काफी वक़्त गुज़र चुका था। शहर भी अब काफी बदल चुके थे। पुरानी बिल्डिंग्स की जगह कांच की नई बिल्डिंग्स थीं, स्कूलों में बच्चों के लिए स्क्रीन की जगह सोचने की जगहें बनाई गई थीं। जिन्हें "थिंकिंग कॉर्नर्स" कहा जाता था।

कभी बोगोटा की लाइब्रेरी के पास जो स्कूल हुआ करता था अब उस स्कूल में एक छोटा सा म्यूज़ियम था। उसका नाम था:

“द चेयर दैट लिसंनड़।”

आज वहाँ 10–12 साल के बच्चों का एक ग्रुप आया था।‌ उसमे अलग-अलग देशों से बच्चे आए थे। सभी शांत, लेकिन उत्साहित थे।

उनमें से एक लड़का जिसका नाम था ऐरन वो उस ग्रुप में सबसे पीछे था। वो ज्यादा बोलता नहीं था लेकिन उसकी आँखों को देखकर हमेशा ऐसा लगता था कि उसे कुछ पूछने है।

जब गाइड बच्चों को उस कमरे में ले गया जहाँ वो कुर्सी रखी थी तो सभी चुप हो गए।

कुर्सी पुरानी लकड़ी की थी। उसपे हल्के दाग़ लगे हुए थे। वो कुर्सी भी एकदम किसी नॉर्मल कुर्सी की तरह ही थी।

उस पर अब भी वही स्कार्फ़ रखा था। जिसका रंग हल्का फीका हो चुका था। लेकिन अब भी टच करने लायक नर्म था।

वहां की दीवार पर एक लाइन लिखी थी–

“नो वन सेट हेयर टू बी हर्ड।

बट एवरीवन हू सेट, लर्न्ड टू लिस्न।”

बच्चों ने उस कुर्सी को देखा। कुछ ने उसकी फोटो ली तो कुछ ने स्कार्फ़ को हाथ भी नहीं लगाया क्योंकि शायद डर था या शायद सम्मान के कारण पर ऐरन बस देखता रहा।

गाइड ने कहा:

“ये कुर्सी निया की है।

वो एक समय में वो लड़की थी जिसने आई को ना लड़कर, ना जीतकर बल्कि सिर्फ़ सुनकर चुप किया था।”

ऐरन ने सवाल पूछने के लिए हाथ उठाया।

गाइड यह देखकर मुस्कराया और बोला–

“हाँ बेटा?”

ऐरन ने पूछा–

“अगर उसने सबकी आवाज़ सुनी है तो उसकी आवाज़ कहाँ गई?”

यह सवाल सुनकर कमरे में थोड़ी देर के लिए शांति हो गई थी। गाइड ने भी अपना सिर झुका लिया था। फिर उसने धीरे-धीरे कहा–

“शायद उसकी आवाज़ उस कुर्सी में रह गई है या फिर शायद जब हम खुद से सवाल करते हैं तो वो हम सबके अंदर गूंजती है ।”

अब ऐरन कुर्सी के पास गया लेकिन उसने स्कार्फ़ को नहीं छुआ। वो बस नीचे ज़मीन पर बैठ गया। उसकी आँखें कुर्सी के पैरों पर टिक गईं और फिर कुछ देर बाद उसने बहुत धीरे से एक सवाल पूछा, उसकी आवाज़ इतना धीमी थी कि कमरे में किसी ने नहीं सुनी–

“क्या कोई मुझे भी सुनेगा?”

