संदूक खुला था, और रिया के हाथों में अब उस डायरी के वो राज थे, जिसने बरसों से राजघराना महल के तहखाने में छिपे सच को सीने से लगाकर रखा था। राज राजेश्वर सिंह की लिखाई के साथ आज एक-एक कर उसके सारें कांडों का खुलासा होने वाला था। आज का दिन राज राजेश्वर के लिए किसी काल से कम नहीं था, क्योकि बीस साल पहले लिखी गई इस रहस्यमई डायरी का हर अक्षर जैसे समय के काले सच को चीरता जा रहा था। जिसे पढ़कर रिया और विराज के साथ-साथ मुक्तेश्वर के भी होश उड़ रहे थें। विराज ने रिया के हाथ से उस डायरी को लेकर पढ़ना शुरु किया।
“मैं राज राजेश्वर सिंह, उस दिन की सारी सच्चाई लिख रहा हूं, जिसे मैंने जला तो दिया… लेकिन पूरी तरह मिटा न सका…”
इतना कह विराज ने पन्नों को पलटना शुरू किया। हर पन्ने के साथ चौकती उसकी आंखें किसी अपराध की नंगी परछाइयों से मिल रही थीं, वहीं रिया की आंखों में वह रोशनी थी जो महीनों से अंधेरे में कैद सच्चाई को तलाश रही थी। कि तभी विराज ने धीरे से रिया के कान में कुछ कहा…
“इस डायरी में... रिया, ये वही रात है… वही खून की रात का जिक्र है…”
ये सुन रिया ने हैरान-परेशान पूछा, “किसके खून की रात का जिक्र है इसमें विराज, तुमने अब तक नाम का खुलासा नहीं किया”
विराज रिया के इस सवाल का जवाब देने के लिए एक बार फिर उसके कानों के करीब जाता है, लेकिन तभी बाहर से एक हलचल की आवाज आई। कोई तेज़ी से तहखाने की तरफ बढ़ रहा था। ऐसे में रिया ने डायरी को अपने दुपट्टे में लपेटा।
“इस डायरी को हमें जल्द से जल्द वापस वहीं रखना होगा, क्योंकि अभी हम दुश्मन को ये नहीं बता सकते कि हम इस लाल डायरी के बारे में जानते है। वरना वो इसे भी उस काली बहीखाता डायरी की तरह जला देंगे और फिलहाल ये हमारे पास एकलौता लिखित कुबूलनामा है, तो चलों विराज इसे वापस वहीं रख छुप जाते हैं।”
तभी सीढ़ियों से उतरती एक कांपती हुई आवाज़ गूंजी— “रुक जाओ… मुझे भी… सब कुछ कहना है…”
ये आवाज़ प्रभा ताई की थी, जिसे सुन विराज, रिया और मुक्तेश्वर तीनों रुक गए। प्रभा ताई की चाल धीमी थी, मगर उनकी आंखों में बरसों से जमी ग़लतफहमी की परतें अब उतर गई थीं। उन्होंने रिया के पास आकर कांपती हथेली से डायरी को छूआ, फिर सिसकती आवाज़ में बोलीं— “तुम्हें सब जानने का हक है… और मुझे अब बोझ उतारने की ज़रूरत है… वरना मैं मर जाऊंगी रिया… बिना सच्चाई कहे मर जाऊंगी।”
प्रभा ताई की ये बात सुन जहां रिया भौच्चका हो गई, तो वहीं विराज ने चौंककर पूछा, “आप किस बारे में बात कर रही हैं प्रभा ताई?”
ये सवाल सुनते ही प्रभा ताई दीवार से टेक लगाकर बैठ गईं। उनकी सांसें तेज़ हो रही थीं, लेकिन शब्द अब थमे नहीं। वो ऐसे बोलीं, जैसे आज एक सांस में अपने पापों का प्राश्चित करना चाहती हो— “जिस रात रेनू की मां पर हमला हुआ था… वो गजराज नहीं था…”
प्रभा ताई के इतना कहते ही वहां सन्नाटा पसर गया। मुक्तेश्वर ने फटी आंखों से पलटकर प्रभा ताई की तरफ देखा। तो रिया ने धीरे से पूछा— “तो कौन था, प्रभा बुआ जी?”
