(चिल्लाने की आवाज़ आती है) “हे राम, मुझे टक्कर मार दी, सत्यनास जाए तेरा”

रोहन : ऊपर वाले का शुक्र करो काका, कोई चोट नहीं लगी।

हुआ यूँ था कि काफी देर धक्का लगाने के बाद भी जब स्कूटर स्टार्ट नहीं हुआ था तो रोहन को गुस्सा आने लगा। उसने गुस्से में स्कूटर को इतनी ज़ोर से धक्का मारा कि बबलू उसे संभाल नहीं पाया और सीधा एक साइकिल से जा टकराया। साइकिल वाले काका चिल्लाये तो ऐसे, जैसे उन्हें बड़ी चोट लगी हो मगर असल में ऐसा कुछ नहीं हुआ। तभी रोहन ने उन्हें बड़े नरम लहजे में समझाया लेकिन रोहन की बात सुनकर वह आदमी बिफर गया। उसने तपाक से कहा कि “मैं नहीं, तुम शुक्र करो, मुझे चोट नहीं लगी। अगर मुझे ज़रा सी भी खरोंच आ जाती तो मैं तुम्हें अच्छा मज़ा चखाता। वैसे भी यह जो साइकिल का हैंडल टेढ़ा हुआ है, उसके तो तुम्हें पैसे देने होंगे”। उस आदमी की बात सुन कर बबलू को गुस्सा आ गया। इससे पहले वह उस आदमी पर अपना गुस्सा निकालता, रोहन ने बात को सँभालते हुए कहा, ‘’तुम्हारी साइकिल का हैंडल टेढ़ा हुआ है ना, मैं उसे ठीक कर देता हूँ, तुम टेंशन मत लो।''

बिना समय गंवाए रोहन ने तुरंत साइकिल के हैंडल को सीधा कर दिया। वह आदमी बड़बड़ाता हुआ वहाँ से चला गया। अगर बबलू का ध्यान स्कूटर को संभालने में नहीं होता तो दोनों में झगड़ा ज़रूर हो जाता। थोड़ी देर में वह स्कूटर को स्टार्ट करने में कामियाब हो गया।

उसने ख़ुशी का इज़हार करते हुए कहा, “भाई स्कूटर स्टार्ट हो गया, अब तुम्हें धक्का लगाने की ज़रुरत नहीं पड़ेगी ।'' रोहन को गुस्सा तो बहुत आया लेकिन उसने किसी तरह अपने आप को कंट्रोल किया और भगवान का नाम लेकर दोनों फिर से मिल की तरफ चल दिए।  

 

उधर अपर्णा निवास में सुषमा के जाने के बाद माया ने अपनी भाभी से बहुत सारी बातें की, जिनमें ज़्यदातर या तो ताने थे या उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश। सुरेंद्र जब ज़िंदा थे तब भी वह अपर्णा को नीचा दिखाने से पीछे नहीं रहती थी। अभी भी उसकी आँखे चारों तरफ चल रही थी। उसने कहा, “भाभी नौकरों पर सारा काम नहीं छोड़ सकते, वह करेंगे थोड़ा सा काम और बताएँगे बहुत ज़्यादा, और फिर चोरी करने में भी यह लोग सबसे आगे रहते है”।

अपर्णा समझ गयी थी कि माया सुषमा के बारे में बोल रही है। अपर्णा ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘’अच्छा हुआ,  तुम आ गयी। अब सारा काम तुम ही संभालो।''

अपर्णा की बात सुन कर माया थोड़ी असहज हो गयी। उसने हिचकिचाते हुए कहा, “हाँ हाँ, क्यों नहीं भाभी, मेरे भाई का श्राद्ध है, मैं सारा काम संभाल लूंगी, आप बिल्कुल भी चिंता ना करो ।'' माया यह कह कर वहां से चली गयी, अपर्णा ने भी उसे रोका नहीं क्योंकि वह खुद नहीं चाहती थी कि माया उसके साथ फालतू की बातें करे।  

आज सुरेंद्र को दुनिया को छोड़ कर गए चार साल के करीब हो गए थे। करोना काल में ज़्यादातर लोगों ने अपना कुछ ना कुछ खोया था। अपर्णा ने भी उस मुश्किल समय में अपने पति को खो दिया था। अपर्णा को अपने पति से बस एक यही शिकायत थी कि आखिरी समय में उन्होंने अपर्णा की एक ना सुनी और घर से ज़्यादा समय mill में गुज़ारा था।

