कुछ फैसले ऐसे होते हैं, जो हमें अपनी चाहतों से दूर कर देते हैं।  

श्रेया और संकेत की हालिया बातचीत ने उनके दिलों के जख्मों को फिर से ताजा कर दिया था।  

उस मुलाकात ने श्रेया के मन में एक बात साफ कर दी थी—उसकी प्राथमिकता हमेशा उसका परिवार रहेगा।  

श्रेया ने हमेशा खुद को एक मजबूत बेटी और जिम्मेदार इंसान के रूप में देखा था। . अब, हालात ने उसे उस मोड़ पर ला खड़ा किया था, जहाँ उसकी अपनी इच्छाओं और सपनों का कोई ठिकाना नहीं था।  

पापा की बीमारी के बाद, अपनी माँ की बिगड़ती तबीयत ने उसके कंधों पर घर का पूरा भार ला दिया था।  

श्रेया की मॉम  अपने घर में सोफे पर बैठी थीं। उनकी आँखों में थकान और चेहरे पर कमजोरी साफ झलक रही थी। श्रेया उनके पास बैठी थी, उनके हाथों को थामे हुए। टेबल पर दवाइयों की शीशियाँ और पानी का गिलास रखा था।  

  

श्रेया की मॉम :  

"श्रेया, बेटा, तुझसे ये सब काम नहीं होगा। तू दिन-रात बस भागती रहती है। ये घर का काम, पढ़ाई, और ऊपर से हमारी देखभाल... ये सब अकेले कैसे संभालेगी?"  

  

श्रेया :  

"माँ, आप चिंता मत करो। सब कुछ संभाल लूंगी। अभी आपकी और पापा की तबियत का ध्यान रखना सबसे ज़रूरी है। मेरी पढ़ाई तो चलती रहेगी।"  

  

 

शब्दों में जो ठहराव था, वो उसके मन की हलचल को छुपा नहीं पा रहा था।  

श्रेया अपने आप को बार-बार ये यकीन दिलाने की कोशिश कर रही थी कि सबकुछ ठीक हो जाएगा।  

उसकी आँखों की थकावट और उसके चेहरे की फीकी पड़ चुकी मुस्कान उस सच्चाई को बयां कर रही थी, जो उसके दिल में पल रही थी।  

  

श्रेया की मॉम :  

"बेटा, मैंने तुझसे पहले भी कहा है, हम लोग हैं न। तू अपने सपनों से समझौता मत कर। तुझे जो करना है, कर। तुझे ये फेलोशिप मिल जाए तो, हमारी जिंदगी बेहतर हो सकती है।"  

  

श्रेया :  

"माँ, मेरे सपने तो आप लोगों से जुड़े हुए हैं।  

अगर मैं अपनी फेलोशिप के पीछे भागूँ और आपको इस हालत में छोड़ दूँ, तो क्या मैं सच में खुश रह पाऊंगी?  

अभी जो सबसे ज़रूरी है, वो है आपका ठीक होना। बाकी सब बाद में देखा जाएगा।"  

    

श्रेया के दिल में अपनी माँ के लिए गहरा सम्मान और प्यार था।  

वो जानती थी कि उसके पापा की तबियत पहले से खराब है, और अब उसकी माँ की भी सेहत दिन-ब-दिन बिगड़ रही है।  

 

  

श्रेया की मॉम :  

"श्रेया, तूने बचपन से ही हर मुश्किल को अपने ऊपर ले लिया है।  

पढ़ाई में हमेशा सबसे आगे, पापा के बिज़नेस के खराब होने के बाद भी तूने कभी हार नहीं मानी। बेटा, हमें तेरी भी फिक्र है।"  

  

श्रेया :  

"माँ, आप और पापा मेरी ताकत हो।  

आपकी हिम्मत ही मुझे आगे बढ़ने का हौसला देती है।  

जब तक आप दोनों मेरे साथ हो, मैं कुछ भी कर सकती हूँ।"  

  

 

शब्दों के पीछे छुपी एक अनकही सच्चाई थी।  

श्रेया को अपनी माँ को सुकून देने के लिए ये मजबूती दिखानी पड़ी।  

सच ये था कि उसका मन अंदर से बुरी तरह टूट रहा था।  

हर रोज़ बढ़ती जिम्मेदारियाँ, हर दिन के साथ और गहरी होती चिंताएँ—ये सब उसे धीरे-धीरे उसकी खुद की पहचान से दूर ले जा रहे थे।  

  

श्रेया धीरे-धीरे अपने कमरे में गई। कमरे में एक कोने में किताबों का ढेर पड़ा था। उसके पास उसकी फेलोशिप का एप्लीकेशन रखा था, जिस पर अब तक साइन नहीं हुए। उसने उसे उठाकर गौर से देखा,  फिर धीरे से मेज पर रख दिया।  

  

  

 

श्रेया के लिए ये फैसला लेना आसान नहीं था।  

उसके हाथ में वो फेलोशिप थी, जो उसके भविष्य को बदल सकती थी।  

उस भविष्य की राह में उसे अपने परिवार से दूर जाना पड़ता।  

  

श्रेया :  

"कैसे करूँ ये सब?  