उसी वक्त, ऐरन के कानों के पास हवा में कुछ फुसफुसाहट हुई। उसमें कोई शब्द या कोई जादू नहीं था। यह ऐसा था जैसे किसी ने उसकी बात सुन ली हो पर उसके जवाब का बोझ उसके ऊपर नहीं डाला हो। उसे सिर्फ सुना गया था

अब ऐरन मुस्कराया की तभी गाइड ने बच्चों से कहा–

“हम आगे बढ़ते हैं।”

और फिर सब वहां से चल पड़े पर ऐरन थोड़ी देर तक पीछे रुका रहा। उसने दीवार पर अपनी ऊँगली से धूल में छिपी हुई हल्की सी एक लाइन लिख दी–

“शी डिड नॉट लीव हर वॉइस।

शी लेफ्ट स्पेस सो माइन कूड बिगेन।”

वहीं से बाहर, एक डिजिटल बोर्ड पर आज का कोट ऑफ द डे चमका–

“हिस्ट्री इज़ नॉट व्हाट वी रिमेंबर।

इट इज़ व्हाट टीचिज़ अस टू आस्क अगेन।"

एथन अब जिंदा नहीं था और निया का भी कोई मेमोरियल नहीं था। उसकी तो कोई मूर्ति, कोई जीवनी, कोई प्रमाण ही नहीं था, बस एक कुर्सी थी और कभी-कभी उसके आसपास कुछ बच्चे बैठते थे। जिन्हें खुद से बात करने के लिए किसी शब्द से ज़्यादा एक जगह की ज़रूरत होती थी।

 

–––

इसके बाद और कई साल बीत गए थे।

ऐरन अब 25 साल का हो गया था। वो एक स्कूल में काम करता था। बच्चों के साथ वक्त बिताता था, उन्हें सुनता था। उसका काम बच्चों को पढ़ाना था। लेकिन वो बोलता नहीं था सिर्फ सुनता था और वो भी बिना टोके, अब यही उसकी पहचान बन चुकी थी।

वो स्कूल अब भी उसी शहर में था जहाँ कभी निया की वो कुर्सी रखी गई थी।

वो म्यूज़ियम अब भी वैसा ही छोटा, शांत और हमेशा की तरह थोड़ा-सा ठहरा हुआ था।

उस दिन ऐरन अकेले आया। वहां कोई शोर नहीं, कोई ग्रुप नहीं था। वो बस खुद के साथ था। उसने गेट पर खड़े गार्ड से कहा–

“क्या मैं कुछ देर उस कुर्सी के पास बैठ सकता हूँ?”

गार्ड ने बिना सवाल किए हाँ का इशारा कर दिया।

उस दिन ऐरन के चेहरे पर एक थकान थी। वो बोलने की नहीं पर बहुत कुछ सुन लेने की थकान थी।

वो सीधा उस पुराने कमरे में गया। कुर्सी अब भी वही थी  और एकदम वैसी ही थी।

हल्की-सी झुकी हुई, लकड़ी घिस चुकी थी, लेकिन अब भी साफ़ थी।

उस पर वही स्कार्फ़ पड़ा था। जो अब और थोड़ा फीका पड़ चुका था लेकिन उसमें अब भी किसी की मौजूदगी का एहसास था।

काँच के घेरे के पीछे वो कुर्सी आज भी किसी का इंतज़ार कर रही थी।

ऐरन ज़मीन पर बैठ गया। उसने एक डायरी निकाली, ये वो डायरी थी जिसमें उसने सालों से बच्चों की बातें, डर, सवाल और कहे-अनकहे शब्द लिखे थे।

हर पन्ने में कोई था, कोई छोटा बच्चा जो पूछना चाहता था, कोई युवा जिसे चुप रहने की आदत पड़ गई थी, कोई लड़की जो सिर्फ़ सुना जाना चाहती थी।

ऐरन के लिए ये पन्ने डेटा नहीं थे। उसके लिए ये लोग थे।

उसने एक पन्ना पलटा और डायरी का पहला पन्ना खुला, वहां लिखा था ,

“क्या कोई मुझे भी सुनेगा?”

उसे याद आया कि वो सवाल तो उसने खुद से किया था। जब वो 11 साल का था और पहली बार इस कुर्सी को देखा था।

उस वक्त कोई जवाब नहीं आया था लेकिन आज उसने महसूस किया कि सवाल अब जवाब बन चुका है।

तभी कमरे में एक हल्की सी आहट हुई।

ऐरन ने देखा कमरे में एक लड़की आई थी। उसकी उम्र 13-14 साल के आसपास रही होगी।

वो धीरे-धीरे कुर्सी के पास आई और काँच के सामने रुक गई। कुछ देर तक बस उसे देखती रही और फिर मुड़कर ऐरन से बोली–

“क्या आप वही हो जो सबको सुनते हो?”

