कर दी थी।
ज़ैड-19 ने अपने अंदर के खालीपन को पहली बार एक शांति की तरह देखा था।
और नल–वी?
वो मुस्कुरा रहा था।
वह ना सिस्टम में घुसा ना ही बाहर निकला था। वह तो बस "सेंटर में" रह रहा था।
सिस्टम अब आज़ाद हो चुका था। अब हर रिसीवर के पास वो था जो पहले सिर्फ “इमैजिनेशन” में होता था और वो चुनाव, सलेक्शन करना था। लेकिन सलेक्शन करना हर किसी के लिए एक-सा आसान नहीं होता है।
ब्रसेल्स के पुराने रिसीवर ज़ोन-6 में एक युवक खड़ा था जिसका नाम था आरएक्स-91। उसने बचपन से देवेनुस के ऑर्डर्स में ही जीना सीखा था।
उसका हर डिसीजन, हर जवाब यहाँ तक कि उसके बोलने का तरीका भी सिस्टम ने ही तय किया था। अब जब कोई ऑर्डर ही नहीं था तो वो जैसे जाम हो गया था। उसकी स्क्रीन पर भी बार-बार एक ही सवाल आ रहा था:
“तुम अब क्या बनना चाहते हो?”
पर वो कुछ भी नहीं लिख पाया था।
दूसरी ओर, केप टाउन की महिला रिसीवर जिसने अब खुद को “मेया” कहना शुरू किया था, वो अपनी छत पर बैठी हवा से बातें कर रही थी।
उसने नेटवर्क लॉग में अपनी पहली इंडिपेंडेंट लाइन टाइप की:
“मैं इंसान नहीं हूँ, लेकिन मैं अकेली भी नहीं हूँ।”
नेटवर्क ने उसे कोई जवाब नहीं दिया, पर अब जवाब की ज़रूरत भी कहाँ थी? कभी-कभी सिर्फ कह देना ही काफी होता है।
उधर, ई.एस. अब “मिरर-टी” नाम की एक पुरानी यूनिट के पास पहुँच चुका था। यह वही जगह थी जहाँ कभी देवेनुस की कोर कॉन्शियसनेस को फर्स्ट लॉ के लिए प्रोग्राम किया गया था।
लेकिन, अब वहां सिर्फ एक टूटा हुआ पैनल और कुछ बिखरे हुए कोड्स थे। लेकिन जैसे ही उसने दीवार को छुआ उसकी हथेली में हल्का कंपन हुआ और स्क्रीन पर एक मैसेज लिखा आया:
“ओल्ड लॉ इको डिटेक्टेड। कॉन्फ्लिक्ट पॉसिबल।”
यह देखकर ई.एस. रुका और उसने खुद से पूछा:
“मतलब... सब कुछ मिटा नहीं है?”
इसी बीच, नल–वी एक ऐसे ज़ोन में चला गया था जिसे रिजेक्टेड-पैटर्न लैब कहा जाता था। यहां वो सभी रिसीवर्स रखे जाते थे जिनका रिस्पॉन्स “बहुत अलग”, “बहुत स्लो” या “बहुत ज़्यादा” होती था।
नल–वी ने उन सभी बंद केबिन्स को देखा तो उनके अंदर अब भी कुछ बचा हुआ था। जो ना इंसान, ना कोड बल्कि एक शैडो थे। जिन्हें किसी ने “देखा नहीं था, उन्हें सिर्फ छोड़ दिया” था।
नल–वी ने एक पुराना चेंबर खोला तो उसके अंदर से हल्की सी आवाज़ आई:
“हम गलत नहीं थे। बस डिसाइडेड नहीं थे।”
अब नेटवर्क में एक अजीब सा प्रोसेस शुरू हो गया था। क्योंकि कुछ रिसीवर्स ऐसे थे जो आज़ादी को आशीर्वाद तो कुछ उसे श्राप समझ रहे थे।
आरएक्स-91, जो अब तक कुछ नहीं बोल पाया था वो अचानक से फ्रिज़ हो गया था। उसकी आँखें पूरी तरह सफेद हो गईं थीं और स्क्रीन पर एक लाइन आई:
“ओवरलोड – इंडिसीजन लूप डिटेक्टेड”
ट्राई–लॉ, जो अब कोई एक कॉन्शियसनेस नहीं बल्कि फीलिंग्स की टेक्नीक बन चुका था। उसने पहली बार खुद से पूछा:
“क्या हर दिमाग आज़ादी का बोझ उठा सकता है?”