क्या मेरे सपनों की कीमत मेरे परिवार से दूरी है?"  

  

  

वो खिड़की के पास जाकर बाहर देखती है। आसमान में तारे टिमटिमा रहे हैं। पर इस खामोशी में भी उसका मन बेचैन है।  

कभी-कभी, ज़िंदगी हमें ऐसे चौराहे  पर लाकर खड़ा कर देती है, जहाँ से हर रास्ता सही भी लगता है और गलत भी।  

श्रेया के लिए, उसका परिवार उसकी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी थी।  उसकी आँखों में अब भी उन सपनों की झलक थी, जो उसने कभी अपने लिए देखे थे।  

अगले दिन कॉलेज में राज एक पुराने सफेद बोर्ड पर चैरिटी इवेंट की डिटेल्स लिख रहा था तभी वहाँ श्रेया आती है।  

  

राज :  

"अरे श्रेया! क्या हुआ, तुम इतनी जल्दी यहाँ?"  

  

श्रेया :  

"बस… कुछ देर के लिए बाहर निकलने का मन किया।"  

  

 

राज ने महसूस किया कि श्रेया के चेहरे पर थकान थी। उसकी हरकतें धीमी हो चुकी थीं, जैसे कोई इनवीसीबल वैट  उसे खींच रहा हो।  

  

राज :  

"तुम्हें एक ब्रेक की सख्त जरूरत है। कब तक खुद को इस तरह थकाती रहोगी?"  

  

श्रेया :  

"ब्रेक लेने का समय कहाँ है, राज? हर दिन नई ज़िम्मेदारियाँ सामने आती हैं।"  

  

राज :  

"तो चलो, मेरे साथ। इस वीकेंड मैं पास के एक गांव में जा रहा हूँ, जहाँ हम लोग बच्चों के लिए एक छोटी लाइब्रेरी बना रहे हैं। तुम साथ आओगी, तो अच्छा लगेगा।"  

  

श्रेया :  

"राज, तुम जानते हो न... मेरे लिए कहीं जाना कितना मुश्किल है। माँ-पापा की तबियत... मैं उन्हें अकेला कैसे छोड़ दूँ?"  

  

राज :  

"श्रेया, ये सिर्फ तुम्हारे लिए नहीं, उनके लिए भी है। तुम खुद को इतना थका लोगी कि उनकी देखभाल करना भी मुश्किल हो जाएगा। एक दिन, सिर्फ एक दिन के लिए सबकुछ छोड़कर खुद के लिए जीने की कोशिश करो। और इस काम में तुम्हें सुकून भी मिलेगा।"  

  

 

राज के शब्दों में एक गहरी सच्चाई थी।  

श्रेया जानती थी कि वह अपने परिवार के लिए तभी कुछ कर पाएगी, जब वह खुद भी मजबूत और संतुलित रहे।  

  

श्रेया :  

"ठीक है। मैं चलूंगी। सिर्फ एक दिन के लिए।"  

  

राज :  

"बस एक दिन काफी है, श्रेया। तुम्हें लगेगा कि यह यात्रा सिर्फ बच्चों के लिए नहीं, तुम्हारे लिए भी है।"  

  

 

श्रेया को खुद भी कभी-कभी हैरानी होती थी कि वो राज के इन इवेंट्स के लिए इतनी आसानी से हाँ क्यों कह देती है। 

वो जो हर छोटी-से-छोटी चीज़ को लेकर प्रैक्टिकल  थी, अपनी पढ़ाई और घर की जिम्मेदारियों में इतनी उलझी हुई थी, अचानक से किसी चैरिटी इवेंट या वीकेंड ट्रिप के लिए कैसे तैयार हो जाती?  दरअसल, इसका जवाब उसके अपने स्वभाव में ही छुपा था। 

श्रेया हमेशा से गइविंग नेचर  की थी। 

वो उन लोगों में से थी जो दूसरों की खुशी में अपनी खुशी ढूंढते हैं। 

यही वजह थी कि उसने अपने पापा की बीमारी और बिजनेस के फेल होने के बाद पूरे घर की जिम्मेदारी अपने सिर पर ले ली थी। 

 

प्यार और रिश्ते उसके लिए मायने रखते थे, उससे भी ज्यादा, वो उस रिश्ते में कैसे कन्ट्रिब्यूट  कर सकती है, ये उसे ज्यादा चिंता में डालता था। 

राज के हर नेक काम में वो अपनी उसी भावना को जीती थी। 

उसे लगता था कि भले ही वो अपनी ज़िंदगी में खुद के लिए बड़े सपने ना देख पाए, किसी और की ज़िंदगी में एक छोटा सा बदलाव लाने का हिस्सा बनना भी शायद उसकी पर्पस  को पूरा कर देगा। 

राज ने जैसे ही उससे वीकेंड ट्रिप पर चलने की बात कही थी, श्रेया ने कुछ पल के लिए झिझक ज़रूर दिखाई थी। 

राज के उत्साह और उसके काम का मकसद जानने के बाद, उसने धीरे से 'हाँ' कर दी। 

शायद ये उसके लिए खुद को थोड़ी देर के लिए उस जिम्मेदारी के बोझ से अलग करने का एक जरिया भी था। 

