उस वक़्त ध्रुवी के कमरे की खिड़की खुली थी। हवा बहुत ठंडी थी, पर ध्रुवी को सिहरन किसी और वजह से हो रही थी। आईने में एक परछाईं उभरी, जो धीरे-धीरे एक धुंध में तब्दील हो गई, ध्रुवी डर से लड़खड़ा कर फ़ौरन ही दो कदम पीछे हट गई। अगले ही पल उस धुंध में कुछ लफ़्ज़ उभरने लगे, मानो जैसे ये आईना बोलने लगा था, और उन लफ्ज़ों को उभरता देखकर ध्रुवी अंदर तक डर से बुरी तरह सिहर उठी थी!
कमरे में पसरी भयावह शांति के बीच, आईने की धुंध अब धीरे-धीरे पूरे शब्दों का आकार लेने लगी थी, जैसे किसी अदृश्य उंगली ने अंदर से उन लफ्ज़ों को वहां उकेरा हो। वो लफ़्ज़ कुछ यूं थे:
"जैसे मेरी, वैसे ही तेरी मौत भी होगी।”
ये लाइन पढ़कर ध्रुवी की साँस एक पल को जैस अटक गई थी। वह डर और घबराहट से बुरी तरह काँप उठी, उसके गले से एक धीमी सी चीख निकली, पर कमरे की दीवारों ने उसे अंदर ही अंदर घोंट लिया। ध्रुवी की साँस उसके ही हलक में अटक कर रह गई थीं।
"न-नहीं..." वह काँपती हुई पीछे हटी, और घुटनों के बल बैठ गई।
"ये... ये क्या था? क.....कौन... है" उसकी आवाज़ डर से सूख गई थी।
“न.....नहीं… ये किसी का खेल है… को.....कोई मज़ाक कर रहा है…श..शायद मुझे डराने की कोशिश”
उसने खु़ुद को तसल्ली देने के लिए जैसे खुद से ही फुसफुसा कर कहा, लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी उसकी आँखें आईने से नहीं हट सकीं। आईने की सतह अब एक बार फिर धुंधली हो रही थी। वो अल्फ़ाज़ धुंधलाते हुए खु़ुद ही वहां से मिटने लगे थे और फिर, वहीं एक आकृति और उभरी। लाल जोड़ा, खुले बाल… चेहरा धुंध में छुपा हुआ…लेकिन आँखें तेज़, जलती हुई, जैसी अनाया की थीं, मानो किसी जलते अंगारे की तरह चमक रही हों।
ध्रुवी का गला सूख गया। उस आकृति ने आईने की ओर हाथ बढ़ाया… और अचानक आईना ‘टिन टिन’ की आवाज़ के साथ दरकने लगा, जैसे अंदर से कोई उसे नाखूनों से खरोंच रहा हो।
“रु.....रुक जाओ… ब.....बस करो ये सब…”
ध्रुवी पीछे की ओर ज़मीन पर घिसटते हुए कह रही थी, उसकी आवाज़ थरथरा रही थी। और जैसे ही वो हाथ ध्रुवी की गर्दन को दबोचने के लिए तेज़ी से बढ़ा, तभी दरवाज़ा ज़ोर से खुला।
अर्जुन भीतर आया, उसकी आँखों में चिंता और साँसें तेज़। और उसी पल आईना चुप। सब कुछ सामान्य, ना कोई धुंध, ना कोई लफ़्ज़, ना कोई परछाईं, जैसे कुछ हुआ ही ना हो।
ध्रुवी ने पीछे हटते हुए दीवार का सहारा लिया। उसकी छाती तेज़ी से उठ-गिर रही थी, मानो अभी उसका दम निकल जाएगा।
"क.....क्या था य.....ये सब…" ध्रुवी ने डर से कांपते हुए बड़बड़ाया।
"ध्रुवी!" अर्जुन ने देखा, वो ज़मीन पर बैठी काँप रही थी।
“क्या हुआ? सब ठीक है?”