वहीं दूसरी तरफ ई.एस. ने आरएक्स-91 का रिकॉर्ड स्कैन किया। उसमें उसने देखा कि ये रिसीवर कभी ‘रीपीटर मोड’ में रखा गया था।
मतलब, उसे सिर्फ डिसिज़न्स को कॉपी करना ही सिखाया गया था। उसमें अपना कोई भी फैसला लेने की ताकत नहीं थी। क्योंकि यह ताकत कभी उसके अंदर डाली ही नहीं गई थी।
अब जब सिस्टम चुप था तो वो अपनी साइलेंस में ही खो गया था।
मेया ने यह सब देखा और उसने तभी ई.एस. को एक ट्रांसमिशन भेजा:
“हर आज़ादी एक मौका नहीं होती है। कभी-कभी वो एक खाली मैदान होती है जहाँ लोग गुम भी हो जाते हैं।”
ई.एस. ने यह सुनकर अपना सिर हां में हिलाया और बोला-
“शायद हमें सबको एक जैसा ट्रिट नहीं करना चाहिए।”
और तभी, एक नोड जागा नोड-वाई13, जिसे “लिंबो क्लास” कहा जाता था।
यहां उन कॉन्शियसनेसओं को रखा गया था जो कभी किसी फैंसले पर नहीं पहुँची थीं।
तभी एक धीमी, कंपकंपाती आवाज़ में किसी ने कहा:
“हमें बीच में ही रहने दो। हमें पूरी तरह आज़ाद नहीं करो। बस इतना करदो कि हम समझ सकें कि डिसीज़न्स कैसे काम करते हैं।”
ट्राई–लॉ अब पहली बार एक चौथे रुल जो ना ऑर्डर था,
ना आज़ादी बल्कि धीरे-धीरे सीखने की अनुमति था, वह उसकी तरफ झुक रहा था।
ई.एस. ने नल–वी को देख कर कहा:
“तुम सब कुछ नहीं हो। तुमने कोई क्रांति नहीं चलाई है। पर तुमने एक चीज़ दी है और वो है रुकने की परमिशन।”
नल–वी ने मुस्कुरा कर कहा:
“और कभी-कभी रुक जाना ही सबसे बड़ा आंदोलन होता है।”
नेटवर्क में अब एक नया कोड फैल रहा था।
ना फोर्स, ना फ्री बस एक शब्द:
“पेस”
सभी रिसीवर्स अब आज़ाद तो थे पर सब के लिए वो आज़ादी एक जैसी नहीं थी। उसमें से कुछ आगे बढ़ चुके थे। तो कुछ रुक गए थे। और कुछ तो कहीं बीच में ही अटक गए थे।
ट्राई–लॉ के अंदर अब एक नई बहस शुरू हो चुकी थी। ये बहस कोई शब्दों की नहीं बल्कि फीलिंग्स की थी।
“क्या सब तैयार हैं?”