प्रभा ताई की आंखों से बहते आंसुओं की धार तेज़ हो गई। उनकी आवाज़ कांपी, पर अब कोई हिचक नहीं थी— “वो… राज राजेश्वर था…”
प्रभा ताई के इस खुलासे ने रिया और विराज को जैसे किसी ने बिजली का झटका दे दिया। ताई ने आगे कहा— “रेनू की मां... एक समय इस राजघराने में काम करती थी। पर वो सिर्फ नौकरानी नहीं थी। वो इस खानदान के खून से जुड़ी थी। ये तो सब जानते थे कि वो हमारे पापा गजराज सिंह की रखैल थी, पर ये कोई नहीं जानता था कि उन्हें राज राजेश्वर की जिंदगी का सबसे बड़ा सच पता था।
...और जब राज राजेश्वर को ये पता चला, कि उसे सब पिताजी ने बीस साल पहले उसी रात बता दिया था, जिस रात उन्होंने भीखूं और राज राजेश्वर को तहखाने में एक साथ पकड़ा था। ऐसे में राज राजेश्वर ने जिस रात शारदा ने रेनू को जन्म दिया उसी रात एक दाई को भेजकर उसे मरवा दिया, लेकिन मैंने किसी तरह उसे बचा लिया और तब से मैंने शारदा को जिंदा रखने के लिए उस तहखाने में सबसे छिपा कर बंद रखा था।”
“लेकिन आपने हमेशा गजराज सिंह को दोषी ठहराया…” विराज बोला।
विराज के इस सवाल के जवाब में प्रभा ताई बोलीं— “क्योंकि वो मेरा फर्ज़ था, मेरे कहने पर पिताजी ने आज तक राज राजेश्वर के गुनाहों पर चुप्पी साध रखी थी। मैं नहीं चाहती थी कि इस घर का नाम और रसूख मिट्टी में मिल जाए। इसलिए मैंने बीस साल पहले झूठी गवाही दी… ताकि खानदान की इज्ज़त पर आंच ना आये। लेकिन अब जब मैं देख रही हूं कि इसी खानदान ने पहले मेरे छोटे भाई मुक्तेश्वर को और फिर अब उसके एकलौते बेटे गजेन्द्र जैसे बेगुनाह को जेल में झोंक दिया… तो मैं अब और नहीं झूठ बोल सकती।”
प्रभा ताई की बाते सुन रिया की आंखों में आंसू थे, पर उनमें क्रोध की लपट भी साफ थी। ऐसे में उसने काफी गुस्से भरे लहजें में कहा— “प्रभा ताई, अब आप ये सब कोर्ट में कहने के लिए तैयार हो जाइए… क्योंकि अब इस सच्चाई को दबाया नहीं जाएगा। गजेन्द्र वहां हर दिन मौत से सामना कर रहा है, मैं चाहती हूं अगली सुनवाई में आप इस सच का खुलासा करें।”
जहां एक तरफ रिया को गजेन्द्र की बेगुनाही में पहला सटीक गवाह मिल गया था, तो वहीं दूसरी ओर जेल के उस पार, गजेन्द्र को भी वकील से खबर मिल चुकी थी कि उसकी अर्जेंट सुनवाई कल ही है। वह चुपचाप भानूप्रताप के साथ बैठा था, “भानू, कल का दिन सिर्फ मेरी ज़िंदगी नहीं बदलेगा… शायद उस दिन मैं अपने वादे का पहला हिस्सा निभा पाउं।”
भानूप्रताप की आंखों में चमक आई, लेकिन उसने एक और सवाल किया— “अगर तेरा नाम बरी नहीं हुआ, तो?”