अर्जुन ने चिंता जताते हुए सवाल किया, तो ध्रुवी ने काँपते हाथों से उस आइने की ओर इशारा किया।
“आ.....आईना… व.....वहाँ… कुछ लिखा था, कोई..... कोई था वहां अभी।”
अर्जुन तेज़ी से उस ओर बढ़ा। आईने पर अब कुछ नहीं था, बस धुंध और उस पर उसकी उलझी हुई उंगलियों के निशान, जो उसके डर और दहशत की गवाही दे रहे थे।
"यहाँ कुछ नहीं है…" अर्जुन ने धीमी आवाज़ में कहा, लेकिन ध्रुवी की हालत देखकर वो खुद भी हड़बड़ाया हुआ था।
"मैंने खुद देखा है अर्जुन!" ध्रुवी लगभग डर से चीख पड़ी। “कु.....कुछ… कुछ लिखा था! उसी आईने पर… जैसे मैं मरी..... वैसे ही तुम भी मरोगी।”
सुनकर अर्जुन थोड़ी देर चुप हो गया।
“ध्रुवी… हो सकता है आप थकी हुई हों। बहुत कुछ देखा है इन पिछले दिनों आपने। कभी-कभी दिमाग़ वो सब कुछ जोड़ लेता है जो है ही नहीं।”
"तो क्या मैं पागल हूँ?" ध्रुवी ने नम आंखों से अर्जुन से पूछा।
"नहीं…" अर्जुन ने उसकी ओर बढ़ते हुए कहा, "आप बस टूटी हुई हैं, और हम बस इतना चाहते हैं कि आप ठीक हो जाएं। इसलिए, कुछ देर के लिए सब बातों से ध्यान हटा कर आप सो जाएं।" अर्जुन ने सहजता से कहा।
ध्रुवी के चेहरे पर डर अब भी था, लेकिन उसने धीमे से सिर हिला दिया। अर्जुन ने उसकी आँखों में देखा और हल्के से उसका सिर सहलाया।
"सब ठीक हो जाएगा, हम हैं ना आपके साथ।" अर्जुन ने ध्रुवी को आश्वासन दिया।
कमरे में हल्का अंधेरा पसरा हुआ था। सिर्फ मेज पर रखा छोटा-सा लैम्प जल रहा था। हवाओं में एक अजीब ठहराव था, जैसे कोई रुका हुआ साँस ले रहा हो।
ध्रुवी अब बेड पर लेटी हुई थी, बाल बिखरे हुए, चेहरा थका और बुझा हुआ, लेकिन उसकी आंखें वो अब भी बुरी तरह डरी हुई थीं। आईना सामने था, मानो उसे घूर रहा हो।
और उसमें अब कोई चेहरा नहीं, सिर्फ़ एक धुंधली परछाई झिलमिला रही थी, जो किसी भयावह रहस्य की तरह लग रही थी।
"कुछ देर के लिए आप सो जाइए, आप बेहतर महसूस होगा, हम यहीं हैं।" अर्जुन ने फ़िक्र भरे लहज़े से ध्रुवी से कहा।
ध्रुवी ने अपनी आँखें मूंद लीं, अर्जुन ने धीरे से आईने को ढका और बत्ती बुझा दी। ध्रुवी के सोने के बाद कुछ देर और अर्जुन उसके पास ही बैठा रहा, फिर आहिस्ता कदमों के साथ उठकर वो कमरे से बाहर चला गया।
(अगले दिन महल का मुख्य सभागार!)