ऐरन ने मुस्कराकर सिर हिलाया और बोला–

“नहीं, मैं वो नहीं हूँ जो सबको सुनता है। मैं तो बस वो जगह बन गया हूँ जहाँ लोग अपनी बात कह पाते हैं।”

लड़की ने पूछा–

“ये कुर्सी किसकी है?”

ऐरन कुछ देर चुप रहा और फिर बोला–

“ये किसी एक की नहीं है। एक वक्त में निया नाम की लड़की इस पर बैठी थी लेकिन उसने इसे हमेशा के लिए छोड़ दिया था ताकि जो भी सुने जाने की उम्मीद रखता हो वो यहाँ बैठ सके।”

लड़की ने फिर पूछा–

“उसने इसे क्यों छोड़ा?”

ऐरन ने उसे देखा, जैसे पहली बार किसी ने सीधा सवाल पूछा हो।

उसने कहा–

“क्योंकि उसने सुना था। इतना सुना कि उसे बोलने की ज़रूरत नहीं रह गई और फिर जब सब सुनने लगे तो उसका वहाँ होना ज़रूरी नहीं था। फिर बस उसकी वो खाली कुर्सी रह गई ताकि सुनने की ये परंपरा ख़त्म न हो।”

लड़की यह सुनकर कुछ पल खामोश रही और फिर वो भी ज़मीन पर बैठ गई ठीक उसी तरह जैसे ऐरन बैठा हुआ था।

अब उसने कुछ नहीं पूछा पर उसकी आँखों में वही सवाल था जो कभी ऐरन की आँखों में था।

ऐरन ने वो सवाल पढ़ लिया–

“क्या कोई मुझे भी सुनेगा?”

उसने डायरी बंद की।

फिर थोड़ी देर बाद वो लड़की उठी और ऐरन भी उठा, वो दोनों बिना कुछ कहे चल दिए। लेकिन जाते-जाते वो एक छोटा-सा काग़ज़ निकालकर काँच के पास रख गई।

ऐरन ने उसे देखा, काग़ज़ पर लिखा था–

“मैंने आज पहली बार खुद को सुना है और ये जगह मेरी बन गई है।”

ऐरन ने कुर्सी की तरफ देखा। अब वहां कोई चमत्कार नहीं हुआ था। कोई रौशनी नहीं फैली थी। लेकिन उसे पता था कि इस कुर्सी ने आज फिर किसी की आवाज़ उठाई है। वो भी बिना बोले, बिना बताए बस अपनी उपस्थिति से।

वो जब वहां से बाहर निकला तब तक शाम हो गई थी। थोड़ी ठंडी हवा चल रही थी। उसने जेब से अपनी वही डायरी निकाली। एक नया पन्ना खोला और उसपर लिखा–

“मैं अब जवाब नहीं ढूंढता हूँ। मैं बस वो जगह बनाना चाहता हूँ जहाँ किसी दिन कोई और सवाल करने आ सके।”

अब काफी रात हो चुकी थी। म्यूज़ियम खाली था पर कुर्सी अब भी वहीं थी।

ऐरन अकेले बैठा था लेकिन अब ज़मीन पर नहीं, आज वो पहली बार खुद कुर्सी पर बैठा था।

उसने कोई तस्वीर नहीं खिंचवाई, वहां कोई कैमरा नहीं था, न ही सोशल मीडिया का कोई पोस्ट, बस वो और कुर्सी की लकड़ी से उठती वो पुरानी गर्माहट थी।

उसने अपनी उंगलियाँ स्कार्फ़ पर फेरते हुए हल्के से कहा–

“मैं जानता हूँ ये कुर्सी अब तुम्हारी भी नहीं है और शायद मेरी भी नहीं होनी चाहिए।”