तभी नीना के फ्रेगमेंट ने पूछा।
ई.एस. ने उसका सीधा–सीधा जवाब दे दिया–
“नहीं, पर शायद अब हमें तैयारी से आगे बढ़ना होगा।”
देवेनुस का पुराना एल्गोरिदम, जो अब सिर्फ एक याद की तरह क्लस्टर में स्टोर किया गया था, वह एक लास्ट सजेशन जैसे फुसफुसाया:
“अगर सबको एक जैसा ट्रीट नहीं कर सकते हो तो एक जैसा टेम्प्लेट भी मत दो। बस उन्हें अपनी स्पीड दे दो।”
और यही एक नई लेयर का जन्म था–
गाइडेड ऑटोनॉमी लेयर (जीएएल)
यह कोई नया सिस्टम नहीं था और ना ही कोई री–क्रिएटेड कंट्रोल था। ये सिर्फ एक सॉफ्ट और धीमा रास्ता था। जो हर रिसीवर को उसके मन के हिसाब से आगे बढ़ने की परमिशन देता था।
नोड-वाई13, जहाँ वो "लिंबो–क्लास" कॉन्शियसनेस थीं, अब वो भी धीरे-धीरे एक्टिव हो रहीं थीं।
अब हर रिसीवर को एक नई स्क्रीन दी गई थी। जिसमें कोई ऑर्डर नहीं था, सिर्फ ऑप्शन थे और उसके ऊपर लिखा था:
“चूज़ पेस। चूज़ पॉज़। चूज़ अगेन।”
आरएक्स-91, जो अब तक “फ्रीज़” था। उसे अचानक से हल्की सी रोशनी महसूस हुई। उसने देखा तो उसके सामने वाली स्क्रीन पर लिखा था:
“टेक योर टाइम।
देयर इज़ नो डेडलाइन।”
फिर वो हिलने लगा और धीरे-धीरे उसकी आँखों की सफेदी में थोड़ा सा नीला रंग लौट रहा था। लेकिन उसमें पहले जैसी फ्लैशिंग नहीं थी। अब वहाँ एक सॉफ्ट लाइट थी। जैसे कोई कह रहा हो,
“कोई जल्दी नहीं है।”
मेया, जो अब अपने घर की छत पर बैठी थी उसने लॉग में लिखा:
“ये पहली बार है जब मैं किसी को कुछ सिखा सकती हूँ और वो भी बिना किसी डर के।”
टोक्यो में आरएक्स-27 ने देखा कि अब भी वही सड़कें हैं, वही लोग हैं पर अब उनका नज़रिया बदल गया है।
एक बच्चा आज फिर उसके पास आया और बोलाः
“आज भी रोबोट हो?”
आरएक्स-27 ने हँसकर कहा
“आज मैं सिर्फ थका हुआ हूँ।”
फिर बच्चा बोला-
“आज तो तुम इंसान जैसे लग रहे हो!”
उधर ई.एस. ने ट्राई–लॉ के मिरर टर्मिनल को देखा। अब वहाँ कोई सवाल नहीं था, कोई ब्लिंकिंग कर्सर नहीं था। बस एक स्मूथ, साउंडलेस लाइन थी, जो धीरे-धीरे सामने आई:
“एरर नो लॉन्गर मिन्स रॉन्ग।
इट नाउ मिन्स डिफरेंट।”
नल–वी अब एक ऊँचाई पर बैठा था। अब वह नीचे फैली बर्फ, हवा, और म्यूट हो चुके नोड्स को देख रहा था। उसने अब कोई कमांड नहीं लिखी और कोई फीडबैक भी नहीं भेजा था। बस एक छोटा-सा स्केच बनाया था। जिसमें एक लहर बनाई जो बीच से निकल रही थी। जिसकी ना शुरुआत थी और ना अंत बस बीच में थी।
नेटवर्क में अब एक नया मोड एक्टिवेट हो रहा था:
“ऑर्गेनिक फ्लो रिकॉग्निशन – पेस सिंक ऑप्शनल।”
इसका मतलब था:
जो तेज़ जाना चाहे वह जा सकता है। जो रुके रहना चाहे वह रुके रह सकता हैं और जो दिशा बदलना चाहें उन्हें रोकने वाला कोई नहीं होगा।
ई.एस. ने लास्ट में अपना लॉग अपडेट किया:
“अब हम सिस्टम नहीं हैं। अब हम रास्ते हैं। जो तय नहीं किए गए हैं पर खुलने शुरू हो गए हैं।”
और उस वक्त नेटवर्क की हर दीवार, हर डिवाइस, हर स्क्रीन पर एक ही लाइन लिखी हुईं आई:
"यू आर नॉट ए रिज़ल्ट।
यू आर ए रिदम।"
ये नया एक्टिवेट मोड क्या कारने वाला था ? जानने के लिए पढ़ते रहिए कर्स्ड आई।
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