आज महल में अव्या का गृह-संस्कार था, शाम हो चुकी थी, पूरा महल दुल्हन की तरह सजा था, दीप जलाए जा चुके थे, मेहमान, पुरोहित, दाई मां, सभी मौजूद थे।
ध्रुवी लाल रंग की पारंपरिक राजपरिवार की साड़ी में सजी थी, माथे पर सिंदूर, गहनों से सजी, एक रानी की तरह, लेकिन आँखों में बहुत अलग ही भाव थे। अर्जुन एक गरिमामय शाही पोशाक में और उसकी गोद में अव्या थी, जो चंचलता से सबको देख रही थी।
पंडित जी: आज शिशु अव्या के नाम से जुड़े गृह-संस्कार और कुल-पोषण का पुनः शुभारंभ हो रहा है। राजपरिवार की परंपरा के अनुसार, रानी-सा के हाथों 'कुल-धारा तिलक' किया जाएगा, ताकि यह बंधन केवल खून का नहीं, आत्मा का बन जाए।
इसी के साथ ध्रुवी को आगे बुलाया गया, वह धीरे-धीरे मंच की ओर बढ़ी। उसका हर क़दम शाही था, मानो यही उसकी पहचान हो, मगर इस सब से अलग उसके भीतर एक बेचैनी दबी थी।
पंडित जी ने थाल आगे बढ़ाई, तिलक की थाली, अक्षत, चंदन, दीपक।
ध्रुवी (मन में): कितनी अजीब बात है, ये मेरी बेटी ही नहीं फिर भी मैं इसकी माँ बनने का नाटक कर रही हूँ।
उसने अव्या के माथे पर तिलक लगाया, वो मासूमियत से मुस्कुरा दी, ध्रुवी का दिल मानो मोम की मानिंद पिघल गया।
अव्या (मुस्कुराते हुए): मम्मा।
सभी महलवासियों ने ताली बजाई।
दाई मां (मुस्कुरा कर): अब तो राजमहल की लक्ष्मी ने ग्रह संस्कार भी कर दिया, अब सब अच्छा ही अच्छा होगा।
पंडित जी (सहजता से ध्रुवी से): अब रानी-सा, आप दीप लेकर कुल-द्वार की परिक्रमा करें ताकि महल की और हुकुम सा की रक्षा बनी रहे।
ध्रुवी (धीमे लहज़े से): जी।
ध्रुवी ने दीपक उठाया, और जैसे ही वह दो कदम चली दीपक की लौ अचानक बुझ गई, पूरा सभागार एक पल के लिए स्तब्ध हो गया, पंडित जी हड़बड़ा गए।
“ये, ये तो अशुभ संकेत है, दीपक का यों बुझ जाना।”
ध्रुवी के हाथ ठिठक गए, अव्या अचानक रोने लगी, ध्रुवी को घबराया देख अर्जुन तेजी से उठा और ध्रुवी के पास आ गया।
अर्जुन (सहजता से): कोई बात नहीं, शायद हवा का झोंका था।
पंडित (चिंतित स्वर में): पर यह सभागार पूरी तरह बंद है, हुकुम सा, अंदर कोई हवा नहीं चल रही थी, फिर कैसे?
दाई मां (टोकते हुए): रुकिए! (अचानक डरते हुए) ये, ये तो अजीब गंध है, ये अगरबत्ती की नहीं, ये किसी जली हुई चीज़ की गंध है!
कजरी (सोचते हुए): पर रसोई में तो कुछ भी नहीं जला, फिर ये गंध कहां से आ रही है?
मीरा (चिन्तित भाव से): हमें तो ऐसा लग रहा है जैसे कोई कोई छाया हमारे बीच से गुज़री हो अभी अचानक!
अर्जुन (मीरा को टोकते हुए): बस कीजिए मीरा, कैसी बच्चों जैसी बातें कर रही हैं, लौ थी, हवा से बुझ गई होगी, फ़िज़ूल में आप लोग परेशान हो रहे हैं (पंडित जी की ओर देखकर) पंडित जी आगे की प्रकिया बताएं।
पंडित जी (गंभीरता से): हुकुम सा अब आप और महारानी सा कुल देवता से अपनी मनोकामना मांग लें, साथ ही राजकुमारी अव्या की दीर्घायु और स्वस्थ जीवन के वरदान की भी प्रार्थना करें, उसके बाद सिंदूरदान की रस्म अदा होगी, कुलदेवता के चरणों में सिंदूर अर्पण करना होगा, ताकि ये महल और यहां के लोग हर बुरी दृष्टि, नज़र और सायों से दूर और सुरक्षित रहें।
अर्जुन (हौले से अपना सर हिलाते हुए): ठीक है, चलिए फिर हम आगे की रस्म अदा करते हैं।
(कुछ देर बाद!)