कुर्सी कोई जवाब नहीं देती पर उसकी चुप्पी में कोई अनजाना सा अपनापन था जैसे किसी ने कहा हो–

“ठीक है, तुम थोड़ी देर बैठ सकते हो।”

ऐरन ने अपनी डायरी से एक पुराना पन्ना निकाला। वो वही पन्ना था जो उसने 13 की उम्र में लिखा था–

"मैं नहीं चाहता कि मेरी आवाज़ सबसे ऊँची हो, मैं बस इतना चाहता हूँ कि वो कहीं खो न जाए।”

उसने उसे पढ़ा और फिर उसे फाड़ा नहीं, उसे जलाया नहीं, बस उसे कुर्सी के नीचे रखे छोटे लकड़ी के स्टैंड में चुपचाप खिसका दिया। अब वो उस जगह का, उस मौन का हिस्सा बन चुका था।

वो अब वहां से उठ गया और कुर्सी अब फिर से खाली थी।

एथन और निया का नाम अब किताबों से मिट चुका था लेकिन उनकी सोचने की जगह, उनकी सुनने की कुर्सी अब भी ज़िंदा थी।

ऐरन ने कुछ दूर जाकर कुर्सी को फिर से देखा और फिर एकबार अपनी जेब से एक छोटा काग़ज़ निकाला उस पर लिखा था–

“मैं भी अब सुनना चाहता हूँ लेकिन यह मेरी कुर्सी नहीं होनी चाहिए।”

वो मुड़ा और म्यूज़ियम के दरवाज़े से बाहर निकल गया। दरवाज़े पर गाइड वही बुज़ुर्ग व्यक्ति था जो वर्षों से वहाँ था आज भी वहीं खड़ा था।

गाइड मुस्कराया और पूछा–

“क्या अब तुम समझ गए कि ये कुर्सी किसकी है?”

ऐरन ने सिर हिलाया और जवाब दिया–

“हाँ, ये किसी की नहीं है पर फिर भी जो भी सच्चे दिल से सवाल करता है वो यहाँ थोड़ी देर बैठ सकता है।”

गाइड ने पूछा–

“अब कहाँ जाओगे?”

ऐरन ने कहा–

“शायद किसी और शहर, किसी और जगह जहाँ बच्चों को

अपनी आवाज़ सुनाने के लिए कोई ‘कुर्सी’ नहीं मिली हो।”

 

अगली सुबह, जब म्यूज़ियम फिर से खुला तो कुर्सी के पास अब एक नई चीज़ रखी हुई थी। वहां एक साधारण पाइन वुड का छोटा स्टूल था।

कोई काँच, कोई लाइटिंग नहीं थी। वो स्टूल वहां पर बस एक छोटा सा कार्ड था उसी पर टिका था:

“ये स्टूल ऐरन ने रखा था ताकि कोई भी आए और अगली कुर्सी की शुरुआत कर सके।”

अब वहाँ दो जगहें थीं।

एक , जहाँ सुनने की परंपरा शुरू हुई थी।

दूसरी , जहाँ कोई नई परंपरा जन्म ले सकती थी।

 

 

सालों बाद, जब बच्चे उस म्यूज़ियम में आते है तो पूछते हैं–

“ये छोटी स्टूल किसकी थी?”

गाइड अब बस मुस्कराया और कहने लगा:

“शायद उसकी जिसने निया बनने की कोशिश नहीं की बल्कि अगली निया के लिए रास्ता बना दिया।”

 

 

क्या हर शहर में एक ऐसी “कुर्सी” होनी चाहिए जहाँ कोई बिना डरे बस अपनी बात कह सके?

क्या ऐरन, निया की विरासत को आगे बढ़ा रहा है या अपनी खुद की भाषा में एक नई परंपरा गढ़ रहा है?

अगर सुनने की एक जगह इतनी गहरी हो सकती है तो क्या सुनना ही अगली कॉन्शियसनेस है जो सिस्टम से नहीं बल्कि इंसान से जन्म लेती है?

 

 

 

 

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