गजेन्द्र ने उसकी तरफ देखा और बोला— “तो मैं जेल के अंदर से लड़ूंगा। लेकिन वादा नहीं टूटेगा, भानू। तू देख, मैं तुझे इंसाफ दिलाकर रहूंगा। मेरी लड़ाई तो मेरे अपनों से है इसलिए मैं अपनी जंग में कुछ सोच ही नहीं पा रहा हूं, लेकिन तेरी जंग मैं तुझे कभी हारने नहीं दूगां। तुझे इस जेल से बेगुनाह रिहा करके ही सांस लूंगा।”
अगली सुबह, राजघराना के महल में हलचल थी। रिया और मुक्तेश्वर प्रभा ताई को कोर्ट जाने तक इस मुद्दे पर किसी से भी बात ना करने की रिक्वेस्ट कर रहे थे। सामने बैठी प्रभा ताई बुरी तरह से कांप रही थीं, तभी रिया ने उनका हाथ थामा, “आपने अब तक जो सहा, वो किसी बहादुर से कम नहीं था ताई… अब सिर्फ एक आखिरी लड़ाई बाकी है।”
रिया की ये बात सुन प्रभा ताई फिर लड़खड़ाती आवाज में बोली— "मैं ये जंग लड़ तो पाउंगी ना, रिया… तुम जानती हो ना मैं तुम्हारी तरह मजबूत लड़की नहीं हूं।"
प्रभा ताई की ये बात सुनते ही रिया ने उनके दोनों हाथों को अपनी हथेलियों में थामा लिया, “आप फिक्र मत करिये ताई, मैं आपकों कुछ नहीं होने दूंगी और गजेन्द्र भी जल्द छूट जायेगा। लेकिन फिलहाल मुझे कुछ और सबूत जुटाने विराज के पास जाना होगा। मैं आप से शाम को वापस आकर मिलती हूं, तब तक आप अपने दिल और दिमाग को शांत रखियें।”
इतना कह रिया वहां से सीधे विराज के घर चली गई। दूसरी ओर मुक्तेश्वर ने अपनी बड़ी बहन प्रभा ताई को संभाला और कुछ देर में जब वो गई तो उन्हें उनके कमरे में छोड़ आया।
महल में, गजराज सिंह को भी ये एहसास होने लगा था, कि कुछ तो ऐसा चल रहा है जो राजघराना की दीवारों को दहलाने वाला है। मुक्तेश्वर की परिवार से बगावत के बारें में तो वो हमेशा से जानता था, लेकिन अब बेटी प्रभा भी बगावत के सुर बुलंद कर चुकी है इस बात की गजराज को भनक तक नहीं थी। ऐसे में उसने अपने पुराने नौकर को बुलाकर बस इतना कहा— “क्या आज सच सामने लाने की तैयारी चल रही है…? अगर हां, तो समझ जाना, एक और खून की रात आने वाली है। उसे आज के आज बुलाओं और मेरे पास भेजो।”
गजराज की बातों से साफ था कि महल की उस शांत दीवारों में फिर से साज़िश की सरसराहट दौड़ गई थी। गजराज सिंह अपनी छड़ी के सहारे हवेली की बालकनी में खड़ा राजगढ़ के सूरज को डूबते हुए देख रहा था, पर आज का सूर्यास्त सिर्फ एक दिन का अंत नहीं था, बल्कि एक झूठे साम्राज्य की सच्चाई के गिरने की आहट था। ये ही वजह थी की उस डूबते सूरज को देख गजराज की आखों में आसूं आ गये और वो खुद से बड़बड़ाते लगा।
मेरी किस्मत भी ऊपर वाले तूने खूब लिखीं, दो बेटे दिये… पहला जिसे मेरी सत्ता, मेरे सम्राज्य और मेरे इस सपनों के महल राजघराना में कोई दिलचस्पी नहीं है। और दूसरा वो कभी इस खानदान को वारिस नहीं दे सकता… क्योंकि उस तो औरतों के साथ…
गजराज अपने शब्द पूरे करता उससे पहले उसे कदमों की आहट सुनाई दी। वो पीछे मुड़ा तो देखा उसका सबसे पुराना सेवक रघुवीर आया और बोला— "हुकुम, आपने बुलाया?"
गजराज ने बिना पीछे देखे कहा— "रघुवीर, क्या वो पुरानी सीढ़ियाँ अब भी तहखाने तक जाती हैं?"
रघुवीर कुछ पल चुप रहा और फिर धीरे से बोला— “हां… लेकिन उधर अब कोई नहीं जाता, बड़े हुकुम…”
रघुवीर की ये बात सुनते ही गजराज के चेहरे पर एक हल्की मुस्कान आई। चौका देने वाली बात ये थी कि उसकी ये मुस्कान ऐसी थी मानों तूफान से पहले एक शातिर सन्नाटे को समेटे हों। इसके बाद उसने रघुवीर से कुछ ऐसा कहा, जिसे सुन उसके भी चेहरे की हवाइयां उड़ गई।
"जल्द ही कोर्ट में गजेन्द्र के केस की सुनवाई है, देखों गजेन्द्र की आजादी हमें भी चाहिए… क्योंकि वो एकलौता पोता है हमारा जो हमारे बाद हमारी कुर्सी और इस राजघराना को संभाल सकता है। लेकिन इसका ये हरगिज मतलब नहीं है कि गजेन्द्र को बचाने के लिए हम पूरे राजस्थान में लोगों को हमारे ऊपर धूं-धूं करने का मौका दे दे। राज राजेश्वर का सच जो भी सामने लाने की कोशिश करें उसे मौत की नींद सुला दो।
"य...य...ये आप क्या कह रहे हैं हुकुम सा… एक बार फिर आप मुक्तेश्वर हुकुम सा यानि अपने ही बेटे को फिर से धोखा देने के लिए कह रहे हैं?”