सुरेंद्र का स्वभाव ही ऐसा था। वह लोगों की मदद के लिए हमेशा आगे रहते थे। उन्होंने  कभी सोचा भी नहीं था कि लोगों के लिए उनकी यह सेवा भावना उन्हें अपनी पत्नी और बेटे से दूर कर देगी। आखिरी समय में अपर्णा ने अपने पति को हॉस्पिटल में दूर से ही देखा था।

रही बात सुषमा और उसके पति हरी की, वह तकरीबन 25 सालों से उनके साथ रह रहे थे। उनका जितना ख्याल वे दोनों रखते थे, वह माया की सोच से भी परे था। जैसे अभी, सुषमा अपने पति हरी के साथ, अपर्णा के लिए नाश्ते की ट्रे लेकर खड़ी थी। उन्हें देखते ही अपर्णा ने कहा, ‘’अभी-अभी माया पूजा के काम को बोल कर गयी है। कहीं ऐसा ना हो, वह बनते हुए काम को भी बिगाड़ दे।

अपर्णा अपनी ननद की फितरत से पूरी तरह से वाकिफ़ थी, माया हमेशा अपनी बड़ाई ही करती थी लेकिन काम करती नहीं, बिगाड़ती थी। उसके मन में इतना कपट था कि अपने सामने किसी को खुश नहीं देख सकती थी। वहीं सुषमा उससे एक दम अलग थी। उसके मन में दूसरों के लिए इज़्ज़त और प्यार रहता था, जब तक कोई दूसरा उसके किसी अपने को दुख ना पहुंचाए। माया तो उसकी प्यारी दीदी अपर्णा को ही ताने सुना रही थीं, फिर उनको वह कैसे छोड़ती। उसने अपर्णा की बात का जवाब देते हुए कहा:

 

सुषमा :  

(मुस्कान के साथ) दीदी, आपको लगता है वह कुछ काम करेंगी? एक नंबर की कामचोर हैं। मैं अभी देख कर आ रही हूं, वह आँगन में औरतों से खड़ी बतिया रही हैं।

 

हरी : दीदी इंसान की फितरत को बदला नहीं जा सकता। वह जैसी हैं, वैसी ही रहेंगी। उनको छोड़िए, आपने सुबह से कुछ खाया नहीं। कुछ खा लीजिए।

दोनों अपर्णा के लिए ट्रे में पोहा लेकर आये थे। पोहा अमूमन उत्तराखंड, जोकि पहले उत्तर प्रदेश था, में नाश्ते में नहीं बनाया जाता मगर अपर्णा के घर में यह हर दो दिन छोड़ कर बनता था। सुषमा के हाथ के खाने में अपर्णा के स्वाद की खुशबू साफ़ आती थी क्यूंकि पोहा बनाया भले ही सुषमा ने था, मगर बनाने का तरीका और मसालों का सही मिश्रण अपर्णा ने ही उसे सिखाया था। सुषमा के करीब आते हुए अपर्णा ने कहा, ‘’जानती हूँ, तुम लोगों ने भी सुबह से कुछ नहीं खाया होगा।''

 

सुषमा : (सम्मान के साथ) दीदी आपको तो मालूम ही है कि आपके बाद ही मैं कुछ खाती हूँ।

सुषमा की यह आदत पिछले 25 साल से थी, जबसे वह अपर्णा और सुरेन्द्र के पास आई थी। उस समय सुषमा के परिवार वाले बिहार के किसी पिछड़े गांव में रहते थे। माली हालत खराब होने की वजह से सुषमा को अपर्णा के पास छोड़ कर गए थे। शुरू शुरू में जो भी वेतन सुषमा को मिलता था, वह उसके गांव, सीधे उसके माता पिता के पास भेज दिया जाता था, मगर कुछ साल बाद, जब सुषमा के माता पिता इस दुनिया से चल बसे तो उसके घर पैसे भेजना बंद कर दिया।  

ऐसा नहीं था कि उसकी मेहनत के पैसों को अपर्णा या उसका पति सुरेंद्र खुद रखते थे बल्कि उसके हिस्से के जो भी पैसे होते थे, वह सुषमा के अकाउंट में ही जमा कर देते थे। अपर्णा ने बड़ी बहन का फर्ज निभाते हुए कहा, ‘’अब तेरा भी परिवार है, तू उधर ज़्यादा ध्यान दिया कर।''

 