आरती की तैयारियाँ चल रही थीं। माथे पर भस्म, थाल में दीप, फूलों से सजा चौकी और उस पर रखी एक नन्ही-सी चांदी की सिंदूरदान, दाई मां, कजरी, मीरा और बाकी स्त्रियाँ भी पास थीं। ध्रुवी चुपचाप खड़ी थी सिर पर घूंघट, एकदम शांत।
कजरी (ध्रुवी की ओर देखकर): महारानी-सा के आने के बाद से पूजा में एक अलग ही ऊर्जा है ना, दाई मां?
दाई मां (गंभीरता से): हां पर आज जाने क्यों मन बड़ा भारी-सा है, रात भर नींद भी टूटती रही, फ़िर अब दीपक की लौ का बुझ जाना सब बड़ा अजीब सा है।
मीरा (सहजता से): आप फ़िक्र मत कीजिए, सब ठीक होगा दाई मां।
दाई मां ने एक गहरी सांस लेते हुए हौले से हां में अपनी गर्दन हिला दी, तभी अव्या जो अब मीरा की गोद में थी भागती हुई सीधा ध्रुवी की साड़ी से जाकर लिपट गई।
अव्या (धीरे-धीरे): म..... म..... मम्मा।
ध्रुवी (हल्का झुककर): आ जाइए हमारे पास।
अव्या (रोते हुए): ओ ओ आँ आँ।
अव्या की भाषा टूटी-फूटी थी लेकिन उसमें डर साफ था, ध्रुवी और अर्जुन के चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आईं।
अर्जुन (अव्या की ओर देखकर): अचानक इन्हें क्या हुआ?
ध्रुवी (चिंता भरे भाव से): शायद किसी चीज़ से डर गई हैं।
अर्जुन (हल्के स्वर में): शायद अव्या ने कोई खिड़की से परछाई देख ली हो।
मीरा (हँस कर): अरे! आप लोग बेवजह परेशान हो रहे हैं, बच्चों को तो कुछ भी सपना लग जाता है, शायद नींद में डर गई होंगी (ध्रुवी की गोद से अव्या को लेने हुए) लाइए इन्हें हम संभालते हैं, आप लोग पूजा पर ध्यान दीजिए।
ध्रुवी ने मीरा की बात पर सहमति जताते हुए अव्या को उसकी गोद में थमा दिया, फिर अर्जुन के साथ पूजा में बिज़ी हो गई, जबकि दाई मां ने अचानक अपना माथा सिकोड़ लिया था।
"ऐसा लग रहा है, ये महल जाने कब से कुछ कहना चाहता है।" दाई मां ने हौले से बड़बड़ाया।
इसी के साथ अर्जुन और ध्रुवी ने अपनी आँखें बंद करते हुए हौले से अपनी प्रार्थना बड़बड़ाई।
ध्रुवी (अपनी आंखे बंद करते हुए): हे देव! बस हमेशा हमारा साथ दीजिएगा, हमारी अव्या और अपनो को हमेशा महफूज़ रखिएगा।
अर्जुन भी ध्रुवी के साईड में बैठा था, हाथ जोड़कर, सिर झुकाए।
अर्जुन (हौले से): हे देव, हमारी अव्या को एक स्वस्थ और लंबा जीवन दीजिएगा, साथ ही अगर हमारी वजह से किसीका जीवन दुखद हो गया है तो हमें सज़ा दीजिए (खुद को देखती ध्रुवी की ओर देखकर) लेकिन उन्हें सुकून दीजिए।
पंडित जी (ध्रुवी और अर्जुन की ओर देखकर): अब आप दोनों अपने वैवाहिक जीवन की सुख-शांति और सुखमय जीवन और अटूट साथ के लिए एक साथ सिंदूर दान की रस्म अदा कीजिए।
पंडित जी की बात पर ध्रुवी और अर्जुन ने हौले से अपनी गर्दन हिलाते हुए सहमति जताई, और जैसे ही दोनों सिंदूर की डिबिया की ओर बढ़े कि तभी पूजा की चौकी पर रखी वो सिंदूर की डिबिया ज़ोर से उछली जैसे मानो किसी ने उसे ऊपर फेंका हो।
“ठप्प।”
वो सिंदूर की डिबिया ठप की आवाज़ के साथ सीधा दीवार पर जा गिरी और वहाँ एक लंबी, सीधी सिंदूर की रेखा बन गई।
पूरा कमरा सन्न हो गया। सिंदूर ऐसे गिरा था, जैसे किसी ने दीवार पर मांग भर दी हो। कजरी का मुंह खुला का खुला रह गया।
कजरी (सकपकाकर): में...मैंने तो सिंदूर को ढंका था, ए... ऐसे कैसे?"