रघुवीर की ये बात सुनते ही गजराज गुस्से से तिलमिला उठा और पलट कर अपनी तलवार निकाल उसे रघुवीर की गर्दन पर रखते हुए बोला।
"जबान को लगाम दो रघुवीर… हम बूढ़े हुए है, तलवार चलाना नहीं भूले, समझे। कोई हमारी हस्ती हमारे राजघराना पर उंगलियां उठाये और हम उसे बक्श दे, हरगिज नहीं। और हां, मैं नहीं चाहता कि मेरे खानदान का नाम किसी औरत के बयानों और उस सड़ी हुई डायरी की वजह से मिट्टी में मिल जाए। उसे दुबारा ढूंढों और आग के हवाले करों आज के आज। वरना मैं तुम्हें चिता की आग में झोक दूंगा, याद रखना।
गजराज की आवाज में आज एक बार फिर वहीं बीस साल पुराना हुकुम सा झलक रहा था। ऐसे में ये सब सुन रघुवीर चौंक गया और कांपती हुई आवाज में पूछा — “आप… आप क्या करना चाहते हैं, बड़े हुकुम सा...?”
गजराज मुड़ा, उसकी आंखें अब किसी राजा की नहीं, एक शिकारी की तरह लग रही थीं, “जो बीस साल पहले नहीं हो सका, उसे अब पूरा करना होगा। अगर एक बार फिर राजघराना की ये दीवारें खून से लाल करनी पड़े तो कर डालों… पर यहां की मैल किसी को नजर नहीं आनी चाहिए, रघुवीर।”
एक तरफ गजराज फिर साजिशों से भरे जंग के मैदान में कूंद गया था, तो उधर रिया विराज के घर पहुंची ही थी, जब उसने दरवाज़ा खटखटाया और काफी देर तक कोई जवाब नहीं मिला। ऐसे में उसने मोबाइल निकाला, और विराज का नंबर डायल करने लगी, लेकिन तभी दरवाज़ा खुद-ब-खुद खुला।
विराज का ड्राइंग रूम पूरी तरह अस्त-व्यस्त था। कुर्सियां उलटी पड़ी थीं, एक फूलदान टूटा हुआ था, और ज़मीन पर बिखरी डायरी की तस्वीरें इस बात की गवाही दे रही थीं कि कोई यहां बहुत जल्दबाज़ी में कुछ ढूंढ रहा था।
विराज के घर के हालात देख रिया की सांसें रुक गईं। उसकी नज़र जैसे ही दीवार पर गई, वहां कोयले से लिखा एक शब्द था— “शुरुआत तुमने की, लेकिन अंत मैं लिखूंगा…”
ये पढ़ते ही रिया के होठ कांपने लगे। उसके हाथों से उसका फोन जमींन पर गिर गया। उसने भागकर विराज के घर के लैंडलाइन नंबर से तुरंत मुक्तेश्वर को कॉल लगाया— “अंकल… अंकल… विराज गायब है… और लगता है कोई डायरी के पीछे पड़ा है। शायद… गजराज सिंह को सब पता चल गया है।”
मुक्तेश्वर उस समय प्रभा ताई के कमरे के बाहर ही खड़ा था। कॉल काटते ही उसने दरवाज़ा खोला, तो अंदर का नजारा देख उसकी आंखें भी फटी की फटी रह गई। दरअसल अंदर बिस्तर खाली था, जिसे देख वो चिल्लया— “प्रभा ताई…?”
कमरे में सन्नाटा था। खिड़की के पर्दे हवा में हिल रहे थे… और तकिए पर एक चिट्ठी पड़ी थी। मुक्तेश्वर ने थरथराते हाथों से चिट्ठी खोली और पढ़ने लगा— “माफ करना मेरे छोटे भाई मुक्तेश्वर… लेकिन यह जंग अब मेरी नहीं रही। कुछ सच ऐसे होते हैं जिन्हें साथ लेकर जीना पड़ता है… क्योंकि कभी-कभी सच्चाई से बड़ा अपराध… उसका उजागर होना होता है…”
ये पढ़ते ही मुक्तेश्वर टूट जाता है, कि तभी उसे रेनू आकर बताती है कि महल के सबसे पुराने तहखाने में किसी ने आज रात एक दिया फिर से जलाया है। काली छाया के बीच, कोई एक बार फिर "खून की रात" को दोहराने चला है। अब हम क्या करेंगे?
आखिर ऐसे एक रात में कहां गायब हो गए विराज और प्रभा ताई?
क्या बेगुनाह गजेन्द्र कभी बरी हो पायेगा रेस फिक्सिंग के आरोप से?
और कौन घुसा था कल रात विराज के कमरे में?
जानने के लिए पढ़ते रहिये राजघराना का अगला भाग।
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