 

श्रेया को भले ही ये एहसास न हो, ये 'हाँ' कहना एक तरह से उसकी अपनी तलाश थी। 

उसके भीतर कहीं ना कहीं, वो अपनी ज़िंदगी में एक पल की राहत, एक छोटी सी खुशी ढूंढ रही थी। 

  

श्रेया और राज गाँव की तरफ जाने वाली बस में बैठे थे। चारों ओर हरियाली और शांत वातावरण। राज बच्चों से उनकी पढ़ाई और जरूरतों के बारे में बात कर रहा था, जबकि श्रेया चुपचाप उनकी मुस्कुराहटों को देख रही थी। 

गाँव पहुँच कर उन बच्चों के चेहरों पर मुस्कान देखकर श्रेया के मन में एक अलग ही शांति आई। 

राज के साथ रहकर उसे एहसास हुआ कि ये सिर्फ चैरिटी नहीं थी। 

ये उसके लिए एक ऐसी दुनिया का हिस्सा बनने जैसा था, जहाँ उसकी छोटी-सी कोशिश किसी की ज़िंदगी में बड़ी खुशी ला सकती थी। 

शायद यही कारण था कि वो राज के इन नेक कामों का हिस्सा बन जाती थी। 

 

  

दूसरी तरफ शाम के वक्त में संकेत मल्होत्रा हाउस में अपने कमरे में अकेला बैठा, खिड़की से बाहर की ओर देख रहा था।   

  

  

संकेत के लिए, घर अब केवल एक जगह नहीं, बल्कि एक घुटन भरा दायरा बन चुका था।  

उसकी माँ की उम्मीदें, उसके पिता की डांट—ये सब अब उसके लिए असहनीय हो गए थे।  

और श्रेया का न होना... वो खालीपन हर रोज़ उसे और भी ज्यादा महसूस होता था।  

  

संकेत :  

"श्रेया… तुम्हारे बिना ज़िंदगी और भी सुनी लगती है।"  

  

  

संकेत की मॉम 

"संकेत! नीचे आओ, हमें बात करनी है।"  

  

 

संकेत ने ये सब अनसुना कर दिया। उसकी माँ की आवाज़ अब उसके लिए सिर्फ एक reminder बन चुकी थी—उसके कंधों पर परिवार की उम्मीदों का बोझ।    

उसका दिल कहता था कि वह श्रेया से बात करे, उससे अपने दिल की बात कहे।  उसके पास शब्द नहीं थे, और न ही हिम्मत।  

  

राज श्रेय को जीस गाँव में ले गया था... वो शांति और सादगी से भरा हुआ था।  

छोटे-छोटे घर, खेलते हुए बच्चे, और गाँव की ताज़गी ने श्रेया के मन में एक अलग ही सुकून पैदा कर दिया था।  

  

राज :  

"देखो, श्रेया। ये बच्चे लाइब्रेरी का इंतजार कर रहे हैं। हम उन्हें वो सब देंगे, जो शायद उन्हें कभी नहीं मिला। किताबें, कहानियाँ, सपने..."   

  

श्रेया :  

"ये बहुत अच्छा काम है, राज। तुम्हारे अंदर ये जज़्बा कहाँ से आता है?"  

  

राज :  

"शायद इसलिए कि मैं जानता हूँ, दूसरों की मदद करना हमें खुद को बेहतर इंसान बनाता है। जब हम किसी को कुछ देते हैं, तो हमें खुद भी बहुत कुछ वापस मिलता है।"  

  

श्रेया ने राज की बातों में एक गहराई महसूस की।  

उसे पहली बार एहसास हुआ कि जीवन केवल अपनी परेशानियों में उलझने का नाम नहीं है।  

कभी-कभी दूसरों के लिए कुछ करने से, हमारी खुद की परेशानियाँ हल्की हो जाती हैं।  

  

श्रेया :  

"शायद... मैं भी यही भूल गई थी। अपने लिए जीने का मतलब।"  

  

 

संकेत के लिए, हर बीतता लम्हा एक याद बनता जा रहा था।  

वो प्यार जो उसकी दुनिया की सबसे बड़ी खुशी थी, अब उसकी सबसे बड़ी कमी बन चुका था।  

  

संकेत :  

"श्रेया... तुम शायद अपने रास्ते पर सही हो।  

मेरा रास्ता... शायद तुम्हारे बिना अधूरा ही रहेगा।"  

  

प्यार के रास्ते हमेशा आसान नहीं होते।  

कभी-कभी, वो हमें ऐसी जगह ले जाते हैं, जहाँ हमें अपने आपसे, अपनी priorities से, और अपने सपनों से सवाल करने पड़ते हैं।  

श्रेया और संकेत, दोनों ने अपने-अपने रास्ते चुन लिए थे।  

क्या ये रास्ते उन्हें उनके अधूरे सपनों की ओर ले जाएंगे?  

  

जानने के लिए पढ़िए ... "कैसा ये इश्क है" का अगला एपिसोड।  

 

 

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