दाई मां थरथरा गईं। “ये अच्छा संकेत नहीं है।”
पंडित जी बुरी तरह हड़बड़ा गए। “बहुत बड़ा अपशगुन है ये, एक ही पूजा में ये दूसरा विघ्न है, यानि किसी बड़ी अनहोनी का अशुभ संकेत।”
मीरा डर से बौखला कर, “य, ये सब आख़िर हो क्या रहा है पंडित जी?”
"ऐसा लग रहा है, जैसे ये किसी स्त्री की अधूरी पुकार है।" पंडित जी ने सिंदूर की रेखा को देखते हुए बड़ी ही गंभीरता से कहा।
तभी अव्या भी अचानक तेज़ी से रोने लगी। ध्रुवी ने उसे तुरंत अपनी गोद में थाम लिया। उसकी आँखें उस रेखा पर थीं, डर, ख़ौफ़, असहजता सब कुछ उसके चेहरे पर साफ़ झलक रहा था।
जबकि इन सबसे अलग अर्जुन बिल्कुल स्तब्ध था, उसे अभी भी ये सब महज़ एक इत्तेफाक लग रहा था या यूं कहें उसका मन इसे इत्तेफाक ठहराना चाहता था।
अर्जुन ने आगे बढ़कर सिंदूर को उठाया। उसके हाथ थोड़ी देर काँपे, फिर उसने पलटकर कहा।
“शायद आप लोग ज़्यादा सोच रहे हैं, शायद कजरी ने ही इसे सही से नहीं रखा था।”
अर्जुन ने जैसे दूसरों से ज़्यादा ख़ुद को इस बात की तसल्ली देने की कोशिश की थी।
ध्रुवी (अर्जुन की ओर देखकर): या फिर कोई और रख गया?
ध्रुवी की बात सुनकर अर्जुन की आँखें एक पल के लिए ध्रुवी की ओर मुड़ीं, जहां डर की कई लकीरें खिंची थी।
तभी अचानक एक अजीब सी आवाज़ के साथ वहां मौजूद सभी लोगों की की नज़रें एक साथ दीवानख़ास के ऊपरी स्तंभों की ओर गई।
महल में सन्नाटा, सबके चेहरे पीले पड़ गए थे, पंडित जी मौन थे और पहली बार अर्जुन की आँखें दीवानख़ास के ऊपरी स्तंभो को देख कर घबराहट से फैल गई थीं और पहली बार ही उसके चेहरे पर डर की लकीरें साफ़ उभरी थीं। क्योंकि अब वहां..…
(ऐसा क्या हो गया था दीवानख़ास के ऊपरी स्तंभों पर जिसने पहली बार अर्जुन को भी खौफजदा कर दिया था? क्या है आख़िर ये असल माजरा? जानने के लिए पढ़ते रहिए "शतरंज–बाज़ी इश्क़ की"!)
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