सुषमा : यह भी तो मेरा ही परिवार है। अब इसका ख्याल मैं नहीं रखूंगी तो कौन रखेगा।

सुषमा की अपनेपन भरी बातों ने अपर्णा को चुप करा दिया, सुषमा की सेवा और प्रेम को देख कर अपर्णा को लगा, “कोई तो अपना हमदर्द है”। उसकी आँखों में हल्की सी नमी आ गई। तभी, सुषमा एक प्लेट में पोहे लेकर उनके पास आई और कहा, ‘’आप इसे खाइए और बताइए, कैसा बना है।''

सुषमा ने प्यार से पोहे का पहला चम्मच अपने हाथों से अपर्णा को खिलाया। पोहा खाते ही अपर्णा ने कहा, ‘’पोहा तो अच्छा बना है मगर इसमें थोड़ा खट्टापन है।''

उनकी बात को सुन कर सुषमा थोड़ा उदास हो गई। उसका उदास चेहरा अपर्णा को बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा। उसने सुषमा के चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए तुरंत कहा, ‘’मुझे तो इतना खट्टापन अच्छा लगता है।''

अपर्णा ने जिस खूबसूरत अंदाज़ से अपनी बात को बदला था वह अपने आप में कमाल थी। सुषमा की कुछ समझ में आया हो या ना आया हो, उसे बस यही लगा कि दीदी यानि अपर्णा ने उसके पोहे की तारीफ की। उसके चेहरे पर मुस्कान आ गयी थी।

सुषमा को मुस्कुराते हुए देख अपर्णा और हरी दोनों मुस्कुरा दिये। एक सुषमा ही तो थी जो हर तरह से अपर्णा का ख्याल रखती थी। सुषमा और हरी को साथ देख अपर्णा को सुरेन्द्र जी की याद आ गई और याद आया, उनका संघर्ष। ज़िंदगी भर उन्होंने अपने परिवार को एक अच्छा जीवन देने केलिए संघर्ष किया। वह चाहते थे की उनके बच्चे भी जीवन में बहुत तरक्की करें और आगे बढ़ें।

उनका बेटा राहुल पढ़ाई में शुरू से ही होशियार था। उसने आई आई टी में एडमिशन लेकर अपने पिता का दूसरा मकसद और सपना पूरा किया। इंजीनियरिंग, फर्स्ट क्लास में पास किया, जिसके तुरंत बाद ही उसे अमेरिका से जॉब का ऑफर आया और वह अमेरिका चला गया।

सुरेंद्र ने जो चाहा था, वह हो गया था,  लेकिन आज… अपर्णा अपने बेटे को याद करते हुए इतनी खो गयी थी कि उसे याद ही नहीं रहा कि उसके सामने सुषमा, हरी और पोहा है। तभी सुषमा ने उनके हाथ को हिलाते हुए कहा, ‘’क्या सोच रही हो दीदी आप?''

 

अपर्णा : मैं बस यही सोच रही थी कि समय कितनी तेज़ी से आगे निकल जाता है। कल तक जो हमारे करीब थे, आज वह बहुत दूर है और जो दूर थे, आज वह करीब।

अपर्णा के कहने का मतलब यही था कि करोना काल से पहले सुरेंद्र उनके साथ थे मगर अब नहीं है। बेटा अमेरिका जाकर इतना बिज़ी हो गया कि उसे अपने पिता के श्राद्ध में आने का समय नहीं मिला। रही बात सुषमा की, उसके साथ ख़ून का कोई रिश्ता नहीं था मगर आज वही अपर्णा की अपनी थी, उसकी सबसे बड़ी हमदर्द थी । तभी सुषमा ने अपर्णा के हाथों के ऊपर अपने हाथ को रखते हुए कहा, हो सकता है सच में बिज़ी हो। वैसे भी, मैं हूँ ना। मैंने “दादा” के श्राद्ध की सारी तैयारी कर ली है। आपको चिंता करने की ज़रा सी भी ज़रुरत नहीं है।

सुषमा की बात सुन कर अपर्णा को बहुत अच्छा लगा। सुषमा सुरेन्द्र जी को दादा ही बुलाती थी। सुरेंद्र भी सुषमा को अपनी छोटी बहन के रूप में ही देखते थे। अपर्णा के साथ साथ सुषमा और हरी ने भी नाश्ता किया। तभी एक भारी भरकम आवाज़ आई।

सुषमा : लो आ गयी, एक और ड्रामेबाज़!

 

आखिर यह भारी भरकम आवाज़ किसकी थी?

सुषमा ने ड्रामेबाज़ किसके लिए कहा था?

क्या रोहन और बबलू सही समय पर मिल पहुंचेंगे?

चंट माया आगे क्या ड्रामा करने वाली है?

जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग।

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